परिवार संस्था का नव निर्माण नारी जागरण से ही होगा

November 1975

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व्यक्ति-निर्माण के लिए धर्म और अध्यात्म का विशाल तन्त्र दूरदर्शी मनीषियों ने चिरकाल पूर्व खड़ा किया था। वह प्रयास मानवी स्तर को देव स्तर तक पहुँचाने में पूरी तरह सफल रहा, इसके लिए अपना पुरातन इतिहास साक्षी है। आज उन क्षेत्रों में विकृतियाँ घुस पड़ी हैं। अवाँछनीयताओं की घुसपैठ से निहित स्वार्थों का पोषण और भोले भावुकों का शोषण हे रहा है तो भी यह आशा है कि आज नहीं तो कल इन तन्त्रों की सफाई होगी और न पहले की तरह अपनी उपयोगिता सिद्ध करने लगेंगे।

समाज-निर्माण का उत्तरदायित्व संभालने के लिए ही शासन तन्त्र की संरचना है। उसमें जो कमी रह जाती है उसे समाज सुधार संस्थाएं पूरा करती हैं। धर्म परम्पराएं भी इस प्रयोजन में सहायता करती हैं। इस क्षेत्र में अन्य रचनात्मक हलचलें भी चलती रहती हैं। छोटे-बड़े सम्मेलन प्रायः सामूहिकता और लोकहित का ही वातावरण उत्पन्न करते हैं। यों इन दिनों वह चेतना भी दिग्भ्रान्त ही हो रही है और अनीति को प्रश्रय दे रही है फिर भी इस क्षेत्र को संभालने के लिए कोई तन्त्र विद्यमान है और यह आशा बनी हुई है कि उसे सुधार देने पर सतयुगी परिस्थितियाँ फिर पैदा की जा सकती हैं।

व्यक्ति-निर्माण और समाज-निर्माण के बीच की एक महत्वपूर्ण कड़ी है- परिवार-निर्माण। इसका दोनों के साथ ही अति घनिष्ठ और प्रभावकारी संपर्क है। व्यक्ति का वास्तविक निर्माण पारिवारिक वातावरण में ही होता है। बचपन के आरम्भिक संस्कार यहाँ से आरम्भ होते हैं, धीरे-धीरे परिपक्व होकर वे ही व्यक्तित्व का रूप धारण करते हैं। समाज की माला परिवारों के मोतियों से ही पिरोकर बनती है। परिवार छोटे हों या बड़े वस्तुतः वे अपने आप में एक पूरा समाज हैं। उसके संचालक को भी अपने क्षेत्र के राष्ट्रपति या प्रधान मन्त्री की भूमिका निभानी पड़ती है और सरकार को जिस प्रकार देश की विभिन्न समस्याओं को संभालना पड़ता है, उसी प्रकार परिवार के अनेक सदस्यों के बीच विचित्र भिन्नता के बीच तालमेल स्थापित करना पड़ता है। सरकार की तरह विभाग भले ही न बनें, मन्त्रिमंडल खड़े भले ही न किये जायं, पर समस्याएं परिवारों के सामने भी छोटे-बड़े रूप में बनी रहती हैं जो सरकारों को बड़े रूप में हल करनी पड़ती हैं।

दिन और रात का मिलन संध्याकाल कहलाता है। व्यक्ति और समाज मनुष्य जाति के यही तो बड़े घटक हैं, इन दोनों को आपस में जोड़ने वाली कड़ी का नाम परिवार है। दिन का अपना महत्व है और रात्रि का अपना। पर संध्या में दोनों का समन्वय रहने से उसका महत्व और भी अधिक है। प्रभातकाल की संध्या प्राणि मात्र में अभिनव, उल्लास उत्पन्न करती है और उस सुहाने वातावरण में पुलकित होकर अन्तरात्मा परमात्मा से मिलने की आकुलता व्यक्त करती है। उपासना क्षेत्र में उदीयमान संध्याकाल का बहुत महत्व है प्रायः सभी सम्प्रदायों ने उस पुण्य-बेला को धर्मकृत्यों में लगाने का निर्देश किया है। सायंकालीन संध्याकाल भी ऐसे ही सत्कर्मों में लगाने की परंपरा है। परिवार को संस्था को, व्यक्ति और समाज को मध्यवर्ती संध्या कहा जा सकता है।

परिवार का कलेवर छोटा होता है- चर्म-चक्षुओं की आदत यह है कि वस्तु के आकार के अनुरूप उसका महत्व माना जाय। परिवार छोटी संस्था है, इसलिए उसे उपेक्षणीय समझा जाता है। पर यदि गम्भीरता पूर्वक सोचा जाय तो प्रतीत होगा कि व्यक्ति और समाज की व्यवस्था एवं प्रगति की आधार भूमिका निभाने की पूरी जिम्मेदारी परिवार के स्तर पर ही निर्भर रहती है। अस्त-व्यस्त परिवारों में पले हुए लोगों का व्यक्तित्व कभी उच्चस्तर का नहीं हो सकता और न पिछड़े स्तर के लोग कभी प्रगतिशील, सुविकसित समाज की रचना कर सकते हैं। गरीबी एक बात है और संस्कृति दूसरी। गरीबी परिस्थितियों पर निर्भर है, पर संस्कृति को हर परिस्थिति में सुस्थिर रखा जा सकता है। पारिवारिक परम्पराएं यदि सद्भाव सम्पन्न हों, उनमें उच्चस्तरीय प्रचलन विद्यमान हो तो समूची मानवी जाति का-समस्त संसार का वातावरण सुख-शान्ति से भरा-पूरा रह सकता है और स्वल्प साधन रहते हुए भी स्वर्गीय परिस्थितियों का आनन्द उपलब्ध हो सकता है।

दुर्भाग्य यह रहा है कि व्यक्ति-निर्माण के लिए धर्म और समाज-निर्माण के लिए शासन जैसे समर्थ तन्त्र परिवार संस्था को सुविकसित बनाये रहने के लिए खड़ा नहीं किया गया है। उसकी समस्याओं को सुलझाने के लिए-उसका परिष्कृत ढांचा खड़ा करने के लिए सर्वांगपूर्ण आचार संहिता और विधि-व्यवस्था की आवश्यकता थी, पर वह व्यवस्था लोगों के ध्यान में नहीं आई। होम साइन्स ‘गृह-विज्ञान’ के नाम से लड़कियों को स्कूलों में पुस्तकें तो कितनी ही पढ़ाई जाती हैं, पर उनमें काम-काजी, साज-संभाल की ऊपरी जानकारियाँ भर होती हैं। परिवार के सदस्यों का भावना स्तर, चिन्तन, दृष्टिकोण किस प्रकार परिष्कृत किया जाय, उनमें गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता का विकास कैसे किया जाय ऐसे तथ्य नहीं ही दिखाई पड़ते हैं। सुसज्जित घर में रहने का आनन्द तो अच्छे होटलों में रहकर भी उठाया जा सकता है। अमीर लोग वैसी सुविधा उपयुक्त सामग्री खरीद कर, प्रशिक्षित नौकर रखकर भी उपलब्ध कर सकते हैं। परिवार का बाह्य अंग ही उस सुव्यवस्था और सुसज्जा को माना जा सकता है, जो गृह-विज्ञान की पुस्तकें लिखी मिलती हैं और स्कूलों में पढ़ाई जाती हैं। यहाँ अभाव उस तन्त्र का बताया जा रहा है जो परिवार के वातावरण को सुसंस्कृत बनाता और जिसमें पले हुए लोग संस्कारवान बनकर निकलते। परस्पर सद्भाव बरतने और समाज में सत्प्रवृत्तियों का अभिवर्धन करने वाले कुशल माली सिद्ध होते।

आवश्यकता इस बात की है कि उपेक्षित परिवार संस्था को नये सिरे से गठित किया जाय और उसे अपनी द्विपक्षीय भूमिका का निर्वाह कर सकने की क्षमता से सम्पन्न बनाया जाय। इसके लिए कितने ही नये आधार खड़े करने होंगे और अवाँछनीय प्रचलनों से पीछा छुड़ाना पड़ेगा। मजबूत आधार वे ही हो सकते हैं जिनमें न्याय, नीति, औचित्य और विवेक को समुचित प्रश्रय दिया गया हो। परम्पराओं का महत्व इसलिए है कि वे स्वभाव का अंग बन जाती हैं। रुचि उस ढांचे में ढल जाती है और ढर्रा उसी पटरी पर लुढ़कने लगता है। मनःक्षेत्र में इन परम्पराओं की जड़ें इतनी गहरी जमी रहती हैं कि निष्पक्ष दृष्टि से अवाँछनीय सिद्ध होने पर भी पूर्वाग्रहों के पक्ष में प्रायः हठवादिता बनी रहती है और उनके पक्ष में विचित्र प्रकार के तर्क प्रस्तुत किये जाते रहते हैं। परिवर्तन के लिए रजामन्द करना तो और भी कठिन पड़ता है।

जो हो, अवाँछनीयताओं को निरस्त करके औचित्य का प्रतिष्ठान नितान्त आवश्यक है। यदि आत्महत्या के लिए कटिबद्ध मानव जाति को उज्ज्वल भविष्य के राजमार्ग पर घसीटता है तो कई महत्वपूर्ण कदम उठाने पड़ेंगे। व्यक्ति का नैतिक, बौद्धिक, चारित्रिक स्तर ऊँचा उठाना पड़ेगा और मानवी आदर्श एवं कर्तव्यों को अपनाने के लिए उसे राजी वे राजी से रजामन्द करना पड़ेगा। सामाजिक प्रचलनों में ऐसी मर्यादाएं प्रथाएं तथा धाराएं जोड़नी पड़ेंगी जो समूहगत अवाँछनीयताओं को निरस्त करके निष्पक्ष न्याय को व्यवहार में ला सकने की परिस्थितियाँ बना सकें।

व्यक्ति और समाज की स्थिति उच्चस्तरीय बनाने का व्यावहारिक उपाय एक ही है कि परिवारों का पुनर्गठन किया जाय। इस गठन में भारी उथल-पुथल करने की जरूरत नहीं है और न प्रचलित परम्पराओं को नष्ट करना ही अभीष्ट है। प्राचीन और नवीन को प्रचलन को, औचित्य को परस्पर मिला देने की सुधार प्रक्रिया अपनाकर भी अभीष्ट प्रयोजन पूरा किया जा सकता है। हमारे प्रयास इसी दिशा में हैं। परिवार संस्था की ओर लोकचेतना को आकर्षित करके जन-जन को यह समझाया जाता है कि परिवार छोटे होने पर भी वे उपेक्षणीय नहीं हैं। वे बहुत ही शक्तिशाली होते हैं और दूरगामी परिणाम उत्पन्न करते हैं। इसलिए उन्हें सुविकसित बनाने की दिशा में समुचित ध्यान दिया जाना चाहिए। अन्यथा व्यक्ति और समाज की दुर्दशा दूर न हो सकेगी और आज जो समस्याएं सर्वभक्षी विभीषिका बनकर रह रही हैं उनका, समाधान नहीं हो सकेगा।

युद्धों में रक्तपात को क्रूर-कर्म कठोर प्रकृति के बने पुरुष से भी सफलता पूर्वक सम्भव हो सकता है। नारी की करुणा इस दिशा में उसे बहुत आगे तक नहीं बढ़ने देती। यों प्रकारान्तर अथवा आपत्ति धर्म के अनुसार रूप वे भी युद्ध में प्रवृत्त होती देखी गई है। परिवार का भावनात्मक क्षेत्र पूरी तरह नारी के अधिकार क्षेत्र में आता है। यों उसकी आर्थिक तथा नियामक प्रखरता का भार प्रायः पुरुष को ही संभालना पड़ता है, पर जहाँ तक भावनात्मक बीजारोपण तथा उस फसल को उगाने, बढ़ाने और फली-फूली बनाने में नारी जो कर सकती है वह नर के लिए किसी भी प्रकार सम्भव नहीं हो सकता। घर-परिवार नारी का प्रधान कार्य क्षेत्र है। नौकरी, व्यवसाय आदि करना पड़े तो भी घर संभालना उसी के जिम्मे रहता है। परिवार के छोटे-बड़े सदस्य बाहर कम और घर में अधिक समय तक रहते हैं। इस अवसर पर उन्हें तर-तरह की सुविधा एवं व्यवस्था का लाभ महिलाएं ही प्रदान करती हैं और प्रत्यक्ष, परोक्ष प्रभाव डालती हैं। धर्मोपदेश की तरह तो नहीं, पर प्रकारान्तर से वे समूचे परिवार को प्रभावित करती है। यदि उनका स्तर ऊँचा हो तो वे निर्धनता जैसी कठिनाइयों के रहते हुए भी घर को देव मन्दिर जैसा सुरुचिपूर्ण बना सकती हैं। और अपने आन्तरिक सौंदर्य से घर के हर सदस्य को मुग्ध करके कठपुतली की तरह नचा सकती है। आदतें सुधारना, बदलना और आरम्भ करना वस्तुतः घर की ढलाई भट्टी की सहायता से ही सम्भव हो सकता है। परिवार वह प्रयोगशाला है जिसमें किये गये अनुसंधानों का लाभ समूचे समाज को मिलता है। यह वह नर्सरी है जिसमें उगाये हुए पौधे जहाँ-तहाँ सुरम्य उद्यान बनकर विकसित होते हैं और अपनी सुरम्य हरियाली तथा सुषमा से मनोरम वातावरण उत्पन्न करते हैं।

परिवार संस्था का आरम्भ नारी के गृह प्रवेश के साथ होता है। एकाकी पुरुष दफ्तर में काम करके ओर सराय में सोकर भी गुजर कर सकता है, पर घोंसला बनाने और अण्डे-बच्चों को संभालने की बात नव-वधू के साथ ही जुड़ी आती है। सूक्तिकार की वह उक्ति अक्षरशः सही है जिसमें कहा गया है कि-”न गृह गृह मित्याहु गृहणी गृह मुच्यते” अर्थात् इमारत घर नहीं कहलाती वस्तुतः गृहणी, घरवाली-ही घर है। गृहलक्ष्मी के प्रवेश से ही टूटे पुराने घर झोंपड़े हास-उल्लास से भर जाते हैं और सृजन के बहुमुखी प्रयत्न एक निश्चित दिशा में चल पड़ते हैं। घर का आरम्भ ही नारी नहीं करती वरन् उसका विस्तार, पोषण, विकास भी वही करती है, अब उसमें इतना और

स्नेह छूट जाय तो भी सज्जनों के गुण नहीं पलटते हैं जैसे कमल की डण्डी के टूटने पर भी उसके तन्तु जुड़े ही रहते हैं।

जोड़ना है कि परिवार को सुसंस्कृत, परिष्कृत और समुन्नत बनाने का ईश्वर प्रदत्त उत्तरदायित्व भी वही संभाले। उसका भावनात्मक ढाँचा इस प्रयोजन को भली प्रकार पूरा कर सकने के लिए सर्वथा उपयुक्त बनाया गया है।

इस दिशा में पहला कदम यह होना चाहिए कि गृहलक्ष्मी को- गृहसंचालिका को इस योग्य बनाया जाय कि वह अपनी प्रतिभा को उपयुक्त उत्तरदायित्व निबाहने में सक्षम सिद्ध हो सके। महिला जागरण का उद्देश्य ऐसे इंजीनियर तैयार करना है जो नये समाज का-नया भवन बनाने में अपनी कुशलता सिद्ध कर सकें। नारी जागरण के अन्य प्रयोजन भी हैं, प्रतिफल भी, पर सबसे बड़ी उपलब्धि यही मिलनी है कि उस परिवार संस्था में नव-जीवन भरा जा सकेगा और उस क्षेत्र में उगे हुए नर-रत्न, व्यक्ति और समाज-निर्माण की समस्त समस्याओं का सहज समाधान कर सकेंगे।


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