बढ़ती हुई हिंसक प्रवृत्ति क्रमशः अधिकाधिक उग्र होती चली जा रही है और चिन्ता का विषय बन रही है। व्यक्तिगत लड़ाई-झगड़े अब मनोमालिन्य, बोलचाल बन्द होना, रूठना, भटकना, गाली-गलौज या मारपीट तक सीमित नहीं रहते वे सीधे हत्या के शिखर तक बढ़ दौड़ते हैं। शरीर को बुखार, खाँसी होने की तरह अब मस्तिष्कों पर ऐसे आवेश छाते देर नहीं लगती जो प्राणघातक आक्रमण के बिना शान्त नहीं होते।
पुलिस और न्यायालयों की रिपोर्ट के अनुसार संसार भर में हिंसा की आग तेजी से भड़क रही है और बहु सर्वभक्षी दावानल बनने की दिशा में बढ़ रही है। अब हिंसक घटनाएं इतनी अधिक होती हैं कि उन्हें आश्चर्यजनक एवं चिन्ताजनक न मानकर सामान्य मानव स्वभाव में गिना जाने लगेगा। हिंसक अपराध जितनी तेजी से बढ़ रहे हैं, उतनी प्रगति और किसी क्षेत्र में नहीं हो रही है।
किसी समय पशु-पक्षियों और कीट-पतंगों तक को जीव परिवार का सदस्य मानकर उनके साथ सहृदयता का व्यवहार करने की बात पर जोर दिया जाता और जहाँ तक सम्भव हो सके दूसरे प्राणियों को कष्ट न देने की बात पर ध्यान रखा जाता था। पर अब मनुष्य ही गाजर-मूली बनता जा रहा है, जिसे काटने में दूसरों को कोई हिचक नहीं होती वरन् अपने अहं एवं पौरुष की छाप छोड़ने का गर्व अनुभव होता है। कितनी ही हिंसाओं में प्रतिशोध के सूत्र तो बहुत ही स्वल्प होते हैं, अपनी आतंकवादी साहसिकता को चरितार्थ करने की अहमन्यता ही प्रधान काम कर रही होती है। व्यक्तिगत लड़ाई-झगड़े ज्यादा कहा-सुनी तक सीमित नहीं रहते वरन् देर-सवेर में किसी की जान लेकर ही शान्त हो पाते हैं। यह आवेशग्रस्तता सचमुच ही चिन्ता का विषय है, उसके कारण सामाजिक सद्भावना और सुस्थिरता की जड़ें ही हिल जायेंगी।
विचार विज्ञान के मूर्धन्य अन्वेषणकर्ता इस तथ्य का गहरा अध्ययन कर रहे हैं कि आखिर ऐसा हो क्यों रहा है? ब्रिटेन के दो समाज-शास्त्री क्लेअर रसेल और डब्ल्यू0 एम॰ रसेल संग्रहित आँकड़ों के आधार पर यह प्रतिवेदन प्रस्तुत करते हैं कि संसार भर में हिंसा की आग बुरी तरह भड़क रही है। जनसंख्या वृद्धि से भी उसकी अनुपात गति तीव्र है। वैयक्तिक और सामूहिक जीवन में हिंसा का भरपूर प्रयोग किया जा रहा है।
छुटपुट कारणों से उत्पन्न हुए मन-मुटाव भी भयंकर हिंसा के रूप में उभरते हैं और उनकी चपेट में प्रतिद्वंद्वियों के निरीह बाल-बच्चे भी आ जाते हैं। धन के लालच में चोरी, ठगी की अपेक्षा ‘सफाया’ करके निश्चिन्ततापूर्वक लाभान्वित होना अधिक सरल ओर सुविधाजनक माना जाने लगा है। प्रायः इस स्तर की मनोवृत्ति न्यूनाधिक मात्रा में सर्वत्र बढ़ रही है।
हिंसा वृत्ति क्यों इतनी उग्र होती जा रही है? इस पर कई दृष्टि से विचार किया गया है। क्या सामाजिक परिस्थितियाँ इतनी विक्षोभकारी हैं कि उनका आघात न सहकर मनुष्य आक्रमणकारी बन बैठे? क्या आर्थिक कठिनाइयाँ इसके लिए प्रेरित करती हैं? क्या सामयिक घटनाक्रम इसके लिए उत्तरदायी होते हैं? क्या वंशानुक्रम से यह सब प्रभावित हो रहा है? क्या शारीरिक विकृतियाँ ऐसा करती हैं? क्या आहार-विहार और जलवायु में हो रहे परिवर्तन इस प्रकार की स्थिति उत्पन्न करते हैं? आदि प्रश्नों पर गम्भीरता से विचार किया गया है और इन कारणों को भी अधिक रूप से दोषी ठहराया गया है। किंतु विश्लेषण ने प्रधानता दो कारणों को दी है (1) बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण उत्पन्न गन्दगी और भीड़-भाड़ (2) मन पर शासन करने और उसे सुसंस्कृत बनाने के प्रशिक्षण का अभाव।
छोटे जानवरों पर यह प्रयोग करके देखा गया है कि जब वे छिरछिरे, खुले और शान्त वातावरण में रहते थे तब उनकी प्रकृति बहुत शान्त थी, किन्तु जब उन्हें स्वजातियों के साथ भीड़-भाड़ में रखा गया तो वे उत्तेजित और थके माँदे रहने लगे और एक दूसरे पर आक्रमण करने के आदि हो गए। भीड़ के कारण मल, मूत्र, पसीना, तथा रद्दी चीजों की गंदगी बढ़ती है और शरीर से निकालने वाली ऊष्मा का अवाँछनीय प्रभाव पड़ता है। इस तनाव से उत्तेजित मनःस्थिति आक्रामक रूप धारण करती हैं। छोटे गाँवों की अपेक्षा कस्बों में और कस्बों की अपेक्षा बड़े शहरों में आक्रामक घटनाएं कही अधिक अनुपात में होती हैं। हत्याओं और आत्महत्याओं की संख्या सघन आबादी वाले क्षेत्रों में बढ़ी-चढ़ी पाई गई है।
पारिवारिक एवं सामाजिक वातावरण यदि संतोषजनक समाधान कारक बना रहे तो उसमें पलने वाले व्यक्ति शान्त प्रकृति के रहेंगे किन्तु यदि पारिवारिक कलह के कारण स्वयं को प्रताड़ित होना पड़े अथवा अनाचार के कारण रोष उभरता रहे तो वह बालकपन के दबे हुए विक्षोभ प्रौढ़ावस्था आने पर प्रबल बनते हैं और वे किसी का प्रतिशोध किसी से लेते हैं। देखा जाता है कि पति से पिटने पर पत्नी अपने बच्चों को मारती है। बाप की डाँट पड़ने पर बड़े लड़के अपने छोटे भाई-बहनों पर बरसते हैं। स्कूल में अध्यापकों से पिटने वाले बच्चे बड़े होकर जब स्वयं अध्यापक बनते हैं तो अपने छात्रों को मारते हैं। मन की यह कैसी अन्धता है कि दबी हुई परतों के उभरने पर, प्रतिशोध लेने पर यह भूल जाता है कि गलती किसकी थी और बदला किससे ले रहे हैं।
छात्रों के बढ़ते हुए उपद्रव प्रायः उनके पारिवारिक असन्तोष का प्रतिफल होते हैं। आवश्यक नहीं उन्हें ही मारा-पीटा गया हो। पिता का व्यवहार यदि माता के प्रति कटु कर्कश रहा है तो उसे बच्चे देखते, समझते तो हैं ही-रोष उन्हें भी आता है, पर कुछ कर नहीं सकते। अस्तु दवा हुआ असन्तोष चक्रवृद्धि ब्याज के साथ बढ़ता रहता है और बड़े होने पर वह आक्रोश बनकर जो भी सामने आता है उसी पर टूट पड़ता है। अनीति, उपेक्षा, अवज्ञा एवं अवाँछनीयता का दौर प्रायः घरों में रहता है। घर में कई सदस्य रहते हैं उनमें से कोई किसी के साथ अनीति बरतता है तो उससे अन्य लोगों के मन भी असन्तोष से भरते हैं। भाई का व्यवहार अपनी पत्नी के साथ सद्भावना पूर्ण है। भावज रोती-कलपती और दुःखी रहती है। भाई पसीजता नहीं, इस निष्ठुरता को रोकने में सफलता न मिले तो भी क्रुद्ध तो अन्य सदस्य रहेंगे ही, समाधान न मिलने पर वह कलह सम्भवतः समाप्त न हो सके, पर इस विग्रह का प्रभाव भाई-भावज तक सीमित नहीं रह सकता। घर के प्रायः सभी सहृदय व्यक्तियों का मन क्षुब्ध रहेगा। कहना न होगा कि रुष्ट असन्तुष्ट, मनोभूमि धीरे-धीरे विकृत होती चली जाती है और उसकी प्रतिक्रिया किसी अन्य अवसर पर हिंसक हो उठती है।
समाज में चल रहे अनाचार भी रोष उत्पन्न करते हैं। कुछ लोगों की दुष्टता के कारण उत्पन्न होने वाला आक्रोश अनेकों को भड़काता है। वह भड़क अंधेरे में छोड़े हुए तीर की तरह किसी को भी जा लगता है। पारिवारिक और सामाजिक क्षेत्रों में बढ़ती हुई अवाँछनीयता अपनी चपेट में असम्बद्ध लोगों को भी ले लेती है और वह चिनगारियाँ सूखे, गीले सभी को जलाती चली जाती है। बढ़ती हुई हिंसक प्रवृत्ति के भड़कने का एक बड़ा कारण पारस्परिक स्नेह, सहयोग का दुर्भिक्ष एक बहुत बड़ा कारण है। किसी जमाने में लोग हिल मिलकर रहते थे, एक दूसरे के दुःख-दर्द को समझते थे, सहिष्णुता और सहानुभूति का परिचय देते थे। इसका प्रभाव पूरे समाज पर पड़ता है और अधिकाँश लोग सज्जनता के अभ्यस्त रहने के कारण बड़े कारणों को भी उपेक्षा में डालकर शान्ति बनाये रहते थे, पर अब व्यक्तिगत स्वार्थपरता और अहमन्यता की बाढ़ ने पूरा वातावरण ही उद्विग्न कर दिया है फलतः सम्बद्ध घटकों में से अधिकाँश को आक्रोश का शिकार देखा जा सकता है। हिंसक उपद्रवों के मूल में यही उग्र उत्तेजना काम कर रही होती है।
बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण वैयक्तिक, पारिवारिक सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों में जो कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं वे सर्वविदित हैं। प्रकारान्तर से उनका दुष्प्रभाव प्रजननकर्ताओं को ही नहीं दूसरों को भी भुगतना पड़ता है। इन विक्षोभों के बीच हिंसा को पनपने का पूरा अवसर मिलता है।
न्यू युनिवर्सिटी आफ कैलीफोर्निया के मनोजीव विभाग ने मनुष्य समाज में उभरते हुए हिंसक आक्रोश का अध्ययन करने के लिए एक विशेष विभाग ही स्थापित किया है जिसमें मनोविज्ञानी, जीवविज्ञानी, समाजशास्त्री शरीर-शास्त्री, आनुवांशिकी विशेषज्ञ मिल-जुलकर आक्रोश समस्या पर विभिन्न दृष्टिकोणों से अध्ययन कर रहे हैं और उनका समाधान खोज रहे हैं।
वोस्टन में विशेषज्ञों की एक दूसरी टीम काम कर रही है। जिसमें दो न्यूरों सर्जन डा0 विलियम स्वीट और डा0 वर्नन एच मार्क एवं मनःशास्त्री डा0 फ्रेंक आर॰ अर्विन प्रमुख हैं। इन लोगों ने हत्याओं की घटनाओं का मूल कारण तलाश करने में वर्षों तक माथापच्ची की है और उनसे सम्बन्धित परिस्थितियों पर अनेक दृष्टियों से विश्लेषण किया है।
कैलीफोर्निया के अन्वेषणकर्ताओं और वोस्टन के शोध पैनल का निष्कर्ष एक स्थान पर पूरी तरह मिलता है कि आक्रमणकारी एक प्रकार के आवेश उन्माद में ग्रसित थे। हत्या करते समय उनकी मनःस्थिति इतनी क्षुब्ध थी कि वे कारण और निवारण के सम्बन्ध में सही बात सोचने ओर सही निष्कर्ष निकालने की अपनी क्षमता गंवा चुके थे। उसी स्थिति में उनसे हिंसा बन पड़ी। आवेश उतरने पर वे अपने कृत्य पर पछताये भी कम नहीं, पर तब तक घटनाक्रम बहुत बढ़ चुका था, गलती सुधर नहीं सकती ओर कानून की पकड़ उनके साथ कोई रिआयत कर नहीं सकती थी।
हत्यारे उन कुकृत्यों को करने से पूर्व कितनी ही बार छोटे-बड़े उद्धत कर चुके थे। आवेश ने उनके विवेक को कितनी ही बार दबोचा था और उन्होंने अवाँछनीय कृत्य किये थे। ऐसे लोग छोटे-छोटे कारणों पर अपने स्त्री-बच्चों को तथा पालतू पशुओं को क्रूरतापूर्वक पीट चुके थे। कई बार तो उनने अपना ही सिर पीट लिया था।
आवेशों पर नियन्त्रण करने की क्षमता आरम्भ से ही विकसित करनी पड़ती है। संस्कृति इसी का नाम है। शील, सदाचार, सौजन्य, सज्जनता, शिष्टाचार के अंतर्गत मनुष्य समाज के प्रत्येक सदस्य को आत्मनियन्त्रण सीखना पड़ता है। नागरिक और सामाजिक कर्तव्यों के - अंतर्गत मनुष्य को अपनी पशु प्रवृत्तियों पर अंकुश रखना और दूसरों के साथ अधिक उदार व्यवहार करने का अभ्यास डालना पड़ता है। मनुष्यता एवं धार्मिकता की शिक्षाओं के अंतर्गत ऐसी ही आदतें सिखाई जाती हैं ताकि उत्तेजनाओं के अवसर आने पर मनुष्य सही उपाय सोच सकने के लायक अपना विवेक सन्तुलन बनाये रह सके। नैतिकता एवं सज्जनता की मर्यादाओं पर आस्था रखने वाला व्यक्ति अपने आपको ऐसा सुसन्तुलित बनाता है कि प्रतिकूल परिस्थिति में भी मानसिक ज्वार-भाटों पर नियन्त्रण कर सकें। वह न तो भयभीत होकर हाथ-पांव ही ढीले कर बैठे और न उत्तेजित होकर कुछ भी कुकृत्य करने पर उतारू हो जाय।
खेद है कि अब ऐसी धार्मिक और साँस्कृतिक शिक्षा पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है और उपार्जन तथा उपभोग सम्बन्धी कुशलता को ही पर्याप्त मान लिया गया है। एक ओर विलासिता तथा स्वार्थपरता और अहमन्यता के त्रिदोष सन्निपात का आक्रमण दूसरी ओर आत्म-नियन्त्रण के साँस्कृतिक प्रशिक्षण की उपेक्षा इन दोनों की मिश्रित प्रतिक्रिया हिंसात्मक दुर्घटनाओं की गगनचुम्बी अभिवृद्धि के रूप में सामने आ रही है।
मस्तिष्कीय स्थिति का विश्लेषण करते हुए पाया गया है कि अनुमस्तिष्क प्रान्तस्थ, सेकेव्रत कोटेक्स- का निचला भाग हिंसक वृत्ति भड़काने का केन्द्र है। इस स्थान पर विद्युत प्रवाह बढ़ाकर और घटाकर प्रयोगशाला के प्राणियों को हिंसक एवं शान्त बनाने में सफलता प्राप्त की गई है यह मर्मस्थल यदि असंस्कृत बना रहे तो मनुष्य की प्रवृत्ति भी पशु स्तर की जंगली बनी रहेगी और स्वभाव में जंगलीपन भरा रहेगा। किन्तु यदि शारीरिक और मानसिक व्यायामों से जिस प्रकार स्वस्थता और विद्वता प्राप्त की जाती है उसी प्रकार मस्तिष्कीय नियन्त्रण का अभ्यास आरम्भ से ही किया जाता रहेगा तो व्यक्ति शालीन और संस्कृत बना रहेगा तब उसे रोष उत्पन्न करने वाले अवसरों पर भी संतुलित देख जा सकेगा। ऐसे लोग समाधान भी खोज निकालते हैं और अपने को तथा प्रतिपक्षी को अनावश्यक हानि से भी बचा लेते हैं।
बोस्टन की शोधों में हत्यारों को मानसिक दृष्टि से बहुत ही दुर्बल और कायर पाया गया। वे प्रतिपक्षी द्वारा किसे गये छोटे से अप्रिय कार्य को अपने लिए सर्वनाश करने वाला मान लेते हैं और उस काल्पनिक विभीषिका से भयभीत होकर आत्मरक्षा के लिए आक्रमण कर बैठते हैं। दोष और दंड का मूल्याँकन कर सकना और संतुलन बिठा सकना भी उनके लिए संभव नहीं रहता इसलिए आक्रमण के लिए बढ़े हुए हाथ कुकृत्य के अन्तिम चरण तक जा पहुँचते हैं और हत्या कर डालते हैं।
कई व्यक्ति बिना किसी लड़ाई झगड़े अथवा बिना कारण के ही हत्या की योजना बनाते और उसे कर गुजरते हैं। इसमें प्रतिपक्षी का कोई दोष नहीं होता, केवल हत्यारे के भीतर एक ऐसी अदम्य ललक उठती है जिसे तृप्त करने के लिए हत्या ही एकमात्र उपाय रह जाता है। अस्तु वह व्यक्ति शान्त चित्त से योजनाबद्ध हत्या करता है और वैसा करके अपना जी हलका हुआ मानता है।
विकृत अहमन्यता भी कई बार हत्या अथवा उसके सजातीय क्रूर उत्पीड़न करके दूसरों को यंत्रणा देने में आनन्द लेती है। उसका उद्देश्य ख्याति प्राप्त करना-तथा अपना वर्चस्व सिद्ध करना ही प्रमुख होता है। श्रेष्ठता का परिचय देने के लिए आत्म परिष्कार ओर आदर्श कार्य करने की आवश्यकता पड़ती है, इसके लिए सद्गुणों की-परिष्कृत अध्यवसाय की आवश्यकता पड़ती है। ओछे लोग उतना कर नहीं पाते और आतंक का उद्धत तरीका सरल देखते हैं। सृजन से उच्चस्तरीय यश प्राप्त होता है किन्तु ध्वंस से भी ख्याति पाई जा सकती है, भले ही वह निंद्य अथवा निकृष्ट ही क्यों न हो। असंस्कृत मनुष्य दूसरा मार्ग चुनते हैं और क्रूर कर्म अपनाकर अहंता को तुष्ट करते हैं।
उद्धत आचरण को कैसे रोका जाय? इस सम्बन्ध में रूसी समाज शास्त्रियों के अनुसार कठोर दण्ड देने की अपनाई गई पद्धति असफल हुई है। दंड से डरा हुआ व्यक्ति कुकृत्य से हाथ तो खींच लेता है, पर वह भय उसके मानसिक विकास में एक बड़ा अवरोध बन कर खड़ा हो जाता है। अस्तु सोवियत संघ के विचारक कठोर दंड की नीति को नरम करके अन्य सुधारात्मक प्रयोग करने पर जोर दे रहे हैं।
राकफेलर विश्वविद्यालय के डा0 रेनेडयूवो का मत है कि बड़े नगरों का विगठन करके छोटी देहात बसाने और बड़े कारखाने हटा कर छोटे गृह उद्योग लगाने से मानवी संतुलन की रक्षा की जा सकेगी।
मिशीजन विश्वविद्यालय के डा0 डोनाल्ड माइकेल का कथन है कि हिंसात्मक घटनाओं की अधिक चर्चा करने से उस स्तर की प्रवृत्तियां भड़कती हैं। युद्ध, मार-काट हत्या, एवं क्रूरता का विवरण प्रस्तुत करने वाली पुस्तकें, फिल्में तथा पत्रिकाएं रोकी जानी चाहिए। उनसे हिंस्रोन्माद फैलता है। हत्यारों को श्रेय मिले, नाम छपे ऐसा तो होना ही नहीं चाहिए। एक पापी पिशाच का मनुष्यता को लज्जित करने वाला क्रूर कृत्य कहकर ही ऐसी घटनाओं की संक्षिप्त चर्चा करना पर्याप्त होना चाहिए। उन्हें किसी भी सूरत में ‘हीरो’ नहीं बनने देना चाहिए।
इन सबसे बड़ी बात यह है कि आत्मानुशासन की शिक्षा एवं प्रेरणा हर व्यक्ति को मिले। मनोनिग्रह की-चित्तवृत्तियों के निरोध की आवश्यकता समझाई जाय, ताकि समय-समय पर उभरती रहने वाली अनेकों दुष्प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण किया जा सके। काम-क्रोध, लोभ-मोह, मद, मत्सर के षडरिपु परिवार में ही वह एक क्रूर आवेश भी है, जो मनुष्य द्वारा मनुष्य का क्रूर उत्पीड़न करने के लिए भरता है।
माँसाहार के लिए तथा औषधियों के लिए की जाने वाली पशु-पक्षियों और प्राणियों की हत्या उपेक्षणीय नहीं है। उत्तेजक और तामसी आहार के जो नित-नये प्रचलन बढ़ रहे हैं उनका प्रभाव दुष्ट दुर्बुद्धि के रूप में होना स्वाभाविक है। हिंसा की विभीषिका से यदि मानवी शान्ति को नष्ट होने से बचाना है तो आहार की तामसिकता और पारस्परिक व्यवहार में बढ़ती संकीर्ण स्वार्थपरता की भी रोक-थाम करनी ही होगी।