मानवी प्रगति का एक मात्र आधार भाव भरा सहयोग

November 1975

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मनुष्य को बुद्धि प्रधान माना जाता है और कहा जाता है कि उसने अपने बुद्धि बल से ही अन्य प्राणियों की तुलना में इतनी अधिक उन्नति की है, जिससे सृष्टि का मुकुटमणि बन सकने का श्रेय उसे प्राप्त हो सका। इस मान्यता में यदि कुछ तथ्य है तो उसमें एक संशोधन यह और करना पड़ेगा कि बुद्धिमत्ता उसे सहकारिता के आधार पर ही उपलब्ध हुई है। क्या मनुष्य ने उन्नति अपनी मस्तिष्कीय विशेषता के कारण की है? मोटी बुद्धि ही इसे मान्यता का अन्ध समर्थन कर सकती है। सूक्ष्म चिन्तन का निष्कर्ष यही होता है कि कोई न कोई आत्मिक सद्गुण ही उसके मस्तिष्क समेत अनेक क्षमताओं को विकसित करने का आधार हो सकता है। महत्वपूर्ण प्रगति न तो शरीर की संरचना के आधार पर सम्भव होती है और न मस्तिष्कीय तीक्ष्णता पर अवलंबित रहती है। उसका प्रधान कारण अन्तःकरण के कुछ भावनात्मक तत्व ही होते हैं। उन निष्ठाओं की प्रेरणा से इच्छा शक्ति जगती है, सक्रियता एवं तत्परता उत्पन्न होती है। मस्तिष्क तथा शरीर के कलपुर्जे एकजुट होकर काम करते हैं और निष्ठा के अनुरूप दिशा में कदम तेजी से बढ़ाते चले जाते हैं। व्यक्ति सदा से इसी आधार पर ऊँचे उठते और नीचे गिरते रहे है।

मनुष्य की बुद्धिमत्ता, शारीरिक चेष्टा और प्रयत्न परायणता के मूल में जो अत्यन्त प्रेरक दिव्य प्रवृत्ति झाँकती है। उसे सहकारिता कह सकते हैं। वस्तुतः यही मानव प्राणी की सबसे बड़ी विशेषता है। अन्य प्राणियों में यह वृत्ति यत्किंचित् पायी तो जाती है पर प्रायः वह शरीर समीपता तक ही सीमित रहती है। मानसिक आदान-प्रदान कर सकने योग्य उनकी स्थिति नहीं है। कुछ पशु पक्षी, जोड़े बनाकर समूह में साथ-साथ रहने के अभ्यस्त तो होते हैं। इससे उन्हें सुरक्षा में सहायता मिलती है कुछ और छोटे-मोटे शारीरिक आदान प्रदान कर लेते हैं पर मानसिक और भावनात्मक आदान प्रदान उनसे बन नहीं पड़ता। सहकारिता वृत्ति का सीमित प्रयोग कर सकने के कारण ही अन्य प्राणी सृष्टि के आदि से लेकर अब तक जहाँ के तहाँ पड़े है, जबकि मनुष्य उस दिव्य प्रवृत्ति को अधिकाधिक विकसित करते हुए उन्नति के उच्च शिखर तक पहुँच सकने में सफल हो गया।

दो जड़ पदार्थ अथवा अविकसित प्राणी मिलकर दो की संख्या ही बनाते हैं। दो बैल मिलकर एक ही अपेक्षा दूना वजन भी खींच सकते हैं। एक की अपेक्षा दो रुपये हो तो दूना सामान खरीदा जा सकता है, किन्तु भाव प्रधान मनुष्य प्राणी का जहाँ सघन सहयोग आरम्भ होगा वहाँ यह नियम बदल जायेगा और एक एक मिलकर ग्यारह की संख्या बन जायेगी। 1 और 1 के अंग नीचे ऊपर रहें उनका जोड़ 2 होगा किन्तु उन्हीं अंकों को बराबर लिख दें तो संख्या 11 बन जायेगी। अंकगणित का यही सिद्धान्त भाव प्रधान मनुष्य पर लागू होता है। दो बुद्धिमान चीते मिलकर वन की सुव्यवस्था बना तो सकते हैं। पर बना नहीं पाते, क्योंकि भावनात्मक सहयोग के अभाव में वे एक दूसरे को नीचा दिखाने का ताना बाना बुनने के अतिरिक्त और कुछ कर नहीं सकते। एक दूसरे से आत्मरक्षा करने और आक्रमण का अवसर ढूंढ़ने के अतिरिक्त और वे कुछ सोच ही नहीं सकते। यदि सिंहों में हाथियों में भावनात्मक एकता की सहकारिता की वृत्ति रही होती और मनुष्य उस दिव्य अनुदान से वंचित रहा होता, तो निश्चित ही वे बलिष्ठ प्राणी संसार का शासन कर रहे होते और मनुष्य उनकी कृपा पाने के लिए लालायित रहता हुआ किसी प्रकार जिन्दगी के दिन पूरे कर रहा होता।

मानवी विकास के इतिहास पर दृष्टि डालने से यह स्पष्ट है कि आदिम काल में यह भी अनगढ़ वानरों की तरह एक तुच्छ सा पशु मात्र था। उनकी बुद्धि कुछ पैनी तो थी, पर उतने तीखे मस्तिष्क तो अन्य अनेक प्राणियों के भी पाये जाते हैं। चमगादड़, कुत्ता, चींटी, मधुमक्खी, मकड़ी जैसे प्राणियों की इन्द्रिय शक्ति मनुष्य की तुलना में कही विकसित है और ऋतु परिवर्तन जैसी सूक्ष्म सम्भावनाओं को समझने की दृष्टि से कितने जीव मनुष्य से आगे है। पर वे कोई खास विकास न कर सके जबकि मनुष्य दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति करता चला जाता है। तथ्यों की गहराई में प्रवेश करते हुए मनुष्य को एक ही सर्वोपरि विशेषता उभर कर आती है- सहकारिता की प्रवृत्ति। एक दूसरे के प्रति आत्मीयता की, ममता की, सहायता की जो सद्भावनायें उमड़ती है। उसके समन्वय को सहकारिता कहते हैं उससे आदान प्रदान का परस्पर मिल जुलकर रहने का मिल बाँटकर खाने का व्यवहार अनिवार्य रूप से जुड़ा रहता है। यही है मानवी प्रगति का मूलमन्त्र। जहाँ भी इस प्रवृत्ति का जितना अधिक उपयोग हुआ है। जहाँ इसकी जितनी न्यूनता रही है वहाँ उतनी ही मात्रा में जड़ता छाई रही है। संसार के अनेक क्षेत्रों में मनुष्य अभी भी आदिम अवस्था में पड़े पाये जाते हैं। उनकी अवगति में भावनात्मक सहकारिता की न्यूनतम ही प्रधान अवरोध बनकर खड़ी दृष्टिगोचर होती है।

आदिम काल में मनुष्य भी बन्दरों की तरह ही ची-ची बोलता था। उसने अपने मुँह से निकलने वाले कई शब्दों को अलग किया और हर उच्चारण के साथ एक जानकारी जोड़ी। यह उसकी बुद्धिमत्ता कही जा सकती है। इसमें चार चाँद तब लगे जब उसने उच्चारण के साथ जुड़े हुए संकेतों की जानकारी दूसरे साथियों को कराई यहाँ से शब्द विज्ञान का प्रवाह चल पड़ा। पीढ़ियों तक सहस्राब्दियों तक इस दिशा में प्रगति होती रही और आज हम उच्चारण क्षमता का पूरा पूरा लाभ उठाते हैं। आरम्भिक लिपि भी आड़ी टेड़ी लकीरों के के साथ अमुक जानकारियाँ जोड़ने के रूप में आरम्भ हुई थी पीछे अक्षरों का स्वर व्यंजनों का अंग विद्या तथा रेखागणित का आविर्भाव हुआ और क्रमशः सर्वांगपूर्ण शिक्षा विज्ञान बनकर खड़ा हो गया। आज हमारी लेखनी और वाणी इतनी विकसित है कि उसके सहारे अति महत्वपूर्ण जानकारियों का विश्व के एक कोने से दूसरे कोने तक आदान प्रदान अति सरल हो गया है।

कृषि, पशुपालन, चिकित्सा, विज्ञान, शिक्षा, शिल्पकला, व्यवसाय, उद्योग, परिवार, समाज, शासन आदि ज्ञान-विज्ञान की अगणित उपलब्धियाँ हमारे सामने प्रस्तुत है और हम देवोपम साधन सम्पन्न का उपभोग कर रहे है। यह सारा वैभव चमत्कार सहकारिता की सत्प्रवृत्ति का है। एक आदमी दूसरे के साथ सघन आत्मीयता स्थापित न करना दूसरों के सुख-दुख में भागीदारी करने में उत्साह न रहता तो सहयोग की इच्छा ही न उठती और आदान प्रदान का सिलसिला न चलता। इस स्थिति में उस प्रगति की कल्पना भी नहीं की जा सकती है जिनके कारण मनुष्य जीवन को सुरदुर्लभ अनुभूतियों से भरा पूरा माना जाता है। यथार्थता यह है कि सहयोग और उत्कर्ष एक दूसरे पर पूरी तरह निर्भर है। एक के बिना दूसरे की न आशा की जा सकती है और न सम्भावना ही बनती है।

एकाकी मनुष्य जीवित भर रह सकता है। उल्लास एवं उत्कर्ष के लिए उसे साथी ढूंढ़ने पड़ते हैं और समूह में रहने की व्यवस्था जुटानी पड़ती है। इसके अतिरिक्त स्नेह, सद्भावना आत्मीयता एवं घनिष्ठता के इतने गहरे पुट लगाने पड़ते हैं कि एक दूसरे के लिए सब कुछ निछावर कर देने के लिए तत्पर रहे। एक दूसरे के दुख को बँटाने और अपने सुख को दे डालने में प्रसन्नता अनुभव करें। ऐसी स्थिति जो जितनी अधिक और जितने अच्छे स्तर की बना सकता है वह उतना ही सुखी, समुन्नत एवं सुसंस्कृत पाया जाते हैं। अनेकानेक सद्गुण इसी सहयोग रूप कल्प वृक्ष के पत्र पल्लव समझे जा सकते हैं। जिनका जितना ध्यान इस प्रवृत्ति को विकसित करने वाले आधार खड़े करने की ओर है। वे अपनी अपने संपर्क परिकर की उतनी ही महत्वपूर्ण सेवा कर रहे होते हैं।

धर्म और अध्यात्म का सारा कलेवर वैयक्तिक और सामाजिक नैतिकता को अधिकाधिक परिष्कृत करने के लिए खड़ा किया गया है। नीति शास्त्र और समाजशास्त्र की मर्यादाओं में बँध कर ही वैयक्तिक और सामूहिक सुख शान्ति का प्रगति समृद्धि का पथ प्रशस्त होता है यह तथ्य सर्वमान्य है। आचार संहिता में व्यतिरेक पड़ते हैं तो सर्वत्र असुरक्षा, आशंका और आतंक का वातावरण छा जाता है इतना समझ लेने के बाद गहराई की एक सीढ़ी और उतरा जाय तो पता चलेगा कि यह सब कुछ मात्र सहयोग की वृत्ति को सुदृढ़ बनाने और उसके मार्ग में आने वाली बाधाओं को हटाने भर के लिए है। धर्मशास्त्र, आध्यात्मशास्त्र, आचारशास्त्र, समाजशास्त्र, दर्शन शास्त्र आदि मानवी चेतना की प्रभावित करने वाली सभी चिन्तन धारायें मिल जुलकर एक ही घेराबन्दी करती है कि मनुष्य पारस्परिक सहयोग की दिशा में अधिक उत्साह के साथ अग्रसर हो और इस मार्ग में जितने भी व्यवधान आते हैं, उन्हें हटाने के लिए पूरी तरह सचेष्ट रहें।

अनाचार और व्यभिचार की भरपूर भर्त्सना की जाती है और उन्हें दण्डनीय अपराध माना जाता है। आखिर ऐसा क्यों? व्यभिचार की क्रिया यदि मूलतः पाप है तो वही क्रिया अपनी पत्नी के साथ भी अपराध है। एक का धन दूसरा बिना उसकी इच्छा के लेना तो पाप हुआ। सरकार का टैक्स वसूल करना, संस्थाओं को दान, लड़कियों को दहेज, उपहार, उत्तराधिकार में सम्पत्ति विसर्जन भी कौन अपनी इच्छा से होता है। क्या यह हस्तान्तरण भी अपराध है। बारीकी से देखने पर ज्ञात होता है कि अपराध संहित में भी वे ही घटनाक्रम आते हैं जो दूसरी तरह हम सब भी नित्य के जीवन में करते रहते हैं। फिर उनके पास पुण्य होने का दण्डनीय क्षम्य ठहराये जाने का कारण क्या है। इस प्रश्न का उत्तर एक ही है मनुष्य की सहयोग प्रवृत्ति में बाधा डालने वाली गतिविधियों को रोका जाय और प्रोत्साहित करने वाली हलचलों को प्रोत्साहन दिया जाय। पाप और पुण्य का मूल निर्धारण महामनीषियों ने इसी कसौटी पर कसकर किया है और उसी की विवेचना में आचार समर्थक चिन्तन शास्त्र का विशालकाय कलेवर खड़ा किया है।

स्वार्थी, संकीर्ण, कंजूस, कृपण, अनुदार व्यक्तियों की निन्दा की जाती है। आखिर उनमें क्या बुराई की है। किसी का क्या बिगाड़ा छीना है। अपने लाभ की बात सोचना और अपनी वस्तु का आप उपभोग करना क्यों बुरा है। इस प्रश्न का उत्तर एक ही है एक दूसरे को सहयोग देने से हाथ सिकोड़ने लगेगा तो आत्मीयता की सहकारिता की भाव भरी सत्प्रवृत्ति को आघात लगेगा। समाज की प्रगति में बाधा पड़ेगी और वह स्वार्थी व्यक्ति दूसरों के स्नेह सहयोग से वंचित रहकर नीरस उपेक्षित एवं अविकसित जीवन जीने के लिए विवश होगा। व्यक्ति और समाज की प्रगति में स्वार्थपरता को हर दृष्टि से बाधक माना गया है। इसलिए उसे निन्दित ठहराया गया है। अपने मतलब से मतलब रखने वाले दूसरों का हित अनहित न देखने वाले व्यक्ति की निर्भय होकर दुष्कर्म करते हैं और अपराधों की बाढ़ बुलाकर सारे वातावरण को विषाक्त कर देते हैं।

मनुष्य जन्मजात रूप से बुद्धिमान नहीं होता। पशुओं के बच्चे बिना सिखाये माता के थन अपनी खुराक आप ढूंढ़ लेते हैं जबकि मनुष्य का बच्चा कई वर्ष का होने तक पेट भरने तक में पराश्रित रहता है। भेड़ियों की माँद में पाया गया तीन वर्षीय रामू बालक भेड़ियों की तरह ही चलता बोलता, खाता, सोता है। शिकारियों ने उसे पकड़ा और लखनऊ मेडिकल कॉलेज में उसे सुधार का उपक्रम हुआ तो भी वह मनुष्य सभ्यता को बहुत थोड़ा ही अपना सका। यदि जन्मजात बुद्धिमत्ता मनुष्य को मिली होती तो घने जंगलों में रहने वाले पिछड़े हुए आदिवासी अपनी सहज वृत्ति से अन्य लोगों की तरह सभ्य हो गये होते। वस्तुतः मनुष्य को बुद्धिमत्ता सहित जितनी भी उपलब्धियां मिली है उन सबकी जननी सहकर प्रवृत्ति ही है। हमें इस ईश्वरीय अनुदान को अधिकाधिक फलने फूलने का अवसर देना ही चाहिए। इसी प्रकार विश्व शान्ति और मानवी प्रगति पूर्णतया निर्भर है।


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