विलक्षण क्षमताओं से सम्पन्न हमारे कल पुर्जे

November 1975

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हमारी शरीर यात्रा जिस रथ पर सवार होकर चल रही है। उसके कल पुर्जे कितनी विशिष्टताएँ अपने अन्दर धारण किये हुए हैं। हम कितने समर्थ और कितने सक्रिय है इस पर हमने कभी विचार नहीं किया। बाहर को छोटी छोटी चीजों का देखकर चकित हो जाते हैं और उनका बढ़ा चढ़ा मूल्याँकन करते है पर अपनी ओर छोटे छोटे कलपुर्जों की महत्ता की ओर कभी ध्यान तक नहीं देते। यदि उस ओर भी कभी दृष्टिगत किया होता तो पता चलता कि अपने छोटे से छोटे अंग अवयव कितनी जादू की विशेषता और क्रियाशीलता अपने में धारण किये हुए है उन्हीं के सहयोग से हम अपना सुरदुर्लभ मनुष्य जीवन जी रहे है।

शरीर पर दृष्टि डालने से सबसे पहले चमड़ी नजर आती है। मोटे तौर से वह ऐसी लगती है मानो शरीर पर कोई कागज चिपका हो बारीकी से देखने पर प्रतीत होता है कि उसमें भी पूरा कल कारखाना काम कर रहा है। एक वर्ग इंच त्वचा में प्रायः 72 फुट लम्बी तंत्रिकाओं की लम्बाई नापी जाय तो वे भी 12 फुट से कम न बैठेगी। यह रक्त वाहिनियाँ सर्दी में सिकुड़ती और गर्मी में फैलती रहती है ताकि तापमान का सन्तुलन ठीक बना रहे। चमड़ी की सतह पर प्रायः 2 लाख स्वेद ग्रन्थियाँ होती है जिनमें से पसीने के रूप में हानिकार पदार्थ बाहर निकलते रहते हैं। पसीना दीखता तो तब है जब वह बूँदों के रूप में बाहर आता है वैसे हर धीरे धीरे रिसता सदा ही रहता है।

त्वचा देखने में एक प्रतीत होती है पर उसके तीन विभाग किये जा सकते हैं (1) ऊपरी चमड़ी (2) भीतरी चमड़ी (3) हड्डी के ऊपर के ऊत। नीचे वाली तीसरी परत में रक्त वाहनियाँ तन्त्रिकाएँ और वसा के कण होते हैं। इन्हीं के द्वारा चमड़ी हड्डियों से चिपकी रहती है। आयु बढ़ने के साथ साथ जब यह वसा कण सूखने लगते हैं तो त्वचा पर झुर्रियाँ लटकने लगती है। भीतरी चमड़ी में तन्त्रिकाएँ रक्त वाहिनियाँ रोम कूप स्वेद ग्रन्थियाँ तथा तेल ग्रंथियां होती है। इन तन्त्रिकाओं को एक प्रकार से सम्वेदना वाहन टेलीफोन के तार कह सकते हैं वे त्वचा स्पर्श की अनुभूतियों को मस्तिष्क तक पहुँचाते हैं और वहाँ के निर्देश सन्देशों को अवयवों तक पहुँचाते हैं।

पसीने के साथ जो गन्दगी बाहर निकलती है, वह चमड़ी पर परत की तरह जमने लगती है यदि स्नान द्वारा उसे साफ न किया जाय तो उस परत से पसीना निकालने वाले छेद बन्द हो जाते हैं और दाद, खाज, जुएँ आदि कई तरह के विकार उठ खड़े होते हैं।

त्वचा के भीतर घुसे तो माँसपेशियों का ढाँचा खड़ा है। उन्हीं के आधार पर शरीर का हिलना जुलना मुड़ना चलना फिरना सम्भव हो रहा है। शरीर की सुन्दरता और सुडौलता बहुत करके माँस पेशियों को सन्तुलित स्थिति पर ही निर्भर रहती है। फैली पोली बेडौल सूखी पेशियों के कारण कही अक्सर शरीर कुरूप लगता है। प्रत्येक अवयव को उचित श्रम मिलने से वे ठीक रहती है अन्यथा निठल्लापन एवं अत्यधिक श्रम साधन उन्हें भोंड़ा निर्जीव और अशक्त बना देता है। श्रम सन्तुलन का ही दूसरा नाम व्यायाम है प्रत्येक अंग को यदि उचित श्रम का अवसर मिलता रहे तो वहाँ की माँसपेशियों सुदृढ़ सशक्त रहकर स्वास्थ्य और सौंदर्य को आदर्श बनाये रहेंगी।

शरीर का 50 प्रतिशत भाग माँसपेशियों के रूप में है। मोटे और पतले आदमी इन माँसपेशियों की बनावट एवं वजन के हिसाब से ही वैसे मालूम पड़ते हैं। प्रत्येक माँसपेशी अनेकों तन्तुओं से मिलकर बनी है। वे बाल के समान पतले होते हैं पर मजबूत इतने कि अपने वजन की तुलना में एक लाख गुना वजन उठा सके। इन पेशियों में एक चौथाई प्रोटीन और तीन चौथाई पानी होता है। इनमें जो बारीक रक्त नलिकाएँ फैली हुई है वे ही रक्त तथा दूसरे आवश्यक आहार पहुँचाती है। मस्तिष्क का सीधा नियंत्रण इन माँसपेशियों पर रहता है तभी हमारा शरीर मस्तिष्क की आज्ञानुसार विभिन्न प्रकार के क्रिया कलाप करने में सक्षम रहता है। कुछ माँसपेशियाँ ऐसी है जो अचेतन मन के आधीन है। पलक झपकता हृदय का धड़कना फेफड़ा का सिकुड़ना फैलना आहार का पचना मल विसर्जन रक्तसंचार आदि की क्रियाएँ अनवरत रूप से होती रहती है और हमें पता भी नहीं चलता कि कौन उनका नियंत्रण संचालन कर रहा है। वस्तुतः यह हमारे अचेतन मन का खेल है और अंग प्रत्यंगों को उनके नियत निर्धारित विषयों में संलग्न किये रहता है।

इन माँसपेशियों को विशेष प्रयोजनों के लिए सधाया सिखाया जा सकता है। सर्कस में काम करने वाले नट नर्तक अपने अंगों को इस प्रकार अभ्यस्त कर लेते हैं कि वे आश्चर्यजनक कार्य कर दिखाता है। चोट लगने पर हड्डियों को टूटने से बचाने का कार्य यह माँसपेशियाँ ही करती है। शरीर से मुड़ने तुड़ने उछलने कूदने जैसे विविध विधि काम करता हमारे लिए इन माँसपेशियाँ के कारण ही सम्भव होता है। मर्दों की पेशियाँ स्त्रियों की तुलना में अधिक कड़ी और मजबूत होती हैं ताकि वे अधिक परिश्रम के काम कर सके अन्य अंगों की अपेक्षा हाथों की पेशियाँ अधिक शक्तिशाली होती है।

शरीर के भीतर हृदय मस्तिष्क आमाशय आँतें आदि एक से एक महत्वपूर्ण कलपुर्जे लगे हैं। इनमें से सबसे छोटे पेशाब साफ करने जैसा गन्दा काम करने वाले अवयव गुर्दे जैसे छोटे से टुकड़े को देखे तो प्रतीत होता कि प्रकृति ने इस नगण्य से अंग को भी कितना सुव्यवस्थित और कितना सर्वांगपूर्ण बनाया है।

रंग में भूरे कत्थई आकार में मुट्ठी के बराबर देखने में सेम के बीज की तरह एक सिरा थोड़ा उभरा हुआ दूसरा थोड़ा दबा हुआ यही है गुर्दे का आकार वजन 150 ग्राम। वे दो होते हैं। मूत्र बनाना उनका मुख्य काम है।

रक्त में से अनावश्यक और मल युक्त जल को यह निरन्तर छाँट और बाहर निकालते रहते हैं। वे रीढ़ की हड्डी से सटे होते हैं। एक बाई ओर दूसरा दाई और दाया थोड़ा नीचे बांया थोड़ा ऊपर ताकि उनके सामान्य क्रिया कलाप में अड़चन उत्पन्न न हो। प्रत्येक गुर्दा लगभग 4 इंच लम्बा 2.5 इंच चौड़ा तथा 2 इंच मोटा होता है।

गुर्दे रक्त में घुले रहने वाले नमक पोटेशियम कैल्शियम मैग्नेशियम आदि पर कड़ी नजर रखते हैं। इनकी मात्रा जरा भी बढ़ जाय तो शरीर पर घातक प्रभाव डालती है। शरीर में जल की भी एक सीमित मात्रा ही चाहिए। रक्त में क्षारीय या अम्लीय अंश बढ़ने न पाये इसका ध्यान भी गुर्दों को रखना पड़ता है। छानते समय इन सब बातों को ये पूरा पूरा ध्यान रखते हैं।

गुर्दे एक प्रकार की छलनी है उनमें 10 लाख से भी ज्यादा नलिकाएँ होती है। इन सबको लम्बी कतार में रखा जाय तो 110 किलो मीटर लम्बी डोरी बन जाएगी। एक घण्टे में दोनों गुर्दे इतना रक्त छानते हैं जिसका वजन पूरे शरीर से दो गुना हो जाय। छाने हुए रक्त का उपयोगी अंश यह नलिकायें ही रोक लेती है। विटामिन अमीनो अम्ल हारमोन शकर जैसे उपयोगी तत्व रक्त को वापिस लौटा दिया जाते हैं। नमक ही सबसे ज्यादा अनावश्यक मात्रा में होता है। यदि यह रुकना शुरू हो जाये तो सारे शरीर पर सूजन चढ़ने लगेगी। गुर्दे इस अनावश्यक अंश को निरन्तर बाहर करते रहते हैं।

दोनों गुर्दों में परस्पर अति सघन सहयोग है। एक खराब हो जाय तो दूसरा उसका बोझ अपने ऊपर उठा लेता है और अकेला ही पूरी गाड़ी आजीवन खींचता रहता है।

गुर्दे प्रतिदिन प्रायः दो लीटर मूत्र बनाते हैं। उसमें नमक, फास्फेट सल्फेट, पोटेशियम, कैल्शियम मैग्नेशियम लोहा, वि एटाइबिन यूरिया, अमोनिया, यूरिक एसिड, हिप्यूरिक एसिड नाइट्रोजन आदि पदार्थ मिले रहते हैं। सामान्यता मूत्र का रंग हल्का पीलापन लिये होता है। यदि गहरा रंग हो तो उसमें कुछ गड़बड़ी समझी जानी चाहिए। कम पानी पीने से भी मूत्र का रंग गहरा और गाढ़ा हो सकता है। जाड़े के दिनों में पसीना कम निकलता है इसलिये पेशाब की मात्रा बढ़ जाती है।

आईये एक और छोटे पुर्जे पर नजर डालें। दाहिनी पसलियों के नीचे तनुपट से सटा हमारा जिगर है। मर्दों का जिगर सवा से डेढ़ किलोग्राम तक होता है। स्त्रियों का इससे कुछ हल्का रहता है। शरीर का एक चौथाई रक्त इस जिगर में ही भरा रहता है। इसलिए वह भूरे लाल रंग का दिखायी देता है। टटोलने से कठोर मालूम देता है।

जिगर की कोशाओं में विलक्षण विशेषता यह है कि वे अमर है। एकबार नष्ट हो जाने पर वे दुबारा बन जाती है। टूटी हुई या नष्ट हुई कोशायें पुनः उभर आती है। यदि जिगर का तीन चौथाई भाग नष्ट हो जाय तो शेष एक चौथाई से भी उसका काम चलता रहता है।

सन्तुलित आहार के क्रम में आवश्यक प्रोटीन न मिलने से जिगर कमजोर पड़ जाता है। कुपोषण के शिकार बच्चे और बड़े पाचन सम्बन्धी रोगों से ग्रस्त होकर असमय ही चल बसते हैं। उनके जिगर का उतना विकास नहीं हो पाता जितना होना चाहिए।

इन अवयवों में से जिस पर तनिक गहराई से विचार करें उसी में विशेषताओं का भण्डार भरा दिखता है। यहाँ तक कि बाल जैसी निर्जीव और बार-बार, खर-पतवार की तरह उखाड़ काटकर फेंक दी जाने वाली वस्तु भी अपने आप में अद्भुत है।

औसतन मनुष्य के सिर में 120000 बाल होते हैं। प्रत्येक बाल एक नन्हे गड्ढे से निकलता है जिसे रोम कूप कहते हैं। यह चमड़ी के शिरोवल्क के भीतर प्रायः एक तिहाई इंच गहरा घुसा होता है। इसी गहराई में बालों की जड़ को रक्त का पोषण प्राप्त होता है।

बालों की वृद्धि प्रतिमास तीन चौथाई इंच होती है। इसके बाद वह घटती जाती है। जब बाल दो वर्ष के हो जाते हैं तो उनकी गति प्रायः रुक जाती है। किसी के बाज तेजी से और किसी के धीमी गति से बढ़ते हैं। बालों की आयु डेढ़ वर्ष से लेकर छः वर्ष तक होती है। आयु पूरी करके बाल अपनी जड़ से टूट जाता है और उसके स्थान पर नया बाल उगता है।

यों बाल तिरछे निकलते हैं, पर उनके मूल में एक पेशी होती है जो कड़ाके के शीत या भय की अनुभूति में रोमाँच में बाल खड़े कर देती है। बिल्ली कभी-कभी अपने बाल सीधे खड़े कर लेती है।

बालों की जड़ों में पसीना निकालने वाले छिद्र भी होते हैं और उन्हें चिकनाई देने वाले छेद भी। बालों की कोमलता, चिकनाई और चमक रोमकूपों से निकलने वाली चिकनाई की मात्रा पर निर्भर है। वृद्धावस्था में रोमकूप कठोर होने लगते हैं, तो बालों का कालापन सफेदी में बदल जाता है। पेट की खराबी तथा दाँतों की खराबी बालों की अपेक्षाकृत जल्दी सफेद बना देती है।

मनुष्य शरीर का प्रत्येक अवयव इस बात का प्रमाण है कि प्रजापति ने उसे कितने मनोयोग और कला-कौशल के साथ बनाया है। उनमें जीवन यात्रा को सुसंचालित रखने की क्षमता तो स्पष्ट ही है। यदि उनकी सामान्य गतिविधियों को बिना विकृत किये जलने दे तो उतने भर से हमारा स्वास्थ्य सुन्दर, परिपुष्ट और चिरस्थायी रह सकता है। बीमारी तो अनुचित हस्तक्षेप और अनावश्यक तोड़ फोड़ के रूप में बरती जाने वाली उच्छृंखलता का दण्ड है।

अच्छी मोटर होने पर भी अनाड़ी ड्राइवर उसे तोड़-फोड़कर रख सकता है। ऐसी ही दुर्घटना अपने शरीर के साथ हुई है। अनाड़ी संचालकों ने उसे नष्ट भ्रष्ट करके रखा है। यदि हम अपनी उपलब्धियों को समझ सके होते और उनका सदुपयोग सुसंचालन करने में दूरदर्शिता का परिचय देते तो न केवल शरीर का वरन् मनः संस्थान के चमत्कारी केंद्रों का तथा भौतिक सम्पदाओं का भी ऐसा लाभ उठा सकते हैं जिनके आधार पर अपना यही आज का गया गुजरा जीवन देवोपम सुख-शान्ति से सम्पदाओं और विभूतियों से भरा पूरा दृष्टिगोचर होता।


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