आत्महत्या मानसिक विकृति की दुखद प्रतिक्रिया

November 1975

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मनुष्य की जिजीविषा साधारणतया अदम्य मानी जाती है हम जीवित रहना चाहते हैं और जीवन को प्यार करते हैं। उसकी सुरक्षा के लिए तरह-तरह के साधन जुटाते हैं। मरण से सबको भय लगता है। प्राण संकट की घड़ी आने पर पशु-पक्षी तक सब कुछ कर गुजरने पर उतारू हो जाते हैं। आत्म-रक्षा के प्रयत्नों में सृष्टि के प्रत्येक प्राणी को संलग्न देखा जा सकता है इससे प्रतीत होता है कि न केवल मनुष्य वरन् हर एक जीवधारी जीवन सम्पदा को सुरक्षित रखने के लिए अपनी सूझबूझ और स्थिति के अनुसार हर सम्भव उपाय करता है। जीवधारी को जीवन के साथ कितना अधिक प्यार है, इस तथ्य की झाँकी नजर पसार कर कहीं भी की जा सकती है।

जीवन जैसी बहुमूल्य सम्पदा जिस कारण निरर्थक ही नहीं असह्य बनती जा रही है वह है-मानसिक विक्षोभ। देखने में यही प्रतीत होता है कि अमुक घटनाओं या परिस्थितियों ने अमुक व्यक्ति को आत्महत्या करने के लिए विवश कर दिया, पर वास्तविकता कुछ दूसरी ही होती है। इन लोगों को जो स्थिति असह्य प्रतीत हुई और घबराकर यह अवाँछनीय कृत्य कर बैठे वह वस्तुतः उतनी अधिक जटिल नहीं थी। उन्हीं परिस्थितियों को असंख्य लोग सहन करते हैं और कुछ तो इतने अभ्यस्त हो जाते हैं कि उन्हें जीवन का एक सहज स्वाभाविक अंग मानकर सन्तोषपूर्वक दिन गुजारते हैं। यदि वे कठिनाइयाँ सचमुच ही इतनी असह्य होतीं तो फिर किसी के लिए भी उनमें रहना कितना कठिन होता।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की संग्रहित जानकारियों के अनुसार प्रत्येक एक लाख में से 34 व्यक्ति आत्महत्या करके मरते हैं। संसार के अन्य देशों की तुलना में इस संदर्भ में भारत सबसे आगे है। अकेली दिल्ली में एक वर्ष की गणना में 325 व्यक्तियों ने आत्महत्या की थी जबकि उस वर्ष हत्याएं केवल 60 ही हुईं। यह एक नगर की बात हुई। उसी साल राजस्थान में 873 व्यक्तियों ने आत्महत्या की थी। कोई-कोई अधिक संपन्न और अधिक विलासी नगर भी इसी क्षेत्र में भारत को चुनौती देते हैं।

क्लाड हाटन के अनुसार बीसवीं सदी में जितनी आत्महत्याएं हुई हैं इतनी संसार में इससे पूर्व कभी भी नहीं हुई। अमेरिका मनःशास्त्री डा0 विकवेयर इसका कारण आस्तिकता का अभाव मानते हैं और कहते हैं-”आज का आदमी सुखोपभोग के साधन पाने के लिए जितना आतुर है इतना ही मनोवाँछित स्थिति न पाने पर अत्यधिक विक्षुब्ध भी हो उठता है और उसी अधीरता भरी निराशा से खीजकर पूरा या अधूरा आत्मघात कर लेता है।”

आत्महत्या प्रवृत्ति पर गम्भीर शोध करने वाले विद्वान ओग्ल की गणना है कि संसार में प्रतिवर्ष लगभग साढ़े तीन लाख व्यक्ति आत्महत्या करते हैं। इसमें देश विशेष की परिस्थितियों के कारण अनुपात में बहुत भिन्नता पाई गई है, किसी देश में एक लाख आबादी पीछे हर वर्ष तीस व्यक्ति अपघात करते हैं, तो किसी देश में यह अंक तीन से भी कम रहते हैं। उनने अपने अध्ययन में कुछ और भी निष्कर्ष निकाले हैं-स्त्रियाँ एक तिहाई और पुरुष दो तिहाई अपघात करते हैं। 25 से 30 और 50 से 60 की आयु में ऐसे दुस्साहस अधिक बन पड़ते हैं। जाड़ों में कम और गर्मियों में अधिक ऐसे कृत्य होते हैं।

ओग्ल के अनुसार पिछले पचास वर्षों से समस्त संसार में आत्महत्या की दर प्रायः दूनी हो गई है। आस्ट्रिया, हंगरी, जर्मनी, जापान, अमेरिका और फ्राँस में तो यह और भी ऊंची निकल गई है।

फ्राँस की राजधानी पैरिस में एक वर्ष के केवल चार महीनों के अन्दर 1797 व्यक्तियों ने आत्मघात कर डाला जिनमें अधिकतर युवा महिलाएं थीं।

संसार भर में हर नये दिन प्रायः एक हजार व्यक्ति आत्महत्या द्वारा स्वेच्छा मृत्यु का वरण करते हैं बर्लिन आत्महत्या निरोधक केन्द्र के अध्यक्ष डा0 कलौजा टामस के अनुसार दरिद्र देशों की अपेक्षा सम्पन्न देशों में यह प्रवृत्ति अधिक पनपी है, इसका कारण उनका खिन्न मानस एवं असन्तोष भरा जीवन स्तर है।

मूर्ख, अपढ़, अज्ञानी या विपत्तिग्रस्त लोग ही आत्महत्या करते हों, सो बात नहीं। मानसिक विक्षोभ जब सिर पर सवार होता है तो बुद्धिमान समझे जाने वाले और करोड़ों से अधिक सुविधा सम्पन्न जीवन जीने वाले भी उस कुकृत्य को करने के लिए उतारू हो जाते हैं।

विद्वान गेटे आत्महत्या करना चाहता था। इसके लिए वह एक बढ़िया सा चाकू खरीद कर लाया और बहुत दिन तक उसे तकिये के नीचे खुला रखकर सोता रहा ताकि किसी दिन हिम्मत जुटा सके तो अपना काम तमाम करले, पर बहुत दिन बीत जाने पर भी उससे वैसा बन नहीं पड़ा। अन्ततः उस चाकू को उसने ऐसे ही फेंक दिया।

वायरन जिन दिनों चाइल्ड हैराल्ड के लेखन में व्यस्त थे उन दिनों उन पर आत्महत्या की सनक बहुत तेज थी, पर उन्हें अपनी सास का दुलारा याद आता रहा और वे अपने निर्णय से मुकर गये।

यूनान के महान् दार्शनिक डायोजिनीस अपने हाथों फाँसी लगाकर मरे थे। चीनी साहित्यकार ‘लाओसे’ भी अपनी मौत स्वयं बुलाकर लाये थे।

भावुक बुद्धिजीवी अक्सर इस प्रकार के दुस्साहस पूर्ण कार्य कर बैठते हैं। ‘मृच्छ कटिक’ के लेखक शूद्रक आग में जल मरे थे। ‘जानकी हरण’ महाकाव्य का लेखक सिंहल का राजा कुमारदास कालिदास की मृत्यु का शोक न सहकर चिता में जल गया था।

लैटिन कवि एम्पेदोक्लीज ने ज्वालामुखी में कूदकर आत्मघात किया था। लुकेशियस ने अपनी मृत्यु को अमर बनाने की दृष्टि से यह दुस्साहस किया। महाकवि चैटरटन ने दरिद्रता से पीछा छुड़ाने के लिए विष पीना उपयुक्त समझा। गोर्की ने अपनी सारी पूँजी खर्च करके पिस्तौल खरीदी और फिर उसी की गोली से अपने पेट को विदीर्ण कर डाला। यहूदी साहित्यकार स्टोफेनज्विग ने अपने अपघात का कारण बताते हुए पुर्जा छोड़ा-”अब संघर्षों से टकराने की मेरी शक्ति चुक गई है। अशक्त जीवन का अन्त कर लेना मुझे अधिक अच्छा जंचा।”

चित्रकार लाडवे ने अस्पताल की चारपाई पर ही अपने पेट में गोली मारली। पास की चारपाई पर पड़े मरीज ने हड़बड़ा कर कारण पूछा तो उसने इतना ही उत्तर दिया-’कुछ नहीं, जरा यों ही निशाना आजमा रहा था।’ एक दूसरा चित्रकार बानगाँग भी इसी प्रकार अपने ऊपर गोली दाग कर मरा। लोग दौड़कर आये और ‘यह सब क्या हुआ’-पूछा तो उसने पाइप से धुएं का आखिरी कश छोड़ते हुए कहा-”जरा चिड़ियों की शिकार कर रहा था।”

आत्महत्या का प्रयास करने वाले सदा कृतकार्य ही नहीं हो जाते बहुत करके वे बच भी जाते हैं। राबर्ट क्लाइव ने अपने जीवन में तीन बार आत्महत्या का प्रयत्न किया, पर पिस्तौल की गोली ठीक निशाने पर लगी ही नहीं।

बुद्धिमान कहे जाने वालों में से कितने ही मूर्धन्य व्यक्ति ऐसे हुए हैं जिनने तनिक-सी परेशानी से उद्विग्न होकर आत्महत्या करली। ऐसे लोगों में सेफो, डोमेस्थनीज, ब्रूटस, केसियस, क्लाइव, डेमोक्लीज, हनीवाल, बर्टन जैसे लोगों के नाम सर्वविदित हैं।

मनःशास्त्री राबिन्स का अध्ययन निष्कर्ष यह होता है कि आत्महत्या की चेष्टा में सफल और असफल लोगों में अधिकाँश का मानसिक ढाँचा अवास्तविकताओं से जकड़ा हुआ पाया गया। वे जिन्दगी के बारे में असामान्य ढंग से सोचते रहे-समस्याओं का असामान्य मूल्याँकन करते रहे और सर्वविदित सीधे-सीधे निष्कर्षों को अपनाने में असफल रहे। उनकी मानसिक विकृतियों ने ही उनके लिए मकड़ी बनकर ताना-बाना बुना और उस अपने ही जाल में उलझ कर वे बेमौत मर गये।

आत्महत्या के अनेक तरीके अपनाये जाते रहे हैं। पानी में डूबना, ऊँचे स्थान से नीचे गिरना, विष खाना, फाँसी लगाना और आत्मदाह करना इन उपायों में अधिक प्रचलित हैं। एक दुःख को हलका करने के लिए दूसरा उससे बड़ा दुःख मोल लेना भी एक उपाय सोचा जाता रहा है यद्यपि वह इच्छित लाभ प्राप्त करने में तनिक भी सहायक नहीं होता। अताई इलाज में एक उपचार यह भी था कि किसी के पेट में दर्द हो तो लोहे की गरम सलाख से उसकी छाती दाग दी जाय इससे जलने का कष्ट इतना बड़ा होता है कि रोगी पेट के दर्द की बात भूल जाता है। लगभग इसी स्तर का दुस्साहस यह है कि अमुक चिन्ता अथवा आपत्ति से छुटकारा पाने के लिए आत्महत्या जैसी बड़ी आपत्ति को अपना लिया जाय।

जिस प्रकार शरीर में अनेक प्रकार के विकृत विषाणु प्रवेश करके विविध चिन्ह लक्षणों वाले रोग उत्पन्न करते हैं, उसी प्रकार मनःक्षेत्र में कई तरह की विकृतियाँ अपनी जड़ जमा लेती हैं और परिपूर्ण उन्माद न सही उससे मिलते-जुलते--उतने ही विघातक भयावह मानसिक रोग उत्पन्न करती हैं।

डिमेशिया प्रिकोक्स अर्थात् किशोरावस्था की हिंसात्मक सनक-डिमेंशिया पैरालिटिका अर्थात् आवेश का सामयिक दौरा-मैलन कोलिया अर्थात् विषाद रोग-न्यूरस्थेनिया अर्थात् स्नायुविक असन्तुलन जैसी कितनी ही विकृत मनःस्थितियाँ ऐसी हैं, जो विवेक को अस्त-व्यस्त करके रख देती हैं और समयानुसार जो भी उभार आता है उसी में मस्तिष्क इतनी तीव्रगति से बहता चला जाता है, जिसमें अपने को संभाल सकना कठिन पड़ता है।

आवश्यक नहीं कि ऐसे लोगों के लिए उत्तेजना का कोई वास्तविक या बड़ा कारण हो तभी वे आवेश ग्रस्त हों-तनिक-सी मामूली घटना उन्हें उद्विग्न एवं विक्षिप्त बना देने के लिए पर्याप्त होती है। जरा-सी बात पर वे आग-बबूला की तरह आवेशग्रस्त हो सकते हैं क्या करना चाहिए क्या नहीं- क्या कहना चाहिए क्या नहीं- क्या सोचना चाहिए क्या नहीं की विवेचना करना उनसे नहीं बन पड़ता। अन्धड़ चक्रवात की तरह तो भी विचार, जो भी प्रवाह जिस भी दिशा में चल पड़ा बस चलता ही चला जाता है। इन उभारों में अक्सर विगठनात्मक, हिंसात्मक, निषेधात्मक-तोड़-फोड़ परक होते हैं। विक्षिप्तता विनाश की दिशा में बढ़ाती है। सृजन के लिए-समाधान के लिए सन्तुलन की आवश्यकता होती है, वह जब हाथ में रहा ही नहीं ते फिर उचित-अनुचित का भेद कौन करे?

विधुर और विधवाएं बाल-बच्चों वालों एवं विवाहितों की अपेक्षा इसलिए अधिक संख्या में बेमौत मरने हैं कि उनकी मनोभूमि स्नेह, सौजन्ययुक्त वातावरण से दूर, नीरस एवं घुटन भरी रह रही होती है।

मनोविज्ञानी कालमैन के अनुसार अशिक्षितों की अपेक्षा शिक्षित और ग्रामीणों की अपेक्षा शहरी लोग अधिक भावुक उलझनों में फंसते हैं और उद्विग्नताओं से बच निकलने का कोई मार्ग न देखकर अपना विनाश करने पर टूट पड़ते हैं।

जितने लोग आत्महत्या से मरते हैं। उससे दस गुने लोग वैसा करने की बात सोचते रहते हैं, पर साहस के अभाव में वैसा कर नहीं पाते। कुछ लोग न तो करते हैं और न करने का उनका इरादा ही होता है मात्र सम्बन्धियों को डरा-धमकाकर अपना उल्लू-सीधा करने के लिए उस तरह की बकवास करते रहते हैं।

समाज-शास्त्री विलियम के अध्ययन के अनुसार आस्ट्रेलिया का कभी कोई आदिवासी आत्महत्या नहीं करता।

फ्राँसीसी समाज विज्ञानी एमाइल दुर्खीम के अनुसार बच्चे कदाचित ही आत्महत्या करते हैं। किशारों में भी यह प्रवृत्ति कम ही पाई जाती है। उम्र के साथ-साथ यह मनोविकार बढ़ता है। प्रणय, परिक्षा मानहानि और व्यापार में असफल युवक अक्सर ऐसा दुस्साहस कर बैठते हैं। बूढ़े सबसे ज्यादा आत्महत्या करते हैं। वे जिन्दगी से ऊबे, थके और निराश होते हैं। अस्तु किसी भी छोटे कारण से विषादग्रस्त होकर अपनी जान गंवा देते हैं। उन्हें अपने चारों ओर अंधेरा बिखरा दीखता है, जिससे डरकर वे जिस एक अंधेरे कोने में जा घुसते हैं उसी का नाम आत्महत्या है।

आत्महत्या के मोटे एवं प्रत्यक्ष कारणों में गृहकलह, मानहानि, पश्चाताप, परिक्षा आदि प्रयोजनों में असफलता, भविष्य की निराशा, दरिद्रता, असाध्य रोग, दण्ड भय, असफल प्रेम, आदर्शवादी दुस्साहस आदि कारण गिनाये जा सकते हैं। किन्तु उसका वास्तविक कारण एक ही है मनःक्षेत्र की ऐसी दुर्बलता जो विपरीत परिस्थितियों का तनिक-सा दौर आते ही भड़क उठती है और बेकाबू होकर अनर्थ के गर्त में जा गिरती है। दुर्बल शरीर वाले व्यक्ति भी तनिक-सी ठोकर खाकर औंधे मुँह गिर पड़ते हैं। तनिक-सी सर्दी-गर्मी न सह सकने के कारण भयंकर रोगों से ग्रसित हो जाते हैं। मानसिक स्वास्थ्य को धीरे-धीरे बिगाड़ते हुए लोग उस स्थिति तक जा पहुँचते हैं जहाँ आत्महत्या दुर्घटना को अप्रत्याशित नहीं कहा जा सकता।

चिन्तन की सही पद्धति यदि समझी और समझाई गई होती तो स्थिति को सहन या सुधारने की अभीष्ट विधि-व्यवस्था अपनाने की आदत डाली गई होती और इन आत्महत्या करने वालों में से अधिकाँश के प्राण बच सकते थे क्योंकि वस्तुतः जीवन सम्पदा को कूड़े-करकट के ढेर में फेंक देने को विवश करने वाली कोई भी विपत्ति इस संसार में है ही नहीं।

‘मैलन कोलिया’ के रोग विषादग्रस्त रहते हैं वे दुखी, असन्तुष्ट एवं क्षुब्ध रहने के लिए कोई न कोई कारण अपने इर्द-गिर्द ही ढूंढ़ लेते हैं। किसी न किसी को अपने दुःखद चिन्तन का पात्र चुन लेते हैं। वस्तुतः वे व्यक्ति या वे परिस्थिति विक्षोभ कारक उतने नहीं होते जितना कि उन्हें गढ़ लिया गया है।

‘रैप्टस मेनेकलिक्स’ उस सनक का नाम है जिसमें मनुष्य दण्ड देने के लिए आतुर रहता है, पर वह इसके लिए अपने आपको ही चुनता है। आत्म-प्रताड़ना के लिए इसकी इच्छा निरन्तर उठती है। भोजन न करने, कपड़े न पहनने, सिर धुनने से लेकर आत्महत्या करने तक की चेष्टाएं वह करता है। कभी-कभी अपने उपयोग की आवश्यक वस्तुओं तक को तोड़-फोड़कर फेंक देता है। ऐसा करने से उसे अपने विक्षोभ का समाधान होने की बात सूझती है।

दूसरों के क्षोभ को शान्त करने के लिए स्वयं दुखी होने की स्थिति अपना लेना भी ऐसा ही विचित्र चिन्तन है जिसे अक्सर सहानुभूति एवं सहायता के लिए अपनाया जाता है। किसी स्वजन के कष्ट निवारक के लिए अपने आप की बलि किसी देवी-देवता पर चढ़ा देना अथवा विवाह योग्य कन्याओं का इसलिए आत्मघात कर बैठना कि इससे उनके अभिभावकों को अर्थ चिन्ता से छुटकारा मिल जायगा- ऐसे ही दुस्साहस भरे कदम हैं। इनमें आदर्शवाद, उदारता, सहानुभूति जैसे तत्वों का पुट तो होता है, पर यह स्मरण नहीं रहता कि इस कदम से अपना बहुमूल्य जीवन ही नष्ट नहीं होगा वरन् जिनके लिए यह सब किया जा रहा है उनकी कठिनाई, चिन्ता एवं विपत्ति और अधिक बढ़ जायगी।

प्राचीनकाल में आत्मघात को धार्मिक प्रशंसा प्रदान करने का भी कभी-कभी प्रचलन रहा है। इसके पीछे भारत की मूल संस्कृति नहीं वरन् सामयिक विचार विकृति ही झाँकती है। संन्यासियों की स्वाभाविक मृत्यु की अपेक्षा स्वेच्छा मरण की प्रशंसा की गई है। बौद्ध-धर्म और जैन-धर्म में ऐसे विधान भिक्षु जनों के लिए उनके धर्म-ग्रन्थों में मिलते हैं, भले ही वे पीछे जोड़े गये हैं। पाण्डवों का स्वर्गारोहण, मंडन मिश्र का तुषाग्नि संदाह, ज्ञानेश्वर की जीवित समाधि आदि अनेक ऐसी घटनाएं इतिहास के पृष्ठों पर अंकित हैं, जिन्हें सराहा ही जाता है। चित्तौड़ की रानियों का सामूहिक रूप से आत्मदाह और मृत पतियों के साथ अनेक पत्नियों का सती हो जाना ऐसे ही कृत्यों में गिना जाता है जिसके लिए उन्हें प्रशंसा योग्य ठहराया जाय।

इतिहास, पुराणों में ऐसे अनेकों घटना प्रसंग उपलब्ध हैं जिनमें कतिपय नर-नारियों ने धार्मिक प्रयोजनों के लिए अथवा दूसरों की तुलना में अपने को अधिक आदर्शवादी, अधिक साहसी सिद्ध करने के लिए आत्मघात किये हैं। पराजित एवं असफल लोगों द्वारा प्राण त्याग करके अपनी ग्लानि मिटाने की घटनाएं तो सदा ही होती रही हैं। उन्हें लोगों ने सराहा तो नहीं, पर सहानुभूति की दृष्टि से अवश्य देखा। मृतकों के लिए यह सहानुभूति चिन्तन भी प्रेरक बना। आत्मघात का साहस न कर सकने पर अपनी सन्तान की अथवा पशु-पक्षियों की बलि चढ़ा देने की प्रथा तो एक प्रकार से किसी काल में मान्यता प्राप्त धर्म कृत्य बन गई थी और कहीं-कहीं अभी तक उसका प्रचलन मौजूद है।

आत्महत्या को भी दूसरों की हत्या के समान ही गर्हित कर्म माना जा सकता है। प्राचीनकाल में इसे बहुत बुरा कहा जाता था और मरने के उपरान्त भी इस कुकृत्य करने वाले की भर्त्सना की जाती थी।

योरोप में उन दिनों आत्महत्या करने वालों के प्रति बहुत अनुदार दृष्टिकोण था। उनकी लाशें सड़कों के आस-पास कूड़े के ढेर में दबादी जाती थीं और भयंकर आकृतियाँ वहाँ खड़ी कर दी जाती थीं, ताकि उन मरने वालों की बदनामी हो। इन परिस्थितियों को बदलने में डेविसह्ययूम, वाल्टेयर, रूसो जैसे दार्शनिकों ने आवाज उठाई थी और कहा था, आदमी को जीने की तरह मरने की भी आजादी होनी चाहिए।

कुरान में दूसरों को हत्या करने से भी अधिक जघन्य पाप आत्महत्या को बताया है। यहूदी धर्म में भी ऐसा ही है, उसमें आत्महत्या करने वाले के लिए शोक मनाने और उसकी आत्मा को शान्ति देने के लिए प्रार्थना करने की भी मनाही है। ईसाई धर्म में भी इसे घृणित पातक बताया गया है। 11 वीं शताब्दी में इंग्लैंड में एक कानून बना था, जिसमें आत्महत्या करने वाले की सम्पत्ति जब्त करली जाती थी और उसके शव को किसी ईसाई कब्रिस्तान में धार्मिक विधि से दफनाया नहीं जा सकता था।

आत्महत्या का प्रयत्न करने वाले को रोगी माना जाय या अपराधी? इस प्रश्न के उत्तर में मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि ऐसे लोगों का उचित स्थान जेलखाना नहीं, वरन् पागलखाना है। भारत सरकार की मानसिक स्वास्थ्य परामर्शदात्री समिति को तत्कालीन केन्द्रीय स्वास्थ्य मन्त्री डा0 सुशीलानैयर ने सुझाव दिया था कि आत्महत्या की चेष्टा एक मानसिक विकृति है इसलिए इस प्रकार का प्रयत्न करने वालों को अपराधी नहीं वरन् रुग्ण व्यक्ति माना जाना चाहिए। अब इंग्लैंड के कानूनों में भी इस संदर्भ में सुधार कर लिया गया है, उन्हें दण्डनीय नहीं माना जाता।

कलकत्ता के एक न्यायाधीश अदालत में आये हुए एक आत्महत्या का प्रयत्न करने वाली वृद्धा नागेश्वरी देवी को मात्र साँकेतिक दण्ड देते हुए रिहा कर दिया था। उन्होंने अपने फैसले में दफा 309 को अमाननीय और उपहासास्पद बताते हुए लिखा था- अगर हम किसी व्यक्ति को असह्य वेदनाओं से मुक्ति नहीं दिला सकते तो उसे ऐसी मौत मरने का अधिकार होना चाहिए जिसमें वह पीड़ा झेलने की अपेक्षा राहत पा सके।

समाज की अवाँछनीय परिस्थितियाँ मनुष्यों को विक्षुब्ध करती हैं। स्नेह, सौजन्य का अभाव, नैतिकता का गिरता हुआ स्तर, शोषण, उत्पीड़न, ठगी और विश्वासघात, गरीबी, बेकारी, हानि और बर्बादी जैसे कारण मनुष्य को दुःखी बनाते हैं। सामाजिक कुरीतियों के कुचक्र में कितने ही व्यक्ति पिसते हैं। इन प्रचलनों को बन्द करना सरकार और समाज का काम है। समाज की संरचना ऐसी होनी चाहिए जिसमें हर व्यक्ति को निर्वाह, प्रगति और सुरक्षा के समुचित साधन प्राप्त हों कोई किसी के साथ अनीति न बरत सके। इसके अतिरिक्त एक अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य यह भी होना चाहिए कि स्वास्थ्य रक्षा और अर्थ उपार्जन की तरह ही चिन्तन तन्त्र का सही उपयोग कर सकने की क्षमता भी सर्व साधारण में उत्पन्न की जाय, इसके लिए मानसिक प्रशिक्षण की एक समर्थ प्रक्रिया खड़ी की जानी चाहिए इसके बिना आत्महत्या जैसे संकट उत्पन्न करने वाले मनोरोगों का भड़कता हुआ दावानल रोका न जा सकेगा।


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