प्रकाश भरा आनन्द हमारी ही मुट्ठी में है

November 1975

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

सत्ता केवल प्रकाश की है। अन्धकार कोई पदार्थ नहीं। प्रकाश के अभाव का नाम ही अन्धकार है। प्रकाश की नाप-तोल और व्याख्या विवेचना हो सकती है। अन्धकार का कोई प्रमाण परिमाण नहीं। अभाव अपने आप में डरावना है इसलिए अन्धकार डरावना लगता है। अनिश्चित से अविज्ञात से डर लगता है। वस्तुस्थिति जब समझ ली जाती है तो डर चला जाता है। मौत इसलिए डरावनी है कि उनके उदर में चले जाने के उपरान्त क्या होता है, इसका निश्चय नहीं। यदि वस्तुस्थिति का सुनिश्चित ज्ञान रहा होता तो कोई भी उससे डरता नहीं। अपना घर छोड़कर बम्बई जाने की कल्पना हमें डराती नहीं, शरीर छोड़कर अन्यत्र जाने का भी डर निरस्त हो सकता था। यदि गन्तव्य स्थान के सम्बन्ध में समाधान कारक जानकारी रही होती। जो नहीं है वही अविज्ञात है और वही डरावना। इतना जान लेने के बार हमें ज्ञान का प्रकाश खोजना पड़ता है ताकि उस बहुमूल्य सत्ता से लाभान्वित हो सके और अभाव जन्य अन्धकार द्वारा पग-पग पर मिलने वाले वास से छुटकारा पा सके।

इस संसार में केवल श्रेष्ठ है। अश्रेष्ठ कुछ नहीं। मनुष्य श्रेष्ठ से बना है। उसकी पुनीत संरचना में अश्रेष्ठ का रंच मात्र दी उपयोग नहीं हुआ है। होता तो तभी न जब इस विश्व में कहीं अश्रेष्ठ की सत्त रही होती। अंधकार की तरह अश्रेष्ठ भी एक अभाव की अविज्ञात की अनिश्चय की स्थिति है। यद्यपि उसका कोई अस्तित्व नहीं तो भी अनस्तित्व की भयानक विभीषिका तो है ही।

श्रेष्ठ को जब अपना आहार नहीं मिलता तो वह भूख प्यास से व्याकुल होकर निकृष्ट बन जाता है। क्षुधा और तृषा की आतुरता में वह भटकता है तृप्ति के शुद्ध साधन मिलते नहीं तो वह खाने पीने लगा है। जो कृमि कीटकों के योग्य था मनुष्य के लिए अयोग्य। इस अयोग्य को गले से नीचे उतारने की स्थिति में जब भी जहाँ भी मनुष्य पाया जाता है तब उस पर निकृष्टता का दोषारोपण किया जाता है।

श्रेष्ठ और निकृष्ट के बीच की एक और भी स्थिति है भ्रमित। पतवार रहित चालक रहित नौका लहरों के इशारे पर निरुद्देश्य भ्रमण करती रहती है। वह डूबती तो नहीं पर कहाँ पहुंचेंगी इसका कुछ निश्चय नहीं। अंधड़ के साथ उड़ते तिनके नष्ट तो नहीं होते पर किस लक्ष्य तक पहुँच पावेंगे इसका क्या भरोसा।

श्रेष्ठ यह है कि जो अपनी आन्तरिक सम्पन्नता को समझता है और उससे उदारतापूर्वक दूसरों को झोली भरकर अपने को सन्तुष्ट एवं दूसरों को सुखी बनाता है। पका फल अपने में सन्तुष्ट एवं दूसरों को सुखी बनाता है। समीक्षकों का सम्मान पाता है और उपभोक्ताओं को सुख देता है। यह श्रेष्ठता है। मनुष्य की मूल सत्ता श्रेष्ठ है और उसका स्वभाव श्रेष्ठता से भरा पूरा है।

निरुद्देश्य घृणा का पात्र नहीं, दया का पात्र है। भटकाव ने उसे दिशा नहीं और वह पानी की लहरों के साथ हवा के झोंकों के साथ इधर-उधर भटकते रह कर बहुमूल्य अवसर से हाथ धो बैठा। तोतली बोली में बोलते बच्चे किसी का अनिष्ट तो नहीं करते लंगड़ाकर चलने वाले अपंग उलटे तो नहीं चलते। उनके साथ गति तो है। अगति का दोष उन पर नहीं मढ़ा जा सकता।

चिन्ताजनक निकृष्टता है क्योंकि उसमें विकृति भरती जा रही है। जहाँ अभाव होगा वहाँ डराएगा और डरा हुआ व्यक्ति हतप्रभ होकर कुछ भी करने पर उतारू हो जायेगा। भयभीत मनुष्य काँपता है। दीन वचन बोलता है और अनिश्चित दिशा में दौड़ता है। फलस्वरूप स्थिति उससे भी बुरी बन जाती है जो सम्भावित विपत्ति के सचमुच आधमकने पर हो सकती थी।

हम प्रकाश को देखें और समझे यही उचित है। अपने स्वरूप, बल और लक्ष्य को समझे यही बुद्धिमत्ता पूर्ण है। हमारी प्यास, श्रेष्ठ का सेवन करने से ही बुझेगी। आत्मा की प्यास श्रेष्ठता के शीतल निर्झर के तल तक पहुँचकर ही बुझ सकती है।

मानवी गौरव के नीचे गिर कर जिस महाशून्य में उतरते हैं। वही भयावह है, वही निकृष्ट है। यदि अपनी मूल सत्ता के गरिमा भरे अस्तित्व को समझना और उसके उपयुक्त रीति नीति अपनाना सम्भव हो सके तो समझना चाहिए कि अपने सुखद संसार का और समुन्नत भविष्य का निर्माण हो गया। इस निर्माण के विश्वकर्मा हम स्वयं ही है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles