अपने ब्रह्माण्ड का जन्म और मरण

November 1975

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फ्रीडमैन से लेकर आइन्स्टीन तक अब संसार के सभी प्रमुख अन्तरिक्ष विज्ञानी यह स्वीकार करते हैं कि ब्रह्मांड निरन्तर फैल रहा है। सभी खगोलीय पिण्ड एक दूसरे से दूर हटते जा रहे है। यह विलगाव जिस गति से बढ़ता जाता है उसी अनुपात से उनकी धावन क्रिया में तीव्रता आती जाती है। आकाश गंगायें पहले की अपेक्षा अब एक दूसरे से बहुत दूर चली गई है और यह फासला निरन्तर बढ़ता ही जा रहा है। आखिर यह फैलाव कब तक बढ़ता चलेगा? क्या कभी रुकेगा नहीं? क्या ब्रह्मांड पोल का कोई अन्त नहीं है? क्या नक्षत्रों की वर्तमान विलगाव प्रतिस्पर्धा अनन्त काल तक ऐसे ही चलती रहेगी?

इन प्रश्नों के उत्तर खोजते खोजते खगोलवेत्ता इस निष्कर्ष पर पहुँचे है कि ग्रह नक्षत्रों की तरह यह शून्य भी गोल है। जिस तरह पृथ्वी पर सीधी रेखा बनाकर लगातार चलते ही रहा जाय तो चलने वाला अंततः वही जा पहुँचेगा जहाँ से उसने यात्रा आरम्भ की थी।

बच्चे धीरे ठुमकते हैं। वे उँगली पकड़ने पर चलते हैं जवानों की चाल तेज होती है और बूढ़े होने पर गति फिर मन्द हो जाती है और लाठी के सहारे किसी तरह थोड़ा बहुत चला जाता है। यह हाल इन ग्रह पिण्डों का होना है। वे आरम्भ में मन्द गति से नाचते, दौड़ते थे पीछे अब उनकी प्रौढ़ावस्था में चाल बढ़ गई है। वे एक दूसरे से दूर हटाने में अपनी तीव्र गति की भी प्रतिष्ठा एवं प्रतिस्पर्धा का प्रश्न बनाते जा रहे है। पर यह सब देर तक चलने वाला नहीं है। बुढ़ापा आने में बहुत विलम्ब नहीं। मात्र कुछ अरब खरब वर्ष लगेगा कि उनकी कमर झुक जायेगी और गरदन हिलने लगेगी तब वे लड़खड़ाते हुए गिरते पड़ते किसी प्रकार चलने की लकीर पीटेंगे और फिर थक कर बैठ जायेंगे। हो सकता है कि बैठने के साथ साथ ही मृत्यु क्रिया भी सम्पन्न हो जाय।

अन्तरिक्ष में फैली हुई आकाश गंगायें अब एक दूसरे से हजारों प्रकाश वर्ष की दूरी पर है। पर प्रारम्भ में ऐसा नहीं था। ब्रह्मांड का सारा पदार्थ एक ही जगह केन्द्रित था। तब एक ठोस सिल्ली जैसा था। फ्रीडमैन के अनुसार अब से कोई दस अरब वर्ष पहले आदिम संसार का पदार्थ घनत्व की चरम सीमा पर था। पीछे उसमें विघटन प्रारम्भ हुआ और पानी के बबूलों की तरह टूटे हुए काँच के टुकड़ों की तरह वह बंटता चला गया। उनकी रेंगने जैसी हलचल ने बीच में पोल पैदा की और पोल में प्रतिपदार्थ शैतान घुस बैठा, उसने हर टुकड़े को बहकाया और अलग रहने दूर जाने और अलग घर-परिवार बसाने के लिए रजामंद कर लिया। बस यही से ब्रह्मांडीय हलचलें आरम्भ हो गयी। तब से वह सिलसिला कभी घटा नहीं वरन् क्रमशः तेजी ही पकड़ता गया है। आरम्भ में घनीभूत बन्द ब्रह्मांड था। अब वह विरल और खुला ब्रह्मांड कहे जा सकने की स्थिति में है।

ब्रह्म अनादि और अनन्त हो सकता है। पर ब्रह्मांड के बारे में वैसा नहीं कहा जा सकता है। अधिक से अधिक यह कहा जा सकता है कि पदार्थ प्रकृति अनादि अनन्त है। वह ब्रह्मा की तरह ही शाश्वत है। ब्रह्मांड का अर्थ यदि आकाशीय पिण्डों का समूह कहा जाय तो उसका आरम्भ भी भूतकाल में कभी अवश्य ही हुआ था और एक दिन उसका अन्त भी होगा। यद्यपि जन्म मरण की ठीक जन्म पत्री नहीं बन सकती तो भी इतना तो कहा ही जा सकता है कि वह अपने गणना साधनों की चुनौती देता हुआ किसी न किसी दिन जन्मा जरूर था और भले ही हम उसकी ठीक तिथि और घड़ी न बता सके तो भी उसका मरण निश्चित है।

सोवियत विज्ञान अकादमी के दो मूर्धन्य वैज्ञानिक यवगेची लिफशित्स और इजाक खालातनिकाव ने अमेरिकी वैज्ञानिकों की उस मान्यता का खण्डन किया है कि पदार्थ अपनी आदिम स्थिति में बहुत गर्म था और केवल न्यूट्रोनों का बना था। सोवियत वैज्ञानिकों ने अपने पक्ष समर्थ में अनेकों तर्क और प्रमाण प्रस्तुत करते हुए कहा है कि आदिम पदार्थ ठंडा या और प्रोटानों इलेक्ट्रानों और न्यूट्रोनों से बना था। किसी पदार्थ का ठोस रहना तभी सम्भव है जब वह ठंडा हो। गर्मी स्वभावतः विरलता उत्पन्न करती है। ब्रह्मांड में हाइड्रोजन तत्व का बाहुल्य है। वह प्रारम्भ में जमे बादल की तरह था पीछे वह ओलों की तरह बरसने लगा और आकाशीय पिंड के रूप में विरल हो गया।

इन पिण्डों का मन मुटाव है। वे दुहरी चाल वाले रहे है और दुरंगी नीति अपना रहे है। एक ओर तो उनका अहंकार अलग अस्तित्व सिद्ध करने और स्थिरता में वर्चस्व सिद्ध करने में लगा हुआ है दूसरी और विवेक कहता है इस मूर्खता से क्या लाभ? संयुक्त रहने और मिल जुलकर रहने का अपना आनन्द है। जब अपना शैशव एक घर में हँसी खुशी से बीत रहा था तो अब फिर उसी तरह रहने में क्यों आपत्ति होनी चाहिए। महत्वाकांक्षाएं प्रगति प्रगति प्रगति की रट लगाये हुए है और लम्बी कुलाचें भरने के लिए विवश करती है। दूसरी ओर शान्ति स्नेह और सहयोग की ओर भी मन ललचाता है सो दोनों प्रवृत्तियाँ अपना अपना काम करती है। एक ओर तारक भाग रहे है साथ ही एक दूसरे को अपने प्रभाव में पकड़े जकड़े भी है। पृथकतावाद का बोलबाला है फिर भी हर आकाश गंगा ने हर महासूर्य ने अपना अच्छा खासा परिवार बसा रखा है और ढेरों पोते, परपोतों को लेकर एक एक गाँव मुहल्ला बसा लिया है।

यह कहना कठिन है कि आकाशीय पिंड दूर जा रहे है या वापिस लौट रहे है। अधिक से अधिक यही कहा जा सकता है कि उनकी आधी दौड़ दूरी की दिशा में और आधी वापसी की दिशा में निर्धारित है। डर्वी के घोड़े एक गोल चक्कर में दौड़ते हैं और अन्त में वे वही आकर खड़े होते हैं जहाँ से चले थे। लगते हैं आकाशीय पिण्ड पहले से ही डर्वी के घोड़ों की तरह एक गोल चक्कर में दौड़ दिखाने और हम दर्शकों का कौतूहल बढ़ाने के लिए धमाचौकड़ी लगाये हुए है। वे एक दिन अपने पुराने अस्तबल में जा बंधेंगे।

नौजवानी का जोश आखिर ठण्डा तो होना ही है। खून की गर्मी सदा एक सी तो नहीं बनी रहती। महत्वकांक्षाओं का आवेश शराब के नशे की तरह सदा तो नहीं बना रहता। खुमारी उतरती है तो नये ढंग से सोचना पड़ता है। तब शान्ति के साथ रहने और चैन की साँस लेने को जी करता है। मनुष्यों की तरह इन ग्रहपिंडों का भी यही हश्र होना है। जब वे आधी मंजिल पार कर लेंगे और प्रौढ़ावस्था की ढलती उम्र आ जायेगी तो वे अपनी घुड़दौड़ हल्की करेंगे, लंगड़ाते लड़खड़ाते चलेंगे। ठण्डे होते जायेंगे और वह ठंडक जहाँ शीतल शान्तिदायक होगी वहाँ नीरस एवं नीरव भी। अकड़े जकड़े अंग बैठने सुस्ताने को विवश कर देखें तो यह बूढ़ा ब्रह्मांड थककर बैठ जायेगा और लम्बी चादर ओढ़कर चिरनिद्रा की गोद में चला जायगा।

पर विधाता भी कैसा विचित्र है। उसे न जाने बार-बार बनाने बिगाड़ने में क्या मजा आता है? नादान बच्चों की तरह वह बार-बार अपना भानमती का पिटारा खोलता है और खिलौने इधर उधर बखेर देता है। पीछे उन्हीं को समेट समाट कर फिर पिटारी बन्द कर लेता है। मकड़ी की प्रशंसा है कि अपने पेट में से जाला निकाल कर बुनती है और फिर उन्हीं धागों को समेट कर निगल जाती है। प्रजापति को मकड़ी तो नहीं कह सकते और भानमती का पिटारा बगल में दबाये फिरने वाला नादान बच्चा कहना ही उचित है। यह उनकी शान में गुस्ताख़ी की बात होगी। फिर भी लगता है हरकतें कुछ इसी किस्म की है अन्यथा बने को बिगाड़ना बिगड़े को बनाना भला यह भी कोई काम है?


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