अपनों से अपनी बात

November 1975

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अखण्ड-ज्योति परिवार के परिजनों को नव-जीवन उपलब्ध करने की दिशा में अग्रसर होना चाहिए। यह आग्रह और अनुरोध इन पृष्ठों पर विभिन्न प्रकार के तर्कों और तथ्यों के साथ किया जाता रहा है। इस अनवरत आग्रह के पीछे एक ही आकाँक्षा है कि हम सब ऐसा जीवन जीने का लाभ प्राप्त कर सकें जो हर्षोल्लास से, शान्ति और सन्तोष से, प्रसन्नता और प्रफुल्लता से, समृद्धि और प्रगति से भरा-पूरा हो।

मनुष्य जीवन की गरिमा को समझा नहीं जा सका तो उसे सबसे बड़ा दुर्भाग्य कहना चाहिए। सृष्टि के समस्त प्राणियों की अपेक्षा मनुष्य को जो मिला है, उसे अतुलनीय ही कह सकते हैं। परम प्रभु ने अपने बड़े बेटे को जो उत्तराधिकार सौंपा है, उसका प्रत्येक

हम नव-जीवन उपलब्ध करें-मनुष्य जन्म सार्थक बनाये पक्ष अद्भुत है। सामान्य दृष्टि से तो हम भी पेट और प्रजनन में निरन्तर व्यस्त अगणित समस्याओं से उलझे और संकटों के दल-दल में फंसे नगण्य जीवधारी भर हैं। अन्य प्राणी निर्वाह और सुरक्षा भर की समस्याएं अपने पुरुषार्थ से हल करते और चैन के दिन गुजारते हैं। मनुष्य आन्तरिक उलझनों, महत्वाकाँक्षाओं, मनोविकारों और प्रतिकूल परिस्थितियों से इतना उद्विग्न रहता है कि दिन गुजारने भारी पड़ते हैं। जिन्दगी की लाश बड़ी कठिनाई से ही ढो सकना सम्भव हो पाता है। आश्चर्य होता है कि अन्य प्राणियों की तुलना में इतना अधिक साधन सम्पन्न मनुष्य इस सुअवसर से हर घड़ी उल्लसित रहने की अपेक्षा किस कदर शोक सन्तोष भरे नीरस और निरर्थक दिन गुजरता है।

यह दुर्भाग्य न तो ईश्वर प्रदत्त है और न परिस्थिति जन्य। यदि ऐसा होता तो हर किसी के पल्ले एक जैसी स्थिति बंधी होती। ईश्वर को अपने सभी पुत्र समान रूप से प्रिय हैं। उसने लगभग समान क्षमता और प्रतिभा हर किसी को देकर यह अवसर प्रदान किया है कि विवेक सम्मत दूरदर्शिता अपनाकर स्वयं सुखपूर्वक जिये और अपने संपर्क क्षेत्र पर आनन्द का अमृत बखेरता रहे। परिस्थितियाँ अपने क्रम से सर्दी-गर्मी की तरह चलती रहती हैं। उनसे लाभ या हानि उठाना अपना काम है। विश्व का घटनाक्रम हमारी इच्छानुकूल चले यह सम्भव नहीं। असंख्य प्राणियों की परस्पर विरोधी अगणित इच्छाएं होती हैं। सबको सन्तुष्ट कर सकने वाला परिस्थिति प्रवाह बन सकना किस प्रकार शक्य हो सकता है। आँधी और वर्षा अपने समय पर आती ही है। उनसे बचाव करना एवं लाभ उठाना अपनी बुद्धिमत्ता पर निर्भर है। मानव जीवन में पग-पग पर मिल सकने वाली प्रसन्नता, आशा, सफलता और तृप्ति के स्थान पर यदि उद्विग्नता, खिन्नता एवं निराशा हाथ लग रही हो, समझना चाहिए कहीं कोई भारी चूक हो रही है।

जीवन को नीरस और निरर्थक बना देने वाली चूक को अध्यात्म भाषा में अविद्या या माया कहा गया है। जिन्दगी किस दृष्टिकोण के साथ जियी जानी चाहिए-उसकी गतिविधियों का निर्धारण किस रीति-नीति से किया जाना चाहिए-आमतौर से हम सब इसी स्थान पर भूल करते हैं। फलतः उलझन भरी पगडंडियों में भटकते हुए ऐसे जाल-जंजाल में फंस जाते हैं, जिसमें कुढ़न और जलन के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं लगता। यदि इस चूक को सुधार लिया जाय तो हर स्थिति में प्रफुल्लित रहा जा सकता है और प्रगति का क्रम अनवरत गति से आगे बढ़ सकता है। बाह्य प्रतिकूलताएं उसमें बहुत अधिक बाधा नहीं पहुँचा सकतीं। अभाव और अवरोध कुछ झकझोरते तो हैं, पर उनमें इतनी सामर्थ्य नहीं कि मनुष्य जैसी प्रचण्ड सत्ता के जीवन-लक्ष्य की पूर्ति के मार्ग को अवरुद्ध कर सकें।

अखण्ड-ज्योति अपने परिजनों को नव-जीवन उपलब्ध करने के लिए जब आग्रह करती है तो उसका तात्पर्य इतना भर होता है कि चिन्तन और कर्तृत्व में समाई हुई अवाँछनीयता को पहचानने का प्रयत्न किया जाय और उसे उखाड़ फेंकने के लिए साहस जुटाया जाय। अनुपयुक्त को अपने भीतर से ढूंढ़-ढूंढ़कर बाहर हटाते चलने और उस स्थान पर सत्प्रवृत्तियों का प्रतिष्ठित करने के लिए जिस शौर्य, साहस की आवश्यकता पड़ती है, अध्यात्म भाषा में उसी का नाम आत्मबल एवं ब्रह्मवर्चस् है। योग और तप की साधना इसी प्राप्ति के लिए की जाती है। जिसे जितनी मात्रा में यह दिव्य वरदान मिलता जाता है, वह अन्तरंग विभूतियों और बहिरंग सम्पत्तियों से उसी अनुपात में सुसम्पन्न बनता जाता है। ऋद्धि और सिद्धि उन्हीं आत्मिक और भौतिक सफलताओं का नाम है। एक को दुर्भाग्यग्रस्त और दूसरे को सौभाग्यशाली हम देखते हैं तो शारीरिक संरचना एवं ईश्वरीय अनुग्रह में कोई भेदभाव उसका कारण नहीं होता; इन उपलब्धियों में तो लगभग सभी लोग समान हैं। मनुष्य-मनुष्य के बीच पाये जाने वाले अन्तर में उनकी मनःस्थिति ही मुख्य कारण होती है। परिस्थिति तो मनःस्थिति की प्रतिक्रिया मात्र है।

साधनों की न्यूनाधिकता हो सकती है-शारीरिक क्षमता में भी थोड़ा अन्तर रह सकता है, पर आत्मसत्ता का ईश्वरीय अंश सब में समान है। इस परम ज्योति की स्वाभाविक पवित्रता और दिव्यता पर मलीनता का परत न चढ़ने दिया जाय तो मात्र आन्तरिक सुसम्पन्नता के आधार पर हर दृष्टि से सफल कहा जा सकने योग्य जीवन जिया जा सकता है। भौतिक सुविधाएं भौतिक प्रगति में सहायक होती हैं, पर आत्मिक सम्पत्ति की दृष्टि से प्रत्येक मनुष्य परिपूर्ण है। कठिनाई एक ही है कि चिन्तन की निकृष्टता और कर्तृत्व की भ्रष्टता के कारण अन्तःकरण कलुष-कषायों से लद जाता है और फिर भूल−भुलैया में-कंटकाकीर्ण कुपंथ में भटकने के कारण पग-पग पर ठोकरें खानी पड़ती हैं और चुभन सहनी पड़ती हैं।

जन-समाज का प्रचलित ढर्रा अपनाने का अन्धानुकरण बड़े घाटे का सौदा सिद्ध होता है। कोई समय था जब जन-समाज आदर्शवादी रीति-नीति अपनाकर सतयुगी वातावरण का सृजन करता था और तज्जनित स्वर्गीय आनन्द का लाभ हर किसी को मिलता था। तब भूदेवों और नर-नारायणों से यह धरती पटी रहती थी। जहाँ आन्तरिक विभूतियाँ होंगी वहाँ भौतिक सम्पत्तियाँ सहज ही प्रकाश के साथ रहने वाली छाया की तरह पीछे फिरेंगी। अपना भूतकालीन इतिहास साक्षी है कि मनुष्य अपनी गतिविधियों का उचित निर्धारण करके इसी धरती पर-इसी जीवन में संतोष और सम्मान भरा जीवन जी सकता है। आत्म-कल्याण के साथ-साथ अन्य असंख्यों को ऊँचा उठाने में योगदान कर सकता है। भटकाव, भ्रष्टता उत्पन्न करते हैं। भ्रष्टता, दुष्टता में परिणत होती है और विपत्तियों के पर्वत स्वेच्छापूर्वक अपने सिर पर लाद लाती है।

आज का सामाजिक प्रचलन विचित्र है। उसमें आदर्शवाद की मात्रा निरन्तर घटती और व्यक्तिवादी स्वार्थपरता बेहिसाब बढ़ती जा रही है। अब ऐसे आदर्श व्यक्ति और घटनाक्रम बहुत ही स्वल्प मात्रा में दीख पड़ते हैं, जिनकी रीति-नीति का अनुकरण करते हुए परिष्कृत जीवन जिया जा सके। जिधर में नजर पसार कर देखा जाय क्या अपने क्या बिराने उसी विचित्र रीति-नीति को अपनाये हुए मिलेंगे, जिनमें वासना, तृष्णा और अहंकारिता जैसे निकृष्ट तत्व ही लक्ष्य बनकर रह रहे हैं। लिप्सा की ललक ने लोगों की आँखें चौंधिया दी हैं, उन्हें तत्काल के आकर्षण ही प्रभावित करते हैं। दूरगामी परिणामों को सोच सकने की क्षमता ही समाप्त होती जा रही है, ऐसी दशा में तथाकथित सम्पन्नता तो दीखती है, पर साथ ही आन्तरिक खोखलापन और भी अधिक बढ़ा-चढ़ा रहता है। आज का समाज ऐसे ही लोगों से भरा है। वे स्वयं जल रहे हैं। उनका अनुकरण करने वालों की भी वैसी ही दुर्गति हो सकती है।

तथाकथित सम्पन्न और सफल लोगों का अनुकरण करके अधिक से अधिक इतना हो सकता है कि बाह्य आवरण का ढकोसला उन्हीं के जैसे अपनी गरदन पर भी लटक जाय, पर साथ ही यह भी निश्चित है कि उद्विग्नता की मात्रा भी उतनी ही लद जायगी। इस प्रगति से बिना प्रगति का निर्वाह मात्र तक सीमित जीवनचक्र कहीं अच्छा है। उन्नति तो भरपूर की जाय, पर आदर्श को गंवाकर नहीं।

नव-जीवन की दिशा में अग्रसर होने के लिए हमें उन लोगों का अनुकरण करने से मुँह मोड़ना पड़ेगा जो जीवन का स्वरूप लक्ष्य और उपयोग समझने में असमर्थ हैं और जो सम्पदा की मृग-तृष्णा में आत्मघाती गतिविधियाँ अपनाने पर उतारू हो रहे हैं। अन्धी भेड़ स्वयं गड्ढे में गिरती है और उसके पीछे चलने वाले झुण्ड की भी वैसी ही दुर्गति होती है। मानवोचित जीवन जीने और उनके सत्परिणाम उपलब्ध करने के लिए हमें लोगों के अनुकरण से लगभग सर्वथा भिन्न स्तर अपनाना पड़ेगा और अपनी रीति-नीति का निर्धारण करते समय आदर्शवादी परम्परा को ही महत्व देना होगा। इसके लिए स्वतन्त्र चिन्तन अपनाये जाने की आवश्यकता है। जीवन नीति निर्धारण के सम्बन्ध में अपना दृष्टिकोण क्या हो? क्रिया-कलाप किस दिशा में गतिशील हों? इन दो प्रश्नों पर मौलिक रूप से सोचना होगा और अपनी रीति-नीति ऐसे परिष्कृत चिन्तन के आधार पर निर्धारित करनी होगी जो मानव जीवन को सार्थक बनाने की मूलभूत समस्या का विवेकपूर्ण समाधान प्रस्तुत करती हो।

नव-जीवन का सूत्रपात इससे कम में नहीं हो सकता। आत्मिक प्रगति का यह प्रथम चरण है। जो जीवन के स्वरूप और सदुपयोग के प्रश्न पर गम्भीरतापूर्वक चिन्तन नहीं कर सकता, जिसे लोगों का अनुकरण करने में ही सन्तोष मिल जाता है, उसे सड़ी जिन्दगी ही जीनी पड़ेगी। विवेक का अनुरोध है कि आज की स्थिति में प्रत्येक जागृत आत्मा को जीवन समस्या पर नये सिरे से विचार करना चाहिए और (1) आत्मा (2) परमात्मा (3) आदर्शवादी परम्परा के तीन सलाहकारों से पूछकर नीति निर्धारण का साहस जुटाना चाहिए। लाख लोग एक पलड़े पर और उपरोक्त तीन परामर्शदाता दूसरे पलड़े पर रखे जायं तो इन तीन का परामर्श ही अधिक श्रेयस्कर सिद्ध होगा।

शरीर रक्षा, आजीविका उपार्जन, परिवार निर्वाह जैसे कार्यों में श्रम करना एवं समय लगाना उचित है। यह साँसारिक उत्तरदायित्व ऐसे हैं जिनका निर्वाह किये बिना गति नहीं। हर व्यक्ति को रोटी कमाने के लिए श्रम करना पड़ता है और करना चाहिए। परिवार के कई सदस्य ऐसे होते हैं-जिनके भरण-पोषण एवं विकास के लिए कमाऊ एवं बुद्धिमान लोगों की सहायता आवश्यक होती है उनके लिए अपने कर्तव्यों का पालन जागरूगतापूर्वक किया जाना चाहिए। परिवार के जो सदस्य उपार्जन की दृष्टि से स्वावलम्बी हो चुके उनके लिए सद्भाव एवं सत्परामर्श देते रहना भर पर्याप्त है। उपार्जन उनके लिए किया जाना चाहिए जो अभी स्वावलम्बी नहीं बने हैं और जिनके विकास के लिए कोई स्थिर आजीविका का प्रबन्ध नहीं है। परिवार पालन में साधनों के अतिरिक्त सबसे बड़ी आवश्यकता संस्कार विवेक एवं चरित्र देने की होती है। यह अनुदान तो आजीवन घर और बाहर के छोटे-बड़े हर सम्बद्ध व्यक्ति को देते ही रहना चाहिए। उपार्जन उन्हीं के लिए करना चाहिए जो अशक्त हैं। परिवार के सदस्य जैसे-जैसे उपार्जन की दृष्टि से स्वावलम्बी बनते जाते हैं वैसे-वैसे अभिभावकों की आर्थिक जिम्मेदारी सहज ही समाप्त हो जाती है।

धन उपार्जन और संतानोत्पादन यह दो आकर्षण इतने बड़े हैं कि मनुष्य का चिन्तन, समय, श्रम, ज्ञान, कौशल सब कुछ इन दो के इर्द-गिर्द ही मंडराता रहता है। व्यक्तित्व प्रायः कोल्हू का बैल बनकर इसी प्रयोजन में चक्कर काटता रहता है। कहते हैं कि तेल तिल में से निकलता है, पर जीवन का सारा रस जिस कोल्हू में पिलकर बूँद-बूँद निचुड़ जाता है, उन्हें लोभ और मोह के दो दबाव आधार ही कह सकते हैं। पैसा आवश्यक भी है और उपयोगी भी, पर शर्त एक ही है कि उसे विलासिता एवं जमाखोरी के लिए न रखा जाय। उसको उद्देश्यपूर्ण कार्यों में व्यय किया जाय। धन सौ हाथों से खर्च करते रहने की पूर्व तैयारी कर लेनी चाहिए। ठाट-बाट बढ़ाने के लिए, औलाद को मुफ्त की कमाई खाते रहने के लिए विलासी अपव्यय में उड़ाने के लिए कमाये गये पैसे में लगाया हुआ श्रम एवं कौशल न केवल व्यर्थ चला जाता है वरन् अनेकों दुष्परिणाम भी उत्पन्न करता है।

काम की आवश्यकता का जहाँ उच्चस्तरीय वर्णन है वहाँ उसे हँसने-हँसाने, विनोद क्रीड़ा, भाव सम्वेदना, उल्लास की कलाकारिता मात्र बताया गया है। यह आर्ष काम उपयोगी भी है और उत्साह वर्धक भी। यौनाचार पर इस वृत्ति को केन्द्रित कर देना उसका निकृष्टतम रूप हैं दाम्पत्य-जीवन में परस्पर सहयोग, स्नेह, सद्भाव के अनेक आधार है। यौनाचार का इस सहकारिता में न्यूनतम स्थान रहना चाहिए। इस दिशा में अधिक उत्साह का रहना अपने और अपने साथी के स्वास्थ्य की सुनिश्चित बर्बादी है। पति-पत्नी का सहयोग प्रगतिशील होना चाहिए, संयुक्त बर्बादी का संयुक्त सहयोग अवाँछनीय है। उच्च स्तरीय सहयोग के लिए निकृष्ट धरातल से ऊँचा ही उठना चाहिए। फिर संतानोत्पत्ति के सम्बन्ध में तो फूँक-फूँककर ही पैर रखना चाहिए। जनसंख्या की अवाँछनीय वृद्धि समूची मनुष्य जाति के विनाश का सर्व प्रधान संकट बनने जा रही है। अनचाहे अतिथियों को आमंत्रित करने की अपेक्षा यही अच्छा है कि जरूरत मंद वर्तमान संबंधियों की ही सहायता की जाय। जितना धन, समय, श्रम, संतान पर खर्च किया जाता है, उस बचाकर ऐसे कामों में लगाया जा सकता है, जिनसे आत्म-कल्याण और समाज कल्याण के महत्वपूर्ण प्रयोजन सिद्ध हो सकते हैं। इस उत्पादन के कौशल को अन्य ऐसे उपार्जनों में लगाया जाना चाहिए जिनकी अपने लिए और समाज के लिए आवश्यकता है।

गुण, कर्म, स्वभाव में उच्चस्तरीय तत्वों का समावेश करना नव-जीवन की दिशा में बढ़ने का द्वितीय चरण है। इसके लिए आत्म-चिन्तन की दैनिक आवश्यकता रहती है। दैनिक कार्यक्रम में शारीरिक और मानसिक गतिविधियों में आवश्यक उलट-फेर करना होता है। अपने आप से लड़ना और अपने आपको प्रशिक्षित करना, इस दुहरी कर्मनिष्ठा का नाम ही शास्त्रकारों ने योग और तप बताया है। इसके लिए अनेकानेक उपासनात्मक कर्मकाण्ड बताये हैं। ईश्वर भक्ति का प्रमुख प्रयोजन यही है। व्यक्तित्व का सर्वतोमुखी परिष्कार ही जीवन लक्ष्य है। अपूर्णता से पूर्णता की ओर बढ़ने के लिए इसी संशोधन और परिष्कार के मार्ग पर चलना पड़ता है। सद्भावनाएं और सत्प्रवृत्तियाँ ही व्यक्तित्व में देवत्व का समावेश होता चलेगा। उसी विकास क्रम से आन्तरिक महानता एवं भौतिक सफलता का पथ-प्रशस्त होता चला जायेगा।

सद्भावनाएं एवं सत्प्रवृत्तियाँ व्यक्तित्व के कल्पवृक्ष को खाद, पानी की तरह सींचने, बढ़ाने का काम करती हैं। पर वे केवल पढ़ने, सोचने तक सीमित नहीं हैं। इसके लिए कुछ सक्रिय उपचार करने पड़ते हैं। परमार्थ इन्हीं का नाम है। आत्मीयता का विकास, विस्तार करने के लिए आवश्यक है कि दूसरों के दुःखों को बँटाने और अपने सुखों को बाँटने की उदारता दिखाई जाय। संकीर्ण सीमा तक जब तक ‘अहम्’ अवरुद्ध रहेगा तब तक दैवी सम्पदाओं का जीवन में प्रवेश सम्भव न होगा। कृपणता और लिप्सा ही अनेकानेक पाप, अनाचारों को जन्म देती है। उदार व्यक्ति धन की दृष्टि से अभावग्रस्त रहने पर भी अपने समय, श्रम, मनोयोग, प्रभाव, परामर्श, स्नेह, सहयोग से दूसरों की सहायता करता रह सकता है। इससे संव्याप्त पीड़ा और पतन के निराकरण में बड़ी सहायता मिलती है। दूसरों की अपेक्षा स्वयं के लिए उदार व्यक्ति और भी अधिक सन्तोष सम्मान के बहुमूल्य उपहार प्राप्त करता है।इन तथ्यों पर ध्यान दिया जा सके तो हर व्यक्ति को महामानवों के महान् पथ पर चल पड़ने का अवसर मिल सकता है और एक-एक कदम बढ़ाते हुए जीवन लक्ष्य की पूर्णता तक पहुंचा जा सकता है। करने के लिए बहुत कुछ शेष है। शरीर रक्षा और कुटुम्ब पोषण भी आवश्यक है, पर उससे आगे और कुछ न किया जाय तो भी एक भारी अभाव बना रहेगा और उस कमी के कारण अन्तरात्मा में सदा ही कसक उठती रहेगी। भजन भी उपयोगी है, पर उस अकेले के बल-बूते किसी को शान्ति नहीं मिल सकती। ईश्वर अपना भजन कराने की नहीं मनुष्य से उच्चस्तरीय जीवनयापन की अपेक्षा करता है। उसे मात्र पूजा-पाठ अथवा उसी स्तर के अन्य कर्मकांडों से रिझाया नहीं जा सकता है। मनुष्य जीवन आदर्शवादी रीति-नीति अपनाकर सब के कल्याण के लिए मिला है। इस बहुमूल्य सम्पत्ति का उपयोग लक्ष्य की प्राप्ति के लिए भी किया जाना चाहिए। पेट और प्रजनन भर तक सीमित जीवनचर्या अपनाये रहने में मनुष्य जन्म की सार्थकता नहीं है।

जिस प्रकार व्यापार, व्यवहार की अनेकानेक समस्याओं पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाता है और दूरगामी परिणामों पर विचार करते हुए समाधान निकाला जाता है उसी प्रकार जीवन के स्वरूप, लक्ष्य और सदुपयोग के प्रश्न को सर्वोपरि समस्या मानकर उसका उपयुक्त समाधान खोजा जाना चाहिए। इस संदर्भ में गहराई तक उतरने पर दो ही उपाय सूझते हैं, अपनी अन्तरंग और बहिरंग गतिविधियों में उत्कृष्टता की मात्रा का अधिकाधिक समावेश किया जाय। प्रस्तुत दोष, दुर्गुणों से जूझा जाय, दृष्टिकोण को विवेक और दूरदर्शिता युक्त बनाया जाय। सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों से चिन्तन और कर्त्तव्य को संजोया जाय। इसके लिए अपने आपको नये सिरे से सुधारा और सजाना पड़ता है। बहुत कुछ भूलना और बहुत कुछ अपनाना पड़ता है इस दुहरे मोर्चे पर धैर्य और साहसपूर्वक अनवरत प्रयास करते रहने का नाम ही साधना है। जीवन-साधना ही वस्तुतः योग, तप, धर्म और अध्यात्म का केन्द्रबिंदु है। जीवन परिष्कार और आत्म साक्षात्कार में शब्दों का ही अन्तर है। उच्च स्तरीय रीति-नीति अपनाकर ही आत्मा की गति परमात्मा के समीप पहुँचने के लिए तीव्र हो सकती है।

नव-जीवन प्राप्त करने के लिए आत्म-परिष्कार के अतिरिक्त दूसरा चरण है-उदार व्यवहार। हमारी आकांक्षाएं संकीर्ण स्वार्थपरता की परिधि तक सीमित नहीं रहनी चाहिए। अपना और अपने घर वालों का पेट पालते रहना आवश्यक तो है, पर उससे आगे कुछ सोचने की कुछ आवश्यकता ही न समझी जाय तो भी अनर्थ ही प्रस्तुत होगा। लोभ और मोह के कोल्हू में जुते रहने रहने भर से काम नहीं चलेगा। देश, धर्म, समाज और संस्कृति के प्रति अपने कर्त्तव्यों और उत्तरदायित्वों का भी विचार किया जाना चाहिए। सच तो यह है कि आज की विषम परिस्थितियों में व्यक्तिगत महत्वाकाँक्षाओं को - लिप्सा, तृष्णा को कुछ समय के लिए एक कोने में उठाकर रख देना चाहिए और आपत्ति धर्म-पालन करते हुए लोक-निर्माण के लिए अपनी तत्परता नियोजित करनी चाहिए।

लोक-मानस का परिष्कार अपने युग की सबसे बड़ी आवश्यकता है। समुन्नत दृष्टिकोण के अभाव में प्रतिभाशाली और साधन सम्पन्न भी मात्र विनाश लीला रचने में लगे रहते हैं जबकि उत्कृष्ट चिन्तन बना रहने पर अभावग्रस्त व्यक्ति भी अपने कर्त्तव्य को महामानवों जैसा प्रस्तुत करता है। व्यक्ति और समाज के सामने आज अगणित शोक-सन्ताप खड़े हैं- गुत्थियां और समस्याएं हल होने में नहीं आतीं-कठिनाइयाँ और विपत्तियाँ बढ़ती ही जाती हैं। न बाहर चैन है और न भीतर सन्तोष। इस सद्भाव दुर्भिक्ष से निपटने के लिए हमें युद्ध स्तर प्रयत्न करने चाहिए।

यह सब जीवन-क्रम में उदारता का समुचित समावेश करने से ही सम्भव हो सकता है। स्वार्थ पर अंकुश लगाये बिना परमार्थ के लिए न साधन बनेंगे न समय निकलेगा। चिन्तन में समाविष्ट उदारता व्यस्त मनुष्य से भी परमार्थ प्रयोजनों के लिए ढेरों अवकाश निकलवा लेती है और साधन रहित दीखने वाला भी आश्चर्यचकित कर देने वाली श्रद्धाँजलियाँ प्रस्तुत कर सकता है। बड़प्पन की तृष्णा में जितनी घटोत्तरी होगी महानता उसी अनुपात से बढ़ती चली जायेगी।

हमें कृमि-कीटकों जैसा पेट और प्रजनन पर समर्पित घटिया जीवन नहीं जीना चाहिए। उत्कृष्टता और आदर्शवादिता को अपनाते हुए नव-जीवन प्राप्त करने के लिए अग्रसर होना चाहिए इसी में मनुष्य जन्म की सार्थकता है।


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