टहलना एक अति उपयोगी और अति सरल व्यायाम

November 1975

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शारीरिक और मानसिक व्यायाम का जैसा अच्छा समन्वय प्रातःकाल के टहलने में होता है उतना और किसी में नहीं। दुर्बल-रुग्ण, बाल-वृद्ध, नर-नारी सभी इस सरल व्यायाम का लाभ उठा सकते हैं। जिनकी शारीरिक स्थिति कड़े व्यायाम करने की नहीं है जिन्हें गठिया, दमा, रक्त-चाप, हृदय रोग आदि की शिकायत रहती है, वे भी अपने निकटवर्ती खुले स्थानों में टहल कर ताजगी प्राप्त कर सकते हैं और आवश्यक शारीरिक श्रम की आवश्यकता किसी कदर पूरी कर सकते हैं।

प्रभातकालीन जलवायु में सूर्य की अल्ट्रावायलेट किरणों का- वायु दृष्टि से आक्सीजन का बाहुल्य रहता है। रात्रि का अन्त और दिन का आरम्भ एक ऐसा वातावरण उत्पन्न करता है जिसका संपर्क पौष्टिक भोजन से भी अधिक स्वास्थ्यवर्धक सिद्ध होता है।

यों श्रम की दृष्टि से टहलने में बहुत जोर नहीं पड़ता और व्यायाम की आवश्यकता उससे भली प्रकार पूरी हो सकेगी यह समझ में नहीं आता। तो भी हमें यह मानकर चलना चाहिए कि उठक-पटक वाली क्रियाओं का अपना महत्व कुछ भी हो- क्रमबद्ध, गतिबद्ध और व्यवस्थित क्रम से देर तक चलने वाली टहलने की क्रिया शरीर के अंग-प्रत्यंगों में से प्रत्येक को समान रूप से इतना प्रभावित करती है, जितना कि कड़े और कष्टसाध्य व्यायाम नहीं कर सकते।

सबसे बड़ी बात है टहलने के साथ जुड़ी हुई आरोग्य संवर्धक प्रयास की मान्यता। लुहार दिन भर हथौड़ा चलाता है, फिर भी थोड़ी देर व्यायाम करने वाले की तरह पुष्ट नहीं हो पाता इसका एकमात्र कारण यह है कि पहलवानी सीखने वाले व्यायामशाला में इसी भावना से भरे रहते हैं कि इस क्रिया के माध्यम से हम स्वास्थ्य संवर्धन कर रहे हैं। प्रयास और भावना का सम्मिश्रण पहलवान की शरीर पुष्टि के रूप में सामने आता है जबकि लुहार अधिक श्रम करने पर भी उतना लाभ नहीं उठा पाता, पोस्टमैन हर दिन डाक बाँटने के लिए मीलों घूमता है, पर टहलने वाले का एक घण्टे का प्रयास ही उसका स्वास्थ्य सुधार देता है इसका कारण टहलते समय आरोग्य वृद्धि की भावना के संकल्प का जुड़ा रहता है। टहलना दूसरों के साथ गपशप करते हुए बेसिलसिले चलने से लाभदायक नहीं होता। यह तो एक लकीर पीटने वाली सैर हुई। स्वास्थ्य संवर्धन के लिए टहला जाय तो उसमें शरीर को एक व्यवस्थित क्रम से और मन को आरोग्य संचय की मान्यता से भरा हुआ रखना चाहिए। प्रातःकाल टहलने की आदत को अपनी दिनचर्या में स्थान देने से कितने ही अशक्त और रुग्ण व्यक्ति अपने खोये हुए स्वास्थ्य को पुनः प्राप्त करने एवं समुन्नत में सफल हुए हैं।

गाँधी जी ने अपना टहलने का क्रम व्यस्त से व्यस्त परिस्थितियों में भी जारी रखने का प्रयत्न किया। संसार के श्रेष्ठतम व्यक्ति उनसे मिलने आते थे और अति महत्वपूर्ण विषयों पर चर्चा करते थे तो भी उन्होंने समय का व्यतिक्रम कभी नहीं होने दिया। नियत समय और नियत सीमा के भीतर ही वे चर्चा प्रसंगों को भली प्रकार पूरा कर लेते थे। टहलना यों एक साधारण बात समझी जाती है, पर गाँधी जी उसे दिनचर्या की नियमितता और स्वास्थ्य रक्षा की उपयोगिता के साथ जोड़ते थे और जहाँ तक सम्भव होता उसे अव्यवस्थित नहीं होने देते थे। यों सामान्यतया वे प्रार्थना से पूर्व टहलने जाते थे, पर यदि वह समय किसी आवश्यक काम में निकल गया तो फिर प्रार्थना के बाद जाते थे। दो मील सवेरे और दो मील शाम को टहलना उनकी नियमित दिनचर्या का अंग था। जिन्हें आवश्यक चर्चा करनी होती थी उन्हें वे अपने साथ टहलने में ले जाते थे।

कई बार ऐसे प्रसंग आते थे कि रात बीत जाती थी अथवा प्रातःकाल से ही किसी विशेष कार्य में जुटना पड़ता था, ऐसी दशा में रात गये अथवा सवेरा होने से पूर्व ही टहल लेते थे ताकि उस विशेष प्रसंग में अड़चन भी उत्पन्न न हो और टहलने की नियमित दिनचर्या में व्यवधान भी न पड़े। पानी बरसता तो वे उतने समय अपने बरामदे में टहल कर उस आवश्यकता को पूरा करते। एक दिन किसी ने पूछ- कभी-कभी तो आपका टहलना छूट भी जाता होगा?’ उन्होंने हंसते हुए उत्तर दिया- ‘मैं जिस दिन घूमना बन्द कर दूँगा उस दिन जीता कैसे रह सकूँगा?’ बापू बहुत तेज चाल से टहलने निकलते थे, कोई तंदुरुस्त आदमी ही उनका साथ कर सकता था।

महापंडित थोरो टहलने को अपने जीवन की प्रमुख आवश्यकता मानते थे और उस नियमितता में कभी बाधा नहीं पड़ने देते थे। उन्होंने टहलने की उपयोगिता के सम्बन्ध में एक लेख भी लिखा था-जिससे उस जमाने के लोगों ने बहुत प्रेरणा ग्रहण की। थोरो के मित्र एमर्सन जन्म से ही बहुत दुबले थे। उन्हें थारों ने टहलने के लिए प्रोत्साहित किया। फलतः वे स्वास्थ्य सुधार में आश्चर्यजनक सफलता प्राप्त कर सके। डिकिन्स ने अति महत्वपूर्ण विचारों का सृजन घूमने के समय ही किया वे प्रातः जलपान करके घर से निकलते थे और प्रायः 20 मील घूमकर तीसरे प्रहर वापिस आते थे। जो विचार उठते उन्हें डायरी में लिखते रहते और फिर रात को निश्चिन्तता पूर्वक उन्हें लिपिबद्ध करते। वे कहते थे जो कुछ मैंने किया या पाया है वह टहलने रूपी कल्पवृक्ष के ही अनुदान हैं।

जर्मनी के एक पर्यटन प्रेमी कुर्लपीटर नामक व्यक्ति ने अपने जीवन का अधिकाँश समय पैदल घूमने में खर्च किया। यह शौक उन्हें 14 वर्ष की आयु में लगा और 64 वर्ष की उम्र तक पूरे 50 वर्ष अनवरत रूप से चलता रहा। इस अवधि में उनने प्रायः पूरा योरोप घूम डाला और शहर, देहात सभी कुछ देखा। वे कहते थे कि संसार इतना सुँदर है कि उसे जितना देखता हूँ उतना ही अधिक देखने की लालसा और अधिक तीव्र होती है। वे अपने गुजारे के लिए कुछ दैनिक व्यवहार की चीजें बनाते-बेचते रहते थे और उसी से अपना खर्च चला लेते थे। देखे गये दृश्यों एवं घटनाक्रमों का विवरण उन्होंने ऐसी सूक्ष्म दृष्टि के साथ वर्णन किया है कि पाठकों को एक सारगर्भित उपन्यास एवं पर्यटन का आनन्द आता है। उनकी यात्रा पुस्तकें जर्मनी ही नहीं योरोप भर में लोकप्रिय बनी हैं।

प्रो0 टिण्डाँल ने कितने प्रकार के कष्टों का सामना किया था। जब वे बहुत क्षुब्ध होते तो टहलने निकल जाते थे। उन्होंने कितनी ही महत्वपूर्ण खोजें भी की हैं उनकी मूल प्रेरणा उन्हें टहलने के समय ही मिली। प्रयोगशाला में तो उन्हें केवल प्रत्यक्ष रूप दिया और परखा जाता रहा। कार्लाइल 80 वर्ष की आयु के जब हो गये तो भी 5 मील तो वे टहल ही लेते थे। टालरटय एकबार तीन दिन की पदयात्रा पर निकले तो उनने उस धुन में 130 मील का सफर पूरा कर लिया।

अंग्रेजी के मान्य साहित्यकार सेम्यूअल जानसन टहलने के लिए बड़े शौकीन हैं। जब मौसम अनुकूल और मूड़ अच्छा हो तो वे तीस मील का सफर पूरा करके घर आते हैं। उपन्यास लेखक स्कोट और कोपकार चार्ल्सलेम्ब दोनों ही लंगड़े थे, पर उन्होंने टहलना कभी भी नहीं छोड़ा। ख्याति प्राप्त मनीषियों में विथोविन टर्नर, कोलरिग, विलियम कर्लिन, ब्रायन्ट ऐसे नाम हैं जो अपनी सफलताओं का श्रेय टहलने की उपयोगी आदत के साथ जोड़ते रहते थे।

स्वास्थ्य विज्ञानी बरबर मैकफेडन ने लिखा है-कोई व्यक्ति सामान्य शारीरिक श्रम अथवा विशिष्ट प्रकार का व्यायाम भले ही करता हो, पर उसे प्रतिदिन कम से कम दो घण्टा रोज नित्य ही टहलना चाहिए। उससे कम में शारीरिक श्रम की स्वाभाविक भूख बुझ नहीं सकती। दूसरे व्यायामों के साथ टहलने की तुलना नहीं करनी चाहिए, उसकी अपनी उपयोगिता है और अपनी विशेषता है जो नित्य टहलने की आदत नहीं डालेगा वह स्वस्थ नहीं रह सकेगा।

बेतुके ढंग से चलते रहने से काम नहीं चलेगा। टहलना एक कला है। एक नियमित प्रवाह, सरलता, क्रमबद्धता, तेजी, उत्साह और सतर्कता का सम्मिश्रण इसमें होना चाहिए और यह अनुभूति रहनी चाहिए कि विश्वव्यापी महाप्राण में-महासागर में से उपयोगी सत्य अधिग्रहण करने के लिए हम किसी साहसिक शोध यात्रा पर निकले हैं।

टहलने में सारा बदन सीधा रहना चाहिए। कंधे पीछे दबे हुए, सीना उभरा हुआ, सिर थोड़ा पीछे को निगाह एकदम सामने। शरीर को इतना कड़ा नहीं करना चाहिए कि तनाव बढ़े। चुस्ती रहनी चाहिए, पर साथ सरल स्वाभाविक मुलायमी भी माँसपेशियों की बनी रहनी चाहिए। कमर से लेकर सिर तक का हिस्सा कुछ आग की ओर तिरछापन लिए होना चाहिए। जैसा कि अक्सर दौड़ते वक्त रखना पड़ता है।

मुँह बन्द रखा जाय। साँस नाक से ही लेनी चाहिए। गहरी साँस लेने का अभ्यास करना चाहिए ताकि स्वच्छ वायु का प्रवेश शरीर में अधिकाधिक गहराई तक हो सके। अधूरी साँस से तो पूरे फेफड़ों को भी सक्रियता का लाभ नहीं मिलता। इसलिए उथली साँस लेने की आदत सामान्य समय में भी छोड़नी चाहिए। विशेषतया टहलने के समय तो इस बात का अधिक ध्यान ही रखना चाहिए कि गइराई तक पूरी साँस खींची जाय और पूरी ही बाहर निकाली जाय। यों जब भी टहला जा सके तभी अच्छा है, पर अधिक उपयुक्त समय वह है जो सूर्योदय से पहले ही आरम्भ कर दिया जाय और थोड़ा सूर्य निकलने तक पूरा कर लिया जाय। प्रातःकाल की वायु जितनी शुद्ध होती है जितनी शीतल और सौम्य होती है उतनी और किसी समय की नहीं। यदि जल्दी सोया जाय तो जल्दी उठा भी जा सकता है और नित्यकर्म से निवृत्त होकर घर से चल दिया जा सकता है, ऐसी दशा में सूर्योदय तक यह सुखद प्रयास पूरा भी हो सकता है।

टहलते समय शरीर पर कपड़े कम एवं हलके रखने चाहिए ताकि न केवल साँस के द्वारा ही स्वच्छ वायु प्राप्त हो वरन् रोमकूपों की समस्त त्वचा को भी उस उत्तम प्राप्त वायु का स्फूर्तिदायक स्पर्श प्राप्त होता रहे। घण्टे में तीन से चार मील तक की चाल पर्याप्त है। बीमार, कमजोर, बूढ़े, बालक या मोटे आदमी की बात अलग है। वे धीरे-धीरे चलें तो भी हर्ज नहीं। महिलाएं जिन्हें चलने का अभ्यास नहीं है, वे भी धीमी चाल से चल सकती हैं, पर उनका क्रम भी करीने का ही होना चाहिए।

नियमित और व्यवस्थित रीति से टहलना कितना उपयोगी है इसे कोई भी व्यक्ति स्वयं अनुभव करके देख सकता है।


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