किसी पहाड़ी झील को देखो। तुषार की रुपहली पर्त छाई हुई है। हवा चलती है, पानी बरसता है। बादल गरजते हैं, बिजली चमकती है। किन्तु झील की निश्चलता में अन्तर नहीं आता। किनारों पर रंग-रंग के पक्षी कूजते और किलोल करते हैं। किन्तु उस झील में कोई विक्षेप उत्पन्न नहीं होता। तट पर फैली वृक्षावली में एक से एक सुन्दर फूल खिलते, शाखा से छूटकर झील पर गिरते; किन्तु झील के स्थिर हृदय में उनका कोई प्रतिबिंब नहीं उठता। वह अपने निर्विकल्प भाव में एक समान तन्मय रहती है। तुम में यदि उस झील की तरह स्थिरता तन्मयता और निर्विकल्पता का धैर्य है तो तुम उसे अवश्य पा लोगे।
कुम्हार तालाब से मिट्टी खोद लाता है। उसे कूट-पीसकर महीन बनाता और छानकर साफ करके पानी डालकर उसे खूब मसलता है तैयार हो जाने पर चाक पर चढ़ा कर अपनी इच्छा के अनुसार वह उसे आदमी, पशु या पक्षी का रूप देता है। किन्तु इतना सब होने पर भी मृत्तिका कुछ नहीं बोलती। सबकुछ समभाव से सहन करती हुई कुम्भकार की इच्छा के वशवर्ती रहती है। यदि तुममें उस मृत्तिका की भाँति सहनशीलता और नम्रता है तो तुम उसे अवश्य पा लोगे।
मरुस्थल में भटके प्राणी की वाँछा में पानी की लालसा के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता। पानी के लिए उसकी व्याकुलता इतनी बढ़ जाती है कि उसे सिकता कणों में पानी का आभास होने लगता है। पनघट पर खड़े पथिक की प्यास में न तो इतनी व्याकुलता होती है और न ऐकान्तिकता। वह पानी के अतिरिक्त वहाँ के दृश्य भी देखता और रस लेता है। यदि मुझे पाना चाहते हो तो पनघट पर खड़े प्यासे पथिक की इच्छा नहीं मरुस्थल में भटके तृषित प्राणी की आकाँक्षा लेकर चलो, एक दिन तुम उसे अवश्य प्राप्त कर लोगे।
-संत एमर्सन