अपनों से अपनी बात - बहुमूल्य अनुदान के लिए पात्रता की शर्त

August 1972

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आत्मिक विभूतियों की गरिमा-भौतिक सम्पदाओं से हजार गुनी बढ़कर है। आत्मबल की तुलना संसार के किसी बल वैभव से नहीं की जा सकती है। ईश्वरीय अनुग्रह से सम्पन्न व्यक्ति कितना समर्थ होता है और अपनी सामर्थ्य से कितनों को प्रकाश देता, पार उतारता है, इसकी यथार्थता जानने के लिये हमें आत्मबल सम्पन्न महामानवों की जीवनियाँ पढ़नी चाहिए। विश्व आकाश में उनका प्रकाश सूर्य चन्द्र की तरह चमकता रहता है। काय कलेवर न रहने पर भी वे युगों तक अपने प्रकाश से अगणित भूले-भटकों का श्रेयानुवर्ती मार्गदर्शन करते रहते हैं। ऐसे देव मानवों से ही मानवता गौरवान्वित होती है।

सच तो यह है कि हमने न कभी आत्मबल संग्रह का महत्व समझा और न कभी सच्चे मन से उसके लिये प्रयत्न किया। यदि उस गरिमा की ठीक तरह समझा गया होता और गम्भीरता पूर्वक उसके लिए कुछ किया गया होता तो कोई कारण नहीं कि कुछ महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ हाथ न लगती।

एक अत्यन्त भ्रम भरी मान्यता यह प्रचलित है कि ईश्वर किसी ऐसी खुशामदी भोले और मापदण्ड रहित व्यक्ति का नाम है। उसे थोड़े पूजा उपचारों और जप स्तवन का लोभ देकर वशवर्ती बनाया जा सकता है। इसी प्रकार धर्मानुष्ठानों के कर्मकाण्ड मात्र का आकाश-पाताल जैसा महात्म्य मानकर यह सोचा जाता है कि उतने भर से ही सकल मनोकामनाएं सिद्ध हो सकती हैं। इसी प्रकार आत्मिक प्रगति के मार्ग में प्रधान बाधक पाप प्रवृत्तियों के निराकरण के स्थान पर यह सोचा जाता है कि स्नान दर्शन जैसे क्रिया कौतुक करके उनके दण्ड परिणामों से बचा जा सकता है। यह मान्यताएं आदि से अन्त तक गलत है। जब तक इन भ्राँतियों से ऊपर न उठा जायेगा तब तक न तो आत्मबल सम्पादन के लिए आवश्यक कुछ ठोस प्रयत्न बन पड़ेंगे और न उथले क्रिया कौतुकों से किसी के हाथ कुछ लगेगा।

उपरोक्त भ्राँतियाँ कितनी निरर्थक हैं इसका प्रत्यक्ष प्रमाण आज के तथाकथित आत्मवादियों के स्तर और स्वरूप को देखकर सहज ही प्राप्त किया जा सकता है। पूजा, अर्चा में निरत व्यक्ति सर्वथा खाली हाथ दीखते हैं जबकि व्यायाम में, व्यापार में यश गौरव में, कला-कौशल में निरत व्यक्ति अपने प्रयोजन में काफी सफलता प्राप्त करते देखे जाते हैं। 56 लाख सन्त जिस देश में हो वह इस दयनीय दुर्दशा में पड़ा रहे यह हो ही नहीं सकता। किसी जमाने में सात ऋषि थे और वे तत्कालीन विश्व के सात द्वीपों को प्रकाशवान करते थे पर आज तो यह सन्त महात्मा स्वयं अपने लिये भार बनकर रह रहे हैं। देवाराधन से प्रचण्ड वरदान प्राप्त कर सकना एक सचाई है पर आज देश के 7 लाख मन्दिरों में पूजा-अर्चना के लिए नियुक्त 7 लाख पुजारियों की स्थिति दयनीय है। दूसरों की समृद्धि सुरक्षा बढ़ाने के लिये जप, पाठ, अनुष्ठान करते रहने वाले पंडित लोग स्वयं निर्धनता से ग्रस्त रहें इसका क्या कारण है?

तथ्यों का ऊहापोह करने पर यही स्पष्ट होता है कि या तो आत्म विज्ञान ही मिथ्या है या उसका प्रयोग सही ढंग से नहीं हो रहा है। पिछले दिनों आत्म विज्ञान के मिथ्यात्व की ही घोषणा की जाती रही है। कम्युनिज्म ने उसे कपोल कल्पित कहा। वैज्ञानिकों ने उसे अवैज्ञानिक ठहराया। पूजा-पाठ से निराश व्यक्तियों ने उस पर अविश्वास प्रकट किया। नीत्से प्रभृति बुद्धवादियों ने आस्तिकता को अप्रमाणिक ठहराया। यह प्रवाह पिछले दिनों इतने जोरों से चला-आस्तिकता पर बुद्धिवाद के इतने प्रबल प्रहार हुए कि आत्म विज्ञान के समर्थक हतप्रभ रह गये। लगने लगा कि अगली पीढ़ी संभवतः नास्तिकों की ही पीढ़ी होगी।

ऐसे विषम अन्धकार को चीरते हुए गुरुदेव का व्यक्तित्व प्रकाश में आया। उन्होंने आत्मवादी वर्तमान प्रयोग की असफलता तो स्वीकार की, पर साथ ही यह भी कहा कि आत्मविज्ञान मिथ्या नहीं - उसके प्रयोग में त्रुटि है उस संदर्भ में प्रचलित मान्यताएं दोषपूर्ण हैं। यदि मान्यताओं और प्रयोगों का स्तर सुधार लिया जाय तो अध्यात्म की क्षमता पूर्वकाल की तरह पुनः प्रचण्ड यथार्थता के रूप में सामने प्रस्तुत हो सकती है। लगता है गुरुदेव का अवतरण नास्तिकवादी प्रवाह को आस्तिकता की दिशा में मोड़ने के लिये ही हुआ। उन्होंने प्राचीन काल के धर्म प्रचार को और तत्वदर्शियों से भिन्न प्रकार की ऐसी शैली अपनाई, जिसके बिना नास्तिकतावादी आक्रमण और आत्मवादी क्षेत्र में फैले हुए घोर अन्धेर अन्धकार का निराकरण हो ही नहीं सकता था।

अध्यात्मवाद का स्वरूप, दर्शन और प्रयोग को समझने के लिये हमें गुरुदेव के प्रतिवादनों को ही नहीं उनके प्रयोगों को भी समझना होगा। उनकी कथनी को ही नहीं करनी को भी महत्व देना होगा और आस्तिकता का विवेचन विश्लेषण करने के साथ गुरुदेव की उपलब्धियों पर भी विचार करना होगा। इस प्रत्यक्ष प्रमाण से ही बुद्धिवादी आशंकाओं और अनास्थाओं का समाधान सम्भव है। जिस प्रकार शोध प्रबन्धन के लिये अन्वेषण कार्य किया जाता है उसी प्रकार यदि गुरुदेव के जीवन प्रयोगों की खोज की जाय तो अध्यात्म तत्वज्ञान की यथार्थता पर अत्यन्त महत्वपूर्ण और प्रमाणिक प्रकाश पड़ सकता है तथा इन दिनों जो गतिरोध विग्रह इस क्षेत्र में उठ खड़ा हुआ है उसका हल समाधान मिल सकता है।

गुरुदेव ने लम्बे गायत्री पुरश्चरणों की शृंखला पूर्ण की, पर मन्त्र जप के साथ-साथ वे अपनी अन्तः चेतना पर जमे हुए कषाय कल्मषों को रगड़ने, धोने, छुड़ाने का भी प्रयास करते रहे। शरीर चेतना से ऊँचे उठकर उनने आत्मबोध प्राप्त किया, अपने को आत्मा के रूप में अंगीकार किया। शरीर और मन को बाह्य उपकरण मानकर उसी अनुपात से उन्हें संरक्षण दिया। आत्म-परिष्कार जब लक्ष्य बना तो सर्वतोमुखी प्रगति प्रयास भी उसी क्षेत्र में केन्द्रित होने स्वाभाविक थे। पुरश्चरणों का कर्मकाण्ड और आत्म-परिष्कार का प्रबल पुरुषार्थ- यह उभय पक्षी समन्वय ही उस तपश्चर्या में प्रखरता उत्पन्न कर सका। यदि वह एकाँगी रहा होता, माला भर गिनते रहने की लकीर पिटती रहती तो असंख्य अन्य भजनानंदियों की तरह वे भी छूँछ ही बने रहते।

अखण्ड दीपक पर पुरश्चरणों की शृंखला सम्पन्न करते हुए उन्होंने भावना क्षेत्र में यह निष्ठा परिपक्व की कि जीवन को ज्वलन्त दीप शिखा की तरह अन्तरंग एवं बहिरंग क्षेत्र में प्रकाश उत्पन्न करने के लिये तिल-तिलकर जलते रहने की प्रक्रिया व्यवहार में लाई जानी चाहिये यदि दीप उपकरण के साथ-साथ वे आत्म-ज्योति को प्रकाशवान बनाने का लक्ष्य सामने रखकर न चले होते तो उनकी अखण्ड-ज्योति भी मात्र रोशनी पैदा करने का तुच्छ सा प्रयोजन पूरा कर सकी होती।

उपासनात्मक विधान का कर्मकाण्ड और जीवन साधना की निरन्तर गतिशील तप साधना का समन्वय ही वह मर्म है जिसके आधार पर गुरुदेव अध्यात्म विज्ञान की गरिमामयी यथार्थता को अपनी उपलब्धियों के आधार पर प्रमाणित कर सके। हर कोई जानता है कि उनका व्यक्तित्व ‘असाधारण’ है। युग-निर्माण परिवार का विशालकाय संगठन, हर दिशा से प्रगति पथ पर अग्रसर युग-परिवर्तन अभियान। एक लाख सजग आत्माओं की सृजन सेना का गठन, बौद्धिक, नैतिक एवं सामाजिक क्रान्ति का गगन भेदी शंखनाद, आर्ष साहित्य का सर्व सुलभ सरलीकरण, युग साहित्य के सृजन का अजस्र प्रवाह आदि लोक मंगल के लिये उनके प्रयासों को अनुपम और ऐतिहासिक ही कहा जा सकता है। अपनी व्यक्तिगत तप साधना से उनने अगणित व्यक्तियों की भौतिक और आत्मिक सहायताएं की हैं उनके प्रतिफल को देखते हुए अवाक् रह जाना पड़ता है। गुरुदेव की निजी देवोपम जीवनचर्या का लेखा-जोखा लिया जाय तो उसे पग-पग पर अतिमानवी और चमत्कारी पाया जा सकता है। एकाकी व्यक्ति इतने बड़े सफल प्रयासों का साधन रहित स्थिति में कैसे सृजन संचालन कर सकता है यदि एक शब्द में इसका उत्तर लेना हो तो उसे अध्यात्म विज्ञान की यथार्थता का प्रत्यक्ष प्रमाण कहा जा सकता है।

भूतकाल के आत्मबल सम्पन्न महामानवों की अति मानवी क्षमता के विवरण अत्युक्ति भी कहे जा सकते हैं पर इस जीवित प्रामाणिकता से इनकार कैसे किया जाय। यह मूर्तिमान तथ्य यह सिद्ध करता है कि आत्म-जागरण और आत्मबल सम्पादन-संसार की बड़ी से बड़ी सफलता से बढ़कर हैं। उसे प्राप्त कर सकना मानव जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है।

आत्मविद्या के इस एक सजीव प्रमाण से भी उसकी गरिमा का निश्चय हो सकता है। अब प्रश्न यह उठता है कि फिर इस प्रयास में संलग्न लाखों व्यक्तियों को कुछ लाभ क्यों नहीं मिलता। इसका एक ही उत्तर है- उपासना क्रम का उथलापन। लोग क्रिया-कृत्यों को सब कुछ मान बैठे हैं- धर्मानुष्ठानों का विधि-विधान ही उनके लिए सब कुछ है, गुण, कर्म, स्वभाव के परिष्कार से लेकर भावना क्षेत्र में स्नेह साधना के दिव्य दृष्टि-कोण को स्थान देने की आवश्यकता ही नहीं समझी। फलस्वरूप उस छोटे से शारीरिक श्रम का जितना स्वल्प लाभ हो सकता है था उसके अतिरिक्त और कुछ अधिक हाथ न लग सका। ईश्वर को अबोध बालक मान बैठना उपहासास्पद है। शब्द जञ्जाल में तुच्छ से उपहारों में छुट-पुट क्रिया-कृत्यों से उसे बहकाने, फुसलाने का प्रयास अपने ही अनाड़ीपन का परिचय देना है। इन दिनों अधिकाँश लोगों की ऐसी ही अधूरी बचकानी पूजा-पत्री लकीर पीटने की तरह प्रयुक्त होती रहती है। ऐसी दशा में निराशा हाथ लगे तो आश्चर्य ही क्या? अधूरे प्रयास की असफलता को अध्यात्म तत्वज्ञान की संदिग्धता मान बैठना किसी भी प्रकार उचित न होगा।

गुरुदेव की सबसे बड़ी देन यह है कि उन्होंने आस्तिकता की गरिमा को अपनी जीवन प्रयोगशाला में यथार्थ सिद्ध किया और उन लोगों का मुँह बन्द किया जो इसे भ्रम या छद्म कह रहे थे। इस संदर्भ में अगली कड़ी यह है कि आत्मिक प्रगति का यही वह आधार उन्होंने प्रतिपादित किया जिसे सम्प्रदायवादी अन्धड़ ने एक प्रकार से विस्मृत एवं अस्त-व्यस्त ही कर दिया था। गुरुदेव ने अपने लेखों और प्रवचनों में ही नहीं आचरण की भाषा में भी यह कहा कि यदि देव सान्निध्य ईश्वरीय अनुग्रह आत्मबल अभीष्ट हो तो सबसे प्रथम चरण दृष्टिकोण के परिष्कार का उठाया जाना चाहिए। अपने को मात्र शरीर और मन से बना माँस पिण्ड मानकर वासना, तृष्णा के पेट प्रजनन के क्षुद्र प्रयोजनों में ही संलग्न नहीं रहना चाहिए वरन् कुछ आत्म-कल्याण की मानवी गरिमा की जीवनोद्देश्य की बात भी सोचनी चाहिए और उसके लिए भी कुछ कारगर प्रयत्न करने चाहिए। यदि इस स्तर की आकाँक्षा और चेष्टा जग पड़े तो निस्सन्देह जीवन क्रम में आदर्शवादिता और उत्कृष्टता भरती चली जायेगी। कहना न होगा श्रेष्ठ चिन्तन और उत्कृष्ट कर्तृत्व को गहन आस्था स्तर पर अपना लेना ही आत्मबल सम्पादन का एकमात्र आधार है। जिसने इस अवलम्बन को अपना लिया उसके लिए दिव्य अनुदान करतलगत रहेंगे। वह अपने को ईश्वरीय सत्ता का उत्तराधिकारी अनुभव करेगा अन्तःकरण पर से अहंता और लिप्सा के कषाय कल्मष हटते ही अन्तरंग में छिपा पड़ा ब्रह्मवर्चस ज्योतिर्मय हो उठेगा और व्यक्ति अपने को ईश्वर में और ईश्वर को अपने में ओत-प्रोत अनुभव करेगा।

यही है वह साधना उपक्रम जिसे गुरुदेव अनन्य निष्ठा के साथ आजीवन अपनाये रहे और जो भी संपर्क में आया उसे आत्म विद्या के इसी मर्म तथ्य को समझाने में लगे रहे। कहा नहीं जा सकता कि बात कितनों के गले उत्तरी पर जिनने भी उसे गहराई से समझा और अपनाया उन्होंने अपने प्रयास के अनुरूप वही पाया जो गुरुदेव ने तथा पूर्ववर्ती आत्मवादियों ने समय-समय पर प्राप्त किया है। जो सस्ते मूल्य में अत्यधिक पाने की जुआरी मनोवृत्ति अपनाकर ईश्वर संपर्क में भी दाव लगाते रहे- प्रचलित प्रवञ्चना से ऊँचे न उठ सके उनके तनिक से तन्त्र-मन्त्र द्वारा मनोकामनाओं की पूर्ति की कौड़ी कदाचित ही पट्ट पड़ी होगी।

कभी-कभी ऐसा आवश्यक होता है कि कोई सिद्ध पुरुष अपनी तप पूँजी में से एक अंश किसी दीन-दुखी को देकर उसका बोझ हलका कर देते हैं और अपनी सहज सज्जनता से यह कह देते हैं कि यह अमुक मन्त्र या देव का अनुग्रह है। इससे आरम्भिक छात्र का कुछ आकर्षण बढ़ता है। इस सीमा तक इसका औचित्य भी है। पर साथ ही एक हानि भी हो सकती है। यदि कोई छुट-पुट मन्त्र-तन्त्र का भारी लाभ मान बैठे और किसी देव आत्मा के अनुदान को भूल बैठे तो न केवल वह कृतघ्न ही बनता है वरन् इस भ्रम में भी पड़ जाता है कि मन्त्र-तन्त्र के क्षुद्र प्रयासों से भविष्य में भी कोई बढ़-चढ़कर लाभ उपलब्ध किया जा सकता है।

गुरुदेव के व्यक्तित्व का अधिक गहरा विश्लेषण किया जाय तो उन्हें यथार्थ अध्यात्म का सजीव तत्वदर्शन और प्रमाणिक तप विधान कह सकते हैं। उन्होंने अब तक के अपने क्रिया-कलाप से यह सिद्ध किया है कि आत्म विद्या की उपलब्धियाँ समस्त विश्व की सम्मिलित समृद्धि उपलब्धियों से असंख्य गुनी अधिक सामर्थ्यवान हैं। उन्होंने उस विस्मृत और उपेक्षित आधार को भी पुनर्जीवित किया है जिस पर चलकर अनादि काल से अद्यावधि आत्मिक सफलताएं असंदिग्ध रूप से प्राप्त की जा रही हैं। युग की बढ़ती हुई नास्तिकता के प्रतिरोध के लिए कम से कम इतना प्रयोग आवश्यक था, सो एक प्रकार से सफलतापूर्वक सम्पन्न हो गया। अब उन लोगों के मुँह चुनौती पूर्वक बन्द किये जा सकते हैं जो अध्यात्म विज्ञान की यथार्थता को कपोल कल्पना कहकर झुठलाते थे। उसी प्रकार साधना प्रयोगों में लगे लोगों के सम्मुख असफलता का कारण भी स्पष्ट हो गया। अब उन्हें विधि-विधानों का दोष ढूंढ़ने की अपेक्षा अपने उथलेपन की समीक्षा करनी पड़ेगी। अब निर्भ्रान्त आत्मवादियों को आत्म परिष्कार का महत्व समझना होगा और भौतिकवादी लिप्साओं की पूर्ति के लिए नहीं आत्मवादी महानता विकसित करने के लिए उत्कृष्ट चिन्तन एवं आदर्श कर्तृत्व के विकास का मार्ग अपनाना पड़ेगा। सस्ते मोल में बहुमूल्य उपलब्धियों के लिए ललचाने वाले जुआरियों की भीड़ निस्सन्देह छूट जायेगी पर गहरे समुद्र में गोते लगाकर मोती समेटने वाले साहसी लोग आगे भी आयेंगे। कीमत चुकाकर बहुमूल्य उपलब्धियाँ खरीदने वाले ही सच्चे व्यापारी होते हैं। यदि उनका अभाव हो जाय तो फिर संसार में व्यापार की पद्धति ही न चले। आत्मिक क्षेत्र में भी साहूकार, सौदागर होंगे ही- सभी तो उचक्के, गठकटे नहीं होते। यथार्थता स्पष्ट हो जाने पर साहसी शूरवीरों को कुछ बहूमूल्य उपलब्धियाँ प्राप्त करने का अवसर मिलेगा। प्रक्रिया कष्ट साध्य जरूर रहेगी पर उससे आत्मविद्या का गौरव घटेगा नहीं बढ़ेगा ही।

अब तक की गुरुदेव की बहुमूल्य जीवन चर्चा के अंतर्गत हुए अद्भुत प्रयोग का सार निष्कर्ष यह है कि उन्होंने आत्म विज्ञान की यथार्थता जन साधारण के सामने इस रूप में रख दी कि उसे संदिग्ध अप्रामाणिक, छद्म, उपहासास्पद अवैज्ञानिक न कहा जा सके। उस मार्ग पर चलने के इच्छुकों को यात्रा के स्वरूप और श्रम की वास्तविकता की जानकारी हो सके। एक जीवन यदि एक अत्यन्त महत्वपूर्ण विज्ञान पर छाये हुए अन्धकार के बादलों को हटाने घटाने में समर्थ हो सका तो यह उसकी सफलता ही मानी जायेगी। विशेषतया आज के युग में तो वह तत्व दर्शन के जीवन मरण का प्रश्न हल करने जितनी अनिवार्य हो गई थी। गुरुदेव के अवतरण ने उस गुत्थी को एक प्रकार से सुलझा कर उस मार्ग पर चलने के इच्छुकों का आशाजनक रीति से पथ प्रशस्त कर दिया है।

गुरुदेव के जीवन का पूर्वार्ध मथुरा में पूरा हो गया। उत्तरार्ध में वे कुछ अधिक महत्वपूर्ण कदम उठाना चाहते हैं। जिन्होंने अध्यात्म तत्व ज्ञान का स्वरूप समझा लिया है, उस दिशा में चलना आरम्भ कर दिया है और उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सच्चे मन से इच्छुक हैं उन्हें अपने प्राणों का एक अंश देकर इस योग्य बनाया जाय कि वे उनकी जलाई मशाल को भविष्य में भी अखण्ड बनाये रह सकें। अध्यात्म की समर्थता एवं प्रमाणिकता के साक्षी बनकर प्रकाश स्तम्भों की भूमिका सम्पादन कर सकें। प्रत्यावर्तन अनुदान का यही प्रयोजन है। गुरुदेव व्याकुल हैं कि उनकी जो उपार्जित पूँजी है उसे वे जल्दी से जल्दी बाँट वितरण करके अपने भार को हलका कर लें और जिस तरह खाली हाथ आये थे उसी तरह पाप पुण्य की पूँजी समाप्त करके प्रभु के चरणों में हलके फुलके खाली हाथ जा पहुँचे। शारीरिक पाप उनमें कभी बने नहीं, मानसिक मोह क्षोभ के कुछ कल्मष जमे होंगे तो उन्होंने अपनी प्रचंड तप साधना की आग में जलाकर नष्ट कर दिया है। अपने कल्मष जल गये तो उन्होंने दूसरों के बदले के कठोर प्रायश्चित किये और उन्हें दण्ड दुष्परिणामों से बचाया। यह क्रम अभी भी जारी है और आगे भी जारी रहने वाला है।

तप साधना के जो पुण्य बचे हैं वे भी उन्हें समाप्त करने हैं क्योंकि स्वर्ग और ऐश्वर्य जैसे फल भुगतने के लिए फिर उन्हें बन्धन में बँधना पड़ सकता है। इसलिए उपार्जित पुण्य और तप की पूँजी भी वे जमा नहीं रखना चाहते। प्रत्यावर्तन उसी का वितरण है। जिन भाग्यवानों को इस अनुदान का थोड़ा सा भी अंश मिल सका वे निश्चित रूप से उसके लिये भाग्य की सराहना जन्म−जन्मांतरों तक करते रहेंगे।

अगले पाँच वर्ष में मेरा अखण्ड गायत्री महापुरश्चरण पूरा हो जायेगा-तभी तक प्रत्यावर्तन अनुदान की भी पूर्णाहुति हो जायेगी। पाँच वर्ष बाद गुरुदेव का यह उत्तरार्ध भी पूरा हो जायेगा। इसी बीच शान्ति कुञ्ज भी विश्वव्यापी महिला जागरण का केन्द्र बन लेगा। इसके बाद उनका कोई सामाजिक उत्तरदायित्व शेष न रहेगा। शाँतिकुँज इन दिनों उनका डाक बँगला है, आवश्यकता होने पर यहाँ आते और जाते रहते हैं तब यह क्रम भी समाप्त हो जायेगा और वे अपने प्रत्यक्ष क्रिया-कलाप का अन्त करके मात्र परोक्ष रीति से विश्व मानव की सेवा विलक्षण क्रिया कलाप के साथ सम्पन्न करेंगे जिसकी चर्चा इस समय अनावश्यक है।

प्रत्यावर्तन अनुदान की सूचना छपने पर बड़ी संख्या में आत्म-विद्या में अभिरुचि रखने वालों के कितने ही पत्र आये हैं। इन सभी को इस प्रतीक्षा में सुरक्षित रख लिया गया है कि उनकी पात्रता का परिचय प्राप्त किया जाय। उर्वर भूमि में बीजारोपण से ही श्रम की सार्थकता होती है। विशेष प्रकार की सीप में ही स्वाति बिन्दु मोती बनते हैं। अशक्त को दूसरे का रक्त देकर शक्त बनाया जाता है पर उस क्रिया को सम्पन्न करने से पूर्व डॉक्टर यह देख लेता है कि रक्त देने और लेने वाले का स्तर एक सा है कि नहीं। यदि उसमें अन्तर हो तो रक्तदान का प्रयोजन पूर्ण न हो सकेगा। यही बात इस अध्यात्म अनुदान के सम्बन्ध में है यदि गृहीता का अन्तः स्तर गया गुजरा हो तो उसे कुछ लाभ न मिल सकेगा उलटा दाता का अनुदान रेत में घी डालने की तरह निरर्थक चला जायेगा।

इन दिनों जोर इस पर दिया जा रहा है कि प्रत्यावर्तन अनुदान के गृहीता अपनी पात्रता विकसित करें ताकि उनके लिये जो खर्च किया जाना है वह सार्थक सिद्ध हो सके। इस संदर्भ में जुलाई की अखण्ड ज्योति में कुछ चर्चा की जा चुकी है। स्थूल परीक्षण की दृष्टि से उसमें यह कहा गया है कि उस पथ के पथिकों को ‘युग साधना’ में संलग्न होना चाहिये। अध्यात्म साधनाएं युग के अनुरूप बदलती रही हैं। भगवान राम ने अपने अनुयायियों को लंका अभियान में जुटाया था। भगवान बुद्ध ने युवा नर नारियों को संन्यास देकर धर्म प्रचार के लिये विश्व भ्रमण का कार्यक्रम बनाया था। गुरु गोविन्दसिंह ने अपने शिष्यों को आत्म-कल्याण की तप साधना “एक हाथ में माला एक हाथ में भाला” का मन्त्र दिया था। गाँधी जी ने अपने शिष्यों को खादी पहनने और जेल जाने के सत्याग्रह संग्राम में लगाया था। युग के अनुरूप लोक साधनाएं बदलती रही हैं। आज के युग के अनुरूप वही युग साधनाएं हैं जिन्हें ‘युग-निर्माण योजना’ के नाम से प्रस्तुत किया गया है। इन आदर्शों के अनुरूप अपनी मनोभूमि और क्रिया-कलाप कैसे ढाला जाय इसका अधिक स्पष्ट और अधिक व्यावहारिक रूप ‘नई छपी’ हमारी ‘युग-निर्माण योजना’ में प्रस्तुत किया गया है इस प्रकाश में अपने चिंतन और क्रियाकलापों को परिष्कृत विकसित किया जाना चाहिये। विकसित मनोभूमि ही उस अनुदान को सार्थक बना सकेगी।

पात्रता के विकास की मूल कसौटी है जीवन का लक्ष्य निर्धारण। यदि यह मान लिया जाय कि जीवन में शरीर और आत्मा दोनों की साझेदारी है; इनमें आत्मा का हिस्सा कम से कम आधा जरूर है। तो व्यक्ति को यह निश्चय करना ही पड़ेगा कि समय, श्रम, चिन्तन, धन, मनोयोग, प्रभाव, वैभव आदि का आधा भाग शरीर और मन की तुष्टि के लिये लगाया जाय और शेष आत्म कल्याण के लिये नियोजित रखा जाय। यह बँटवारा यदि सिद्धान्त के रूप में कर लिया जाय अपना वास्तविक स्वार्थ उच्च स्तरीय उद्देश्य की पूर्ति को मान लिया जाय तो फिर फुरसत न मिलने आदि के बहानों के लिये कोई गुंजाइश न रहेगी। तृष्णाएं भले ही पूरी न हों पर आवश्यकताएं सहज पूरी होती रहेंगी साथ ही युग साधना के परमार्थ प्रयोजन में लगाने के लिये बहुत कुछ प्रस्तुत रह सकेगा।

लोभ और मोह के बन्धन उन्हीं को बाँधते हैं जो अपनी अहंता को शरीर और मन मात्र मानकर चलते हैं जिनने आत्मा को काया से पृथक माना-आत्मिक और कायिक स्वार्थों का वर्गीकरण किया सुख साधनों के अतिरिक्त शान्ति सन्तोष एवं आनन्द उल्लास को भी चाहा उनके लिए युग साधना के अनुरूप दृष्टिकोण अपनाना और कर्तृत्व व्यवहार में लाना नितान्त सरल प्रतीत होगा। उन्हें किसी अड़चन अवरोध की कठिनाई प्रतीत न होगी।

अपने को बदला जाय तो सारी परिस्थितियाँ बदलें। बड़प्पन की ऐषणाओं को तिलाँजलि देकर महामानव बनने की महत्वाकाँक्षा विकसित की जाय तो हर किसी के लिये उस स्तर की पात्रता सहज ही उपलब्ध हो जायेगी जो प्रत्यावर्तन अनुदान के लिए अनिवार्य आवश्यकता घोषित की गई है। आशा है उत्सुक परिजन इस संदर्भ में अधिक गम्भीरता करेंगे। इस प्रकार की कीमत पर जो मिल सकता है वह इतना बहुमूल्य है कि किसी को इसके लिये बहुत सोच विचार और असमंजस में पड़ने की आवश्यकता नहीं है।



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