लोकोपयोगी बनिये-लोकप्रिय बनिये

August 1972

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लोकप्रिय होने की अभिलाषा स्वाभाविक है। यह उचित भी है। समूह की मर्यादाओं में रहकर व्यक्ति अपने को अनैतिक और अवाँछनीय कार्यों से इसलिये भी बचाये रहता है कि दूसरे उस पर उँगली ने उठायें और घृणास्पद अविश्वासी ने समझें। इस लोक-लाज के बन्धनों में बँधा हुआ व्यक्ति अपने को सभ्य और सज्जन प्रमाणित करने की चेष्टा करता है। फलस्वरूप उच्छृंखलताओं पर किसी सीमा तक तो बन्धन बँधा ही रहता है।

मनुष्य और मनुष्य का मिलन यदि वह प्रकृति और प्रवृत्ति का साम्य लिये हुये हो तो निस्सन्देह बड़ा मनोरञ्जक और उत्साहवर्धक लगता है। ऐसे मिलन के क्षण हँसी खुशी में कट जाते हैं और वैसा अवसर बार-बार आने की उत्कण्ठा बनी रहती है। जबकि अस्त-व्यस्त और हेय प्रकृति के लोग साम्य-मिलन से प्रसन्नता और आकर्षण अनुभव करते हैं तब सज्जनों और सद्भाव सम्पन्न विचारशीलों के मिलन के आनन्द की तो बात ही क्या है। लोकप्रियता इस जनसंपर्क का पथ-प्रशस्त करती है। साथ ही सम्मान प्राप्ति का भाव भी उसमें जुड़ा रहता है। लोक परिचित व्यक्ति तो उद्धत आचरण एवं चौंकाने वाली कौतूहल वर्धक करतूतें करके भी हुआ जा सकता है, भूत-पलीत की ऐसी ही कुछ अनहोनी चर्चा अपने साथ जोड़कर भी लोक परिचित हुआ जा सकता है पर उसमें घृणा, उपहास अविश्वास प्राप्त होने तथा छिछोरा, ओछा समझे जाने का जोखिम भी रहता है। लोक-प्रियता इससे भिन्न है वह सभ्य और सज्जनों को-गुणी और पुरुषार्थियों को ही उपलब्ध होती है। इसे प्राप्त करने के लिए जो प्रयत्न किये जाते हैं वे अंततः उपयोगी ही सिद्ध होते हैं। इस मार्ग पर चलते हुए व्यक्ति को अपने में अनेक ऐसी विशेषताएं उत्पन्न करनी पड़ती हैं जिनका परिणाम व्यक्ति और समाज के लिये श्रेयस्कर ही होता है। इस दृष्टि से लोकप्रियता प्राप्त करने की आकाँक्षा का समर्थन ही किया जाना चाहिये और उसके लिये आवश्यक पथ-प्रदर्शन भी किया जाना चाहिये। इस संदर्भ में कुछ ध्यान रखने योग्य सूत्र नीचे प्रस्तुत किये जाते हैं-

1- अपनी आकृति चैतन्य और सजग जैसी रखिये। वस्त्रों को स्वच्छ और करीने का रखिये। मैले-कुचैले, टूटे-फटे, अस्त-व्यस्त, बिना बटन और बिना करीने के कपड़े चाहे वे कीमती ही क्यों न हों व्यक्ति के आलसी और लापरवाह होने की चुगली करते हैं। फैशन बनाने और शृंगार कर, सज-धज कर निकलने की बात तो नहीं कही जा रही है। पर वेश-विन्यास और चेहरे की चेष्टा ऐसी अवश्य होनी चाहिए जिससे स्वच्छता, जागरुकता और व्यवस्था का परिचय मिलता हो। चाल-ढाल, उठन बैठन, बातचीत में प्रमाणिकता और व्यवस्था की छाप रहनी चाहिए। हाथ मटकाना, आंखें नचाना, अकारण हँसना या ऐसी भावभंगिमा जो सभ्योचित न हो, नहीं अपनाई जानी चाहिए। दाँत से नाखून काटने, बार-बार अकारण सिर या कोई अंग खुजाने की आदत कई लोगों को पड़ जाती है और वे छोटी बातें दूसरों पर ऐसा असर डालती हैं जिससे व्यक्तित्व का मूल्य गिर जाता है। लोकप्रियता के लिए प्रथम व्यवस्था हमें यह जुटानी चाहिए कि अपनी वेश-भूषा एवं आकृति प्रकृति में सज्जनता और शिष्टता का आवश्यक पुट विद्यमान रहे।

2- चैतन्य और प्रसन्नता-बनाये रहें। चेहरा मनुष्य की आन्तरिक स्थिति का दर्पण है, इस कहावत में बहुत कुछ सचाई है। चेहरे पर प्रसन्नता और हलकी मुसकान का बना रहना इस बात का प्रतीक है कि वह व्यक्ति उलझनों से रहित है और सफलताओं की सम्भावनाओं से भरा-पूरा है। ऐसे ही व्यक्तियों का सान्निध्य लोग पसन्द करते हैं। मनहूस शकल बनाये बैठे रहने वाले, उदासी, खिन्नता विपत्ति और असफलता का भाव प्रकट करने वाले चेहरे दूसरों की उपेक्षा का कारण बनते हैं। मनोमालिन्य मतभेद अथवा उलझी हुई गुत्थी, प्रसन्न मुख चेहरे से बात की बात में सुलझ जाती है जबकि उसी बात को तूल देने वाले और गम्भीरता से लेने वाले लोग उलझन को और भी अधिक बढ़ा देते हैं। चर्चा के प्रसंगों में जहाँ तक सम्भव हो प्रसन्नता, आशा और उत्साहवर्धक प्रकरणों को ही आगे रखना चाहिए। आवेश और उत्तेजना से सदा बचे रहा जाय। मतभेद के प्रसंग यदि अनिवार्य हों तो ही आगे बढ़ाये जायें अन्यथा बातचीत के लिए वही आधार चुनने चाहिए जिनमें मतैक्य स्पष्ट दीखता हो।

3- शालीनता और सज्जनता को स्वभाव का अंग बना लें। अकारण आत्म प्रशंसा की आदत बुरी है, इससे अपना घटियापन प्रकट होता है। इसी प्रकार दूसरों की कमियों भूलों तथा असफलताओं की बार-बार चर्चा करना यह बताता है कि उनको तिरस्कृत लाँछित किया जा रहा है। अपनी सफलता को बार-बार बढ़ा चढ़ाकर चर्चा करना अपने अहंकारी उथली प्रकृति के होने का चिह्न है। अपने स्वाभिमान तथा दूसरों के स्वाभिमान की रक्षा की जानी चाहिए पर वह अहंकार को स्पर्श न करने पाये। अपनी गलती माने और दूसरों से कुछ सीखने के लिये जो व्यक्ति तैयार रहते हैं वे अपनी महत्ता की सहज छाप दूसरों पर छोड़ते हैं। अक्खड़, जिद्दी, अशिष्ट और रूखे स्वभाव के व्यक्ति अकारण ही अपने मित्रों की संख्या घटाते और विरोधियों को बढ़ाते चले जाते हैं। हमें सज्जनोचित नम्रता, शिष्टता और सज्जनता का वार्तालाप ही करना चाहिए वरन् समय-समय पर लोगों की सहायता और सेवा का भी कुछ न कुछ प्रयत्न करते ही रहना चाहिए। अपनी उदारता की छाप छोड़ने वाला ही लोकप्रिय बन सकता है।

4- अपने को प्रमाणिक सिद्ध कीजिये-वचन का पालन, समय की पाबन्दी, ईमानदारी और सचाई का व्यवहार, लेन-देन की सफाई, युवा नारियों के प्रति सम्भाषण अथवा व्यवहार में लोक मर्यादाओं का अधिक पालन, गोपनीयता की रक्षा, चुगली, निन्दा और ईर्ष्या से अरुचि, व्यंग और उपहास भरे मजाक न करना जैसे सज्जनोचित गुणों की मात्रा अपने में बढ़ा लेने से जहाँ अपने कार्य व्यवसाय में बढ़ोतरी होती है, वहाँ विश्वसनीयता एवं प्रमाणिकता के आधार पर लोकप्रियता में भी वृद्धि होती है।

5-लोकप्रियता का तकाजा यह है कि हम अपनी ही तरह दूसरों की इच्छायें भी जानें, उनकी अभिरुचि, आकाँक्षा तथा समस्याओं को सुने, समझे और जितनी उचित तथा सम्भव हो उतनी उनकी सहायता करें। यह सहायता परामर्श, प्रोत्साहन और जहाँ अपनी पहुँच हो वहाँ तक उन्हें पहुँचा देने के रूप में भी हो सकती है। सहानुभूतिपूर्ण रुख रखना और जब सम्भव हो सके तब उचित सहयोग देने का आश्वासन देना भी लोगों में आशा तथा उत्साह जगाये रहता है और लोकप्रियता बढ़ती रहती है।

6- अपने को उपयोगी सिद्ध कीजिए-लोग आमतौर से उसकी ओर आकर्षित होते हैं जिससे कुछ आशा होती है या प्रसन्नता मिलती है। लोग अपने पास आयें और प्रसन्नता लेकर जायें ऐसा वातावरण बनाये रहना चाहिये और यथासम्भव ऐसे साधन भी प्रस्तुत करने चाहिए अपनी योग्यताएं तथा विशेषताएं क्रमशः ऐसे बढ़ाते चलना चाहिए कि लोग आपको उपयोगी और समय पड़ने पर कुछ सहायता कर सकने वाला समझें। केवल गप्पे हाँकने विदूषक का पार्ट करने, बेगार में मारे-मारे फिरने, दोस्ती बाजी में पैसे उड़ाने, झूठे खैरख्वाह बनने, झूठी उम्मीदें दिलाने जैसे छिछले उपायों से जो सस्ती लोकप्रियता प्राप्त की जाती है वह ठहरती नहीं। उथले प्रयत्नों का कभी गहरा प्रभाव नहीं हो सकता।

हमारा व्यक्तित्व ऐसा होना चाहिए जो दूसरों की अपेक्षा अधिक विशेषता लिये हुए हो। आवश्यक नहीं कि धन, विद्या या पद में ही हम दूसरों से बड़े हो। यदि चरित्र, नम्रता, प्रमाणिकता, सज्जनता की दृष्टि से भी हम अपनी श्रेष्ठता सिद्ध कर सकें तो निस्सन्देह लोकप्रियता बढ़ती जायेगी। मित्रों तथा प्रशंसकों की संख्या बढ़ेगी। जो व्यक्ति जितना लोकोपयोगी बनता जाता है उतना ही लोकप्रिय बनता जाता है। हमारा व्यक्तित्व जितना उत्कृष्ट बनता जायेगा उतना ही जनसाधारण को आकर्षित और प्रभावित करने की अपनी क्षमता बढ़ेगी और लोकप्रियता अनायास ही पीछे-पीछे भागती चली आयेगी।


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