शरीर और मस्तिष्क की प्रत्यक्ष शक्तियाँ सर्व-विदित हैं। शरीर श्रम करता है और मस्तिष्क सोचता है, भौतिक विज्ञान इतना ही जानता है पर उनमें अतीन्द्रिय चेतना भी है, यदि है, तो क्यों है? इन प्रश्नों का उत्तर विज्ञान के पास नहीं। क्योंकि भौतिक शक्तियाँ तो अपने स्थूल नियमों तक ही सीमित रहेंगी। उनमें व्यतिक्रम होने का कोई कारण नहीं। पर देखा जाता है कि मनुष्य में ही नहीं, मनुष्येत्तर प्राणियों में भी कुछ ऐसी विशेषताएं पाई जाती हैं जो इन्द्रिय शक्तियों की परिधि से बाहर की बात है। हाड़ माँस का बना शरीर उन्हीं नियमों का पालन करेगा जो उसके लिये निर्धारित हैं। इसी प्रकार मस्तिष्क भी उतना ही सोचेगा जो उसने सीखा है। पर सामान्य लौकिक ज्ञान की परिधि का उल्लंघन करके कई बार ऐसा कुछ दीखने को मिलता है जिससे विदित होता है कि आत्मा के भीतर कुछ ऐसी विशेषता है जो ऐसी जानकारी भी प्राप्त कर लेती है जो उसकी शारीरिक मर्यादा के अनुसार सम्भव नहीं अतीन्द्रिय चेतना का अस्तित्व अनेक बार प्रत्यक्ष दिखाई पड़ता है। उसे झुठलाया नहीं जा सकता।
यदि भौतिक विज्ञान जीवधारी की जड़ प्रकृति को ही एक स्थूल उत्पादन मानता रहेगा तो उसे अतीन्द्रिय चेतना का भी कोई आधार एवं कारण न मिलेगा। जब प्राणी एक ‘चलता फिरता वृक्ष’ ही ठहरा तो उसकी शारीरिक एवं मानसिक हलचलें भी शरीर ज्ञान से बाहर कैसे जा सकती हैं। पर वे जाती हैं। ऐसी दशा में भौतिक विज्ञान को प्राणी को जड़ जगत की ही एक हलचल मानने तक सीमित नहीं रहना होगा वरन् आत्मा की अलौकिक सत्ता को स्वीकार करना होगा। अतीन्द्रिय चेतना का समाधान तभी मिल सकता है।
जार्जिया (रूस) निवासियों में काकेशियाई कुत्ते त्साब्ला की कथा घर-घर प्रचलित है। वह इतना स्वामिभक्त और कर्त्तव्य परायण था कि उसकी तुलना करके लोग अपने कर्मचारियों का उद्बोधन करते रहते थे। तिब्लिसी क्षेत्र में यह कुत्ता अपने मालिकों के जानवरों को प्रायः अकेला ही ले जाया करता था। जानवरों को कहाँ चरना है, कहाँ बैठना है, कहाँ पानी पीना है, कब लौटना है यह सब बातें उसके ध्यान में थीं। कोई जानवर झुण्ड से बाहर निकल कर इधर-उधर खिसक न जाय इसका वह पूरा ध्यान रखता था और भेड़िये, तेन्दुए जो उस क्षेत्र में भेड़-बकरियों की घात लगाते रहते थे उनसे जूझने के लिए सदा मुस्तैद रहता था। उसने ऐसी कई लड़ाइयाँ जीती भी थीं। घायल होकर भी उसने अपने शिकारियों को भगाया और अपने झुण्ड के किसी जानवर का बाल बाँका न होने दिया। मालिक के छोटे लड़के सान्द्री से वह इतना हिला-मिला था कि दोनों पास-पास बैठकर खाते और फुरसत के समय भरपूर खेलते।
इस कुत्ते की एक दूर के पशु फार्म पर जरूरत पड़ी मालिक ने उसे देना मंजूर कर लिया। त्साब्ला की आंखें बन्द करके ट्रक में पटक कर उसे सैकड़ों मील दूर उस नये फार्म में ले गया। वहाँ उसे बाँधकर रखा गया। कुत्ते का बुरा हाल था न उसने कुछ खाया न पिया, रोता रहा। एक दिन उसका दाव लग गया तो रस्सी तुड़ाकर भाग निकला। आंखें बन्द करके ट्रक में डालकर लाया गया था फिर भी उसने अन्तःप्रेरणा के आधार पर दौड़ लगाई और नदी नाले पार करता हुआ भूखा, प्यासा, रास्ते के शत्रुओं से जूझता, क्षत-विक्षत शरीर लेकर अपने पुराने स्थान पर लौट आया अपने प्यारे साथी सान्द्रों से लिपट-लिपट कर रोया।
इस घटना को लेकर जार्जिया विज्ञान एकेडमी के शरीर शास्त्री आई.एस. वेकेताश्विली ने शोध कार्य आरम्भ किया कि क्या पशुओं में अतिरिक्त अतीन्द्रिय चेतना होती है? और क्यों वे उसके आधार पर बिना इन्द्रियों का प्रत्यक्ष सहारा लिये वह काम कर सकते हैं जो आँख कान आदि से ही सम्भव है।
उन्होंने यह परीक्षण कई जानवरों पर किये कि क्या उनमें इतनी अतीन्द्रिय चेतना होती है जिसके सहारे वे प्रधान ज्ञानेन्द्रिय आँख का काम कर सकें। इसके लिए उन्होंने एक बिल्ली पाली। नाम रखा-ल्योवा। उसकी आँखों पर ऐसी पट्टी बाँधी गई जिससे वह कुछ भी देख न सके। उसे साधारणतया बाँधकर रखा जाता, पर जब खाने का वक्त होता तो उसे खोला जाता। और खाने की तश्तरी कमरे के एक कौने पर दूर रख दी जाती। शुरू में तो उसे अपना भोजन तलाश करने में कठिनाई हुई पर पीछे वह इतनी अभ्यस्त हो गयी कि कमरे के किसी भी स्थान पर रखा जाय वह वहीं पहुँच जाता।
नाक की गन्ध से सूँघ कर उसके आधार पर वह ऐसा कर सकती है यह बात वैज्ञानिक जानते थे इसलिये उन्होंने इसके साथ ही अतीन्द्रिय ज्ञान की एक कठिन परीक्षा यह रखी कि तस्तरी में ही पत्थर के टुकड़े भी रख दिये जाते। गन्ध तो सारे प्लेट में से उठती थी इसलिये उसमें रखी हुई किसी चीज को वह मुँह में डाल सकती थी। पर देखा गया कि बहुत ही निश्चित रीति से उसने अपना खाना ही खाया और पत्थर के टुकड़ों को चाटा तक नहीं। इसी प्रकार कुछ दिन में वह रास्ते में रखी हुई कुर्सी, सन्दूक आदि को बचाकर इस तरह अपना रास्ता निकालने लगी जिससे किसी चीज के गिरने की दुर्घटना भी न हो और चलना भी कम पड़े।
इसी प्रयोग के लिए एक छोटा काला कुत्ता पाला गया। नाम रखा जिल्डा। इसकी आँखों पर भी पट्टी बाँध दी गई प्रयोगशाला में क्या चीज कहाँ रहती है इसका उसे पता तक न था। वह कुछ दिन में ही सब कुछ भाँप गया और बिना किसी से टकराये बुलाये हुई आवाज पर पहुँचने लगा।
वेरेताश्विली ने अपने परीक्षणों शृंखला में मनुष्यों को भी जोड़ा है। उसने एक ऐसे जन्माँध छोटे लड़के की कथा लिखी है जो उन्हें एक व्यक्ति के पास तक रास्ता दिखाता हुआ-टेड़ी-मेढ़ी गलियाँ पार करते हुए ईंट पत्थरों और गड्ढों को बचाता हुआ उछलता कूदता आगे गया था।
इन परीक्षणों से उन्होंने निष्कर्ष निकाला है कि अतीन्द्रिय चेतना, हर प्राणी में विद्यमान रहती है। किसी में न्यून किसी में अधिक। कुछ जन्म जात रूप से उसकी पर्याप्त मात्रा साथ लेकर आते हैं और कुछ प्रयत्न करके उसे जगा या बढ़ा सकते हैं। उनने अपने निष्कर्षों में यह भी कहा है कि अन्धों में यह अतीन्द्रिय ज्ञान का एक स्तर लिविरिंथ रेसेप्टर अपेक्षाकृत अधिक विकसित हो जाता है यदि प्रयत्न किया जाय तो उनकी यह क्षमता अधिक विकसित हो सकती है और वे नेत्रों वाले मनुष्यों से भी अधिक उपयोगी जीवन जी सकते हैं।
प्राणियों में एक बड़ी विशेषता यह है कि वे परिस्थितियों के अनुरूप अपने को ढाल लेते हैं। प्रकृति के उतार-चढ़ाव और परिस्थितियों के प्रवाह विकट तो जरूर होते हैं पर इतने नहीं कि मनुष्य की जिजीविषा को चुनौती दे सकें। प्राणी के शारीरिक एवं मानसिक क्षमता ढलती बदलती रहती है और यदि उसे विषम परिस्थितियों में रहना पड़े तो अपने में तदनुकूल सहनशीलता एवं परिवर्तन उत्पन्न कर लेती है। इसी प्रकार जिनके समीप रहना पड़ता है उनका प्रभाव ग्रहण करके प्राणी उसी रंग−रूप और आकृति-प्रकृति में भी ऐसा हेर-फेर कर लेता है जिसने वातावरण के साथ उसके सदृश ही प्रतीत होने लगे। समीपता का प्रभाव मानसिक ही नहीं, शारीरिक भी होता है। इसे प्रकारान्तर से अतीन्द्रिय चेतना ही कहना चाहिए सर्दी में गल जाना, गर्मी में जल जाना ही सम्भव हो सकता है फिर शरीर अपने ढाँचे और क्रम की ही परिस्थिति के अनुरूप ढलने और बदलने लगे तो इसे अतींद्रिय चेतना के अतिरिक्त और क्या कहा जायेगा?
उत्तरी ध्रुवों पर सफेद भालू होता है वह बर्फ में इस प्रकार बैठा रहता है कि दूसरे को कुछ पता ही नहीं चलता कि वह भालू है या बर्फ की कोई चट्टान। वृक्षों की झाड़ियों में रहने वाले तेंदुए, जिराफ, हिरन, सर्प आदि के शरीर पर ऐसे निशान बन जाते हैं कि उन्हें देखने पर वे भी वृक्ष की कोई शाखा जैसे ही दीखते हैं।
तितलियों की छटा भारतवासी दार्जलिंग में देख सकते हैं। जैसे रंग के फूल वैसे ही रंग की तितलियाँ अलग से देखा जाय तो मात्र फूल भर मालुम पड़ता है उस पर कोई बैठा होगा उसका तनिक भी आभास नहीं होता पर जब उन फूलों के पास जाया जाय तो उन्हीं जैसे रंग की तितलियाँ उड़ने लगती हैं। इस प्रकार रंग-बिरंगे फूलों के साथ उन्हीं रंगों की तितलियाँ एक अपूर्व छटा दिखाती हैं। कई तितलियाँ तो पत्तों के रंग की ही नहीं उनके आकार की भी होती हैं। जब पतझड़ में पत्तों का रंग पीला पड़ता है तो वे भी अपना हरा चोला पीला कर लेती हैं।
बाँस के पेड़ पर लटका रहने वाला साँप, बिल्कुल बाँस की टहनी जैसा लगता है उस पर गाँठों जैसे निशान तक होते हैं।
जिन जीवों को शत्रुओं से खतरा होता है और आत्मरक्षा की अतिरिक्त आवश्यकता अनुभव करते हैं उनकी आकृति और प्रकृति में ऐसा विकास हो जाता है जिसमें वे आत्मरक्षा सरलतापूर्वक कर सकें।
समुद्री घोड़ा अपने शरीर को घासपात से ढके रहता है ताकि खूँख्वार जल-जंतु उसे पेड़ भर समझें और हमला न करें। कुछ घोंघे ऐसे भी होते हैं कि जब मछलियों के आक्रमण के शिकार होते हैं तो एक काला सा द्रव मुँह से उगल देते हैं; उस कालिमा की धुँध में मछलियाँ उन्हें ठीक तरह देख नहीं पाती इतने में वे उनकी पकड़ से बाहर खिसक जाते हैं। मेडागास्कर में एक ऐसी छिपकली होती है जिसमें तेज दौड़ने की क्षमता नहीं होती। उसे मांसाहारी पक्षी आसानी से पकड़ सकते हैं। आत्मरक्षा के लिये उसे एक अद्भुत विशेषता यह उत्पन्न हुई है कि उसकी पूँछ की जड़ बहुत कमजोर होती है। जब वह मुसीबत में फँसती है तो झिटककर अपनी पूँछ तोड़ डालती है और वह टुकड़ा कटने के बाद फड़फड़ाने लगता है। आक्रमणकारी उसे ही शिकार समझ कर खाने लगता है और चुपचाप चिपकी हुई छिपकली इसी प्रकार अपने प्राण बचा लेती है।
फलों में और शाक भाजियों में पड़े हुए कीड़े प्रायः उन्हीं के रंग के होते हैं। पक्षियों के अण्डों को खा जाने के घात में कितने ही जन्तु फिरते रहते हैं। इसलिए पक्षी इस तरह की टहनियों में या घासपात में उन्हें छिपाकर सेते हैं जहां वे घात कर्ताओं की दृष्टि से अपने अण्डों का बचाव कर सकें।
हमें यह मानकर चलना होगा कि प्राणी जड़ जगत का घासपात जैसा उत्पादन नहीं है और न चलता फिरता वृक्ष है-जैसा कि विज्ञान द्वारा माना जाता रहा है। जीवधारी की चेतना में आत्मा का प्रकाश है और उस प्रकाश में वह सामर्थ्य विद्यमान है जो इन्द्रिय सामर्थ्य की परिधि से आगे की बात सोच सके और ऐसे कदम उठा सके जैसे जड़ पदार्थों के लिये उठा सकना सम्भव नहीं हो सकता।