सम्पदा नहीं महानता श्रेयस्कर है।

August 1972

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सम्पत्तिवान होकर सुखी रहा जायेगा ऐसा आमतौर से सोचा जाता है और इस भ्रान्त-धारणा के कारण लोग उचित-अनुचित का ध्यान रखे बिना जैसे भी बने वैसे सम्पत्ति उपार्जन का प्रयत्न करते हैं। प्रयास का परिणाम भी होता है। उद्योगी व्यक्ति धनी बन भी जाते हैं पर उस धन से सुख मिलेगा ही यह पूर्णतया संदिग्ध है दूसरे लोग धनी को सुखी समझें यह बात अलग है पर अनीतिपूर्वक उपार्जन करके उसे छाती के नीचे दबाकर बैठे रहने वाले व्यक्ति वस्तुतः इस धन से दुख ही अधिक पाते हैं। जिससे तृष्णा भी शान्त न हो और लोक-परलोक में दुःख उठाना पड़े ऐसा कृपण धनवान बनने से क्या लाभ?

आस्ट्रिया का अन्तिम राजा इतना धनी था कि उसे ‘न भूतो न भविष्यति’ कहा जाता था। ईसा से 226 वर्ष पूर्व जब वह मरा तो वह अपने महल में ढेरों ऐसी स्वर्ण अट्टालिकायें छोड़ गया था, जिनमें प्रत्येक में 4, 04, 202 ग्रेन से अधिक स्वर्ण लगा था, इतिहासकार डेरोडोलस के अनुसार इन अट्टालिकाओं में केवल स्वर्ण ही 98,325,000,000 उन दिनों का डालर मूल्य का था। संयुक्त राज्य अमेरिका का समस्त राज्य कोष 4,800,00,000 डालर का था। अनुमान लगाया जाना चाहिए कि समस्त अमेरिका की तुलना में वह धन 20 गुना अधिक था। निनवे नगर का उन दिनों विशाल वैभव राज्य महल तक ही सीमित रहा। उससे जनता कुछ लाभ न उठा सकी। जैसे ही शासन दुर्बल हुआ कि वह सारा राज्य वैभव लुटेरों द्वारा लूट लिया गया और वे भवन खंडहर मात्र रह गये।

अल्जीरिया के समुद्री डाकुओं ने भूमध्य सागर से होकर गुजरने वाले जहाजों के लिए भारी आतंक उपस्थित कर रखा था। उसके आक्रमण से शायद ही कोई बच पाता इस प्रकार उस क्षेत्र का व्यापार एक प्रकार से ठप्प ही पड़ा था। फ्रान्सीसी तो उनसे आजिज आ गये थे पर वह कुछ कर नहीं पाते थे। 300 वर्षों से अधिक समय तक अल्जीरियाई डाकुओं का यह उत्पात पीढ़ी दर पीढ़ी ऐसा ही चलता रहा।

निदान 7 नवम्बर 1942 को अमेरिका के नेतृत्व में एक जहाज बेड़ा इन डाकुओं से निपटने के लिए भेजा गया। फ्रान्स भी उसमें शामिल था। निदान डाकुओं पर विजय प्राप्त कर ली गई और उनमें लूट का धन वापिस लेने का निर्णय किया गया। फ्रान्स सरकार ने 1830 से चल रही इस डकैती में फ्रान्स को उठानी पड़ी क्षति का लेखा-जोखा तैयार करके बताया कि 55,684,525 स्वर्णिम फ्रेंक मुद्रा की उसे क्षति उठानी पड़ी है।

अल्जीरिया के कोषाध्यक्ष से चाबियों का गुच्छा लिया गया। खजाना खोला गया तो उससे सोने की ईंटें, हीरे, जवाहरात तथा ब्रिटिश नोटों का ढेर मिला, गिना गया तो वह 55,684,527 की निकली। क्षति-पूर्ति के लिए माँगे गये धन से ठीक दो फ्रंक धन अधिक। इस प्रकार फ्रान्स ने एक ही दिन में सारी क्षति पूर्ण कर ली और अल्जीरिया वालों को 300 वर्षों की उत्पात भारी कमाई क्षण भर में गँवा देनी पड़ी।

संचित सम्पदा जो किसी के काम न आये। किसी की आवश्यकता पूरी न करे और न किसी गिरे को उठाये उसे एक प्रकार का अभिशाप ही समझना चाहिए। संग्रहकर्त्ता की तृष्णा और कृपणता उसे एक प्रकार से दुर्भाग्य का प्रतीक बना देती है, फिर वह सम्पत्ति जहाँ भी जिसके पास भी रहती है उसी को संकट में डालती है।

संसार के बहुमूल्य हीरों के साथ एक विचित्र इतिहास जुड़ा हुआ है वे देर तक किसी के भी पास नहीं रहे। रुलाकर ही वे प्राप्त किये गये और जब वे गये तब अपनी निशानी रुलाई ही पीछे छोड़ गये।

संसार के प्रसिद्ध कोहिनूर हीरे के पीछे ऐसी ही दर्दनाक कथा जुड़ी हुई है। 186 कैरेट का यह बहुमूल्य हीरा 14 वीं सदी से 18 वीं सदी तक भारत में रहा और उसके लोभ में अनेक राजा महाराजाओं को अपने सिर कटाने पड़े। नादिरशाह ने इसे अपने तख्त ताऊस में जड़वाया फिर वह ईरान गया, ईरान से फिर वापिस आया। पीछे उसे अँग्रेज ले गये इस बीच इस अभागे हीरे के लिए कितनों को अपने प्राण गँवाने पड़े यह एक रोमाञ्चकारी गाथा है।

रूस की महारानी कैथरीन का एक बहुमूल्य हीरा उसके प्रियपात्र पोटेमाक्रिन के पास पहुँचा। उसे नेपोलियन ने छीना और अपनी पत्नी युजीन को विवाहोपहार के रूप में दे दिया। वह बेचारी भी उसे कैथरीन की तरह चैन से न पहन सकी। वह छिना और 1872 में लन्दन के बाजार में उसे नीलाम कर दिया गया।

रूसी राजदूत की तेहरान में हत्या कर दी गई। इस पर आक्रमण करने के लिये तैयार रूप से क्षमा-याचना के रूप में ईरान ने ‘शाह आफ एशिया’ नामक 88॥ कैरेट का हीरा भेंट करके तत्कालीन शासक जार का क्रोध ठण्डा किया।

इंग्लैंड के राजा हेनरी आफ नवारी के वित्त-मन्त्री डी. सेन्सी ने एक कीमती हीरा विश्वासी नौकर के हाथों भेजा डाकुओं से घिर जाने पर उस स्वामिभक्त नौकर ने अपना पैर चीरकर उसमें वह हीरा छिपा लिया। डाकुओं ने उसे लूटकर मार दिया। राजा ने उसकी लाश तलाश कराई तो उसमें वह हीरा मिल गया। इसके बाद वह डासेन्सी नामक हीरा लुई चौदहवें के पास चला गया और रुलाई की परम्परा साथ लेकर फिर किसी राज परिवार में जा छिपा।

स्टार आफ ईस्ट नामक 26 कैरेट का हीरा आर्च ड्यूक फर्डिनेण्ड के पास था। उनकी हत्या हो गई। उस हत्या के बहाने 1914 का प्रथम महायुद्ध छिड़ा और उसने लाखों के प्राण लिये। इसके बाद न जाने वह हीरा कहाँ चला गया।

128 कैरेट का हीरा ‘स्टार आफ साउथ’ के मालिक को मारकर उसके नौकर ने चुरा लिया। नौकर पानी के जहाज से उसे बेचने के लिये किसी दूसरे देश में जा रहा था कि जहाज के कप्तान को पता चल गया और उसने उसे मारकर वह हीरा हथिया लिया। इसे गुप्त रूप से मद्रास के गवर्नर सर टामस पिट ने खरीद लिया। जब वे इंग्लैंड वापिस पहुँचे तो मालूम हुआ कि यह रहस्य पहले से ही लोगों को विदित हो चुका है और उसे लूटने के लिए डाकू लोग घात लगाये बैठे हैं। पिट जान बचाने के लिये भाग खड़े हुए और भिखारी का वेश बनाये मुद्दतों उसे छिपाये फिरे फिर उन्होंने किसी को बेचकर अपना पिण्ड छुड़ाया। जिसने खरीदा था वह भी मुसीबत में फँसा और अन्ततः उसने भी बिना कीमत लिये ही उसे फ्रान्स के राज्यकोष में जमा कर दिया।

अपने आपको आकर्षण का केन्द्र बनाने की दृष्टि से लोग अपने में धन की, कला की तथा दूसरी विशेषतायें उत्पन्न करते हैं और उस विचित्रता के कारण लोगों का ध्यान खींचकर अपने अहंकार की पूर्ति करते हैं। पर ऐसा आकर्षण जिससे किसी का हित साधन न होता हो विपत्ति का कारण बनता है। ललचाई हुई आँखों से जो भी वस्तु देखी जाय उसे उपयोगी भी होना चाहिए। इसके विपरीत यदि वह आकर्षण मात्र रह गई तो वह सम्पदा जनता की नजर लगने से भी नष्ट हो जाती है। रूप सौंदर्य से लेकर निरुपयोगी सम्पदा तक का यही हाल होता है।

सन् 286 में जन्मा और 312 में मरा चीन का सुप्रसिद्ध रत्न व्यापारी वी.ची. ह्वान अपने रूप लावण्य के लिए भी उतना ही प्रख्यात था जितना कि अपने व्यापार की प्रामाणिकता के लिए। वह जहाँ भी जाता, दर्शकों की भीड़ लग जाती। कहने वाले कहते विधाता ने उसे जिस साँचे में ढाला है, उसने दूसरा कोई नहीं ढाला। जो देखता सो अपलक ही होकर रह जाता।

चीन के राजा ने उसे अमात्य बनाया पर वहाँ भी वह ठहरा नहीं- उसके नानकिंग जाने की बात सोची और वहीं चला गया। नानकिंग की जनता ने ऐसा देवताओं जैसा सुन्दर मनुष्य कभी आँखों से देखा न था, सो उसे देखने के लिए ठट्ठ के ठट्ठ लग गये। इतने लोगों का एक साथ इस प्रकार अभिरुचि के साथ देखना ह्वान के लिये अभिशाप बन गया। वह खड़ा-खड़ा लुढ़क पड़ा और दर्शकों के बीच ही उसकी मृत्यु हो गई।

मनुष्य बड़प्पन के लिये भी प्रयत्न कर सकता है और महानता की दिशा में भी चल सकता है। यह दो मार्ग पृथक-पृथक हैं। प्रतिभा निस्सन्देह प्रगति की सम्भावनायें प्रस्तुत करती है और सफलताएं सामने लाकर खड़ी करती है पर महत्व उस उपार्जन का नहीं उसके उपयोग का है। यदि सदुपयोग न किया जा सके तो उस उपार्जन को हेय ही ठहराया जायेगा। मनुष्य को निर्णय करना चाहिये कि उसे किस दिशा में चलना है। लक्ष्य में तनिक सा अन्तर रहने से उसके परिणामों में जमीन आसमान जैसा अन्तर आ जाता है।

स्विट्जरलैण्ड की नोजन नदी अपने मूल उद्गम से निकल कर पोम्पापलस नगर में दो भागों में विभक्त हो गई है। जमीन के ढलान ने इस विभाजन को दिशा परिवर्तन के रूप में प्रस्तुत कर दिया है। आधी नदी दक्षिण दिशा को चली गई है और उसका अन्त भूमध्य सागर में हुआ है। शेष आधी उत्तर दिशा में बही है और अंततः उत्तरी सागर में जा मिली है। विभाजन के स्थान पर ढलान का अन्तर तनिक सा है पर दिशा बदल जाने से एक ही नदी का जल सर्वथा भिन्न और एक दूसरे से अति दूर स्थान पर जा पहुँचा।

जेम्स स्वेन यों स्काटलैण्ड का निवासी था पर रोजी रोटी की तलाश में बाहर निकला और मैसाचुसेट्स, बोस्टन आदि में कुछ धन्धा-पानी करते हुए अंततः वह 1787 में फ्रान्स जा पहुँचा और वहाँ स्थायी रूप से बस गया उसने व्यापार में अच्छी सफलता पाई और क्रमशः उन्नति करते हुए बड़ा धनी बन गया।

उस समय फ्रान्सीसी सरकार अमेरिका की कर्जदार थी। यों लिया तो 20 करोड़ डालर ही गया था पर उसे ब्याज समेत 25 करोड़ डॉलरों में चुकाया जाना था फ्रान्सीसी सरकार उन दिनों ऐसी तंगी में थी कि उतना धन सहज ही चुका सकना उसके लिए शक्य न था। जेम्स सोचता रहा जब राष्ट्रीय स्वाभिमान दाँव पर लगा हुआ हो तो एक व्यक्ति का धनी बनकर जीना निरर्थक है। उसने अपनी सारी सम्पदा बेच दी वह इतनी अधिक थी कि उतने से ही अमेरिकन सरकार का सारा कर्ज उतर गया और फ्रान्स पूरी तरह ऋण मुक्त हो गया।

स्वेन के अपने गुजारे के लिये कुछ भी न बचा। वह जैसे-तैसे गुजारा करने लगा और पीछे कर्जदार भी हो गया। कर्ज न चुका सकने के अभियोग में उसे लम्बी सजा भुगतनी पड़ी। जेल से छूटने पर उसका स्वास्थ्य जर्जर हो गया। छूटने के तीन दिन बाद ही वह असहाय स्थिति में मर गया। पर उसने किसी से भी यह शिकायत नहीं कि मैंने फ्रान्स की जनता के लिये इतना किया तो दूसरे लोग मेरी तनिक सी सहायता करने भी आगे नहीं आते।

उदार मनुष्य भले ही धन, विद्या बल, वैभव कुछ भी उपार्जित करें पर उनका लक्ष्य यही रहता है कि इसे लोक मंगल के लिये खर्च किया जाए, ऐसे ही मनुष्य धरती के देवता कहलाते हैं और युग-युगान्तरों तक सराहे जाते हैं।



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