आहार हमें मनस्वी और आत्मशक्ति सम्पन्न भी बना सकता है।

August 1972

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रसायन शास्त्री मानव शरीर को एक रासायनिक पिंड मानते हैं। मुख की लार से लेकर, पाचन संस्थान में स्रवित होने वाले रसों और हारमोनों तक विधि स्राव रासायनिक प्रक्रिया ही उत्पन्न करते हैं। स्नायु संस्थान, तन्त्रिका जाल और कोशिका समूह में जहाँ विद्युत धाराएं अपना काम करती हैं वहाँ रासायनिक प्रक्रियाएं भी चलती रहती हैं। अन्न को रक्त के रूप में और रक्त को माँस मज्जा के रूप में बदलने का काम यही रासायनिक पद्धति करती है जिसके आधार पर जीवन-क्रम के अन्यान्य सारे क्रिया-कलाप निर्भर हैं। श्वास के माध्यम से ऑक्सीजन का शरीर में प्रवेश रक्त में उसका घुलना और ऊर्जा उत्पन्न करना इसे रासायनिक प्रक्रिया के अतिरिक्त और क्या कहें।

औषधि शास्त्र मनुष्य की रुग्णता और बलिष्ठता के पीछे रासायनिक हलचलों का कारण ही मानता है। मल परीक्षा, मूत्र परीक्षा, रक्त परीक्षा आदि में यही तो देखा जाता है कि भीतर कौन सा रसायन घट या बढ़ रहा है। औषधियाँ क्या हैं? विशुद्ध रूप से रसायन हैं जो पदार्थ भीतर कम पड़ रहा है या बढ़ रहा है उसे सन्तुलित करने के लिये ही तो विभिन्न प्रकार के खनिज, क्षार, विटामिन, प्रोटीन आदि शरीर में पहुँचाये जाते हैं। ईंट, चूने से बने मकान की टूट-फूट भी तो आखिर ईंट चूने से ही सुधारी जाती है। फिर शरीर में आई अव्यवस्था को व्यवस्थित करने के लिये रसायनों के अतिरिक्त और क्या माध्यम हो सकता है। इसी मान्यता पर समस्त औषधि शास्त्र का निर्माण हुआ है।

अध्यात्म शास्त्री भी मानवी चेतना को परिष्कृत करने के लिये रसायनों का प्रयोग करता है। उसकी मान्यता है कि वस्तुओं में स्थूल, सूक्ष्म और कारण यह तीन शक्तियाँ होती हैं। अन्न का स्थूल स्वरूप रक्त माँस बनता है। उसके सूक्ष्म रूप से मस्तिष्क एवं विचार बनते हैं और कारण रूप भावनाओं को विनिर्मित करता है यदि सड़ा, बुसा, विषाक्त अन्न होगा तो उससे पोषण तो दूर उलटे रोग उत्पन्न होंगे।

यदि दुष्प्रवृत्तियों के साथ कमाया हुआ और दुष्ट मनुष्यों के हाथों बना, परोसा अन्न होगा तो उससे मस्तिष्क में दुर्बुद्धि उत्पन्न होगी। इसी प्रकार यदि उसे प्रसाद भावना से पकाया और औषधि भावना से खाया न गया होगा; बनाने और खिलाने की स्नेहसिक्त सद्भावनाओं का समन्वय न होगा तो उससे खाने वाले का अन्तःकरण विकसित न होगा-उसकी भावनाओं में उच्च स्तरीय उभार न आयेगा। आहार केवल स्थूल दृष्टि से ही पौष्टिक एवं स्वल्प न होना चाहिये वरन् उसके पीछे न्यायानुकूल उपार्जन और सद्भावनाओं के समन्वय का भी तारतम्य जुड़ा रहना चाहिये तभी वह अन्न मनुष्य के तीनों आवरणों का समुचित पोषण कर सकेगा और तभी उसे शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक दृष्टि से सर्वांगीण विकास का अवसर प्राप्त होगा।

आहार के साथ जुड़े हुए कुछ तत्व शरीर भूमिका से आगे बढ़कर मनः क्षेत्र को प्रभावित करते हैं इसका प्रमाण वे वस्तुएं देती है जिन्हें नशीली कहते हैं। नशा, पदार्थ का सूक्ष्म गुण है। वह रक्त माँस पर तो प्रभाव डालता ही है साथ ही मस्तिष्क को-मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार को भी प्रभावित करता है। नशे का प्रभाव होते ही मनुष्य का मस्तिष्क बेकाबू हो जाता है और वह कुछ का कुछ सोचने, देखने, समझने लगता है। इतना ही नहीं-धीरे-धीरे उस नशेबाजी का प्रभाव सेवनकर्ता के गुण, कर्म, स्वभाव पर पड़ता चला जाता है उसका चरित्र, दृष्टिकोण, स्वभाव आदि का स्तर निरंतर गिरता चला जाता है। यह तथ्य बताते हैं कि आहार का प्रभाव केवल शरीर तक सीमित नहीं है यह केवल भूख बुझाने, स्वाद देने और रक्त माँस बनाने की स्थूल शारीरिक क्रिया तक सीमित नहीं रहता वरन् उसके सूक्ष्म प्रभाव मस्तिष्क को ही नहीं अन्तःकरण को भी प्रभावित करते हैं।

आत्म विद्या के ज्ञाता सदा से यह कहते आये हैं कि आत्मोन्नति की साधना तक प्रक्रिया में आहर शुद्धि का अति महत्वपूर्ण स्थान है। यदि उस ओर ध्यान नहीं दिया जाय और प्राणायाम, प्रत्याहार, नेति, धोति आदि आगे के क्रिया-कलापों में उलझा जाय तो वह समय पूर्व की बात होगी। अक्षर ज्ञान सीखे बिना किसी बच्चे को ज्यामिति के कठिन प्रश्न हल करने को कहा जाय तो यह अनुपयुक्त ही होगा। आहार में मस्तिष्क और भाव स्तर को सात्विकता की दिशा में अग्रगामी बना सकने वाले तत्वों से संयुक्त न बनाया जा सके तो भूखे पेट फुटबाल खेलने जैसा उपहासास्पद होगा। आत्मिक प्रगति के लिये आहार शुद्धि पर पूरा-पूरा ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है।

आहार के रासायनिक तत्वों का विश्लेषण बहुत पहले से होता रहा है। खाद्य पदार्थों में कौन तत्व कितनी मात्रा में होना चाहिये यह तालिकाएं स्वास्थ्य विभाग की ओर से मुद्दतों से दी जाती रही हैं। जहाँ तक माँसल शरीर का संबंध है वहाँ तक वे उपयुक्त भी हैं। पर मनुष्य केवल माँस पिण्ड ही तो नहीं है। उसमें बौद्धिक और भाव चेतनाएं भी मिलती हैं। उनके सुपोषण का समावेश भी आहार में होना चाहिए।

नशीले पदार्थों के बारे में कुछ दिन पूर्व तक उसका गुण, खुमारी, मस्ती जितना सीमित माना गया था और इसीलिये लोग उसे थकान मिटाने, गम गलत करने के नाम पर पीते थे। भाँग, गाँजा, चरस, अफीम, शराब जैसे नशीले पदार्थ इसी प्रयोजन के लिये पिये जाते थे। पर अब उनमें अन्य अनेक विशेषताएं, नवीनताएं पाई गई हैं कि वे ऐसी अनुभूतियाँ कराते हैं जो सामान्य चिन्तन से बिल्कुल भिन्न प्रकार की होती हैं। कुछ रसायन ऐसे हैं जो मस्तिष्कीय कणों को वर्तमान परिस्थिति एवं उपस्थिति से सर्वथा भिन्न प्रकार की अनुभूतियाँ सामने उपस्थित करते हैं। मस्तिष्कीय कणों की चिन्तनधारा को सामने प्रस्तुत पदार्थों से सर्वथा असम्बद्ध करके किसी ऐसे कल्पना लोक में उड़ा ले जाते हैं जिनका वास्तविकता से दूर का सम्बन्ध भी नहीं है। पुराने नशे वर्तमान स्थिति से तारतम्य तो मिलते रहते थे, पर इन अभी नये प्रकाश में आये पदार्थों का प्रभाव तो ऐसा होता है कि वर्तमान के साथ मस्तिष्क का तारतम्य बिल्कुल टूट गया और आँखें वह देखने लगीं जो सामने प्रस्तुत यथार्थता से सर्वथा भिन्न था।

मैक्सिको के आदिवासी ‘पेयोटे’ पौधे का एक मादक रस बनाकर पीते रहे हैं। इस पौधे से हैवलाक एलिस और ई॰ हक्सले के प्रयत्न से एक नया रसायन बना-मैस्कालिन। इसका नशा पिया तो इन दोनों वैज्ञानिकों ने अत्यंत अद्भुत प्रकार की अनुभूतियाँ पाई। एलिस ने लिखा है मैंने देखा अत्यन्त सुन्दर हीरे जवाहरात खेतों में बिखरे पड़े हैं वे देखते-देखते पौधे की तरह उगे, और फूलों से लद गये। वे फूल रंग बिरंगी तितलियों के रूप में बदलने और आकाश में उड़ने लगे। चमकीले हीरों का फूल और तितलियों के रूप में आकाश में उड़ना मुझे अत्यन्त प्रिय लगा एलिस के साथी हकसले ने लिखा है-’ईसा के अवतरण’ आदम द्वारा सृष्टि सृजन काल जैसी दिव्य परिस्थितियाँ मैंने अनुभव कीं और किसी युग एवं वातावरण में अपने को पाया जो पवित्र सौंदर्य (ग्रेस) से ओत प्रोत था। मैंने अपने को किसी दिव्यलोक की दिव्य परिस्थितियों में रहता हुआ अनुभव किया।

मैक्सिको की एक और घटना न्यूयार्क निवासी वैकर आर. गोर्डन वासन ने लिखी है। वह अपनी रूसी पत्नी के साथ आदिवासी क्षेत्र में पहुँचा। उसने वहाँ की सौगात एक चमकीले कुकुरमुत्ते के रूप में चखी। उसे अपनी सराय आलीशान महल, बादशाही सजावट इन्द्र धनुष चित्रकारी, झिलमिलाती हुई दीवारों के रूप में नजर आई। फिर वह सारा महल मोम की तरह पिघल कर एक सुन्दर सरोवर के रूप में बदल गया।

इस विचित्र कुकुरमुत्ते को वासन अपने साथ लाया। इनकी रासायनिक जाँच डॉ. हाफमैन की रसायनशाला में हुई। उससे एक रसायन बनाया गया-सीलो साद्रविन। इसे साइको कैमिकल-मनोवैज्ञानिक औषधि की श्रेणी में सम्मिलित किया गया।

मादक द्रव्य अनुसंधानकर्ता डी. क्विन्सी ने अपनी पुस्तक ‘कन्फेशन्स आफ आपियम ईटर’ नामक पुस्तक में अफीम और उसी जाति के अन्य रसायनों का वर्णन करते हुए लिखा है कि वे सेवन करने वाले को किसी विचित्र लोक में उड़ा ले जाते हैं और ऐसी कल्पनाएं दृश्यमान करते हैं जिनका वास्तविकता से बहुत कम सम्बन्ध होता है। अलग-अलग देशों में यह रसायन थोड़े अन्तर के साथ पाया जाता है। मध्य पूर्व के अरब देशों में ‘हशीश’ ‘कीफ’ (मोरक्को) मेरी होना (अमेरिका) में प्रचलित हैं। उनके नाम तकरीरी-दग्गा-मेकोन्हा आदि भी हैं। इनके रसायनों में अन्तर भी होता है और उनकी पिनक में होने वाली अनुभूतियों के स्तर में भी अन्तर रहता है पर है यह अफीम जाति के ही रसायन।

कुछ ही समय पूर्व एक नया रासायनिक मति परिवर्तन रसायन सामने आया है उसका नाम है-एल.एस. डी. अंग्रेजी दवाऐं बनाने वाली स्विस कम्पनी ‘सेन्डीज’ की प्रयोगशाला में काम करते हुए डॉ. हाफमेन ‘अर्गट’ नामक औषधि पर अन्वेषण कर रहे थे। उनका प्रयत्न उस अर्गट-फफूँदी से रक्त स्राव रोकने की दवा बनाने के लिए चल रहा था। इसके लिये वे उसे ‘लाइसर्जिक ऐसिड’ में बदलने का प्रयास कर रहे थे, पर कुछ ऐसी उलट-पुलट हुई कि उस खोजबीन में एक नया रसायन बन पड़ा- उसका नामकरण हुआ लाइसर्जिक एसिड डाइएविले, याइड इसी को संक्षेप में एल0एस0डी0 कहते हैं। उन्होंने उस रसायन की 20 माइक्रोग्राम जितनी जरा सी मात्रा चखी, बस फिर क्या था वे दिव्यलोकों की सैर करने लगे। उन्हें लगा कि उनकी मृत्यु हो गई, देह सोफे पर पड़ी है, वे आकाश में उड़ रहें हैं और दिव्यलोकों की सैर कर रहे हैं।

कैंब्रिज विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान वर्ग की रसायनों पर प्रयोग करते हुए श्रीमती वार्वेरा डनलप को भी एक रसायन की प्रभाव से ऐसे ही विचित्र अनुभव करने का अवसर मिला। उनके सामने नींबू की कटी हुई दो फाँकें पड़ी थीं उनमें उन्हें सोने के पहाड़, चाँदी के पेड़, अंतरिक्ष से उतरते अज्ञात चेहरे, सुरम्य सरोवर, बाँसुरी वादन जैसी मुग्धकारी संगीत लहरे उत्पन्न होती हुई अनुभव हुई।

मस्तिष्क पर पड़ने वाले विभिन्न और विचित्र प्रभावों की ओर उपरोक्त प्रयोग ध्यान, आकर्षित करते हैं और बताते हैं कि मस्तिष्क का स्तर आहार की परिधि से बाहर नहीं। उसे भी प्रभावित किया जा सकता है। केवल स्वाध्याय, सत्संग, चिन्तन, मनन से ही नहीं-आहार के साथ घुले हुए सूक्ष्म तत्वों का सन्तुलन बनाकर मनुष्य के सोचने का तरीका भी समुन्नत किया जा सकता है। इतना ही नहीं भावनाओं की दिशा भी बदल सकती है। अवाँछनीय दिशा में चल रही भाव विकृति को आहार शुद्धि के आधार पर मोड़ा और सुधारा जा सकता है। दुष्प्रवृत्तियों में लगे हुये दुर्भावना युक्त मनुष्य के अन्तःकरण को छुपाया जा सकता है और उनकी प्रवृत्ति-मनोवृत्ति में अभीष्ट परिवर्तन किया जा सकता है।

कुछ पदार्थ स्वतः ऐसे होते हैं जिनमें स्वतः ही सतोगुणी दिव्य शक्ति रहती है और उनका सेवन क्रियागत रूप से चेतना स्तर में दिव्य प्रवृत्तियों का समावेश करता है उन्हें या अन्य पदार्थों को, किन्हीं मनस्वी व्यक्तियों की चेतना मिश्रित करके उपयोगी बनाया जा सकता है अथवा अपनी संकल्प शक्ति से भी उन्हें आत्मबलवर्धक बनाया जा सकता है। किन्हीं महापुरुषों के हाथ से स्पर्श करके दिये हुये प्रसाद का यही महत्व है। पूजा के समय प्रयुक्त नैवेद्य और जल भी ऐसा ही प्रभाव ग्रहण कर लेते हैं। पंचामृत, तुलसी-पत्र, यज्ञ भस्म जैसे पदार्थों में स्वयं की शक्ति में जब मन्त्र शक्ति का समावेश हो जाता है तो वे आत्मिक विशेषताओं के अभिवर्धन में और भी अधिक योगदान करती हैं। सद्भावना सम्पन्न माता, पत्नी या बहिन के हाथ के बनाये हुए भोजन का महत्व उनकी भावनाओं का समावेश रहने की दृष्टि से है। ब्राह्मण के हाथ का बनाया, परोसा भोजन करने की प्राचीन परिपाटी का आधार भी यही था। भोजन को भगवान का प्रसाद या औषधि श्रद्धा के साथ ग्रहण करने का फल कितना प्रभावी होता है इसे कोई भी व्यक्ति अनुभव करके देख सकता है।

शारीरिक स्वास्थ्य पर वर्गीकृत आहार के वर्गीकृत प्रभाव का विश्लेषण अन्वेषण हो रहा है- सो ठीक पर अगला कदम विज्ञान का यह होना चाहिये कि शरीर से असंख्य गुने महत्वपूर्ण मस्तिष्क और अन्तःकरण को विकसित करने वाले आहार के सूक्ष्म तत्वों का अन्वेषण भी करें। माँस पिण्ड की तुलना में निस्संदेह चेतना स्तर का महत्व अधिक है इसलिये आहार की शरीर सम्बन्धित रासायनिक प्रभाव परिणति के ज्ञान तक ही हमें सीमाबद्ध नहीं रहना चाहिए। मनस्वी और आत्मशक्ति सम्पन्न बनाने वाले आहार स्तर की भी गम्भीर शोध की जानी चाहिये।


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