सन्मार्गगामी को दैवी सहायता मिलती है।

August 1972

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परमार्थ मार्ग पर चलने वालों को दैवी सहायता मिलती है। चूँकि उनका लक्ष्य ऊँचा होता है इसलिये उस पुण्य प्रयोजन के आधार पर ईश्वरीय अनुग्रह का मिलना भी स्वाभाविक है। समय-समय पर ऐसी सहायता परमार्थी व्यक्तियों को मिलती भी रही है। यदि वह न मिलती तो वे साधन हीन स्थिति और विपरीत परिस्थितियों के बीच महत्वपूर्ण सफलताएं कैसे प्राप्त करते?

सन्मार्ग पर चलने वालों को सत्कार्य करने वालों को सदा दैवी सहायता मिलती रही है। संसारी लोग वैभव और पुरुषार्थ के चमत्कार को समझते हैं और जिसकी कमान चढ़ी होती है उसकी जय बोलते हैं, उसकी सहायता करते हैं। सन्मार्गगामी न्याय-नीति को अपनाये रहने के कारण उतनी जल्दी और उतनी बड़ी मात्रा में सफलता प्राप्त नहीं करते जितनी कि येन-केन उपलब्धियाँ प्राप्त कर लेने की नीति अपनाने वाले। फिर भी देवपथ का अनुभव करने वाले हारते नहीं और न साधनों के अभाव में उन्हें असफल रहना पड़ता है। दैवी सहायता समय-समय पर उन्हें मिलती रहती है।

कौरवों की सभा में द्रौपदी का चीरहरण किया जा रहा था, वह अबला असहाय खड़ी थी, उसे मनुष्य की नहीं ईश्वर की सहायता प्राप्त हुई और उसकी लाज बच गई। दमयन्ती बीहड़ वन में अकेली थी, व्याध उसका सतीत्व नष्ट करने पर तुला था। सहायक कोई नहीं। उसकी नेत्र ज्योति में भगवान प्रकट हुए और व्याध जलकर भस्म हो गया। दमयन्ती पर कोई आँच नहीं आई। प्रहलाद के लिये उसका पिता ही जान का ग्राहक बना बैठा था, बच कर कहाँ जाय। खम्भे में से नृसिंह भगवान प्रकट हुए और प्रहलाद की रक्षा हुई। घर से निकाले हुए पाण्डवों की सहायता करने, उनके घोड़े जोतने भगवान स्वयं आये। नरसी मेहता की सम्मान रक्षा-भगवान ने अपनी सम्मान रक्षा की तरह ही मानी। ग्राह के मुख से गज के बन्धन छुड़ाने के लिये प्रभु नंगे पैरों दौड़े आये थे।

मीरा को विष का प्याला भेजा गया और साँपों का पिटारा पर वह मरी नहीं। न जाने कौन उनके हलाहल को चूस गया और मीरा जीवित बची रही। गाँधी को अनेक सहयोगी मिले और वे दुर्दांत शक्ति से निहत्थे लड़कर जीते। भागीरथ की तपस्या से गंगा द्रवित हुई और धरती पर बहने के लिये तैयार हो गई। शिवजी सहयोग देने के लिये आये और गंगा को जटाओं में धारण किया, भागीरथ की साधना पूरी हुई। दुर्वासा के शाप से संत्रस्त राजा अम्बरीष की सहायता करने भगवान का चक्र सुदर्शन स्वयं दौड़ा आया था। समुद्र से टिटहरी के अण्डे वापिस दिलाने में सहायता करने के लिये भगवान अगस्त मुनि बनकर आये थे। नल और नील ने समुद्र पर पुल बाँधने का असम्भव दीखने वाला काम सम्भव कर दिया था। हनुमान को समुद्र लांघने की शक्ति भी किसी अदृश्य शक्ति से ही उपलब्ध हुई थी।

ऐसे उदाहरण संसार भर में बिखरे पड़े हैं। सन् 1874 की बात है। इंग्लैंड का एक जहाज धर्म प्रचार के सिलसिले में- न्यूजीलैण्ड के लिए रवाना हुआ। उसमें 214 यात्री थे। वह विस्के की खाड़ी से बाहर ही निकला था कि जहाज के पेंदे में छेद हो गया। मल्लाहों के पास जो पम्प थे तथा दूसरे साधन थे उन सभी को लगाकर पानी निकालने का भरपूर प्रयत्न किया पर जितना पानी निकलता था उससे भरने की गति तीन गुनी तेज थी।

निराशा का वातावरण बढ़ता जाता था। जब जहाज डूबने की बात निश्चित हो गई तो कप्तान ने सभी यात्रियों की छोटी लाइफ बोटों में उतर जाने और उन्हें खेकर कहीं किनारे पर जा लगने का आदेश दे दिया। डूबते जहाज में से जो जाने बचाई जा सकती हों, उन्हें ही बचा लिया जाय। अब इसी की तैयारी हो रही थी।

तभी अचानक पम्पों पर काम करने वाले आदमी हर्षातिरेक से चिल्लाने लगे। उन्होंने आवाज लगाई कि जहाज में पानी आना बन्द हो गया अब डरने की कोई जरूरत नहीं। यात्रियों ने चैन की साँस ली और जहाज आगे चल पड़ा। कार्ल्पस डाक बन्दरगाह पर उस जहाज की मरम्मत कराई गई तब पता चला कि उस छेद में एक दैत्याकार मछली की पूँछ फँसकर इतनी कस गई थी कि ने केवल छेद ही बन्द हुआ वरन् मछली भी घिसटती हुई साथ चली आई।

‘धर्म युद्ध’ के संदर्भ में संलग्न इन यात्रियों की जीवन कथा इस अद्भुत प्रकार से होने की बात ईसाई समाज में धर्मात्माओं को दैवी सहायता मिलने की श्रद्धा बनाये रखने के संदर्भ में अक्सर कही जाती है।

कई ऊपर से दीखने वाली विपत्ति के पीछे भी ईश्वरीय अनुग्रह छिपा रहता है। तात्कालिक हानि कालाँतर में हानि उठाने वालों को भी सुखद सिद्ध होती है और साथ ही दूसरों का भी उससे भला होता है। इसलिये प्रत्येक हानि को दुर्भाग्य सूचक या दैवी कोप ही नहीं मान लेना चाहिए।

लीसवे का समुद्री प्रकाश स्तम्भ आजकल जहाँ खड़ा है वहाँ किसी जमाने में जहाजों के लिए भारी खतरा था उस उथलेपन में फँसकर अनेकों जलयान या तो नष्ट हो जाते थे या क्षतिग्रस्त। उस स्थान पर प्रकाश स्तम्भ खड़ा करना भी सम्भव नहीं हो रहा था क्योंकि वहाँ की जमीन बालू मिट्टी की थी।

सन- 1771 में एक जहाजी दुर्घटना हुई। एक रुई से लदा अमेरिका जहाज दुर्भाग्य का शिकार होकर किसी दलदल में फँसकर नष्ट हो गया। कुछ विचित्र संयोग ऐसा हुआ कि रुई, बालू और उस जल के विचित्र सम्मिश्रण से वह रुई पत्थर जैसी कठोर हो गई। फलस्वरूप उसी की नींव पर प्रकाश स्तम्भ खड़ा किया गया जिससे भविष्य में उस क्षेत्र में जहाज नष्ट होने की आशंका समाप्त हो गई। उस एक जहाज के डूबने से जो प्रकाश स्तम्भ बना उसके कारण अमेरिकी जहाज भविष्य के लिए उस तरह की दुर्घटना के शिकार होने से सदा के लिए बच गये और अन्य यानों को भी उस तरह के संकट से छुटकारा मिल गया। अभिशाप को वरदान में बदलने वाली यह दुर्घटना यह आशा दिलाती है कि किसी अनिष्ट के पीछे मंगल भी छिपा हो सकता है।

एक भारवाहक का उच्छृंखल गधा एक रात चुपके से घर से खिसक गया। उसके मालिकों ने उसे कई दिन ढूँढ़ने के बाद मुश्किल से एक जगह खड़ा पाया। अमेरिका की इट्टाही पहाड़ियों की जिस सुरम्य घाटी में यह गधा खड़ा था वहाँ कुछ देर सुस्ताने के बाद उसके मालिक रुके और वे लोग उसे घर ले चलने के लिये घसीटने लगे, पीटा भी पर वह अड़ियल बनकर खड़ा हो गया और लौटने से इनकार करने लगा।

मालिकों ने ध्यान से देखा तो दीखा कि वहाँ रजत सीसिया धातु की बहुत बड़ी खान है। इस पहाड़ी पर उन्होंने कब्जा कर लिया, उन दिनों के अमेरिकी कानून के अनुसार खाली जगह पर कब्जा करने वाले ही उसके मालिक हो जाते थे। कब्जा होने के बाद मालिकों की सरकारी स्वीकृति के लिये अर्जी दी गई। सन् 1865 में इस प्रकार की अर्जियों की सुनाई करने वाले इदाही अदालत के न्यायाधीश श्री नार्मन वक ने सारी कथा-ध्यान पूर्वक सुनी और उपरोक्त दोनों व्यक्तियों को कब्जा देते हुए अपने फैसले में यह भी लिखा कि इस खान का असली शोधकर्ता और कब्जा करने वाला वह गधा है इसलिये आमदनी के एक बड़े अंश का अधिकारी वह गधा है।


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