धार्मिक अन्धविश्वास ने अगणित निरीहों का रक्त बहाया है।

August 1972

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धर्म जितना सम्मानास्पद और आवश्यक है उतना ही धार्मिक अन्धविश्वास हेय एवं घृणित हैं। अन्न जब भोजन बनकर थाली में आता है तब वह आदरणीय होता है और उपयोगी भी, पर जब वही अन्न पेट में पहुँचने के बाद सड़े हुए मल के रूप में बाहर निकलता है तो वह घृणित, दुर्गन्ध युक्त और अस्पर्श बन जाता है। यही बात धर्म के ऊपर भी लागू होती है। उसे मनुष्य जाति का प्राण कहना चाहिए जब अज्ञान के आवरण में लपेटा हुआ और धर्म व्यवसायों द्वारा विकृत किया हुआ होता है तो उसे अन्ध विश्वास कहते हैं। अन्ध विश्वास ने जितना अहित किया है उतना तो अधर्म ने भी नहीं किया।

प्राचीन काल में धर्म के नाम पर प्रचलित अन्ध परम्पराओं ने नर बलि प्रथा प्रचलित की और उस मूढ़ता की बलि वेदी पर असंख्यों मनुष्यों का रक्त बहा और क्रन्दन से आकाश गूँजा, फिर भी निष्ठुर धर्मभीरुता पिघली नहीं और वह अनर्थ हजारों वर्षों तक चलता रहा। उस धर्मानुष्ठान को करने वाले अपने को धर्मात्मा कहते रहे और आश्चर्य यह कि जनता भी उनके उन कार्यों में आंखें मूँद कर सहयोग देती रही।

नर बलि सभ्यता के साथ-साथ घटती चली गई। अब उसके विरुद्ध कानून भी बन गये हैं और सभ्य समाज में उसके विरुद्ध वातावरण भी है पर खेद है कि उसी का छोटा रूप पशु बलि के रूप में अभी भी विद्यमान है और समझदार कहे जाने वाले विभिन्न धर्मों के तथा कथित धर्म परायण लोग भी उसे निष्ठुरतापूर्वक अपनाये हुए हैं। उस कुकृत्य को करते हुए न संकोच अनुभव करते हैं न लज्जा।

मैक्सिको के नेशनल म्यूजियम में एक सात फीट ऊँचा गोलाकार पत्थर रखा हुआ है जिसे संसार का सबसे अधिक खूनी पत्थर कहा जाता है। यह पाषाण प्राचीन अजटेक्स राज्य के आदिवासियों की परम्परागत बलिवेदी रहा है।

अजटेक्स निवासी धार्मिक मान्यताओं वाले भोले-भाले लोग थे। उनका विश्वास था कि मानव बलि चढ़ाने से देवता प्रसन्न होते हैं और संसार की भलाई करते हैं। यदि उन्हें यह उपहार न दिया जाय तो रुष्ट होकर दैवी प्रकोप उपस्थित करते हैं। इस विश्वास के आधार पर समय-समय पर वे अपने ही लोगों को पकड़ कर बलि चढ़ा देते थे। कोई पूजागृह बनता था या राज्याभिषेक होता था तब तो बलि की मात्रा प्रक्रिया का प्रश्न बन जाता था। पिछले उदाहरणों से अधिक संख्या बढ़ाना ही उत्साह का प्रतीक माना जाता था। बलि की प्रथा भी बड़ी वीभत्स थी। सिर काटने की कम कष्टकर पद्धति वे नहीं अपनाते वरन् छाती चीरकर हृदय निकालना और उस कलेजे को देवता के सम्मुख प्रस्तुत करना यही अधिक कष्टकारक तरीका वे अपनी धर्म भावना के चरितार्थ करने का उत्तम प्रमाण मानते थे।

कोलम्बस के अमरीका पहुँचने से दो वर्ष पूर्व उन्होंने युद्ध देव का मन्दिर बनाया। इसके लिए कई वर्षों से बलि नर संग्रह करके कैदियों के रूप में विशाल संख्या में एकत्रित किये गये थे। जो उस उत्सव में काम आये। देव प्रतिष्ठा के अवसर पर उन बलि मानवों का झुण्ड जुलूस के रूप में निकाला गया। उनका जुलूस दो मील लम्बा था यह लम्बा जुलूस धीरे-धीरे आगे बढ़ता है। कई पुजारी क्रमशः उनका हृदय चीरने में निरन्तर लगे रहते थे। इस प्रकार अहर्निशि चार दिनों में कितने ही वध कर्त्ताओं द्वारा यह अनुष्ठान पूरा हो पाया और बहता हुआ रक्त उसे पवित्र मन्दिर के पत्थर घुटने में काम लाया गया।

अजटेक्स जाति का एक तीर्थ टियोकाली के निकट वन्य प्रदेश में बना हुआ एक देवालय था। स्पेन निवासियों ने उस क्षेत्र की खोज की तो मायन मोलोक के इर्द-गिर्द 1,36,000 मनुष्यों की झोपड़ियाँ उधर बिखरी पाई गई। यह निरीह मानव बलिदान किये गये थे और उन्हें इस दुखदायी विपत्ति में फँसने देने का एकमात्र प्रचलन वह अन्ध विश्वास था जिसे वहाँ के निवासी एक गहरी धर्म श्रद्धा के रूप में ही अपनाये हुए थे।

फ्राँस के पुरातत्व विज्ञानी डॉ. फ्राँसिस मेहजोरे प्रशान्त महासागर के फतुहिवा द्वीप के खंडहरों की खोज करने गये। उनने एक लुप्त मानव जाति के इतिहास को जानने के लिए यह प्रयत्न किया तो यह भी सुना जाता है कि उस विचित्र जाति के संग्रहीत स्वर्ण कोष के रूप में कोई बड़ी राशि उन्हीं खंडहरों में कहीं जमा है। ज्यों-त्यों कर फ्रांसिस वहाँ पहुँच ही गये और जो कुछ उनने ढूंढ़ निकाला वह भी कम नहीं था।

उस द्वीप में भी बहुत से खण्डहर, तहखाने, बुर्जियाँ इस प्रकार के टूटे पड़े थे जिससे विदित होता था कि कोई समुन्नत जाति इस क्षेत्र में रही होगी। यहाँ प्राकृतिक साधन भी जीवन निर्वाह के लिए पर्याप्त थे वह जाति लुप्त कैसे हो गई, इस प्रश्न का समाधान उन्हें अधिक खोज करने के लिए प्रोत्साहन कर रहा था।

उस द्वीप के ‘पाड’ नामक एक वनवासी व्यक्ति को लेकर फ्रांसिस उस सघन वन में गये। उपलब्ध प्राचीन सभ्यता के चिन्ह और अवशेषों ने उन्हें इस निष्कर्ष पर तो पहुँचाया कि यहाँ कोई साधन सम्पन्न और बुद्धिमान लोग रहे हैं पर वे फिर समाप्त कैसे हो गये। इतिहास का यह पृष्ठ बहुत परिश्रम के बाद ही खुला।

उस प्रदेश में भ्रमण करते हुए उनने उस क्षेत्र में नरबलि की प्रचलित प्रथा के बहुत प्रमाण पाये जो सर्वत्र बिखरे पड़े थे। वट वृक्षों जैसी जटाओं वाले पेड़ों पर नर मुण्ड इस तरह फँसे पड़े थे मानों वे उन्हीं में फले हों अस्थि कंकाल जहाँ तहाँ छितरे पड़े थे। ऐसे पत्थर पाये गये जिनमें मनुष्य का सिर फँसा कर उन्हें कुल्हाड़ी से काटा जाता था। वीभत्सता की कथा कहने वाले यह प्रमाण इतने अधिक थे कि एक शब्द में उसे किसी समय का नर बलि क्षेत्र कहना भी अत्युक्ति न होगी।

फ्राँसिस इस नतीजे पर पहुँचे कि यहाँ कोई प्रगतिशील जाति रही है। यदि ऐसा न होता तो ऐसे वास्तुकला के गहरे ज्ञान से सम्बन्धित मजबूत भवन बनाना और उनके साधन जुटाना सम्भव ही न होता। जो उपकरण वहाँ मिले वे भी बौद्धिक प्रगति और समृद्धि की साक्षी देते थे। पर लगता है धार्मिक विश्वासों की यह मान्यता उनके मन में जम गई थी कि देव शक्तियों के कोप अनुग्रह पर ही मनुष्य का सुख दुख निर्भर है और वे देव शक्तियाँ नर बलि पाकर प्रसन्न होती हैं। जो जितनी अधिक बलि दे सकेगा वह उतना ही देव अनुग्रह का भाजन बनेगा।

इसी श्रद्धा से प्रेरित होकर वह मनुष्य घाती बन गये जो जिसके चंगुल में फंसे जाता वह उसे पकड़ कर बलि चढ़ा देता और अपनी समृद्धि की आशा करता। सम्भव है इससे प्रतिशोध की भावना भी जमीं हो और उनमें देव अनुग्रह की लालसा के साथ इस प्रतिशोध वृति ने भी नर बलि की मात्रा को अति की सीमा में पहुँचा दिया हो। हो सकता है पुरोहितों ने इस प्रक्रिया को और बढ़ावा दिया हो और वे सब इस नर बलि की प्रथा में निमग्न होकर अपना अस्तित्व ही खो बैठे हों।

इस शोध में फ्रांसिस के साथ रहे आदिवासी पाड ने प्रचलित दन्त कथाओं के आधार पर बताया कि इस लुप्त जाति के लोग समय-समय पर बड़े-बड़े धार्मिक समारोह मनाते थे। दूर-दूर से उस उत्सव में सम्मिलित होने के लिए वे लोक इकट्ठे होते थे। मशालें जलाई जाती थी। नगाड़े बजते थे। शंख और सींगों से बनी तुरही का प्रयोग इसी अवसर पर होता था। इसके बाद मद्यपान और नर बलि का वीभत्स दौर। रक्त की धाराएँ बह जातीं। घायलों और मृतकों को देव कृपा का पात्र समझा जाता था। यह धर्मानुष्ठान इतने बढ़े कि वह समुन्नत जाति उसी जंजाल में फँसकर अपना अस्तित्व गँवा बैठी।

अफ्रीका की धर्म पुरोहित महिलाएँ- डाकिन देवताओं को प्रसन्न करने के नाम पर भूतकाल में अगणित मनुष्यों का प्राण हरण करती रहीं हैं।  कभी-कभी तो इन दिनों भी वहाँ ऐसी घटनायें प्रकाश में आती रहती हैं।

कुछ दिन पूर्व तंगानिका (अफ्रीका) की राजधानी दारेस्सलाम के उच्च न्यायालय में तीन डायनों के विरुद्ध अभियोग चला उससे उस क्षेत्र में प्रचलित इस अघोर विद्या के सम्बन्ध में कई बातें प्रकाश में आई।

रुफीजी डेल्टा के आस-पास डायन विद्या का बाहुल्य है। उस क्षेत्र में ऐसी अनेक अघोरिने फैली पड़ी हैं। पकड़ी गई महिलाओं के नाम थे नेआम सेनी 70 वर्ष, जामाल्टा 40, जाविवू 20 वर्ष, वे रंग-बिरंगी जादुई चादरें (काँगा) ओढ़े बैठी थीं उनका विश्वास है कि इसे पहन लेने पर कोई उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकता।

पुलिस अधिकारी ने उन पर नृशंस हत्याओं के अभियोग लगाये। जब उनके विरुद्ध चार्ज उनकी ‘की रुफीजी’ भाषा में लगाये गये तो वे मुस्करा भर दीं मानों कोई प्रशंसनीय कार्य करने का श्रेय उन्हें दिया जा रहा हो।

पूर्वी अफ्रीका में डायनी वृत्ति एक प्रकार का पौरोहित्य कर्म है। जिसे अधिकतर महिलाएँ ही अंगीकार करती हैं। देवता की कृपा प्राप्त करने के लिए उन्हें यह तंत्र साधना करनी पड़ती है। उन अफ्रीकियों का विश्वास है कि देवता उनके वशवर्ती रहते हैं उनकी सहायता से वे किसी का भी भला-बुरा कर सकती हैं। इसलिए वे उनसे डरते हैं। सम्मान देते हैं और सहायता करते हैं। वे सोचते हैं इनसे झगड़ने में वे घाटे में रहेंगे।

तीनों में सब से छोटी-बीस वर्षीय जाविबू ने अदालत में अपना बयान देते हुए कहा। दूसरी डायनों के आदेश से उनके दल में उसे सम्मिलित होना पड़ा और इसके लिए उसे अपने पति को भी होमना पड़ा। अन्य डायनों ने कहा था यदि वह उनके दल में भर्ती न होगी तो उसका सर्वनाश कर दिया जायेगा। वह डर गई और उनके विकराल जंगल में बने मठ में सम्मिलित हो गई। दीक्षा के समय गाँव के मुखिया की लड़की का वध किया गया और उसके माँस के टुकड़े काट-काट कर सबने प्रसाद रूप में ग्रहण किये। वह छोटी लड़की एक झाड़ी में छिपाकर रखी गई थी। कुछ खिलाकर बेहोश जैसा कर दिया गया था। बेचारी वध के समय रोने चिल्लाने की स्थिति में भी नहीं थी। डायनों ने कहा तुझे भी अपने पति की बलि इसी प्रकार देनी होगी।

इसे बाद 7 मार्च सन् 1962 को धर्माध्यक्ष डाकिन नेआमसेनी कुछ दवा लेकर आई और कहा गुप्त रूप से इसे अपने पति मसौदी को खिला देना। मैं सकपकाई जरूर पर अब डाकिनों के दल से अलग होना असंभव था। उनकी नाराजी से सब का सर्वनाश हो सकता था इसलिए उनका कहना मानना पड़ा। दवा खाकर मसौदी भयंकर रूप से बीमार पड़ा। वह दर्द और मूर्छा में पड़ा ही था कि दूसरों डाकिनें धड़धड़ाती हुई चली आई और उसे उठा कर ले गई। मसौदी पर अब क्या बीतने वाली है इसकी कल्पना करके मैं काँपने लगी और भागी हुई अपने ससुर के पास पहुँची और सारा भेद बता दिया।

दो दिन तक पचास आदमियों की दौड़ धूप के बाद मसौदी एक झाड़ी में पड़ा मिला। उसके शरीर पर कुछ ऐसा पोत दिया गया था जिससे वह बुरी तरह सूज गया। घर उसे लाया तो गया पर डाकिनी की एवाएं इतना अधिक असर कर चुकी थीं कि वह तीसरे ही दिन मर गया।

अदालत ने इन तीनों डाकिनों को क्रमशः 6 वर्ष 5 वर्ष और 3 वर्ष की सजा दी। उनने अपने फैसले में लिखा इस क्षेत्र में फैला हुआ अन्ध विश्वास एक प्रकार से डाकिनी आतंक को पुष्ट पोषण ही कर रहा है। जिस मुखिया की लड़की की बलि दी गई थी उस तक ने गवाही नहीं दी। ऐसी दशा में सबूत के अभाव में प्राणदंड जैसी सजा कैसे दी जाय? जबकि वस्तुतः वे आये दिन इसी प्रकार की हत्याएँ और क्रूर कर्म करती रहने की अपराधी हैं।

पूर्ण नर बलि न सही, अर्ध नर बलि की घटनाएं तो न जोन कितनी होती रही है। धर्म के नाम पर इस प्रकार नृशंस आचरणों से इतिहास के पन्ने के पन्ने भरे हुए है।

वियना से करीब 200 मील उत्तर पूर्व में क्राको नगर है। वहाँ के न्यायाधीश को एक गुमनाम पत्र मिला कि वे सोला नामक ईसाई मिशन के भिक्षुणी आश्रम में एक भिक्षुणी 20 वर्ष से नरक जैसी छोटी कोठरी में पड़ी अमानवीय पीड़ाएं सह रही है, उसे मुक्त कराया जाय। उसे इतना विकट उत्पीड़न सहना पड़ा है कि पागल जैसी हो गई है।

न्यायाधीश असमंजस में पड़ गये। यदि सूचना मखौल मात्र हुई तो? पोप अथवा सम्राट इस मामले को उखाड़ने से रुष्ट हो जायँ तो? इसके विपरीत यदि कुछ न किया जाय तो पत्रों के संवाददाता कर्तव्य पालन न करने का अदालत पर आरोप लगायें तो? बहुत सोच विचार के बाद उन्होंने मामले की जाँच कराना ही उचित समझा और वह आरोप पत्र जाँच के लिए इस विभाग के अधिकारी सिग्मंड गेहार्ट को सौंप दिया।

आस्ट्रिया के उन दिनों के कानून पर धर्माध्यक्षों का प्रभाव था, उनकी आज्ञा बिना पुलिस धर्म स्थानों में प्रवेश नहीं कर सकती थी। फिर भी अधिकारी ने स्थानीय धर्माध्यक्ष से आज्ञा प्राप्त कर ली और उस महिला को तलाश करने लगे। पहले तो स्थानीय प्रबंधिकाओं ने बहुत आना काना की पर पीछे पुलिस की सतर्कता से उस कैद की कोठरी और बंदी महिला को ढूँढ़ ही लिया गया।

कोठरी क्या थी साक्षात नरक था। 4 फुट 11 इंच लम्बी, 1 फुट 11 इंच चौड़ी इस पिंजड़े जैसी हवा और प्रकाश से रहित कोठरी में ही यह महिला कैद थी। घोर बदबू और घुटन से भरे हुए उस डिब्बे में। उसी के एक कोने में बनी नाली पर मल मूत्र त्यागना पड़ता था। नियत समय पर एक बार भोजन पानी दरवाजों के छेद में होकर मिल जाता। इस लम्बी 20 साल की अवधि में उसे एक बार भी बाहर नहीं निकाला गया और न कभी नहाने कपड़े धोने की सुविधा दी गई। रक्त माँस से रहित हड्डियों का ढाँचा इतने दिनों इस स्थिति में जीवित कैसे रहा आश्चर्य इसी का था।

इतना अमानवीय कठोर दंड उसे किस अपराध में भुगतान पड़ रहा है, इसका उत्तर देते हुए उसने इतना ही कहा-मैंने किसी से प्रेम किया था, कौमार्य व्रत भंग किया था। पर यह सब भी तो ----- पूरी बात कहे बिना ही वह फुट-फुट कर रोने लगी। आश्रम की प्रमुख भिक्षुणी ने भी उस पर यह दुराचार का आरोप ही दुहराया।

पुलिस अधिकारी क्रोध से काँप रहा था उसने सफाई देने वाली भिक्षुणियों से कहा तुम सब शैतान की औलाद हो। मनुष्यता से रहित। जिस स्थिति में इसे बीस वर्ष तक रखा गया तुम लोग उसमें बीस मिनट रह कर तो दिखाओ।

लोगों की भारी भीड़ आश्रम के बाहर जमा थी। सुनने वालों और देखने वालों को इतना क्रोध आ रहा था कि इन भिक्षुणियों को जीवित ही जला दें। पथराव तो चारों और से हो ही रहा था। पुलिस ने बड़ी कठिनाई से व्यवस्था कायम रखी।

23 जुलाई 1869 को यह मुकदमा आरम्भ हुआ। प्रमुख भिक्षुणी ने अदालत में बयान देते हुए कहा-इस मुकदमें द्वारा हमारे पवित्र पुरातन विहार की प्रतिष्ठा नष्ट करने की अधर्मियों द्वारा निन्दनीय चेष्टा की जा रही है। शासन को हमारे धार्मिक अधिकारों के बारे में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।

अदालत ने आश्रम के सभी कार्यकर्ताओं पर अमानवीय पीड़ा पहुँचाने और नागरिक स्वतंत्रता अपहरण करने के अपराध लगाये। प्रमाण प्रत्यक्ष था। सभी को दण्ड का भागी होना पड़ सकता था पर अदालत की कार्यवाही बीच में ही बंद हो गई। पोप और सम्राट ने मिलजुल कर ऐसे अवरोध खड़े कर दिये कि मुकदमा चलना संभव ही न हो सके। जो गवाही देना चाहते थे उन्हें दूसरे तरीकों से रास्ते में आने से हटा दिया गया। धर्म की आड़ में अपराधी बच गये और अदालत को सब कुछ विदित होने पर वह भी कुछ न कर सकी। इस प्रकार इस कलंक काण्ड पर पर्दा डाल कर न्याय का टूटा-फूटा द्वार भी बंद कर दिया गया।

धर्म को जीवित रहना चाहिए और उसका समर्थन पोषण करना चाहिए पर धर्म के नाम पर प्रचलित इस अन्धविश्वास का जिसने सदा से मनुष्य को कलंकित किया है और समाज को पतन के गर्त में गिराया है जितनी जल्दी हो सके उन्मूलन ही करना चाहिए।



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