जाइये, पहले रूठे मन को मनाइये

August 1972

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बुद्धिमान उसे कहा जाता है जो ‘टूटे’ का बनाना और रूठे को मनाना जानता है। कपड़े, बर्तन, फर्नीचर, मकान आदि की टूट-फुट होती रहती है। उसकी मरम्मत की जाती है। जो टूटा उसे फेंक दिया जाय, ऐसा कैसे हो सकता है? सब कुछ नया ही नया हो यह कैसे सम्भव है? इसी प्रकार जो रूठ जाय उससे खुद भी रूठ बैठें तो घर परिवार का चलाना कठिन है। कभी पत्नी से अनबन हो जाती है, कभी बच्चों से कहन-सुनन। कभी भाई से मनचाल हो जाती है तो कभी पड़ौसी से मन-मुटाव बन जाता है, इस स्थिति को ऐसे ही रहने दिया जाय अथवा ऐंठ को और कड़ी करते रहा जाय, तो काम नहीं चलेगा। उलझन बढ़ती ही जायेगी, जिनके साथ रहना है उनसे मीठे सम्बन्ध रहने में ही लाभ है।

मन हमारा सबसे निकट का सम्बन्धी है। पत्नी, बच्चे, भाई, पड़ौसी तो दूर वह शरीर से भी अधिक समीप रहने वाला स्वजन है। शरीर से तो सोते समय सम्बन्ध ढीले हो जाते हैं, मरने पर साथ छूट जाता है पर मन तो जन्म जन्मान्तरों का साथी है और जब तक अपना अस्तित्व रहेगा तब तक उसका साथ भी छूटने वाला नहीं है। मन मुख्य और शरीर गौण है। मन की मर्जी पर आत्महत्या आदि से शरीर छोड़ा जा सकता है। शरीर परिपुष्ट होने से मनोविकार दूर नहीं किये जा सकते। शरीर की सामर्थ्य तुच्छ है, मन की महान। मन का शासन शरीर पर ही नहीं जीवन के प्रत्येक क्षेत्र पर है। उत्थान-पतन का वही सूत्रधार है। निन्दा और प्रशंसा उसी की गतिविधियों की होती है। किसी को सन्त, ऋषि, देवदूत और महापुरुष बना देना यह मन की सज्जनता का ही चमत्कार है।

ऐसे उपयोगी और सामर्थ्यवान साथी को रूठने नहीं देना चाहिए। रूठ जाय तो मनाना चाहिए। हमारी आज की सबसे बड़ी आवश्यकता यही है। अन्य काम छोड़कर भी इस ओर ध्यान देना चाहिए और जितनी जल्दी हो सके रूठे मन को मना लेना चाहिए।

मन आँख से दिखाई नहीं पड़ता, इसलिये उसका रूठना भी नहीं दीखता, पर विवेक की आँख से देखें तो वह रूठा हुआ प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होगा। रूठने वाले की पहचान है- साथ न देना- कहना न मानना, सहयोग न करना, नुकसान करना। बच्चा रूठ जाता है तो ऐसे ही उपद्रव करता है। घर का सामान तोड़ता-फोड़ता है और अपने हाथ पैर पीटता है। घर को नुकसान पहुँचाता है और स्वयं कष्ट पाता है। रूठी हुई पत्नी भोजन करना, बोलना बन्द कर देती है। मन को पुष्ट करने में उपयुक्त स्वाध्याय सत्संग की खुराक लेनी उसने बन्द कर दी है। आत्मा के पास बैठकर कभी विचार नहीं करता कि घर का बनाव-बिगाड़ किसमें है। कुमार्गगामी होकर रूठे बच्चे की तरह सफलता साधन सद्गुणों को तोड़ता फोड़ता रहता है और स्वयं निन्दा, तिरस्कार, अभाव, दारिद्रय, शोक संताप का भागी बनकर कष्ट पाता है। रूठा हुआ नौकर या तो काम करता ही नहीं, करता है तो ऐसे ढंग से कि मालिक को उलटा नुकसान पड़े। मन ने आत्मोन्नति के सारे प्रयास अवरुद्ध कर रखे हैं, कुछ करता है तो ऐसा विलक्षण जिससे इस लोक और परलोक में भविष्य अन्धकारमय ही बनता चला जाय। यह रूठने के प्रत्यक्ष चिह्न हैं।

यह असहयोग अवरोध देर तक नहीं चलने देना चाहिए। वह अपना भाई है उसके साथ राम भरत जैसे मधुर सम्बन्ध बनाने चाहिए, रावण विभीषण की तरह सुन्द उपसुन्द की तरह परस्पर द्रोही-विद्रोही बनकर रहने में क्या आनन्द?

मन ने यदि साथ दिया होता तो शरीर की ऐसी दुर्गति न होती जैसी आज है। उसने काया को स्वस्थ और समर्थ रखने के लिए संयम बरता होता। लिप्सा के फेर में न पड़ा होता। जीभ को, कामेन्द्रिय को व्यवस्था में रखा होता। आहार-विहार की नियमितता बरती होती तो काया गुलाब के फूल की तरह खिली हुई और गेंद की तरह उछलने वाली रही होती। बीमारी और कमजोरी की इस घर में घुसने की हिम्मत ही न पड़ती। मन रूठा बैठा रहा, शरीर को देख संभाला ही नहीं, रुग्णता ने घेरा डाल लिया, शरीर टूटा, आत्मा को अशान्ति रही और मन स्वयं ही उस रुग्ण काया में रहकर टूटे मकान में रहने वाले किरायेदार की तरह उद्विग्न बना रहा।

मन यदि रूठा हुआ न होता तो उसने अपने आपको संभाल लिया होता। अपने को गुण, कर्म, स्वभाव से सुसज्जित सुसंस्कृत रखा होता, पर वह तो कोप भवन में बैठा था। कपड़े फाड़े, बाल बखेरे, बिना नहाये-धोये ऐसा ही गन्दा पड़ा रहा। अपना वेष बिगाड़ा, सम्मान खोया और बाप का काम बिगाड़ा। आत्मा को सहयोग देना तो सुसंस्कृत स्थिति में ही हो सकता था मलीनता और कुत्सा का कलेवर ओढ़ लेने पर तो वह भारभूत ही रह सकता था, सो ही रह भी रहा है।

जीवन क्षेत्र को सँभालने का उत्तरदायित्व यदि उसने संभाला होता तो आज इस उद्यान की शोभा देखते ही बनती। शिक्षा से यदि उसने प्यार किया होता और एक दो घण्टे रोज भी पढ़ने के लिए उत्सुकता प्रकट की होती तो- अन्धाधुन्ध अपव्यय होने वाले समय में से थोड़ा सा शिक्षा के लिए भी लग सकता था और पिछले जो दिन ऐसे ही बर्बाद हो गये अब तक अपनी स्थिति उच्चकोटि के विद्वान जैसी हो गई होती। पर उसने विद्या में रस लिया कब? रूठा जो बैठा रहा।

देवत्व के सारे उपकरण अपने भीतर विद्यमान थे। एक उँगली के सहारे यह सारा साज झंकृत हो सकता था। अपने भीतर बैठा सन्त, ऋषि, देव प्रतीक्षा करता रहा, जरा सा सहारा मिले तो ऊपर उभर कर आये। पर मन को फुरसत ही नहीं मिली। वह रूठा रहा, भटकता रहा-और अँगूठा दिखाता रहा, समय की निधि चुकती चली गई। अवसर हाथ से निकलता रहा। जीवन सन्ध्या निकट आ गई तो भी हाय रे मन! तेरा सहयोग न मिल सका।

मन से अपनी दयनीय दुर्दशा का वर्णन करना चाहिए। परमात्मा का राजकुमार-सकल साधनों से सम्पन्न इस प्रकार दीन-हीन, निन्दित, तिरस्कृत, असफल, असहाय बना फिरे यह कितने दुख की बात है। यह दुर्दशा केवल एक ही कारण से हुई है कि गाड़ी के दो पहियों में सहयोग नहीं रहा। आत्मा की गौरवशाली वर्चस्व की उपलब्धियों के लिए यह जीवन मिला है यदि मन साथ दे तो महामानव की गरिमामयी स्थिति में प्रकाश और उल्लास भरा जीवन अब भी जिया जा सकता है। जो गया सो बहुत था पर जो बचा है सो भी कम नहीं। यदि उतने में भी परस्पर सहयोग रह सके तो अभी भी उतना अवसर है कि अभिशाप को वरदान में बदला जा सके।

मन कुचाल छोड़, इन्द्रिय लिप्साओं में भटकना छोड़। वासना आग की तरह है, भोग उपभोग से यह शान्त होने वाली नहीं है। इन्हें तृप्त करने के जितने ही साधन जुटायेगा उतनी ही अतृप्ति भड़केगी। फिर उनके कुचक्र में जितना ही फँसा जाय उतनी ही क्षमता, आयु, प्रतिभा घटती है। क्षणिक चटोरेपन के पीछे समर्थता की सम्पत्ति को गँवाने और दिन-दिन दुर्बल होते जाने से क्या लाभ? बता मन, तू कोयलों के ऊपर मुहरें निछावर करने में क्या बुद्धिमत्ता अनुभव कर रहा है?

आत्मा रोती-बिलखती रही, उसके सन्तोष, उत्थान कल्याण के लिए एक कदम नहीं बढ़ाया गया, एक प्रयत्न नहीं किया गया। अन्तरात्मा की सहचरी सत्प्रवृत्तियाँ कुम्हलाई, मुरझाई ओर सूख गई उन्हें सींचने के लिए एक लोटा पानी नहीं डाला जा सकता। सद्भाव के बालक अपने पोषण की पुकार करते रहे उनकी आवश्यकताएं जुटाने से मुँह मोड़े रहा गया, पर दुर्बुद्धि दुष्प्रवृत्ति और दुर्भावनाओं के पोषण के लिए तरह-तरह के साज-सरंजाम जुटाये जाते रहे। परिवार का पोषण विकास करना पर्याप्त था। पर उन्हें विलासी और धन, कुबेर बनाकर छोड़े जाने के मोह से सारी ममता उन्हीं पर उड़ेल दी गई। उन्हें ही अपना समझा गया। जो कुछ किया जाये उन्हीं के लिए, जो कुछ सोचा जाय उन्हीं के लिए-सम्पन्न बनाया जाय तो उन्हीं को, समृद्ध बने तो वे ही। उस छोटे से दायरे में अपनी सारी ममता समेट कर मन तू ठगा गया। इस मोह ग्रस्तता ने लोक भी बिगाड़ा और परलोक भी। बता मन तू इसी चाल पर कब तक चलता रहेगा? विश्व परिवार की और से कब तक आंखें बन्द कराये रहेगा?

मन तू शरीर का मित्र बना और आत्मा का शत्रु। शरीर को ठाठ-बाट जुटाने में, बड़प्पन दिलाने में, सत्ताधारी बनाने में लगा रहा, उसी के ताने-बाने बुनता रहा। पर इससे मात्र अहंकार बढ़ा। शरीर पर चिन्ता का भार बढ़ा और इस गधे पर इतना बोझ लादा कि कमर ही टूट गई। बाहर वाले बड़प्पन देखकर चोंधियाते जरूर हैं पर भीतर ही भीतर सब कुछ खोखला पड़ा है। मन तू खुद भी मरा और अपने मित्र शरीर को भी मारा। यदि तू आत्मा का मित्र बन गया होता और जितना श्रम शरीर के लिए किया है उतना आत्मा के लिए करता, तो आनन्द आ जाता। आत्मा ऊँची उठकर परमात्मा बन जाती और तू यशस्वी होता-धन्य हो जाता। पर हाय रे कुचाली, तू तो रूठा ही बैठा रहा-उलटा ही चलता रहा-घर को खोखला किया और अपनों को चौपट कर दिया जिन बिरानों को अपना सब कुछ समझ रहा था, उनकी करतूतें देख-अहसान मानना तो दूर -अधिक शोषण के लिए उतावले और कृतघ्नता से बावले बने फिर रहे हैं। तेरे सारे प्रयास एक तरह से निरर्थक और निष्फल ही चले गये।

जीवन लक्ष्य की बात सोचने के लिए तुझे फुरसत ही नहीं मिली-कर्तव्य का ध्यान कभी आया ही नहीं-ईश्वर के दरबार में जाकर लेखा-जोखा देना पड़ेगा-यह कभी सूझा ही नहीं -स्वार्थपरता की संकीर्ण परिधि में कीचड़ के कीड़े की तरह कुलबुलाता, बिलखता रह गया अभागे। अपने को ज्वलन्त दीपक की तरह प्रकाशवान बनाकर सबको प्रकाश देता और स्वयं प्रकाशपुँज कहलाता। यह मार्ग तुझे क्यों नहीं सूझा? विश्व भगवान की सेवा साधना के लिए भीतर से हुलास क्यों नहीं उठा-पत्थर के टुकड़ों पर सिर पटककर ईश्वर भक्ति की विडम्बना तो रचता रहा पर प्रेम के अमृत की एक बूँद भी सच्ची भक्ति के रूप में कभी नहीं उपजी। आस्तिकता का कलेवर ओढ़े फिरने वाले नास्तिक-बता तेरी इस बाल-क्रीड़ा से ईश्वरीय अनुग्रह का एक कण भी कैसे मिल सकेगा?

भूलें, बहुत हो चुकीं। बहुत क्या यों कहना चाहिए कि अब तक का सारा जीवन भूल-भुलैयों में भटकते हुए ही बीत गया। जब वस्तुस्थिति पर विचार आता है- हानि का लेखा-जोखा सामने आता है, तो छाती फटती है। जितना समय, श्रम और प्रयत्न मृग तृष्णा में भटकते बीता यदि वह सही दिशा में -राजमार्ग पर चलने में लगा होता तो अब तक कितनी मंजिल पार हो गई होती। कितने ऊँचे पहुँचे होते, कितने आगे बढ़े होते। पर कोल्हू के बैल की तरह-बालू में से तेल निकालने की तरह हाथ कुछ नहीं आया। खीज, क्षीणता, जलन और पछतावें के सिवाय इस भूल भरे मार्ग पर और मिलना ही क्या था? सब कुछ गँवा बैठने पर भी तृष्णा और वासना के शूल अभी भी वैसा ही दर्द करते रहते हैं- और चैन नहीं मिलने देते।

मन, तेरे हाथ जोड़ते हैं, तेरे पैर छूते हैं, तेरे चरणों पर लोटते हैं, तू जीता हम हारे। पर अब कृपाकर रूठना छोड़ दे। कुचाल मत चल। सही रास्ते पर आ जा आत्मा का बन-उसी के साथ रह-उसी की सहायता कर-उसी के काम आ। आखिर तू आत्मा का ही तो पुत्र है। माता के साथ दुष्टता-माया के साथ रासविलास। बच्चे इस रास्ते से पीछे लौट। बाप अब तो कृपा कर। तेरी शरण में आये- शरणागत को अब और आगे मत सता। तू रूठना छोड़ दे-मन जाय- तो जीवन सन्ध्या की इन घड़ियों में भी अन्धकार को प्रकाश में बदला जा सकता है। देवता, अब तू प्रसन्न हो-वरदान दे तभी नाव पार उतरेगी अन्यथा अब डूबे-तब डूबे।

ऐसा चिन्तन, मनन हमें नित्य ही एकान्त में करना चाहिए। मन के साथ वार्तालाप करने का नाम ही मनन चिन्तन है। उसी को स्वाध्याय सत्संग की उच्च भूमिका भी कहते हैं।



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