शरीरगत ऊर्जा एक प्रचण्ड शक्ति भण्डागार

August 1972

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यों शरीर को हाड़-माँस का पुतला-मिट्टी का खिलौना और पंचतत्वों का बेमेल खेल कहा जाता है। पानी के बबूले से उपमा देकर क्षण भंगुर बताया जाता है। इस कथन में इतना ही सार है कि यह विपत्ति टूट पड़ने पर नष्ट भी हो सकता है, पर जैसी भी कुछ इसकी सत्ता है उस पर दृष्टिपात करने से वह परमाणु भट्टियों जैसा शक्तिशाली संयंत्र सिद्ध होता है। उसकी संभावनाएं अनन्त हैं। ब्रह्माण्ड का बीज इस पिण्ड को सही ही बताया गया है। जो शक्तियाँ ब्रह्माण्ड में देखी गई हैं या भविष्य में देखी जायेंगी उनका बीज इस पिण्ड में इस प्रकार मौजूद है कि यदि कोई उसे सोच सके तो देखते-देखते विशाल काय वृक्ष के रूप में परिणत हो सकता है।

माँस पेशियों में भरी हुई कोशिकाओं में छलकती हुई त्वचा में चमकती हुई ऊर्जा दियासलाई की तरह छोटी है पर यदि ठीक तरह जला दिया जाय और अभीष्ट आधार के साथ नियोजन कर दिया जाय तो उसे प्रचंड दावानल के रूप में संव्याप्त भी देखा जा सकता है। नन्हें से परमाणु को जब अपनी शक्ति प्रदर्शन करने का अवसर मिलता है तो वह धरती को हिला देता है और आसमान को कँपा देता है। मानव शरीर की ऊर्जा के अतिरिक्त चैतन्य तेजस भी विद्यमान है अस्तु इसकी सामर्थ्य और भी अधिक बढ़ जाती है। यदि उसका प्रकटीकरण एवं प्रस्फुरण किया जा सके तो उसका चमत्कार देखते ही बने। मनुष्य में ऋद्धि-सिद्धियों का भंडार भरापूरा परिलक्षित हो।

शरीर पर लिपटे हुए सीधे-साधे त्वचा परिधान को ही गंभीरतापूर्वक देखिये। उसकी रचना और प्रक्रिया कितनी सम्वेदनशील, सूक्ष्म, जटिल और सशक्त है। एक वर्ग फुट त्वचा में लगभग 72 फुट लम्बी तंत्रिकाएं जाल की तरह बिछी हुई हैं। इतनी ही जगह में रक्त नलिकाओं की लम्बाई 12 फुट बैठती है। शरीर की गर्मी को जब बाहर निकलना आवश्यक होता है तो वे फैल जाती हैं और जब ठंड लगती है तो भीतर की गर्मी बाहर न निकलने देने से शरीर को गरम बनाये रखने के लिए वे सिकुड़ जाती हैं।

सम्पूर्ण शरीर की त्वचा में लगभग दो लाख स्वेद ग्रन्थियाँ हैं इनमें से पसीने के रूप में शरीर के हानिकारक पदार्थ बराबर बाहर निकलते रहते हैं। यदि स्नान करने में आलस बरता जाये तो चमड़ी पर पसीने सूखकर एक परत जैसी बन जाती है और उसके विषैलेपन से बदबू ही नहीं आती वरन् खुजली, दाद, फुन्सियाँ जैसी बीमारियाँ भी पैदा हो जाती हैं। चमड़ी की बीमारियों में कोढ़ मुख्य है। संसार में एक करोड़ पाँच लाख कोढ़ी हैं जिनमें से 26 लाख तो केवल भारत में ही हैं।

यों चमड़ी सीधी-सादी सफाचट दीखती है पर उसमें इतने छोटे-छोटे भेद-प्रभेद भरे होते हैं कि आश्चर्य करना पड़ता है कि किस प्रकार उसमें इतनी चीजें भरी हुई हैं। एक वर्ग सेन्टीमीटर चमड़ी में 15 तेल ग्रन्थियाँ, 10 रोंए, 30 लाख कोशिकाएं, 4 ताप सूचक तंत्र, 200 दर्द सूचक स्नानु छोर, 25, स्पर्शानुभूति तंत्र, 4 गंज स्नायु, 3 हजार संवेदना ग्राहक कोशिकाएं 100 स्वेद ग्रन्थि, 3 फुट रक्त वाहिनियाँ। इन सब का अपना-अपना अनोखा कर्तृत्व है, और वह ऐसा अद्भुत है कि मानवकृत समस्त संयंत्रों को इस त्वचा प्रक्रिया के सम्मुख तुच्छ ठहराया जा सकता है।

त्वचा के भीतर भरी हुई माँस पेशियों को देखिये। यों वे घिनौनी लगती हैं पर उनका प्रत्येक कण कितनी ऊर्जा सम्पन्न है इसे देखते हुए अवाक् रह जाना पड़ता है। ताकत का लेखा-जोखा लिया जाता है, खेलों में, युद्धों में प्रतियोगिताओं में काम के मूल्याँकन में ताकत की परख होती है। कौन कितना ताकतवर है- कौन कितना कमजोर इस बात का लेखा-जोखा लिया जाता है। यह ताकत कहाँ रहती है? कहाँ से आती है?

शारीरिक शक्ति का स्रोत हमारी माँस पेशियाँ, लचक, स्फूर्ति, आकुँचन-प्रकुँचन सब कुछ उन्हीं के ऊपर निर्भर रहती है। जब उनमें समर्थता भरी रहती है तो मनुष्य को वज्रअंगी, लौह पुरुष आदि विशेषणों से सम्बोधित किया जाता है। कुश्ती, दौड़ भारोत्तोलन, छलाँग, दबाव आदि के अवसरों पर जो करामात शरीर दिखाता है उसे स्वस्थ माँस पेशियों का चमत्कार ही कहना चाहिए यदि वे ढीली पड़ जायें, क्षमता खो बैठें तो फिर चलना, खड़ा होना और भोजन पचाना तक कठिन हो जाय।

माँस पेशियों को तीन भागों में विभाजित कर सकते हैं (1) बहुत बारीक तन्तुओं से बनी हुई जो गति पैदा करती हैं- चलने, खाने, हँसने आदि में इन्हीं का उपयोग होता है मस्तिष्क की आज्ञा इच्छा होने पर ही इनमें सक्रियता आती है (2) जो स्वतः निरंतर कार्य करती हैं। पाचन क्रिया, श्वाँस प्रश्वाँस, रक्त संचालन, पलक झपकना, पसीना निकलना आदि कार्य वे स्वतः सम्पन्न करती रहती हैं (3) वे जिनमें दोनों विशेषताएं हैं और शरीर के भीतर की रासायनिक क्रिया से प्रभावित रहती हैं। इन तीनों का ही अपना महत्वपूर्ण उपयोग है। इन्हीं के सम्मिश्रित प्रयत्नों के फलस्वरूप हम स्वस्थ और बलिष्ठ दिखाई पड़ते हैं। यदि इनमें कमजोरी आने लगे तो दर्द होने लगेगा। पैरों की भड़कन, पीठ दर्द, और कमर का दर्द, जैसी शिकायतें माँस पेशियों में अकड़न, कठोरता बढ़ने के कारण ही इस तरह के दर्द होते हैं।

माँस पेशियों का काम देखने में सरल सा लगता है। पर वस्तुतः उनकी संरचना और कार्य पद्धति इतनी अधिक जटिल है कि अन्वेषक चकित रह जाते हैं। अणु विज्ञान को, उसके क्रिया-कलाप को, अणु यंत्रों को जटिल माना जाता है माँस पेशियों को इच्छित या अनिच्छित क्रिया कलाप करने में कितनी जटिल क्रिया पद्धति का सहारा लेना पड़ता है उसका विश्लेषण करते हुए कारीगर की अद्भुत कारीगरी को चकित रहकर ही देखना पड़ता है।

हाथ पैर सबके पास हैं। फिर किसी में क्षमता कम किसी में अधिक क्यों होती है? समझा जाता है यह अभ्यास से घटती बढ़ती है। बेशक इच्छा शक्ति और अभ्यास भी सहायक होता है पर मूल बात माँस पेशियों की सशक्तता ही मनुष्य की बलिष्ठता और कोमलता का मुख्य कारण है।

भोजनालय में जो कार्य चूल्हे का है-कारखाने में जो कार्य बायलर या इलेक्ट्रिक मीटर का है वही कार्य माँस पेशियाँ करती हैं। गर्मी पैदा करना उन्हीं का काम है। इस गर्मी के बल पर ही अन्य सब अंग गतिशील रहने में समर्थ होते हैं। माँस पेशियाँ सारे शरीर को गरम रखती हैं और स्वयं गरम रहती हैं उन्हें एक प्रकार के हीटर भी कह सकते हैं। शरीर और मन का सम्बन्ध बनाये रखने में इनकी भूमिका अद्भुत है। ज्ञान तन्तु समूह इन्हीं में ओत प्रोत होता है। हंसने से लेकर रोने, नृत्य से लेकर भाग खड़े होने तक, सोने से लेकर जगने तक के समस्त मनोभावों का प्रकटीकरण शरीर द्वारा तभी संभव होता है जब यह माँस पेशियाँ ठीक से काम करें। रक्त चाप, हृदय रोग जैसे जटिल रोगों में वस्तुतः उन स्थानों की माँस पेशियाँ ही दुर्बल हो जाती हैं। यह दुर्बलता जितनी बढ़ेगी रुग्णता और मृत्यु का प्रकोप उसी अनुपात से होता चला जायेगा।

नोबेल पुरस्कार विजेता आकार जे-ज्योगी ने माँस पेशियों की सक्रियता के पीछे दो रासायनिक तत्व खोजे हैं- (1) प्रोटीन सार्क्टन (2) मायोसिन। वे कहते हैं इन दोनों का संयोग माँस पेशियों में सक्रियता उत्पन्न करता है। यह दोनों प्रोटीन कहीं बाहर से नहीं आते। स्वतः ही पैदा होते हैं और उनके उत्पादन में इच्छा शक्ति का बहुत योगदान रहता है।

आहार शास्त्र की दृष्टि से प्रोटीन और कार्बोहाइड्रेट की उपयुक्त मात्रा माँस पेशियों के पोषण के लिए आवश्यक है। पर साथ-साथ इस खुराक को ग्रहण करने और आत्मसात करने की मौलिक क्षमता तो पहले से ही माँस पेशियों में होनी चाहिए यदि वह न हो तो ऐसी खुराक भी कुछ विशेष कारगर नहीं होती।

अधिक काम करने से यह माँस पेशियाँ ही थक जाती हैं। उन्हें समुचित विश्राम न मिले तो अधिक दौड़ाने पर थक कर गिर पड़ने वाले घोड़े की तरह वे भी गड़बड़ाने लगती हैं। और अधिक काम करने की उतावली सोने का अण्डा रोज देने वाली मुर्गी का पेट चीर कर सारे अण्डे एक साथ निकाल लेने वाले लालची की तरह घाटे में ही रहता है काम करने और विश्राम देने के संतुलन का ध्यान रखकर ही पेशियों को स्वस्थ और सक्रिय रखा जा सकता है।

कुछ पेशियाँ कभी भी विश्राम नहीं लेतीं। हृदय, मस्तिष्क, पाचन यंत्र, फुफ्फुस आदि का काम दिन रात निरन्तर चलता रहता है। जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त कभी भी इनको छुट्टी नहीं मिलती। यह थकान भी मौत का कारण है। यदि बीच-बीच में उन्हें विश्राम मिल जाया करे तो आयुष्य बढ़ाने में माँस पेशियों का वह पुनः शक्ति संचय बहुत ही उपयोग सिद्ध हो सकता है।

गहराई में क्यों जाया जाय, शक्ति के चेतना स्तर को अभी क्यों छुआ जाय। त्वचा और माँस पेशियों की सम्मिलित शक्ति का ही विवेचन किया जाय तो प्रतीत होगा कि इनका सम्मिलित स्वरूप ही किसी बड़े बिजली घर से कम नहीं है।

शक्ति का मूल स्रोत है ऊर्जा। बिजली का उत्पादन ऊर्जा से ही होता है। भाप द्वारा, कोयला जला कर, तेल पैट्रोल से, पानी को ऊँचे से गिराकर उसके वेग द्वारा और अब अणु शक्ति से बिजली पैदा की जाती है। यह ऊर्जा की ही विविध प्रतिक्रिया है।

विद्युत उत्पादन का एक आधार रासायनिक क्रिया भी है। बैटरी इसी आधार पर बनती है। वोल्टा, एम्पीयर, आरस्टेड, फैराडे प्रभृति वैज्ञानिकों ने इस संबंध में नये आविष्कार किये हैं।

किसी तंत्र के कार्य करने की क्षमता ऊर्जा कहलाती है। ऊर्जा के अनेक स्तर हैं। पदार्थों की गति के कारण उत्पन्न होने वाली, गतिजऊर्जा, रासायनिक सम्मिश्रण से उत्पन्न होने वाली रासायनिक ऊर्जा, वस्तुओं की स्थिति के कारण उत्पन्न स्थितिजऊर्जा कही जा सकती है। कुछ पदार्थ ऐसे होते हैं जिनमें अधिक मात्रा में ऊर्जा तत्व विद्यमान रहते हैं उन्हें ईंधन कहते हैं। ऊर्जा एक से दूसरे रूप में रूपांतरित तो होती रहती है पर उसका नाश कभी नहीं होता। यह रूपांतरण प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। रासायनिक पदार्थ जलते हैं और बैटरी की विद्युत उत्पन्न होती है। पैरों द्वारा घुमाये जाने पर साइकिल चलती है यह पैरों की ऊर्जा का साइकिल की गति में रूपांतरण है। परमाणु ईंधन विखण्डित होकर ही परमाणु शक्ति उत्पन्न होती है। बायलर के नीचे कोयला जला और ज्वलन शीलता ने ताप के रूप में ऊर्जा उत्पन्न की। भाप बनी उससे रेल चली। गैस बनी उससे प्रकाश की बत्तियाँ जलीं। भाप टरबाइन, फोरसेन्ट लेम्प, हीटर, रासायनिक मिश्रण विद्युत जनकेटरी की प्रक्रिया में ऊर्जा की शक्ति क्षमता को विविध प्रयोजनों के लिए विविध रूपों में कार्यान्वित किया जाता है। आज कल प्रोपेज गैस से चलने वाले ताप विद्युत उत्पन्न करने वाले हलके जेनरेटर टेलीविजन आदि छोटे कामों के लिए खूब प्रयोग होते हैं।

दो विभिन्न प्रकार की धातुओं अथवा धातु मिश्रणों के तारों के सिरे यदि पिघला कर जोड़ दिये जायं और उनके सिरों को विभिन्न तापमानों पर रखा जाये तो उनमें विद्युत धारा प्रवाहित होने लगेगी यह तार विद्युत है।

कुछ धातुएं गरम होने पर अपनी सतह में इलेक्ट्रोन उभारती हैं। पास में कोई ठंडी वस्तु हो तो यह उत्सर्जित इलेक्ट्रोन उस पर जमा हो जाते हैं। इस स्थानांतरण से विद्युत प्रवाह आरम्भ हो जाता है। स्थानान्तरण के मध्य भाग में धनावेश युक्त कणों वाली कोई गैस भर दी जाती है इस प्रकार प्लाज्मा बनता है। प्लाज्मा की उपस्थिति इलेक्ट्रॉनों के आवेश को संतुलित करने के लिए आवश्यक है।

इन दिनों मैग्नटो हाइड्रो डायनेमिक चुम्बकीय द्रव गतिज पद्धति विद्युत निर्माण में सबसे अधिक प्रयुक्त होती है। इसका आधार यह है कि वात्विक चालकों के चुम्बकीय क्षेत्र में घुमा कर विद्युत वाहक बल इलैक्ट्रोमोटिव, फोर्स पैदा की जाय। इसके स्थान पर यदि दूसरा प्रयोग किया जाय तो भी यही फोर्स पैदा होगी। धात्विक चालकों के स्थान पर यदि गैसीय चालक ‘प्लाज्मा’ का प्रयोग किया जाय और उस गैस को चुम्बकीय क्षेत्र में होकर निकाला जाय तो विद्युत उत्पादन का वही प्रयोजन पूरा होगा।

एक जस्ते की छड़ एक ताँबे की छड़ यदि नींबू के रस में डाली जायं तो उनके बीच एक विभावान्तर पैदा होता है और उससे उपकरणों में विद्युत प्रवाह चल पड़ता है। रासायनिक बैटरियाँ इसी पद्धति से बनती हैं।

ईंधन सेल की पद्धति को न समाप्त होने वाली बैटरी पद्धति कहा जा सकता है। प्रयुक्त रसायनों की शक्ति जब समाप्त हो जाती है तब बैटरी अपना काम बन्द कर देती है। पर ईंधन सेल का प्रवाह क्रम बन्द नहीं होता। हाइड्रोजन ऑक्सीजन के मेल से पानी की उत्पत्ति होती है। यदि वे दोनों गैस लगातार मिलती रहें तो पानी का निर्माण अनवरत रूप से होता रहेगा। इसमें बाहरी और किसी ईंधन की जरूरत नहीं पड़ेगी। इसी आधार पर यह शोध चल रही है कि हाइड्रोजन ऑक्सीजन के संमिश्रण की भाँति या कोयला, हवा अथवा पैट्रोलियम हवा के सम्मिश्रण से क्या ईंधन सैल बन सकते हैं ?

अन्तरिक्ष यात्रा में यह ईंधन सेल ही काम आता है। भारी चीजों की बड़ी मात्रा में लम्बी दूरी तक उड़ान संभव ही नहीं है। ईंधन सेल का एक और स्रोत ढूँढ़ा जा रहा है वह है सूर्यताप। साधारणतया सूर्य से गरमी और रोशनी प्राप्त की जाती है। यों साधारणतया वह भी काम की चीज है, पर उसमें जो अगली संभावनाएं विद्यमान हैं उन्हें देखते हुए यह कहा जा सकता है कि अणु भट्टियाँ और अणु रसायन बनाने के महंगे और खतरनाक झंझट में पड़ने की अपेक्षा, सूर्य से शक्ति प्राप्त करके बिजली की आवश्यकता पूरा कर सकना शक्य हो जायेगा। सूर्य की ऊर्जा पृथ्वी पर एक वर्ग मीटर जगह में 1400 वॉट के करीब बिजली बखेरती है। इस शक्ति का उपयोग जिस दिन मनुष्य के हाथ में होगा उस दिन ऊर्जा का विपुल भण्डार उसकी मुट्ठी में आ जायेगा।

बैटरी क्षेत्र में एक नया प्रयोग न्यूक्लीय बैटरियों का जब जल्दी ही बड़े पैमाने पर प्रयुक्त होने लगेगा। एक खोखला बेलन चारों ओर रहेगा। बीच में छड़ रहेगी। उस छड़ पर बीटा किरणों का उत्सर्जन करने वाले रेडियो आयसोटोप चढ़ा दिये जायेंगे। बेलन की सतह पर इलेक्ट्रोन जमा होंगे। छड़ और बेलन को तार से जोड़ दिया जायेगा और विद्युत धारा प्रवाहित होने लगेगी।

लौह विद्युत का रूपांतर और ताप चुम्बकीय विद्युत का रूपांतरण सैद्धान्तिक रूप से सम्भव मान लिया गया है अब उसके सरलीकरण के प्रयोग चल रहे हैं। वेरियम टाइटेनेट के रबे को यदि 120 डिग्री से ॰ से अधिक गरम किया जाय तो उसकी आन्तरिक संरचना में परिवर्तन उपस्थित होता है। इस परिवर्तन की प्रक्रिया को यंत्रों द्वारा विद्युत में रूपांतरण किया जा सकता है। चुम्बक रूपांतरण का भी यह आधार है।

शरीर को रासायनिक आधार पर विनिर्मित होने वाली बैटरी के समकक्ष रखा जा सकता है। इसके घटक ईंधन सेल कहे जा सकते हैं जो मरण पर्यन्त सूक्ष्म बने रहते हैं। जब तक जीवन है तब तक इस बैटरी की क्षमता समाप्त नहीं हो सकती। अन्तरिक्ष यात्रियों के लिए यही ईंधन उपयुक्त समझा गया है। मनुष्य भी एक अन्तरिक्ष यात्री है। वह अपने पिता के घर से इस मर्त्य लोक में महत्वपूर्ण शोध अथवा प्रयोजन पूरे करने आया है उसे अपनी जीवन यात्रा के लिए ईंधन चाहिए वह त्वचा और माँस पेशियों के रूप में स्पष्टतः मिला हुआ है। इतना ही नहीं उसके पास और भी अधिक गहरे शक्ति स्रोत हैं पर ऊर्जा के स्थूल रूप में इस माँस त्वचा मिश्रित कलेवर को भी अति महत्वपूर्ण माना जा सकता है।

इस शरीरगत ऊर्जा का चैतन्य प्राणियों पर प्रत्यावर्तन करके उन्हें लाभान्वित किया जा सकता है। इसका एक छोटा सा प्रयोग जर्मन के डॉक्टर मैस्पर ने किया और उसे मैस्मरेजम नाम दिया।

मैस्मरेजम के आविष्कर्ता हैं-जर्मनी के डॉक्टर फ्रासिस्कस एन्टोनियम मैस्पर। वियना में उन्होंने चिकित्सा शास्त्र पढ़ा और उपाधि प्राप्त की। उन्होंने एक महत्वपूर्ण शोध निबंध प्रस्तुत किया था जिसमें बताया गया कि अविज्ञात नक्षत्रों में एक तरल चुम्बकीय पदार्थ इस धरती पर आता है और उससे हम सब प्रभावित होते हैं। इस पदार्थ का सन्तुलन यदि शरीर में गड़बड़ाने लगे तो शारीरिक और मानसिक रोग उत्पन्न होते हैं। यदि किसी प्रकार यह चुम्बकीय सन्तुलन ठीक कर दिया जाय तो बिगड़ा हुआ स्वास्थ्य फिर ठीक हो सकता है।

इस का प्रयोग भी उन्होंने रोगियों पर किया और सफलता तथा ख्याति भी अर्जित की वे लोह चुम्बक को अपने शरीर की विद्युत से प्रभावित करते थे और फिर उस चुम्बक को रोगी के शरीर से स्पर्श कराके उस अभाव की पूर्ति करते थे जो रोग का कारण थी। इसके लिए वे अपनी संकल्प शक्ति की साधना द्वारा अपना मनोबल तथा आवश्यक चुम्बकीय विद्युत की मात्रा बढ़ाते थे। उनकी चिकित्सा प्रणाली में दूर से आने वाली मधुर और मादक संगीत का प्रयोग किया जाता था ताकि रोगी को मानसिक एकाग्रता और भाव सान्त्वना का लाभ मिले। अपने में शारीरिक विद्युत की मात्रा बढ़ाना और उस लौह चुम्बक के माध्यम से रुग्ण व्यक्तियों को लाभान्वित करना यही उनका चिकित्सा क्रम था। लाभान्वित रोगियों के मुँह से प्रशंसा सुनकर कष्ट पीड़ितों की संख्या दिन-दिन बढ़ने लगी और वह हर रोज सैकड़ों तक पहुँचती।

अमेरिका में इन दिनों 17 चोटी के शल्य चिकित्सक इस प्रणाली का प्रयोग कर रहे हैं और सम्मोहन विज्ञान के आधार पर रोगियों को सेवा सहायता पहुँचा रहे हैं। महिलाओं की प्रसव पीड़ा कम करने में तो इन प्रयोगों को शत-प्रतिशत सफलता मिली है। दर्द न होने के इंजेक्शन लगाने की अपेक्षा सम्मोहन प्रक्रिया द्वारा उन्हें कष्ट मुक्त स्थिति का लाभ देना अधिक उचित और हितकर समझा गया है। प्रसूताओं को भी यही उपचार अधिक उपयुक्त लगा है।

डॉ. हार्थसेन बेहोशी की आवश्यकता की आधी मात्रा दवा की देकर और आधा सम्मोहन का उपयोग करके अपना काम चलाता है। शल्यचिकित्सा के समय आवश्यक एनेस्थिशिया की मात्रा उन्होंने 50 प्रतिशत घटा दी है। इससे रोगी अर्ध मूर्छित भर रहता है। सम्मोहन के प्रभाव से उसे कष्ट बिल्कुल नहीं होता।

कैडर्स अस्पताल में एक 14 वर्षीय लड़की का कान का आपरेशन होना था उसमें 5 घण्टे लगने थे। इतने लम्बे समय तक दवाओं की बेहोशी पीछे घातक सिद्ध हो सकती थी थी इसलिए सम्मोहन के आधार पर आपरेशन करने का निश्चय किया गया। यह आपरेशन सफल रहा। इतनी देर तक इतना गहरा आपरेशन करने की इस सफलता ने इस विज्ञान की महत्ता को अब असंदिग्ध रूप से स्वीकार कर लिया है।

केन्सर की असहनीय पीड़ा किसी दवा से काबू में नहीं आती। केन्सर से कोशिकाएं अनियंत्रित रूप से बढ़ती हैं। जो नई बनती हैं वे अन्य कोशिकाओं के साथ फिट नहीं बैठतीं। उसका उपचार शल्य चिकित्सा रेडियो विकरण आदि से किया जाता है। पर दर्द घटाने का उपचार उपलब्ध होने से अब उस अभाव की पूर्ति सम्मोहन विज्ञान द्वारा की जाने लगी है और इससे रोगियों को बड़ी राहत मिली है।

मस्तिष्कीय चोट, अबुँद सूजन, रक्तचाप, हृदयशूल, उन्माद जैसे कष्टों में सम्मोहन का उपयोग निरापद समझा गया है। कमजोर हृदय वालों पर क्लोरोफार्म जैसी दवाओं की हानिकारक प्रतिक्रिया होती है, इसलिए उनके आपरेशनों में भी सम्मोहन ही ठीक समझा गया है।

डॉ. हार्थमैन ने इस उपचार से न केवल रोगी अच्छे किये हैं वरन् व्यसनी और बुरी आदत वालों की कुटेवें भी छुड़ा दी हैं। नशेबाज जो अपने को आदत से लाचार मानते थे इस व्यसन से छुटकारा पा सके। बिस्तर में पेशाब कर देने वाले बड़ी उम्र के बच्चे भी इस व्यथा से छूटे।


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