साहस के रहते अपंगता बाधक नहीं

August 1972

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शरीर में कोई अंग कम हो या अपंग हो तो उस स्थिति में स्वभावतः साधारण जीवन क्रम बिताना कठिन होता है। ऐसे बाधित व्यक्ति आमतौर से दूसरों की कृपा पर निर्भर परावलम्बी जीवन जीते अथवा भिक्षा वृत्ति पर निर्वाह करते देखे गये हैं।

इस प्रकार के लोगों को शारीरिक कमी के कारण जितनी कठिनाई उठानी पड़ती है, उससे कहीं ज्यादा मानसिक दुर्बलता से उठानी पड़ती है। हर कोई उन्हें दया का पात्र, बेचारा, अभागा दैवी कोप का भाजन, प्रारब्ध भोगी आदि कहते बताते रहते हैं। हर किसी के मुँह से जब वह अपने बारे में यही सुनता रहता है तो उसे विश्वास जम जाता है कि वस्तुतः वह दुर्भाग्य ग्रस्त ही जन्मा है। अब वह कुछ कर न सकेगा, उसकी प्रगति के मार्ग बन्द हैं। उसे दूसरों के आश्रित होकर जीने की बात सोचनी चाहिए। यदि भाग्य में स्वावलम्बी जीवन होता तो फिर विपत्ति ही क्यों आती। आदि विचार जब निरन्तर मन में घूमते रहते हैं तो फिर उसका साहस टूट जाता है, मन भर जाता है और प्रगति की बात तो दूर अपने पैरों आप खड़े हो जाने का मनोबल भी जागृत नहीं होता।

शरीर की कमी वस्तुतः इतनी बड़ी कमी नहीं हैं जिसे मनोबल द्वारा पूरा न किया जा सके। महत्वपूर्ण काम तो मस्तिष्क करता है, दूसरे अंग तो उसकी आज्ञाओं का पालन भर करते हैं। यदि एक अंग बिगड़ गया है तो उसकी आवश्यकता दूसरा अंग पूरी कर सकता है। यदि उत्कृष्ट इच्छा शक्ति काम करे तो वह अस्त-व्यस्त अंग भी कुछ काम दे सकता है। इस प्रकार शरीर के अन्य अंग को अधिक सक्षम बनाकर उस विकृत या अपंग अवयव की आवश्यकता पूरी की जा सकती है।

संसार में ऐसे अनेकों मनुष्य हुए हैं, जिनका शरीर किसी दुर्घटना के कारण अथवा जन्मजात रूप से अपंग हो गया। किन्तु उसका मनोबल बना रहा, हिम्मत नहीं हारी और साहस समेट कर प्रबल इच्छा शक्ति के सहारे उन्हीं टूटे फूटे अंगों से काम लेना शुरू किया, विकारग्रस्त अंग की आवश्यकता दूसरे अंग से पूरी की और इस प्रकार जोड़-तोड़ मिलाकर अपनी गाड़ी धकेलनी आरम्भ कर दी।

सामान्य लोग इच्छा शक्ति दुर्बल होने के कारण सभी अंग सही होने पर भी कुछ महत्वपूर्ण काम कर नहीं पाते, ऐसे ही आलस में पड़े असफल जीवन बिताते रहते हैं। इसके विपरीत इच्छा शक्ति के धनी मनस्वी व्यक्ति अंगहीन अथवा साधन हीन होने पर भी इतनी प्रगति कर लेते हैं कि जिसे देखकर सर्वांग गठित किन्तु आलसी व्यक्तियों को ही अभागा मानना पड़ता है।

वस्तुतः साहस की प्रखरता सबसे बड़ा अवलम्बन है। इच्छा शक्ति जिसकी तीव्र है उसे कठिनाई या कमी तिरस्कृत जीवन जीने के लिये बाध्य नहीं कर सकती वह स्वावलम्बी और प्रगतिशील होकर ही रहता है। पुरुषार्थ और मनोबल में वह शक्ति मौजूद है जिसके आधार पर दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदला जा सके।

चार्ल्स फेलू सन् 1830 में बेल्जियम के एक छोटे देहात में पैदा हुए और 70 वर्ष की आयु भोगकर सन् 1900 में मरे। वे बिना हाथों के पैदा हुए थे पर 19वीं सदी के महान चित्रकारों में से एक थे। उन्होंने हाथों के अभाव की पूर्ति पैरों से की और अत्युत्तम चित्र बनाने लगे इनके हर चित्र के नीचे लिखा रहता था, ‘केवल पैरों की सहायता से चित्रित’ उनकी कला से प्रभावित होकर बेल्जियम और रूस के शासन ने उनकी सहायता भी की। बेल्जियम के राजा लियोपोल्ड द्वितीय ने उनसे हाथ मिलाने की रस्म पूरी करने के लिए उनका पैर छुआ और उसे हिलाया। राजा कहा करते थे, हाथ मिलाने की ऐसी सुखद अनुभूति मुझे जीवन में अन्यत्र कभी नहीं मिली।

उत्तरी अमेरिका के बाल्टीमोर नगर का निवासी जानी नामक व्यक्ति 27 अगस्त 1910 को पैदा हुआ। उस विचित्र बालक के शरीर में कमर से नीचे का कोई भाग उसके शरीर में था ही नहीं। पैरों का निशान भी जिसके न हो ऐसा गोल गेंद सा बच्चा देखने के लिए भीड़ बहुत जमा हुई पर किसी को भी उसके कुछ घण्टे से अधिक जीवित रहने की आशा नहीं थी; परन्तु वह मरा नहीं- जीवित बच गया। जीवित ही नहीं रहा वरन् अपने बुद्धि बल और अध्यवसाय में एक अनोखा कीर्तिमान स्थापित किया कि यदि साहस और लगन का अभाव न हो तो शारीरिक अपूर्णताओं के रहते हुए भी बहुत कुछ किया जा सकता है।

जानी ने शिक्षा प्राप्त की। एक कुशल टाइपिस्ट बना, नकशा नवीस और लेखक बना। इतना ही नहीं उसने हँसने-हँसाने और जादूगरी तथा नट विद्या में भी प्रवीणता प्राप्त की। वह एक विलक्षण नर्तक था, उसका नृत्य देखने के लिए दर्शकों की अपार भीड़ जमा होती थी।

बचपन में उसने हाथों के बल चलना सीखा और पढ़ने की आयु में बराबर स्कूल जाता रहा। 14 वर्ष की आयु में उसने हाई स्कूल उत्तीर्ण किया। खेलों में भी उसकी रुचि थी। बिना पैर का होते हुए भी, केवल हाथों के सहारे उसने बेसबाल, टेनिस, आँखमिचौनी, तैराकी, गोताखोरी में प्रवीणता प्राप्त की। वह जीवन भर हँसता और हँसाता रहा। कभी किसी ने पैर न होने की चर्चा चलाई तो उसने यही कहा-मनोबल के रहते किसी अवयव का अभाव मनुष्य की प्रगति और सुख-शान्ति में बाधक नहीं हो सकता।

वेने (न्यूजीलैण्ड) की डच बस्ती में फ्रांसिस ए. वरडेट नामक अन्धे व्यक्ति ने अपने पुरुषार्थ से लगातार 13 वर्ष के परिश्रम से एक विशालकाय मकान बनाया। जिसमें तीन तल्ले, सात कमरे और स्नान घर आदि सभी व्यवस्थायें मौजूद हैं। सब कुछ करीने से बना हुआ है और वस्तुयें इस तरह व्यवस्था पूर्वक कलात्मक ढंग से लगी हुई हैं मानो किसी कुशल इञ्जीनियर ने उसे बनाया है।

इस अंधे व्यक्ति ने मकान की पूरी योजना स्वयं ही बनाई। छोटे से बड़े काम तक बढ़ई, राज मिस्त्री, लुहार आदि के बहुत से काम उसने स्वयं किये और जहाँ अनिवार्य हो गया वहीं दूसरों की सहायता ली। तिरसठ वर्ष की आयु में एक अन्धे व्यक्ति द्वारा आरम्भ कराया गया यह कार्य एक विलक्षण सूझ-बूझ और लगन का ऐसा उदाहरण प्रस्तुत करता है जिसे देखकर दंग रह जाना पड़ता है। जबकि बुढ़ापे से थके होने और आराम करने की बात दूसरे वृद्धों के मस्तिष्क में रहती है तब वरडेट जैसे उद्योगी की यह पुरुषार्थ परायणता एक नया ही उदाहरण प्रस्तुत करती है। न्यूजीलैण्ड सरकार ने उस मकान को अपराजेय इच्छा शक्ति, उत्साह, धैर्य और सूझ-बूझ की मूर्तिमान प्रदर्शनी के रूप में खुला रखा है ताकि दूसरे लोग भी प्रेरणा प्राप्त करते रह सकें।

सोलहवीं सदी का प्रसिद्ध नृत्यशास्त्री सीवस्टीन स्पिनोला-फ्रेंच नृत्य एवं संगीत का पिता माना जाता है। उसकी प्रगति गाथा बड़ी प्रेरक है। 11 वर्ष का जब वह बालक ही था तभी उसके दोनों पैर एक दुर्घटना में घुटनों से नीचे के काट दिये गये। देखने वालों की दृष्टि में वह अपंग और दया का पात्र था। पर उसने अपने को स्वयं वैसा ही नहीं माना और जब अपनी चर्चा होती तो यही कहता पैर तो शरीर का सबसे निचला और कम उपयोगी अंश है। जब तक मेरा मस्तिष्क और हृदय मौजूद है तब तक न मुझे अपंग कहा जाय और न दयनीय माना जाय। वह कटे हुए पाँवों को ही प्रशिक्षित बनाता रहा और नृत्यविद्या में इतना पारंगत हो गया कि उसकी कला देखकर दर्शक मन्त्र मुग्ध ही नहीं हो जाते थे वरन् उस विषय में रुचि रखने वाले उससे शिक्षा भी प्राप्त करते थे। नृत्य ही नहीं उससे गायन में भी पारंगतता प्राप्त की, इतना ही नहीं उसने फ्रान्सीसी गायन को महत्वपूर्ण दिशायें भी दीं।

ऐसी ही एक और भी उदाहरण है जिसमें किसी अंग से काम न लिये जाने पर उसमें अतिरिक्त क्षमता उत्पन्न हो जाने का प्रमाण भी मिलता है। बाधित लोग यदि प्रयत्न करके देखें तो उनके अपंग समझे जाने वाले अवयव भी कुछ विशेष काम कर सकने योग्य किसी अद्भुत शक्ति से सम्पन्न भी दिखाई पड़ सकते हैं। कास्पर हासर गेंड उची राज्य का राजकुमार था। गद्दी के लालचियों ने उसका अपहरण बचपन में ही कर लिया और राज्य को हथियाने का अपना रास्ता साफ कर लिया। अपहरणकर्त्ताओं ने इतनी तो दया दिखाई कि उसे मारा नहीं वरन् ऐसे स्थान पर कैद कर दिया जहाँ प्रकाश और हवा की बहुत कमी थी। उन्होंने सोचा कुछ दिन में वह ऐसे ही बीमार होकर मर जायेगा।

कास्पर 18 साल तक ऐसे ही अन्धकार भरे वातावरण में कैद रहा। एक बार उसे अवसर मिला तो उस काल कोठरी से निकल भागा और अन्सपच, बाइवेरिया के जंगलों में भटकते-भटकते अपनी जन्मभूमि जा पहुँचा। तब तक लोग उसे पूरी तरह भूल गये थे।

पर उसमें दो अतिरिक्त विशेषताएं पाई गई जो वैज्ञानिकों और मनोवैज्ञानिकों के लिए खोज का विषय बनीं और उसकी शारीरिक एवं मानसिक स्थिति का अध्ययन करके नये निष्कर्ष निकालने में उनसे बहुत सहायता ली।

कास्पर दिन में तारे देख सकता था। यह बात असत्य नहीं थी। ग्रह गणितज्ञों ने जब भी उससे पूछा उसने विदित नक्षत्रों के स्थान सही बताये। उसके कथन में रत्तीभर भी अन्तर नहीं पाया गया इससे निष्कर्ष निकला कि यदि नेत्र-ज्योति को किसी विशेष परिस्थिति में रखकर विशिष्ट विशेषताओं से सम्पन्न किया जा सके तो वह इतनी तीव्र भी हो सकती है कि सूर्य का प्रकाश रहते हुए भी तारे देख सकने जैसे अद्भुत कार्य कर सके। दूसरी विशेषता यह भी कि बहुत छोटी उम्र में उसका अपहरण किया और उसे एकाकी रखा गया था। ऐसी स्थिति में उसका मानसिक विकास आयु वृद्धि के साथ नितान्त स्वल्प ही हो सका। काम-वासना से वह अपरिचित था और लोक व्यवहार में भी उसकी गति छोटे बालकों से अधिक नहीं थी।

शरीर के किसी अंग का टूट-फुट जाना उतना बड़ा दुर्भाग्य नहीं है जितना मनोबल खो देना। यदि अपंग कहे जाने वाले लोगों का मनोबल ऊँचा उठाया जा सके, उनमें साहस और उत्साह पैदा किया जा सके तो वे न केवल स्वावलम्बी वरन् प्रगतिशील भी बन सकते हैं। इच्छाशक्ति की सामर्थ्य शरीर के किसी अंग से अधिक मूल्यवान है यदि यह तथ्य लोग समझ सकें तो फिर इस संसार में एक भी दुर्भाग्यग्रस्त दिखाई न पड़े।


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