ब्राह्मणत्व की श्रेष्ठता गुण, कर्म, स्वभाव के आधार पर है। जन्म के आधार पर नहीं। उच्च कुल में जन्म लेने मात्र से कोई ब्राह्मण नहीं हो सकता। उसके लिये अभीष्ट ज्ञान एवं कर्म भी होना चाहिये। तभी वह सम्मानास्पद पद प्राप्त करने का अधिकारी होता है। वर्ण व्यवस्था में जन्म को नहीं कर्म को शास्त्रकारों ने प्रधान माना है। उसी का उल्लेख भी है-
न योनिःनापि संस्कारों न श्रुतं न च सन्ततिः।
कारणानि द्विजत्वस्य वृत्तमेव तु कारणम्॥
-महाभारत वन. 313।108
ब्राह्मणत्व न जन्म जाति से, न संस्कार से, न विद्या से प्राप्त होता है। उसका एकमात्र आधार सदाचार है।
पूज्यः श्रोतियको नित्यं सदाचारसमन्वितः।
सद्वृतः कलुषैर्मुक्तस्तीर्थभूतोजनोऽनघः॥
क्षत्रियाणां कुले जातो विश्वामित्रोऽस्ति मत्समः।
वेश्यापुत्रो वसिष्ठश्च अन्ये सिद्धाः द्विजादयः॥
जन्मनाब्रह्मणो ज्ञेयः संस्कारैर्द्विजउच्यते।
विद्ययायातिविप्रत्वं त्रिभिः श्रोत्रिय लक्षणम्॥
-पद्म पुराण
ब्रह्माजी ने कहा-जो विप्र श्रोत्रिय हो और नित्य ही सदाचार से समन्वित हो, सत् चरित्र वाला हो, समस्त प्रकार के कलुषों से मुक्त जो अनघ विप्र होता है वह तीर्थ स्वरूप हुआ करता है।
विश्वामित्र महर्षि तो क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुये थे किन्तु उनकी तपश्चर्या की क्रिया ऐसी उच्च स्तर की थी कि वह मेरे समान ही जगत्पूज्य एवं वन्दनीय हो गये हैं। वसिष्ठ महामुनि वेश्या से समुत्पन्न पुत्र हैं- और इनके अतिरिक्त अन्य भी द्विज आदि सिद्ध हैं।
ब्राह्मण तो जन्म से होता है अर्थात् ब्राह्मण के यहाँ उत्पन्न होने से ब्राह्मण कहलाता है किन्तु वह द्विज तभी होता है, जबकि उसके समुचित संस्कार किये जाते हैं। जब उसे विद्या प्राप्त होती है तो उसको विप्रत्व का पद मिलता है।
ये पठन्ति द्विजा वेदं पञ्चयज्ञरताश्च ये।
त्रैलोक्यं धारयन्त्येते पञ्चेन्द्रियरताश्रयाः॥
-पाराशर स्मृति
जो ब्राह्मण वेद पढ़ते हैं, यज्ञों में निरत हैं, जितेंद्रिय हैं, उन्होंने अपने तप से तीनों लोकों को धारण किया हुआ है।
एतद्देश सूतस्य सकाशादग्रजन्मनः।
स्वं स्वं चरित्र शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः॥
इस देश में उत्पन्न ब्राह्मणों से संसार के सब मनुष्य अपने-अपने चरित्र आचरण की शिक्षा ग्रहण करें।
ऋजु वश्शुद्ध वर्णाभाः क्षमावन्तो द्विजातया।
स्वधर्म निरता येस्युस्ते द्विजेषु द्विजातया॥
- सूर्य दर्शन सिद्धान्त
असली ब्राह्मण वे हैं जो सच्चे हैं, शुद्ध हैं, क्षमाशील हैं। दयालु और धर्मपरायण हैं।
ब्रह्मयज्ञं तु यजते योगेद्वेदात्मकं सदा।
ब्रह्मणो विपुलं ज्ञानमैर्श्वयं च प्रवर्तते॥
ततः प्रथममैर्श्वयं युँजानेन प्रवर्तितम्।
ब्रह्मणा ब्रह्मभूतेन भूतानाँ हितं मिच्छता॥
- हरिशवंश पुराण
जो सच्चे ब्राह्मण वेदानुकूल ब्रह्म-यज्ञ का अनुष्ठान करते हैं, उससे उनको विपुल ज्ञान और ऐश्वर्य प्राप्त होता है। उस प्राप्त ऐश्वर्य को स्वार्थ में व्यय न करके परोपकार में लगा देना ब्राह्मण का आवश्यक कर्त्तव्य है।
उपवासब्रतं चैव स्नानं तीर्थ फलं तपः।
द्विजसपादन चैव सम्पन्न तस्य तत्फलम्॥
जो ब्राह्मण अपने कर्तव्य, कर्म में निरत हैं उन्हें अनायास ही व्रत, उपवास, स्नान, तीर्थ, तप का फल मिल जाता है।
जन्मजा ब्राह्मणो ज्ञेयः संस्काराद् द्विज उच्यते।
विद्यया याति विप्रत्वं त्रिभिः श्रोत्रिय उच्चयते॥
जन्म में ब्राह्मण जानना चाहिए। संस्कार से द्विज कहलाता है। विद्या से विप्रत्व की प्राप्ति होती है और इन तीनों के मिल जाने से श्रोत्रिय कहलाता है।