बोलो साहस की जय (Kavita)

August 1972

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अब शुभारम्भ नव-निर्माणों को होता है।

मिलकर ऊँचे स्वर में बोलो साहस की जय॥


अब नहीं बाँसुरी-हम तो शंख बजायेंगे।

अब पथ के कांटों से होंगी दो-दो बातें ॥

अब छिप जाएँ बेशक शशि झिलमिल तारे।

अब दीपावली से होंगी नितदीपित -रातें॥

हर दिल में निष्ठा की ज्वाला-सी धधक उठी।

अब नहीं रहा कण मात्र अँधेरे का चिर भय॥ मिल.


दे हमें न कोई बाँह-अगर हम गिर जाएँ।

तलवों के छालों में भी दर्द नहीं होगा।

उत्साह और साहस जागा है ऐसा-जो।

झरनों-सरिउद्गम-झंझा-में न कहीं होगा॥

अब कौन सहारे पर आश्रित रह सकता है?

अपने हाथों में रखते हैं साहसी विजय॥ मिल.


सपने करने साकार -चले हैं दीवाने।

है कर्म हमारा वेद-लगन ही गीता है॥

उर में जागा रामत्व-अकेले चलने का।

रावण्य दलन में छिपी हमारी सीता है॥

खुद मिटकर बलिदानों की उमर बढ़ाएँगे।

साहस का मसि-इतिहास रचेगी फिर अक्षय॥ मिल.


अब नहीं हमारी राहों को रोके कोई।

ज्वालामुखियों-सा वेग हमारे दिल में है॥

यदि हमसे पूछे कोई प्राण कहाँ पर हैं?

तो उत्तर यही मिलेगा-वह मंजिल में है।

अब ज्वार सिन्धु का भी न डुबा सकता हमको।

जग चुकी हृदय में ज्वाला-ऐसी साहस मय॥ मिल.


गाएँगे आज तराने, जय के -जीवन के।

स्वर-ताल सजाएगी मन की भावुक सरिता।

कल विजय पर्व मनने वाला है जो सुमधुर।

उनको सुनने आएगा अम्बर से सविता॥

संग चलो-कि छोड़ो साथ-तुम्हारी मर्जी है।

हम स्वयं सँवारेंगे अपने गीतों की लय।

मिलकर ऊँचे स्वर में बोलो साहस की जय॥

-माया वर्मा


*समाप्त*


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