भोजन के अनुसार मन के संस्कार(Kahani)

August 1972

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पूर्णिया श्रावक को अपने जीवन में अनेक बार सपत्नीक भूखा रहना पड़ा। वह अभावग्रस्त रह सकते थे पर अपनी मानसिक शान्ति किसी भी शर्त पर खोने को तैयार न थे। जब तक वह अपने घर आये अतिथि को भोजन न करा देते स्वयं न करते थे।

एक दिन की बात। सुबह का समय। पूर्णिया स्वाध्याय में रत थे। पर बीच-बीच में स्वाध्याय का क्रम टूट जाता, मन उचट जाता, विचार शृंखला टूट जाती, उसे नये सिरे से जोड़ते और फिर पढ़ना शुरू करते। प्रयत्न करने पर भी मन में स्थिरता नहीं आ रही थी। स्वाध्याय का निर्धारित समय पूर्ण हो गया और अपने आसान से उठ बैठे।

पत्नी ने उनकी मुख मुद्रा पर बनती बिगड़ती रेखाओं को देखा। समझ गई आज कोई बात आवश्यक है। ऐसा उतार-चढ़ाव उसने कभी देखा न था। शायद किसी चिन्ता ने आ दबाया हो पूछ बैठी ‘आज क्या स्वास्थ्य ठीक नहीं’ शरीर तो ठीक जान पड़ता है पर मन की अस्वस्थता ने एकाग्रता आने ही न दी। मानसिक घबराहट का कारण जानने पर भी समझ में नहीं आ रहा क्या बात है? आज अपने घर में अनीति से अर्जित की गई कोई वस्तु तो नहीं आ गई। क्योंकि भोजन के अनुसार ही मन के संस्कार बनते बिगड़ते रहते हैं। ध्यान आ गया। दूसरे ही क्षण बोली क्षमा कीजिए आज भूल हो गई मैं पड़ौसी के यहाँ चूल्हा जलाने के लिये आग लेने गई। कंडा अपने साथ ले नहीं गई थी। उसकी के कंडे पर आग ले आई थी और जल्दी-जल्दी में देना भूल गई।

पैसे दो पैसे की चीज ने पूर्णिया के विचारों में कैसा गतिरोध पैदा कर दिया उन्हें अपनी मानसिक अस्वस्थता का कारण मालूम हो गया उन्होंने एक कंडा पड़ोसी के यहाँ वापिस भेज दिया। जो अनीति के उपार्जन से अपना और अपने परिवार का पालन करते हैं, उनकी स्थिति कैसी होगी, इसका अनुमान आप लगा सकते हैं।


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