शक्ति सागर की प्रचण्ड लहरें-ब्रह्माण्ड किरणें

August 1972

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हमारे ज्ञान का 83 प्रतिशत भाग नेत्रों के माध्यम से आकर मस्तिष्क को प्रभावित करता है। इस दृष्टि दर्शन का माध्यम है- प्रकाश। प्रकाश के आधार पर ही नेत्र देख पाते हैं। नेत्र स्वस्थ होते हुए भी -प्रकाश के अभाव में कुछ देख नहीं सकते। अँधेरे में उनकी क्षमता कुण्ठित हो जाती है। साथ ही ज्ञान का द्वार भी बन्द हो जाता है। अध्यात्म परिभाषा में ज्ञान और प्रकाश एक ही अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। प्रकाश दर्शन का जहाँ भी तात्विक विवेचना में उल्लेख हुआ होगा वहाँ रोशनी नहीं वरन् ज्ञान गरिमा की ही चर्चा रही होगी।

जैसे-जैसे हमारे ज्ञान का विस्तार हो रहा है उसी प्रकार भौतिक प्रकाश की विशालता के भी परत खुलते चले जा रहे हैं। हमारे नेत्र सात रंग की प्रख्यात प्रकाश किरणों को ही देख पाते हैं पर अब विदित हो चला है कि नेत्रों की पकड़ से बाहर भी उसकी विशालता दृश्यमान ज्योति की तुलना में अत्यधिक विस्तृत है। ब्रह्माण्ड किरणें, गामा किरणें, एक्स किरणें, परा बैंगनी प्रकाश, ऊष्मा तरंगें, रेडियो तरंगें, प्रकाश परिवार के अंतर्गत ही आती हैं।

इन सब में शक्तिशाली और अद्भुत हैं-ब्रह्माण्ड किरणें। अनन्त आकाश से विद्युत चुम्बकीय विकिरणों की इस धरती पर निरन्तर वैसी ही वर्षा होती रहती है जैसे वर्षा ऋतु में बादलों से पानी की या दिन में सूर्य से ऊष्मा की वर्षा होती है। कुछ समय पहले गामा किरणें शक्ति की दृष्टि से अग्रणी मानी जाती थीं पर अब विज्ञान जगत का ध्यान ‘ब्रह्माण्ड किरणों’ पर केन्द्रित है। शक्ति स्रोत के रूप में उन्हें ही अब सर्वोपरि माना जाता है। इन इन्द्रियातीत किरणों को विज्ञान की भाषा में कॉस्मिक रेज कहते हैं।

धरती से 30 किलोमीटर ऊपर जाने पर वायु-मण्डल में कुछ विशिष्ट परमाणुओं की वर्षा होती हुई अनुभव में आती है। अन्वेषण बताता है कि ये कण परमाणु नहीं वरन् उनके ‘नंगे नाभिक’ हैं। परमाणु तो एक सौर परिवार की तरह हैं जिसके मध्य में नाभिक रहता है और चारों और परिक्रमा करने वाले इलेक्ट्रोन गतिशील रहते हैं। किन्तु ब्रह्माण्ड विकिरण में इलेक्ट्रॉनों से रहित नंगे नाभिक ही होते हैं, इनमें से कम शक्ति वाले तो पृथ्वी की चुम्बकीय शक्ति से खिंचकर ध्रुवीय क्षेत्रों की ओर चले जाते हैं और शेष शक्तिशाली कण पृथ्वी के वायुमण्डल में प्रवेश करते हैं। तब वायुमण्डल के परमाणु नाभिकों और ब्रह्माण्ड किरण नाभिकों में टक्कर होती है। इस संगम समन्वय से नई जाति के कणों का जन्म होता है। इन्हें मेसोन, हाईपरोन, ऋण न्यूक्तियोन, आदि नामों से जाना जाता है। इतने पर भी इन ब्रह्माण्ड किरणों का अस्तित्व समाप्त नहीं होता ये वायु नाभिकों से टकराती, नये नाभिकों को जन्म देती हुई पृथ्वी तल तक चली आती हैं। हाँ उनका वह रूप नहीं रहता जो वायुमण्डल में प्रवेश करने से पूर्व था। यहाँ वे बहुत कुछ बदली हुई स्थिति में होती हैं। पृथ्वी पर अब तक 30 से भी अधिक परमाणु तत्वों की खोज की जा चुकी है। इन्हें विनिर्मित, विकसित और गतिशील बनाने में जिस सिक्रोट्रोन तत्व को श्रेय है वह ब्रह्माण्ड किरणों की ही प्रतिकृति है। इस एक शब्द में अनन्त शक्ति का उद्गम कहना चाहिए। जेनेवा में स्थापित प्रोट्रॉन-सिक्रोट्रोन 28 अरब इलेक्ट्रोन वाल्ट शक्ति के ‘बीम’ पैदा कर सकता है। ब्रह्माण्ड विकिरण के कुछ कण तो इससे भी 10 लाख गुने अधिक शक्तिशाली हैं।

यह ब्रह्माण्ड किरणें कहाँ से आती हैं इनका उद्गम स्रोत कहाँ है? इसका अन्वेषण करते हुए यह पता लगा है कि इस निखिल ब्रह्माण्ड में संव्याप्त कोटि-कोटि तारागणों में कुछ बूढ़े होकर मरते रहते हैं। और उनके मरण से नये तारकों का जन्म होता है। यह नये तारे जब अस्तित्व में आते हैं तब उनकी उम्र जिस परिधि में बिखरती है वहाँ उसे ब्रह्माण्ड किरणों के विकिरण के रूप में अनुभव किया जाता है। वृद्ध तारकों के मरण अवसर पर अति उच्च तापमान के कारण हीलियम, हाइड्रोजन आदि तत्व के ज्वलन प्रक्रिया से भयंकर विस्फोट होता है वह तारा टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर जाता है इस विस्फोट की आभा लगभग एक महीने तक आकाश में दृश्यमान रहती है। यह विस्फोट जन्य पदार्थ नये ढंग से एक नये तारे के रूप में प्रकट होता है- इसे विज्ञानी-सुपर नोवा-कहते हैं। यह अभिनव तारक ही ब्रह्माण्ड किरणों का उद्गम स्रोत होता है। वर्तमान अभिनव तारक का नामकरण ‘क्रैव’ नेवुला के नाम से प्रख्यात है। तारों की मरण-जन्म प्रक्रिया प्रायः 300 वर्षों में एकबार देखने की मिलती है। वर्तमान अभिनव तारक का ज्योति पुंज हमसे लगभग 3000 प्रकाश वर्ष दूर है। इसका व्यास 5 प्रकाश वर्ष है।

एक सैकिण्ड में प्रकाश की गति 186000 मील है। एक वर्ष में प्रकाश जितनी दूरी चल सकता है उसे प्रकाश वर्ष कहते हैं। इस गणना के आधार पर क्रैव नेवला नाम नवीन तारे की दूरी और परिधि का आश्चर्यजनक विस्तार कल्पना क्षेत्र में बिठाया जा सकता है।

अपनी आकाश गंगा में मात्र तारे ही भरे नहीं है उसके मध्याकाश में विरल गैर तथा धूलि से बने हुए ऐसे विशालकाय बादल भी हैं जो निरन्तर विचरण करते रहते हैं। ‘क्रैव नेवुला’ से निकली हुई ब्रह्माण्ड किरणें कुछ तो सीधी पृथ्वी पर आती हैं कुछ इन बादलों से टकरा कर बिखर जाती हैं और उनका धरती पर अवतरण सभी दिशाओं में होने लगता है।

धरती के विभिन्न प्रयोजनों में संलग्न-विभिन्न प्रक्रियाओं को सम्पन्न करने में तत्पर-महाशक्ति, धरती की अपनी उपज नहीं है वह अन्यत्र से आती है। धरती उसका उपयोग भर करती है। उपयोग भी इतना कम जिसे पर्वत की तुलना में राई जितना समझा जा सके। शेष शक्ति तो ऐसे ही बिखरती, अस्त-व्यस्त होती हुई, फिर किसी अज्ञात दिशा में ही चली जाती है।

शक्ति की तनिक सी उपलब्धि होने पर हम मदोन्मत्त हो जाते हैं। अच्छा स्वास्थ्य, चमकता सा रंग, रूप, तेज मस्तिष्क, मुट्ठी भर पैसा, तनिक सी सत्ता प्रशंसा पाकर हम अहंकार में इठे-इठे फिरते हैं और समझते हैं न जाने क्या पा लिया और क्या बन गये। यह अहं वृति अपने आपको और विराट् विश्व के स्वरूप को न जानने के कारण है।

शक्ति के उद्गम पर यदि हम विचार करें तो पृथ्वी की समस्त हलचलों को प्रेरित करने वाली अन्तरिक्ष से अवतरित होने वाली ऊष्मा पर ध्यान जाता है। प्रकाश की महत्ता को समझने का प्रयत्न करते हुए उससे भी बड़ी शक्तिधारा सामने आ जाती है। ब्रह्माण्ड किरणें कितनी अद्भुत, कितनी भयंकर और कितनी उग्र हैं, इसकी थोड़ी सी झाँकी मिलते ही लगता है इस धरती को घेरे हुए महाशक्ति का समुद्र लहरा रहा है और उसमें हम मानव प्राणी मच्छरों की तरह अपना जीवनयापन कर रहे हैं।

शक्तिमान की महाशक्ति की तनिक सी झाँकी ब्रह्माण्ड किरणों में होती है। उनकी भी प्रेरक दूसरी सत्ता मौजूद है। धरती उसी शक्ति के हाथों का एक नन्हा सा खिलौना है और हम सब हैं उस खिलौने से चिपके हुए रजकण। अपनी तुच्छ उपलब्धियों पर अहंकार करना वस्तुतः शक्ति के विराट स्वरूप को न समझने के कारण ही होता है। यथार्थता को यदि समझ सकें तो अपने नगण्य से अस्तित्व को समझें और विनयावनत होकर रहें।


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