ईश्वर की सर्वोत्कृष्ट कलाकृति असम्मानित न हो

August 1972

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

कोई प्रतिष्ठित मूर्तिकार इस बात को ध्यान में रखकर मूर्ति बनाता है कि उसकी यह कृति सराही जाय और उसके निर्माता को, कलाकारिता को सम्मान मिले। अच्छे चित्रकार अपनी प्रतिष्ठा का भी ध्यान रखते हैं और जो चित्र बनाते हैं अपने सम्मान को भी जुड़ा रखते हैं। प्रत्येक कलाकार अपनी कला-कृतियों में अपनी गरिमा का ध्यान रखता है। यदि वह भोंड़ी या भद्दी होती है तो उस कृति का ही तिरस्कार उपहास नहीं होता वरन् उसके सृजेता कलाकार का भी गौरव गिरता है।

ईश्वर की सर्वोत्तम कृति मनुष्य है। इसे बनाने तराशने में उसने अपनी कलाकारिता का अन्त कर दिया है। शरीर के एक-एक पुर्जे की रचना और कार्यशैली पर विचार करते हैं तो विदित होता है कि संसार के समस्त वैज्ञानिक मिलकर ईश्वर निर्मित किसी एक अवयव की सही प्रतिकृति नहीं बना सकते। समस्त शरीर की संरचना तो एक जादू के महल की तरह है।

मन का -मस्तिष्क का तो कहना ही क्या? गणक कंप्यूटर पर आश्चर्य किया जाता है पर विविध प्रयोजनों के लिए बने हुए उत्कृष्टतम लाखों कम्प्यूटर मिलकर भी मस्तिष्कीय चेतना की तुलना नहीं कर सकते। मन की, चित्त की-बुद्धि की क्षमता का तो कहना ही क्या? संसार में दीखने वाला समस्त मानवीय कर्तृत्व आश्चर्य जैसा लगता है। मनुष्य के उद्भूत से पूर्व का संसार और आधुनिक संसार की तुलना करते हैं तो इस दुनिया का अदभ्य निर्माण हुआ प्रतीत होता है। मनुष्य के हाथ में जितने साधन प्रस्तुत हैं उन्हें देखकर अचम्भा होता है। भविष्य की प्रगति संभावनाएं और भी अधिक हैं। पर यह सब तत्वतः हैं क्या? मानवीय बुद्धि की एक क्यारी में उगे हुए पुष्पों की एक फसल ही इसे कह सकते हैं। समग्र बुद्धि की-सर्वांगीण उपलब्धियाँ यदि कभी एकत्रित की जा सकीं तो इस धरती पर स्वर्ग निछावर किया जा सकेगा और मनुष्य का अभिवन्दन देवता करेंगे।

यह शारीरिक और बौद्धिक क्षमता की बात हुई। अभी भावना क्षेत्र की सूक्ष्म दिव्यता की बात शेष है भावना उभार-जब प्रेम और आत्मीयता के रूप में प्रस्फुटित होता है तो प्रतीत होता है अमृत स्वर्गलोक में नहीं मानवीय अन्तःकरण में विद्यमान है। तात्विक प्रेम की गंगा जिस उद्गम से उमड़ती है वह स्थान शिव के शीर्ष जैसा पवित्र और महान बन जाता है। प्रेमी स्वयं कितना पाता है- और प्रेमपात्र को कितना देता है इसका लेखा-जोखा साँसारिक गणित से सम्भव नहीं हो सकता। जिसे प्रेम नहीं मिला उसे इस संसार से खाली हाथ जाना पड़ा। जिसे प्रेम मिल गया उसे तथाकथित अभावग्रस्त जीवन में भी हुलास-उल्लास बिखरा दिखाई पड़ेगा। जो प्रेम दे सका है उसका तो कहना ही क्या-उससे बढ़कर दानी और कौन हो सकता है। जीवन रस से बढ़कर और किसी के पास क्या हो सकता है? अन्तःकरण की उत्कृष्टता का सार तत्व प्रेम है। यह जहाँ बनता है वहाँ इत्र संस्थान जैसा सुगन्धित, हिमि शिखर जैसा धवल, शीतल पाया जायेगा। उस अनुदान की वर्षा वह जिस पर करता है उसे मृतक से जीवित कर देता है। प्रेम का आदान-प्रदान कर सकने वाला अन्तःकरण कितना दिव्य और अलौकिक है इसकी चर्चा शब्दों में कैसे की जाय?

सूक्ष्म चेतना का जो ईश्वरीय अनुदान मनुष्य को मिला है उसकी थोड़ी सी झाँकी कभी-कभी योगी तपस्वी आत्म-ज्ञानी करते हैं। ब्रह्माण्ड की समस्त सत्ता और महत्ता बीज रूप में मनुष्य के भीतर विद्यमान है। इसे विकसित प्रकाशित भर करने की चेष्टा, साधना विज्ञान करता है। भौतिक सिद्धियों और दिव्य विभूतियों का इतना बड़ा भण्डागार मानवीय चेतना में सन्निहित है कि उसे विकसित करते चलने पर ईश्वरीय सृजन के इस विराट ब्रह्माण्ड के भीतर जो कुछ है उस सबके उपयोग और उपभोग की सामर्थ्य प्राप्त की जा सकती है। इतना ही नहीं जीव समग्र ब्रह्म बन सकता है।

कोई मूर्ति-मूर्तिकार नहीं बन सकती। कोई चित्र-चित्रकार नहीं बन सकता। कोई पुत्र पिता का स्थापनापन्न नहीं कहलाता। पर मनुष्य को यह सुविधा प्राप्त है कि वह यदि सीधे मार्ग पर चले तो ईश्वर भक्त ही नहीं वह साक्षात् ईश्वर भी बन सकता है। अपने दर्पण में समस्त सृष्टि के दर्शन कर सकता है और अपनी आत्मा में सबको प्रतिष्ठित करके उसके साथ क्रीड़ा-कल्लोल कर सकता है। मनुष्य की संभावनाएं असीम हैं। जितना असीम परमात्मा है उतना ही महान उसका पुत्र- आत्मा भी है।

मूर्तिकार ने इस मूर्ति को बनाने में अपनी कला का अन्त कर दिया है। ईश्वर कितना महान और अद्भुत है, उसे देखना, जानना हो तो उसकी कलाकृति मानव प्रतिमा को बारीकी से देखा जाय। उसके कण-कण से जो सुन्दरता-गरिमा टपकती है वह अपने आपमें अनुपम है। ऐसा सर्वांगपूर्ण सृजन इस विराट् ब्रह्माण्ड में अन्यत्र कहीं भी ढूँढ़े नहीं मिल सकता।

ईश्वर का अरमान पूरा हो गया और क्रिया-कलाप सम्पन्न। अब हमारा कर्त्तव्य आरम्भ होता है कि उस कर्त्तृत्व को कलुषित और कलंकित न करें। सृष्टा की गरिमा को गिरने न दें और उन अरमानों को चोट न पहुँचायें जिन्हें लेकर सृष्टा ने इतनी तीव्र आकाँक्षा की और सृजन का कष्ट उठाया।

हमें चाहिए कि अपने स्वाभिमान और ईश्वर के सम्मान को समझें और अपना स्तर वैसा रखें जिससे आत्मा और परमात्मा का गौरव गिरने न पाये। निष्कृष्ट गतिविधियाँ अपनाकर हम अपने को कलंकित नहीं करते वरन् ईश्वर की गरिमा को भी गिराते हैं। हमें प्रतिष्ठित होकर जीना चाहिए। अपनी और अपने सृजेता की प्रतिष्ठा को नष्ट न होने देना चाहिए।

अपनी प्रतिकृति-मनुष्य के रूप में बनाने का-उसमें अपनी समस्त कला को समाविष्ट करने का ईश्वरीय प्रयोजन यह रहा है कि उसे ऐसा साथी और सहायक प्राप्त हो सके जो उसकी सृष्टि को सुरम्य एवं सुविकसित बनाने में उसका हाथ बँटाये।

सहायकों की इच्छा करना उचित भी है और स्वाभाविक भी। सरकारी तंत्र, अधिकारी कर्मचारियों की सहायता से चलता है। अकेला शासक सुविस्तृत शासन तंत्र की व्यवस्था कैसे चलाये? कल कारखानों में एकाकी मालिक सब काम कहाँ करता है। कारीगरों और श्रमिकों की सहायता से ही उस संस्थान की गतिविधियाँ चलती हैं। ईश्वर के इतने बड़े राज्य में असंख्य प्रकार के क्रियाकलापों के संचालन में यदि साथी सहायक की, अधिकारी कर्मचारी की आवश्यकता समझी गई हो तो यह उसका औचित्य भी है।

ईश्वर की सर्वोत्तम कलाकृति दर्शाने भर के लिए मनुष्य का सृजन नहीं हुआ वरन् उसे इसलिए भी साधन सम्पन्न सत्ता के रूप में विनिर्मित किया गया है कि वह इस सृष्टि को सुरभित, सुव्यवस्थित, सुन्दर और समुन्नत बनाने में अपना बढ़-चढ़कर योगदान प्रस्तुत करे। स्वयं इस तरह रहे जिससे दूसरों को अपने चलने का अनुकरणीय दिशा ज्ञान मिलता रहे। उसका कर्तृत्व ऐसा हो जिससे अव्यवस्था को व्यवस्था में, उच्छृंखलता को शालीनता में, निकृष्टता को उत्कृष्टता में, कुरूपता को सुन्दरता में परिणत किया जा सकना सम्भव हो सके।

हम ईश्वर के अरमान, श्रम और कौशल को निष्फल न होने दें। ऐसा जीवन जियें जो इस अनुपम सृजन की पग-पग पर सार्थकता सिद्ध कर सके।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118