पाप और ईश्वर के अतिरिक्त अन्य किसी से मत डरिये

August 1972

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संकट भयंकर तब तक लगता है जब तक उसके साथ मुठभेड़ नहीं होती। जब उसके साथ गुंथ जाया जाता है और मानसिक सन्तुलन बिगड़ने नहीं दिया जाता, तो प्रतीत होता है कि जितना सोचा गया था- उससे आधी चौथाई भी उसकी वास्तविक भयानकता नहीं थी। संकटों के साथ गुंथने का जैसे-जैसे अभ्यास होता जाता है, वैसे-वैसे वे स्वाभाविक दैनिक कार्यों की तरह सरल प्रतीत होने लगते हैं।

अपने लिये साँप और शेर बहुत भयंकर होते हैं पर बहुत से लोगों का धन्धा ही उन्हें पकड़ना मारना है। सपेरे रोज ही काले विषधर नाग पकड़ते हैं, शिकारी आये दिन शेर, बाघ का शिकार करते हैं उन्हें वे जरा भी डरावने नहीं लगते वरन् उन्हें ढूंढ़ते रहते हैं और मिल जाने पर प्रसन्न होते हैं। जबकि अजनबी व्यक्ति को साँप, शेर की तस्वीर देखते और चर्चा सुनने भर से पसीना छूटता है।

अँधेरे से घुसने में डर लगता है। सुनसान में प्रवेश करते हुए पैर काँपते हैं। मन तरह-तरह की आशंकाएं उठती है कि उस अँधेरे-सुनसान में न जाने क्या विपत्ति होगी। शेर, साँप, बिच्छु, भूत आदि की कितनी आशंकाएँ सामने आती हैं और दिल धड़कने लगता है। पर जब उसमें निधड़क प्रवेश किया जाता है-दीपक लेकर देखा जाता है तो प्रतीत होता है कि वहाँ डरने जैसा कुछ भी नहीं था। मन की दुर्बलता ही है जो जरा सा आधार मिलते ही तिल का ताड़ बनाती है। काल्पनिक भय गढ़ कर उन्हें इस तरह विचित्र करती है मानो प्राणघाती सर्वनाशी संकट आ गया। अब बचना कठिन है। जबकि वस्तुतः जरा सा कारण ही वहाँ रहा होता है और वह भी इतना छोटा कि उसके साथ आसानी से निपटा जा सके।

दुनिया में लाखों-करोड़ों लोग अँधेरे में रहते और आते-जाते हैं। वन्य प्रदेशों में यदाकदा ही दीपक का प्रयोग होता है। किसान खेतों पर सोते हैं और रात को रखवाली करते हैं। छोटी झोपड़ियाँ बनाकर सघन जंगलों में लोग परिवारों समेत रहते हैं। धनी लोग सघन बस्ती से हटकर खुले बँगलों में रहते है। चोर डाकू, साँप, बिच्छू शेर, बाघ, भूत पलीत कहाँ किस को खाते हैं। यदाकदा तो दुर्घटनाएं दिनदहाड़े बीच बाजार में भी हो सकती हैं। संकट के वास्तविक अवसर कम ही आते हैं। अधिकतर तो लोग काल्पनिक संकट गढ़ते हैं और अपने बनाये उस खिलौने को देखकर डरते मरते रहते हैं।

भय वस्तुतः कायरता की प्रतिकृति है। अपना मुँह जैसा भी होगा वैसा ही दर्पण दीखेगा। आँखें पर पीले काँच का चश्मा पहन लिया जाय तो हर चीज पीली दिखाई देगी। कायर मनुष्य की आन्तरिक दुर्बलता संसार रूपी दर्पण में विपत्ति बनकर दीखती है। संकट का सामना करने की -उससे उलझने, निपटने की क्षमता अपने में नहीं है, यह मान लेने के बाद ही डर आरम्भ होता है जिसे यह भरोसा है कि कठिन अवसर आवेंगे तो सूझबूझ के साथ उनका मुकाबला करेंगे। उन्हें हटाने के लिये जूझेंगे। इसके लिये आवश्यक समझ और बल अपने पास हैं। मित्र और सहायक भी काम आयेंगे और ईश्वर साथ देगा। इस प्रकार की हिम्मत यदि अपने में मौजूद हो तो काल्पनिक डरों से छुटकारा मिल पाता है और तीन चौथाई मन को बोझ हलका हो जाता है। वास्तविक कारण एक चौथाई होते हैं सो उनके साथ अपने शौर्य को बढ़ाने का व्यायाम समझ कर लड़ा जा सकता है। तैरना, कूदना, मोटर चलाना, व्यायाम प्रतियोगिता, वन पर्वत की यात्रा, यह सभी जोखिम भरे काम हैं। इनमें थोड़ी सी चूक कठिनाई खड़ी कर सकती है पर उस आशंका के कारण कौन उन साहसिक कार्यों का आनन्द छोड़ता है। डर से बचने के उपाय सोचते रहने पर भी उनसे बचे ही रहेंगे, इस बात का कोई निश्चय नहीं। बीमारी कौन चाहता है? मौत किसे सुहाती है पर जब आने की घड़ी आ पहुँचती है तो बचने की सारी तरकीबें बेकार चली जाती हैं। निःशंक होकर रहना और जब जो संकट आवेगा उससे निपट लिया जायेगा ऐसी हिम्मत रखना, बस संसार में चैन से रहने का यही तरीका है।

भय एक प्रकार की अकड़न है। अकड़न की बीमारी सारे शरीर को जकड़ देती है। अंग सीधे ही नहीं होते, चलना-उठना कठिन हो जाता है। रक्त ठण्डा पड़ जाता है और दिमाग सोचना बन्द कर देता है। चाहने पर भी शरीर कुछ काम नहीं करता। लकवा गठिया जैसे रोग ऐसे ही होते हैं जो जीवित मनुष्य को मृतक जैसा बना देते हैं। उन्हीं में से एक रोग है-भय। डर का अर्थ है-पुरुषार्थ की शक्ति रहते हुए भी उसका कुण्ठित हो जाना। सिंह को देखकर हिरन चौकड़ी भरना भूल जाते हैं- खड़े हो जाते हैं और बेमौत मरते हैं। यदि उनमें हिम्मत बनी रहती और छलाँग भरते, तो प्राणिशास्त्रियों के अनुसार हिरन शेर की अपेक्षा अधिक दौड़ सकता है और उसकी पकड़ से बच सकता है। पर डर का क्या किया जाय। हिम्मत हार जाने पर तो मौत के मुँह में जाने के अलावा और कुछ रास्ता बनता नहीं।

कथा है कि एकबार यमराज ने महामारी को पृथ्वी पर भेजा और पाँच हजार मनुष्य मार लाने के लिये आदेश किया। बीमारी गई और अपना काम पूरा करके लौट आई। मृतक गिने गये तो वे पंद्रह हजार थे। यमराज ने डाँटा और पूछा-आदेश से तिगुने मृतक क्यों? महामारी ने गम्भीरतापूर्वक कहा-उसने केवल पाँच हजार ही मारे हैं। शेष तो डर के मारे खुद ही मर गये हैं।

मानसिक दुर्बलता के अतिरिक्त डर का एक और कारण है- अनैतिकता। जिसकी अन्तरात्मा कलुषित और पाप कर्म से लिप्त है वह कभी चैन की नींद न सो सकेगा। उसे दूसरे की और से तरह-तरह की आशंकाएं रहेंगी। उन्हें उनसे धोखा होने का -बदला लेने का- फँसा देने का डर बना ही रहेगा। पोल खुल जाने पर बदनामी फैलेगी और लोग सतर्क होकर उसके जाल में फँसने तथा साथ देने से अलग हो जायेंगे। निन्दा और असहयोग की स्थिति में उसका भविष्य ही अन्धकारमय हो जायेगा। इस डर से उसका मन सदा आशंकित रहता है। पाप कर्म के फलस्वरूप, समाज का दण्ड, राज दण्ड तथा ईश्वरीय दण्ड मिलते हैं तीनों इकट्ठे होकर या अलग-अलग से वे कभी न कभी मिलकर ही रहेंगे इस भय से भीतर ही भीतर बड़ी बेचैनी रहती है। इस आत्मदेव की पीड़ा उसे निरन्तर टोंचती रहती है बाहर वाले दण्ड मिलने में तो देर सवेर भी हो सकती है पर आत्मदण्ड को कुमार्ग पर कदम धरते ही मिलना आरम्भ हो जाता है और वह निरन्तर दुःख देता रहता है।

बेईमान और झूठा मनुष्य आंखें मिलाकर दूसरों को नहीं देख सकता और न जी खोलकर बात करने की हिम्मत पड़ती है। बनावटी उथली-उखड़ी बाते करते हुए उसका ओछापन प्रत्यक्ष प्रकट होता रहता है और उसकी मुखाकृति, चेष्टा, भावभंगिमा, गतिविधियाँ वास्तविकता प्रकट करती रहती हैं। अपना आपा ही-चुगली करता है और मूक वाणी से यह घोषित करता रहता है- कि यहाँ धोखा ही धोखा है।

कर्जदार अकसर अनैतिक लोग ही होते हैं। आमदनी से अधिक खर्च करना-चोरी, उठाईगीरी की तरह सर्वथा अनैतिक है। अपनी हैसियत, औकात, आमदनी से बढ़कर ठाट-बाट बनाना, दूसरों को ठगने जैसी कुचेष्टा ही है। ऐसे फिजूलखर्च लोग कर्जदार हो जाते हैं, चुका पाते नहीं मित्रों के बीच न उनका विश्वास रह जाता है न सम्मान। जिनका पैसा चाहिए उनसे आंखें चुराते हैं और नये शिकार तलाश करते हैं। ऐसे लोग पग-पग पर डरते रहते हैं कि कर्जदार उनकी इज्जत खराब न कर दें।

सचमुच किसी आकस्मिक मुसीबत में फँस जाने वाला व्यक्ति मित्रों की सहानुभूति का पात्र होता है। वस्तुस्थिति समझ कर लोग उसका सम्मान कम नहीं करते। पर जो फिजूल खर्ची की अनैतिकता अपना कर कर्जदार बना है उसे हर जगह शर्मिन्दगी और लानत का ही सामना करना पड़ेगा। अनैतिकता अपना कर कर्जदार बना है उसे हर जगह शर्मिन्दगी और लानत का ही सामना करना पड़ेगा। अनैतिकता का हर कदम डराने वाला होता है। चोर और व्यभिचारी, बेईमान और अनाचारी व्यक्ति पग-पग पर अपने आस-पास संकट मँडराता देखते हैं। हर किसी को आशंका भरी दृष्टि से देखते हैं कि कहीं किसी को उसके कपट जाल का पता न चल गया हो और कोई उसका भंडाफोड़ न कर दे। यह आशंका अपने आप में इतनी डरावनी है कि मिलने वाले दण्ड की अपेक्षा वह पहले ही मानसिक श्रेष्ठता, स्वभाव और सद्गुणों का नाश कर चुकी होती है।

डर का एक बड़ा करण अज्ञान भी है। आदिम काल में मनुष्य को सूर्य ग्रहण, बिजली की कड़क, पुच्छल तारे आदि के बारे में कुछ पता न था। वह इनसे डरता था और देवता समझ कर उनके कोप से बचने के लिये तरह तरह के पूजन बलिदान करता था। पीछे जब वास्तविकता समझ में आ गई तो वह डर सहज ही चला गया। भूत पलीतों का डर अब धीरे-धीरे समाप्त होता चला जाता है।

ग्रह दशा-जन्म कुण्डली जैसी फलित ज्योतिष की मान्यताएं भी लगभग ऐसी ही हैं। कभी सोचा जाता था कि आसमान में रहने वाले ग्रह-नक्षत्र मनुष्यों पर कोप अनुग्रह करते हैं इसी से उसे सुखः दुःख मिलते हैं। अब यह प्रकट हो गया है कि यह आकाश में स्थित पिण्ड निर्जीव हैं बहुत दूर हैं और व्यक्तिगत रूप से उनका किसी को दुख सुख पहुँचा सकना असम्भव है। यह तथ्य समझ में आने पर लोगों ने ग्रह नक्षत्रों से कल्पित देवी देवताओं से डरना छोड़ दिया है। ज्ञान की वृद्धि के साथ-साथ अनेक प्रकार के डर स्वतः ही समाप्त हो जाते हैं।

जिसका भय करना चाहिए उसका नहीं किया जाता और जिनका डर करने की कतई जरूरत नहीं, उनसे डरते रहते हैं। पाप से डरना चाहिए, कर्मफल से डरना चाहिए और ईश्वर के न्याय से। पर इनसे कौन डरता है। चोरी करते हुए, भोले लोगों को ठगते हुए, छल प्रपंच रचते हुए, नशेबाजी, व्यभिचार, बेईमानी, असत्य भाषण करते हुए कौन डरता है? डरते हैं मिट्टी के पुतले मनुष्य से -लोहे के टुकड़ों से बने हथियारों से काल्पनिक भूत पलीतों से और दीन-दुर्बल, कुकर्मी आतंकवादियों से - हमें आपने इस अज्ञान को समझना चाहिए। मनुष्य की गरिमा को समझना चाहिए और उन अकिंचन व्यक्तियों, वस्तुओं और परिस्थितियों से-डरने से इन्कार कर देना चाहिए जो वस्तुतः तुच्छ एवं असमर्थ हैं। डरना ही हो तो ईश्वर की दण्ड व्यवस्था और दुष्प्रवृत्तियों से डरना चाहिए दुःख तो हमें इन्हीं के कारण मिल सकता है।


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