बुद्धि, कर्म व साहस की धनी प्रतिभायें

मातृभूमि के बलिदानी सोहनलाल पाठक

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फांसी के फन्दे पर लटकाने से पहले जेल अधिकारी ने कैदी से पूछा ‘‘आप की अन्तिम इच्छा क्या है?’’

कैदी मुस्कराया उसने कहा मैं चाहता हूं कि मुझे शीघ्र फांसी दी जाय ताकि मेरा यह जन्म समाप्त हो और दूसरा जन्म लेकर भारत को स्वतन्त्र कराने के प्रयत्न में दूसरी बार फांसी के फंदे को पुनः चूम सकूं।

यह कैदी कोई साधारण कैदी न था। किसी चोरी, डकैती या कत्ल करने के अपराध में जेल के सींखचों में बन्द न किया गया था। वरन् यह देश भक्त था और देश को स्वतन्त्रता दिलाने का प्रयत्न ही इसका अपराध था। नाम था सोहनलाल पाठक।

मांडले की जेल। 20 फरवरी 1916 की एक सुबह। अमर शहीद सोहनलाल पाठक को फांसी के तख्ते पर चढ़ाया गया। जल्लाद उस निरपराधी की जीवन लीला समाप्त होते देख आंसू बहा रहे थे और पाठक अपने देश पर न्यौछावर होने में प्रसन्नता तथा गर्व का अनुभव कर रहे थे। भला जिस देश में ऐसे बहादुर हों उस देश की स्वतन्त्रता को रोक भी कौन सकता था।

सोहनलाल पाठक का जन्म सन् 1883 में हुआ था। परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण स्कूली शिक्षा से शीघ्र ही सम्बन्ध तोड़ना पड़ा और लाहौर के डी.ए.वी. स्कूल में केवल 21 रु. मासिक पर शिक्षक का कार्य करना पड़ा।

इस समय राजनीतिक क्षेत्र में ऐसी घटनाएं घट रही थीं जिनकी उपेक्षा करना पाठक जैसे देश भक्त के लिये सम्भव न था। बंगाल का विभाजन, लाला लाजपत राय और अजीतसिंह जैसे नेताओं की गिरफ्तारी, खुदीराम बोस का बलिदान और मदनलाल ढींगरा द्वारा कर्जन पर गोली चलाना जैसी उनके कानों में पड़तीं और अंग्रेजों द्वारा भारतीयों पर किये गये अत्याचार देखने और सुनने को मिलते तो उनका खून खौलने लगता था।

सन् 1908 में लाला हरदयाल इंग्लैंड से लौटकर लाहौर आये तो युवक पाठक का उनसे सम्पर्क बढ़ने लगा। इसी समय उन्हें एक पुत्र का पिता बनने का अवसर मिला। परिवार के लिये यह प्रसन्नता की ही बात थी पर दूसरे ही क्षण यह समाचार भी सुनने को मिला कि पुत्र को जन्म देकर मां सदैव के लिए संसार से विदा हो गई, और एक सप्ताह बाद वह पुत्र भी भगवान का प्यारा हो गया।

पाठक की उस समय उम्र ही क्या थी। घर वाले तथा मित्रों ने दूसरे विवाह के लिए बहुत जोर दिया पर उन्होंने साफ-साफ कह दिया ईश्वर मुझसे कुछ महत्वपूर्ण कार्यों की आशा करता है इसीलिये तो उसने उत्तरदायित्वों से मुक्त किया है।

उनका लक्ष्य था दूसरे देशों से सहायता प्राप्त करके भारत में क्रांति करवाना और अंग्रेजों को देश छोड़ने के लिये विवश करना। उस समय तक कांग्रेस पार्टी और गांधी जी पूर्ण प्रकाश में भी न आ पाये थे और उनकी गति विधियां देश हित में तेज न हो पाई थीं। उस समय पाठक अपने 6 साथियों को लेकर अमेरिका पहुंचे।

भारतीयों के सहयोग से अमरीका में गदर पार्टी की स्थापना की गई और एक गदर पत्र निकाला गया जिसका उद्देश्य भारतीय स्वतन्त्रता के लिये वातावरण का निर्माण करना था।

सन् 1914 में विश्व युद्ध छिड़ गया। अंग्रेजों ने दो लाख सैनिकों को भारत से बाहर युद्ध के लिए भेजा। इस अवसर का क्रांतिकारी लाभ उठाना चाहते थे। सोहनलाल पाठक वर्मा में क्रांति कराने का प्रयास कर रहे थे उन्होंने वहां के दो हजार सैनिकों को अपने पक्ष में कर लिया। चार दिन तक सिंगापुर में क्रांति की ज्वाला धधकती रही और वहां का शासन सूत्र देशभक्तों के हाथ में रहा।

एक दिन पाठक सैन्य छावनी में कुछ सैनिकों को मार्ग दर्शन दे रहे थे कि तीन हिन्दुस्तानी सैनिकों ने उनको घेर लिया। वह हिन्दुस्तानी सैनिक उनके भाई थे वह अपने देशवासियों से बदला नहीं लेना चाहते थे। वैसे उस समय उनके पास तीन स्वचालित पिस्तौल तथा 287 गोलियां थीं। जरासी देर में वह तीनों सैनिकों को मौत के घाट उतार सकते थे या वर्मा के सैनिकों को ही संकेत करते तो वहीं उनका काम तमाम कर देते, पर एक भारतीय दूसरे भारतीय के प्राणों का ग्राहक बने यह उन्हें स्वीकार न था।

वह बंदी बनाकर मांडले के जेल में भेज दिये गये और एक दिन देश को स्वतन्त्रता दिलाने के प्रयासों में फांसी के तख्ते पर झूल गये।

मातृभूमि के लिये सर्वस्व न्यौछावर करने वाले तथा हंसते-हंसते मौत को गले लगाने वाले ये वीर आत्मा की अनित्यता पर विश्वास करते थे। इसी विश्वास के कारण वे उस काल में अंग्रेजी शासन से लड़े जिस समय कि उनके राज्य में सूर्य तक अस्त नहीं होता था। सत्य में कितनी शक्ति होती है, मनुष्य के विचारों व भावनाओं में कितनी शक्ति होती है इसका ज्वलंत उदाहरण पाठक जी का जीवन है। जो हमें सिखाता है; अन्याय को सहन करना, जो कुछ हो रहा है उसे अनुचित व अस्वाभाविक मानते हुए भी ऐसे चुपचाप बैठना मानव-धर्म नहीं।

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