बुद्धि, कर्म व साहस की धनी प्रतिभायें

श्री कान्त अनन्त राव आपटे—एक सच्चे भारतीय

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चाचा! पास वाली बहनजी ने चिट्ठी रोते-रोते यह दी है। मैं इसे डाक में डाल आऊं? सात वर्षीय बालक ने चाचा श्री कान्त अनन्त राव आपटे से पूछा। उनको रोते हुए चिट्ठी देने की बात समझ में नहीं आयी। उन्होंने चिट्ठी देखी तो माथा ठनका। पता उनके पड़ोसी का था। पत्र लिखने वाली लड़की अपने पिता को मौखिक नहीं कर सकी तथा पत्र में लिखी तो अवश्य यह कोई गूढ़ बात होनी चाहिए। रोते हुए पत्र देने का अर्थ शुभ नहीं हो सकता। उन्होंने लिफाफा फाड़कर पत्र पढ़ा।

‘‘पूज्य पिताजी! कल जब यह पत्र आपको मिलेगा तब तक मैं किसी दूसरी दुनिया में जा चुकी हूंगी। मैंने जो भूल की है उसकी सजा मृत्यु दण्ड ही हो सकती है। आपने मुझे पढ़ने के लिए कॉलेज में भर्ती कराया ताकि मैं अपना जीवन संवार सकूं पर मैंने उसे बिगाड़ लिया। मैंने एक लड़के की चिकनी—चुपड़ी बातों में आकर अपना सर्वस्व उसे सौंप दिया। वह मेरी इस मूर्खता का लाभ उठाकर थोड़े ही दिन में बदल गया। अब मैं आपको मुंह दिखाने योग्य नहीं रही और दिखाऊंगी भी नहीं......

आपटे इससे आगे पढ़ नहीं पाये। उनका हृदय भर आया। स्वार्थ और लोलुपता के इस दानव ने कितनी ही सुकुमार कलियों के भोलेपन का लाभ उठाकर उन्हें कुचल-मसलकर आत्म-हत्या तथा सामाजिक प्रताड़ना का शिकार बनाया है। वासना के पीतल पर प्यार के सोने का मुलम्मा चढ़ाकर जो नर-पशु नारी की उदारता का अनुचित लाभ उठाते हैं उन्हें सबक देने के लिये इस विवेकशील तरुण की चेतना जाग उठी। दोष दोनों का और दण्ड एक को मिले यह न्याय उन्हें स्वीकार न था।

आपटे के चाचा उससे बड़ा स्नेह करते थे। उसने अपने चाचा को यह पत्र दिखाया। चाचा ने इस सम्बन्ध में अपना एक ही सुझाव बताया वह यह था कि कोई युवक इस कन्या से विवाह करने के लिए राजी हो जाय तो उसके प्राण बचाए जा सकते हैं।

इस प्रकार का उदार युवक मिलना कठिन था। कोई तैयार भी हो जाता तो समाज के तथा कथित ठेकेदार उसका जीना हराम कर देते। यह मुसीबतें एक साथ मेल लेने वाली बात थी। ऐसा कोई युवक खोजा जाता तब तक तो उस लड़की का प्राणान्त ही हो जाता। आपटे ने आजीवन अविवाहित रहने का व्रत ले रखा था। आपटे के अंतःकरण से आवाज आयी। किसी के प्राणों की रक्षा के लिये व्रत तोड़ना पड़े तो कोई हानि नहीं। आपटे ने उस कन्या को स्वीकार करली। चाचा के प्रयत्नों से दोनों विवाह सूत्र में बंध गये।

आपटे के पिता पूना के निवासी थे किन्तु पास्टल सुपरिन्टेन्डेंट होने के कारण उन्हें अलग-अलग स्थानों पर अपना जीवन व्यतीत करना पड़ा। जब वे अहमद नगर में थे तब श्रीकान्त का जन्म हुआ। एक स्थान पर नहीं रह पाने के कारण श्री कान्त आपटे की पढ़ाई नियमित नहीं हो सकी। ये बड़ी कठिनाई से मेट्रिक तक पढ़ सके।

स्कूल की पढ़ाई नियमित नहीं होते हुए भी आपटे ने अपने ज्ञान भण्डार को भरने में कमी नहीं रखी। वे भारतीय धर्म शास्त्रों का अध्ययन करते। उनमें लिखी हुई बातों से जब प्रचलित रीति रिवाज तथा मान्यताओं की तुलना करते तो उन्हें जमीन—आसमान का अंतर दृष्टिगोचर होता था। इस स्वाध्याय का यह परिणाम हुआ कि उनके अन्तःकरण में विवेक जाग्रत होने लगा। जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण समाजवादी तथा मानवतावादी होने लगा।

सारे देश में क्रान्तिकारी आंदोलन की धूम मची हुई थी। आपटे के मन में भी देश प्रेम का सागर हिलोरे ले रहा था। वे अपने व्यक्तिगत स्वार्थ में ही बंधे नहीं रह सके। सामाजिक प्रगति के लिये राजनैतिक स्वतन्त्रता एक अनिवार्य आधार होता है। आपटे ने अपने आपको राष्ट्र की सेवा में समर्पित कर दिया। पत्नी के साथ उन्होंने जो विशाल सहृदयता दिखाई थी प्रतिदान में उसने अपने आपको इनके उद्देश्य के लिए समर्पित कर दिया।

आपटे ने एक क्रान्तिकारी दल का संगठन किया। अपने जैसे देश भक्त युवकों को एकत्रित करके उन्होंने पर्याप्त शक्ति संगठित करली थी। भारत के अन्य क्रांति दलों से संपर्क स्थापित करके इन्होंने अंग्रेजों को आतंकित करना प्रारम्भ कर दिया। थाने लूट लेना साधारण बात थी। कोई अंग्रेज भारतीयों के साथ दुर्व्यवहार करता तो उसका बदला यह दल लिये बिना नहीं रहता था। आपटे की पत्नी अपने घर के मोर्चे को सम्भालती थी। उसने इन्हें पूरी तोर देश सेवा के लिए छोड़ दिये थे। आपटे की योजनाएं तथा कार्य पद्धति इतनी सूझ-बूझ की होती थी कि अंग्रेज सरकार इनका पता नहीं लगा पाती थी। आपटे उसके लिए सिर दर्द बन चुके थे। वह किसी भी मूल्य पर इन्हें पकड़ना चाहती थी और उनकी सब चालें नाकामयाब कर देते थे।

पुलिस ने आपटे के घर को आ घेरा। पति की रक्षा के लिए पत्नी दरवाजे पर चट्टान बन कर अड़ गयी। अंग्रेज अफसर ने उसे हटने को कहा पर वह हटी नहीं। क्रुद्ध होकर उसने लाठी चलाने की कहा। लाठी के प्रहार से उस वीर नारी की कलाई टूट गयी पर वह चौखट से हटी नहीं। हार कर पुलिस को गोली चलानी पड़ी। एक दिन आपटे ने उसकी रक्षा की थी आज उस का प्रतिदान उसने अपने प्राण देकर चुका दिया था। इतनी देर में आपटे जी सिपाहियों की आंखों में धूल झोंक कर भाग चुके थे।

आपटे को अपनी पत्नी के दिवंगत होने की सूचना मिली तो वे नारी की इस महानता पर नत मस्तक हो गये। वे नहीं चाहते थे कि विवाह करें पर यदि वे विवाह नहीं करते तो उन्हें यह रूप देखने को कहां से मिलता कि हम अपने अर्धांग को इस प्रकार पददलित किये हुए हैं वह हमारे प्रगति का सोपान सिद्ध हो सकता है, यह हमारी मूर्खता ही तो है।

राष्ट्र और समाज के लिये सारा जीवन अर्पित करने के उद्देश्य से उन्होंने आजीवन अविवाहित रहने का व्रत लिया था। वह व्रत पत्नी की मृत्यु के उपरान्त ज्यों का त्यों चलने लगा। उस देवी ने उन्हें गृहस्थी के झंझट में नहीं पटका था। बाल बच्चा कोई था नहीं। अब उनके सामने एक ही लक्ष्य था लोक सेवा।

गांधी के विचारों की आंधी जब चली तो उसमें अच्छे-अच्छे प्रतिभावान, सम्पदावान उड़ गये। इस विचारधारा से परिचित होकर आपटे को लगा कि जिस पथ की उन्हें प्रतीक्षा थी वह उन्हें मिल गया है। अब उनके मन में कोई विकल्प नहीं रहा। उन्होंने स्वयं को इस आंदोलन का एक अंग बना लिया।

आपटे जी ने धन कमाने को तो जीवन का एक मात्र उद्देश्य समझा नहीं था। विवाह हो जाने पर भी वे इस ओर से उदासीन ही थे। उस देवी ने भी कभी उनसे इस सम्बन्ध में आग्रह नहीं किया। क्रांतिकारी जीवन में कमाई करना संभव भी नहीं था। बाद में अकेले व्यक्ति की थोड़ी सी आवश्यकताएं पूरी हों इतना ही वे कमाते बाकी समय का उपयोग समाज सेवा, देश सेवा में करते थे। इनके पास गांधी जी को देने के लिए न धन था न सम्पदा थी न और कुछ था। इन्होंने जीवन ही गांधी के आदर्शों को समर्पित कर दिया जो धन सम्पदा से कई गुना बहुमूल्य था।

गांधीजी के नेतृत्व में अंग्रेजों से संग्राम हुआ। अंग्रेज हारे भारतवासियों की विजय हुई। गांधीजी ने राजनैतिक स्वाधीनता को ही अपना लक्ष्य नहीं माना था। वे रामराज्य लाना चाहते थे। स्वराज्य मिलते ही इस संग्राम के सैनिकों ने अपने देश प्रेम का मूल्य उगाहना आरम्भ कर दिया। जिसके हाथ जो कुर्सी लगी उसी पर जम कर बैठने लगे। उसी की चिन्ता रहने लगी। थोड़ी सी सफलता को ही सब कुछ मानकर उसी में लीन हो गये। उद्देश्यों को भूल गये। आपटेजी ने अपने उस देश प्रेम को बेचा नहीं उन्होंने बचे कामों में अपने को लगाया।

आपटे जी जानते थे कि भारत गांवों का देश है। गांवों की समृद्धि पर ही सारे देश की समृद्धि है। उन्होंने अपना कर्म क्षेत्र गांवों को बनाया। सच्चा लोक सेवक वह है जो समाज की जड़ को सींचे। भारत के प्रगति प्रासाद की नींव गांवों से भरी जायेगी तभी वह टिक सकेगी। दिल्ली का शासन सूत्र ही सब कुछ नहीं कर सकता। उसकी अपनी महत्ता तो है पर गांवों को प्रगतिशील बनाना भी कम महत्वपूर्ण नहीं वरन् प्राथमिक काम है।

अपने गांव के डेढ़ बीघा अनुपजाऊ जमीन को आपटे जी ने अपनी प्रयोगशाला बनाया। वे कहते हैं कि भारतीय किसान के पास जमीन बहुत कम है। उस कम जमीन पर खेती करके भी सुखी और प्रसन्न रहा जा सकता है। वे उस हल्की कंकड़ पत्थरों वाली जमीन पर अधिकतम फसल उगाते हैं। उसी की उपज से अपना निर्वाह करते हैं।

आपटे जी के तपोमय जीवन के प्रति लोगों के हृदय में बड़ी श्रद्धा है। वे उनके कहने पर धन, खेत सब देने को तत्पर रहते हैं, आग्रह करते हैं, पर वे नहीं लेते। आरम्भ में उन्होंने अपनी इस अनुपजाऊ भूमि पर काम करना आरम्भ किया तो लोगों ने उन्हें पागल व सनकी समझा। जब उस खेत में अन्य अच्छे उपजाऊ खेतों की अपेक्षा दुगुनी फसल होने लगी तो वे ही इनके प्रशंसक बन गये।

आपटे जी विनोबा जी से बहुत प्रभावित हैं। उनकी विनोबा के रचनात्मक कार्यों में बड़ी रुचि है। सादगी, सज्जनता, अपरिग्रह तथा ऋषि परम्परा का जीवन जीने वाले आपटे—जी ने उस क्षेत्र में एक क्रान्ति उपस्थित कर दी है। उन्होंने बीस-बीस फुट जमीन में भी गेहूं बोकर उसमें पर्याप्त अन्न उत्पन्न किया। वे 1951 से इस प्रकार के खेती सम्बन्धी प्रयोग कर रहे हैं।

आपटे जी के तरीके को अपना कर कम से कम भूमि वाला किसान कम से कम साधन होते हुए भी अपना तथा अपने परिवार का पोषण कर सकता है तथा लोक सेवा के लिये समय निकाल सकता है। इस भूमि के टुकड़े पर चार पांच घण्टा परिश्रम करके वे अपनी आवश्यकता की पूर्ति कर लेते हैं। शेष समय वे समाज निर्माण, लोक शिक्षण तथा सेवा में लगाते हैं। उपदेश देने के लिए उनका यह जीवन क्रम ही काफी है वे तो बस सेवा करना सीखे हैं।

आपटे जी खेती नहीं करते पूजा करते हैं। धरती माता की पूजा सेवा करके उससे एक शिशु की तरह अन्न का उपहार पाते हैं। फावड़ा कुदाली, हंसिया, खुरपी, तगारी आदि उनके लिये माला, धूप, दीप, नेवैद्य हैं। यह श्रम देवता की पूजा ही उनके जीवन का आधार है। आपटे जी ने इस आदर्श कृषि परम्परा से उस क्षेत्र के कृषकों में नव जीवन ही संचार नहीं किया उन्हें सच्चे अर्थ में भारतीय बनाया है।

आपा-धापी, प्रदर्शन और उपदेश दान त्याग पर जो राज मार्ग इस तपस्वी लोक सेवक ने चुना वह कोई सच्चा लोक सेवी ही अपनाता है। उनकी अपनी कोई संतान नहीं पर उनके स्नेह की छाया में कितने ही स्नेह के भूखे शिशुओं को सुखद छाया नसीब हुई है। ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ के भारतीय आदर्श को उन्होंने जीवन में साकार किया है।

आज भौतिकता की घुड़-दौड़ में सभी बेतहाशा भाग रहे हैं पर इस दौड़ में सभी बेतरह थक भी रहे हैं। आपटेजी जैसे उदारमना व्यक्ति ही समाज को इस अंधानुकरण की विभीषिका से बचा सकते हैं। इनके इस जीवन से प्रेरित होकर भावनाशील युवक इस पथ पर निकल पड़ें तो देखते-देखते विश्व का कायाकल्प हो जाय।

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