चौदह वर्ष की अल्पायु में उसका विवाह हो गया। पत्नी अच्छी हिन्दी जानती थी। पत्नी के मुंह से हिन्दी भाषा सुनकर उसने भी हिन्दी भाषा का विद्वान बनने का संकल्प लिया। कुछ लज्जावश और कुछ भविष्य के प्रति आश्वस्त रहकर अपनी आकांक्षा उसे बता न सका। फिर पत्नी पितृगृह चली गई। युवक की कामना मन की मन में रह गई। विवाह के चार वर्ष बाद ही उसका देहान्त हो गया।
अहिन्दी भाषी प्रदेश में अब हिन्दी सीखे तो किससे सीखे। मन में सीखने की अदम्य चाह ने रास्ता सुझा दिया। उसने ‘सरस्वती’ पत्रिका के अंग पढ़-पढ़ कर अपने अध्यवसाय के बल पर अच्छी हिन्दी सीखना आरम्भ कर दिया। सरस्वती पत्रिका ने अपनी इस विशेषता के कारण हिन्दी भाषा के उत्थान में बड़ा योग दिया था। इसका श्रेय उसके तात्कालिक सम्पादक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को था। जिन्होंने इसे ईश्वरोपासना की तरह सम्पादित किया था।
अब तो वह आगे बढ़ा एवं हिन्दी में कविता करने लगा। कविताएं तो लिखीं पर उन्हें प्रकाशित करने के लिये तो पत्र-सम्पादकों के सहारे रहना पड़ता है। उसकी सभी कविताएं लौटकर आने लगीं।
युवक जानता था कि सफलता पाने के लिये परीक्षण तथा संघर्ष अनिवार्य है। उसने आरम्भ से ही अध्यवसाय के बलबूते पर हिन्दी भाषा सीखी थी। साहित्यकार बनने के लिये तो और भी अधिक परिश्रम करना चाहिये। वह हारा नहीं। अपनी सशक्त रचनाएं अस्वीकृत होकर लौटतीं तो उसे कोई खेद नहीं होता था।
प्रकाशन तो दूर उनका उपहास किया जाता था। उसके छन्दों के नये-नये नामकरण संस्कार किये जाते थे। इन सब उपहासों को वह पी गया। वह जानता था कि सचाई को आज नहीं तो कल स्वीकार किया ही जायगा।
उसने प्रकाशकों से संघर्ष किया, स्वयं पत्रिकाओं का सम्पादन किया। यहां भी यही बात सामने आई पहले तो सम्पादक गण उसकी कवितायें प्रकाशित नहीं होने देते थे अब पत्र के मालिकों ने विरोध किया।
संघर्ष चलता ही रहा। पास में सम्पदा नहीं, न कोई डिग्री जिसके सहारे धन कमाया जा सके। इसने छोटे से छोटा काम किया। दवाइयों के पैंफलेट लिखे, विज्ञापन बनाये, सभी कुछ किया।
अंत में विजय हुई एक कविता संग्रह प्रकाशित हुआ फिर दूसरा, तीसरा। लोगों ने पढ़ा, सराहा और वह साहित्याकाश में चमक उठा। यह व्यक्ति थे हिन्दी के प्रसिद्ध कवि सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला। उन्होंने हिन्दी कविता को एक नई दिशा दी।