बुद्धि, कर्म व साहस की धनी प्रतिभायें

देश भक्तों के निर्माता—वारीन्द्र कुमार घोष

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ब्रिटिश सरकार की सेवा में निरत भारतीय डॉक्टर को यह हार्दिक इच्छा थी कि उनके पुत्र पूरे अंग्रेज साहब बनें। रहन-सहन वेश भूषा तथा शिक्षा-दीक्षा में वे किसी प्रकार अंग्रेज अफसरों से कम नहीं हों। इस विचार से इन्होंने अपनी पत्नी को जब दूसरा पुत्र पेट में ही था, इंगलैण्ड भिजवा दिया ताकि बालक को इंग्लैंड की नागरिकता प्राप्त हो।

फूल कहीं भी खिले पर उसकी सुगन्ध नहीं बदली जा सकती। गुलाब को भारत में लगाएंगे तो भी गुलाब जैसी सुगन्ध फैलाएगा और इंग्लैंड में भी वह गेंदा नहीं बन जायेगा रहेगा गुलाब ही। बालक इंग्लैंड में उत्पन्न हुआ। उसे वहां की नागरिकता प्राप्त हुई। अंग्रेजी बोलता, अंग्रेजों जैसी वेशभूषा धारण करता पर उसकी आत्मा भारतीय थी। अपने देश और संस्कृति के प्रति उसके हृदय में अपार श्रद्धा उत्पन्न होने में कोई बाधा नहीं पड़ी।

ये पिता थे कृष्णधन घोष। अपने दोनों पुत्रों को ये साहब बनाना चाहते थे पर उनमें से एक भी साहब नहीं बना। बड़े पुत्र अरविन्द को इंग्लैंड ही रखा गया वहीं पढ़ाया गया। वही आगे चलकर भारतीय संस्कृति का महान दृष्टा बना जिन्हें योगीराज अरविन्द के रूप में विश्व जानता है। जिसे ब्रिटिश नागरिकता मिली, वारीन्द्र घोष एक महान देश भक्त बना। बंगाल में क्रांति का सूत्रपात करने का श्रेय इन्हें दिया जा सकता है। पिता की अव्यावहारिक तथा समय के प्रतिकूल इच्छा का समर्थन दोनों पुत्रों की आत्मा नहीं कर सकी।

वारीन्द्र कुमार घोष अपनी शिक्षा समाप्त करके इंग्लैंड से लौट आये। उन्हें अपने देश वासियों की सेवा करने की बचपन से ही चाह उत्पन्न हो चुकी थी। ब्रिटिश शासन के वेतन भोगी अफसर बनकर यह काम नहीं किया जा सकता था। वे भारत को इस शासन से मुक्त कराना चाहते थे। इंग्लैंड में उन्होंने एक स्वतन्त्र राष्ट्र के नागरिक को सम्मानित जीवन जीते हुये देखा। भारतीयों के साथ किस प्रकार का हीन भाव इन अंग्रेजों के मन में था उसे भी देखा था। उन्होंने संकल्प लिया कि मैं अपना जीवन इसी लक्ष्य को अर्पित कर दूंगा। भारतीय जनता को जगाकर देश को स्वाधीन करने का उद्योग करूंगा।

वारीन्द्र अब अधिक समय तक वहां रुकने में असमर्थ थे उनके लिये एक-एक पल भारी हो रहा था। पिता उन्हें आई.सी.एस. परीक्षा में बैठने के लिए जोर दे रहे थे। एक ओर तो पिता की आज्ञा और दूसरी ओर मातृभूमि का प्रश्न। वह किसे चुनें किसे न चुनें? पर वे निश्चय कर चुके थे कि जिस धरती का अन्न खोकर जल पीकर तथा जिसकी पावन गोद में उनकी कितनी ही पीढ़ियां स्वर्गोपम सुख भोग चुकी हैं मुझे उसी की सेवा करनी है। आत्मा की आवाज को पिता तथा रिश्तेदार का आग्रह दबा न सका वे बंगला लौट आये।

भारत में आकर जब उन्होंने अपने देशवासियों की दशा देखी और उनकी तुलना इंग्लैंड के नागरिकों से की तो उन्हें जमीन आसमान का अंतर स्पष्ट दिखाई दिया। गरीबी व अशिक्षा के कारण ये दीन-हीन जीवन जी रहे थे। विदेशी तो शासन करते थे उन्हें जनता के उत्थान से क्या सरोकार था। युवक वारीन्द्र का हृदय करुणा से भर आया। ऐसी स्थिति में भला कोई भावनाशील युवक कैसे चुप बैठ सकता है।

उन्होंने राजनैतिक दासता से मुक्ति पाने के लिये एक दल संगठित करने की योजना पढ़े लिखे युवकों के सामने रखी। किसी ने उत्साह प्रदर्शित नहीं किया। उनकी बातें सुनकर लोगों ने उनका उपहास किया। ‘‘आप इंग्लैंड से क्यों लौट आए? आप तो अच्छे अफसर बन सकते थे।’’ वारीन्द्र को यह जानकर बड़ा दुख हुआ कि बंगाल के लोगों में स्वतन्त्रता के प्रति मोह तो है पर वह अपने व्यक्तिगत स्वार्थों से ऊपर उठकर देश के लिये कुछ करने का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं।

वारीन्द्र घोष उन अधीर लोगों में से नहीं थे। जो भावावेश में आकर किसी काम को उठा तो लेते हैं पर जब कठिनाइयां आती हैं तथा लोगों का सहयोग नहीं मिलता तो उसे छोड़ देते हैं। वे जानते थे कि बीज डालने के दूसरे तीसरे ही दिन यदि फसल पकने की आशा की जाय तो व्यर्थ ही जायगी। उसके लिये तो बड़े धैर्य की आवश्यकता है। उसकी देखभाल करना, पानी खाद देना तथा खर पतवार उखाड़ते रहना पड़ता है तब कहीं महीनों में फसल तैयार होती है। राजनैतिक स्वतन्त्रता तो बहुत बड़ी चीज है इसके लिये तो बड़ा समय चाहिए, श्रम चाहिए, बलिदान चाहिए। वे उस समय की प्रतीक्षा करने लगे जब जनता के व्यक्तिगत स्वार्थों पर सरकारी चोट पड़े, और वह उसके प्रतिरोध में उठ खड़ी हो। वे अपना काम सफलता असफलता की ओर ध्यान न देकर करते रहे।

लार्ड कर्जन ने बंगाल को दो भागों में विभक्त करने की सोची और इसे कार्यान्वित किया जाने लगा तो बंगाली जनता के हितों तथा भावना पर सीधी चोट पड़ी। एक चतुर किसान की तरह वारीन्द्र जिस समय की प्रतीक्षा कर रहे थे वह समय आ पहुंचा। खेत तैयार था बस बीज बोने की देर थी। क्रान्ति की पृष्ठ भूमि तैयार हो चुकी थी। संगठन का क्रम भी चल पड़ा। जनता ने लार्ड कर्जन के बंग भंग का व्यापक विरोध किया। बंगाल के टुकड़े फिर भी होकर रहे। यह क्रान्तिकारियों के लिये अच्छा अवसर था। इस समय ही लोगों को प्रेरित किया जा सकता था।

आंदोलन चलाने के लिये जनमत को तैयार करना आवश्यक होता है। इसके लिये सभायें तथा व्यक्तिगत रूप से घर-घर जाकर जन जागरण करना न तो स्थायी होता है न सुगम। घर-घर जाकर जन जागरण का काम पत्र, पत्रिकाएं ही कर सकती हैं। संगठन बन गया तो प्रचार कार्य के लिए ‘युगान्तर’ नामक पत्र का प्रकाशन आरम्भ किया गया। इस पत्र के सम्पादक बने स्वामी विवेकानन्द के भाई भूपेन्द्रनाथ दत्त। यह पत्र के सम्पादक बने स्वामी विवेकानन्द के भाई भूपेन्द्रनाथ दत्त। यह पत्र जन जागरण के लिए बड़ा उपयुक्त सिद्ध हुआ। 1908 तक तो इसकी बिक्री 20000 हो गई। इस पत्र के माध्यम से क्रांतिकारियों का एक अच्छा-खासा संगठन बन गया।

दल की शाखा प्रशाखाएं बंगाल में ही नहीं बंगाल से बाहर तक फैल गई। वारीन्द्र घोष इस दल के सफल संचालक थे। जो नव युवक केवल बंगाल को एक करने के उद्देश्य से इस संगठन में आये थे अब उनका लक्ष्य पूर्ण स्वराज्य हो गया। उनका पूर्ण स्वराज्य महज एक कल्पना नहीं थी। वारीन्द्र घोष के तेल दिमाग ने इसकी पूरी रूप रेखा तैयार की थी। अपनी सम्पत्ति का बहुत बड़ा भाग उन्होंने दल के एक सदस्य हेमचन्द्र दास के विदेश भेजने में लगाया। हेमचन्द्र दास ने अपनी सारी सम्पत्ति बेचकर अपना सर्वस्व राष्ट्र हित पर न्यौछावर किया इसके पीछे वारीन्द्र की ही प्रेरणा थी। वे 1906 में पेरिस गये। वहां से रूस गये तथा बम नाना सीखकर आये। थोड़े से अंग्रेज चालीस करोड़ भारतीयों पर उनके ही सहयोग से राज्य कर रहे थे। इस दल ने जनता को सरकार से असहयोग करने की प्रेरणा दी। विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार, डाक, तार, रेल तथा प्रशासन में असहयोग करने के साथ-साथ खादी तथा स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग आरम्भ हुआ। गांधीजी के असहयोग जैसा ही व्यापक असहयोग इन दिनों बंगाल में चला।

उन दिनों बंगाल में एक ओर क्रान्तिकारी दल का आरम्भ हुआ उसका नाम था ‘‘अनुशीलन समिती।’’ वारीन्द्र ने उनसे सम्बन्ध स्थापित किया पर वे जल्दबाज थे। उन्हें पूरी तैयारी के बाद सोच समझकर कदम उठाये जाने जितना धैर्य नहीं था। वारीन्द्र जानते थे कि यह जल्दबाजी हानिकारक सिद्ध हो सकती है। उन्होंने अनुशीलन समिति के सदस्यों को समझाया पर वे माने नहीं। इसका परिणाम अच्छा नहीं हुआ।

1907 में क्रांतिकारियों ने बंगाल के गवर्नर पर बम फेंकने की योजना बनाई। पहली बार बम फटने से रह गया। दूसरी बार बम फटा पर गवर्नर बच गया। इस प्रकार की असफलता ने वारीन्द्र को मजबूर कर दिया कि वे अपने दल को भी इसमें भाग लेने दें ताकि भविष्य में क्रान्ति का काम और तेजी से चले।

खुदी राम बोस तथा प्रफुल्ल चन्द्र चाकी नामक दो नवयुवकों को दल ने गवर्नर किंग्सफोर्ड को समाप्त करने का भार सौंपा। किंग्सफोर्ड का स्थानान्तरण मुजफ्फरपुर हो जाने के कारण ये युवक मुजफ्फरपुर गए। वहां किंग्सफोर्ड को तलाश करना कठिन था। इन्होंने उसका पता लगा लिया तथा उसके आफिस के मार्ग में छिपकर बैठ गये। उसकी कार आई। खुदी राम के बम ने काम को एक ही बम में उड़ा दिया और दोनों भाग निकले।

उन दिनों वारीन्द्र घोष के बड़े भाई अरविन्द्र घोष भी इनके साथ ही थे। यह वारीन्द्र के कुशल संगठन का ही परिणाम था कि इतना सशक्त दल बंगाल में बन सका तथा अन्याय के प्रतिकार के लिये कितने ही युवक तत्पर हो गये थे। सबसे अधिक ताकत इंजन को लगानी पड़ती है डिब्बे तो पीछे अपने आप खिंचे आते हैं। इस संगठन के इंजिन थे वारीन्द्र। वे इस पुष्पोद्यान के माली थे जिसमें खुदीराम जैसे बलिदानी फूल खिले जिनकी सौरभ ने कितने ही युवकों को देश प्रेम की बलिवेदी पर चढ़ने के लिए तैयार किया।

किंग्सफोर्ड फिर भी बच गया था। उस दिन वह कार में नहीं था उसके स्थान पर केनेडी परिवार की दो महिलाएं मर गईं। 1908 की मई में खुदी राम बोस गिरफ्तार कर लिये गये। उन्हें फांसी की सजा दी गई। वे गीता हाथ में लेकर फांसी के फंदे पर हंसते-हंसते झूल गये। उनका अन्तिम संस्कार हुआ तो हजारों दर्शक उपस्थित थे। उनकी राख को लोगों ने लूट लिया। ये बलिदान व्यर्थ नहीं गये। लोगों को इन बलिदानियों के भाग्य से ईर्ष्या होने लगी वे भी देश के लिये सर्वस्व न्यौछावर करने के लिए तैयार हो गये।

खुदीराम के पकड़े जाने पर पुलिस बहुत सतर्क हो गई। उसके गुप्तचर बंगाल भर में फैल गये। गवर्नर पर बम फेंकना कोई साधारण बात नहीं थी। अंग्रेजों को लगने लगा था कि अब बंगाल हमारे हाथ से गया। बंगाल में यदि वे असफल हो गये तो फिर सब जगह असफलता ही उनके हाथ लगेगी। अंग्रेज वारिन्द्र कुमार घोष के नाम से चिढ़ चुके थे। धड़ाधड़ गिरफ्तारियां होने लगीं वारिन्द्र घोष, अरविन्द्र घोष, उपेन्द्र नाथ बनर्जी, उल्लासकर दत्त, हेमचन्द्र दास, कन्हाई लाल दत्त, इन्द्र भूषण राय आदि दल के बड़े-बड़े नेता गिरफ्तार कर लिये गये। उन पर मुकदमा चलाया गया। अरविन्द्र घोष की पैरवी देशबन्धु चितरंजन दास ने की।

वारीन्द्र ने देखा कि पुलिस का दमन-चक्र चालू है और वह निर्दोष लोगों को परेशान कर रही है। दमन को रोकने के लिए उन्होंने अपने बयान में कहा—‘‘हमारा उद्देश्य हत्या करना नहीं किन्तु जन जागरण के लिए हम इसे अनिवार्य समझते हैं तथा आततायी को दण्ड देने का हमारा यह कोई अनुचित तरीका नहीं। जिनके हाथ में सत्ता है वे फांसी देते हैं वैसा ही वह दंड हमने दिया। हमारा लक्ष्य आजादी पाना है। अब जब आरम्भ हो चुका है तो अन्त में आजादी ही होगी।’’

वारीन्द्र घोष को अपने अन्य साथियों सहित आजन्म काले पानी की सजा दी गई। वहां इनके साथ बड़ा अमानवीय व्यवहार किया गया। जिस व्यक्ति ने अपना सारा जीवन देश को समर्पित कर दिया हो उसे इस प्रकार के कष्ट–कंटकों को सहने की तैयारी करके ही इस कर्म क्षेत्र में उतरना होता है। इन देश-भक्तों के कष्टों की करुण कथाओं ने देश के नागरिकों को बहुत झकझोरा। ये कष्ट-कंटक अंग्रेजी शासन को भारत से समाप्त करने में बहुत उपयोगी सिद्ध हुये।

अरविन्द्र घोष इस मुकदमे में बरी हो गये उसके पश्चात् वे फिर आध्यात्म क्षेत्र में चले गए। वारीन्द्र घोष का यह समर्पित जीवन सार्थक हुआ। बंगाल के लाखों लोगों को इनके बलिदानों से प्रेरणा मिली। इस प्रकार के त्यागी उद्योगी तथा भावनाशील व्यक्ति ही मानवता को कुछ दे सकते हैं। इनका चरित्र जब तक इतिहास के पृष्ठों पर रहेगा, देश पर सर्वस्व न्यौछावर करने वालों की कमी नहीं रहेगी।

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