बुद्धि, कर्म व साहस की धनी प्रतिभायें

राष्ट्र के लिये सर्वतोभावेन समर्पित पोहलू राम

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पंजाब जिला होशियार पुर गांव आनन्द पुर। यहीं एक व्यक्ति जन्मा—पोहलू राम। बचपन ऐसे ही बीत गया। युवावस्था आई तो उसने अपने को एक ऐसे चौराहे पर खड़ा पाया जहां से वह किसी भी दिशा में जा सकता था।

महत्वाकांक्षा हर व्यक्ति में होती है उसे दिशा मिले तो संसारी आकर्षण धन, भोग, यश, पद आदि प्राप्त करके अपनी सुख सुविधा बढ़ाने एवं अहंकार की तृप्ति करने में लगता है पर यदि उसे इस बड़प्पन की तुलना में महानता का महत्व विदित हो जाय, विलासिता और अहंता की पूर्ति के स्थान पर महामानव बनने के लिये उत्कृष्टता और आदर्शवादिता का अवलम्बन करने के लिये उत्साह उत्पन्न हो जाय तो स्वयम् प्रकाशवान होने और अपनी ज्योति से असंख्यों को ज्योतिर्मय बनाने में समर्थ हो सकता है।

पोहलू राम का सौभाग्य ही कहना चाहिये कि उसे उस उठती उम्र में ही महानता के पथ पर चलने की प्रेरणा मिल गई, जिसमें कुछ कर सकना संभव होता है। सचमुच यही उम्र ही कुछ कर गुजरने के उपयुक्त होती है। बुढ़ापे में तो मनुष्य एक प्रकार से निरर्थक ही होता है शरीर अशक्त हो जाता है और मन ऐसे जाल जंजाल में जकड़ जाता है कि कुछ परमार्थ कार्य बन पड़ना सम्भव ही नहीं रहता।

सन् 1909 की बात है बालक पोहलू राम गांव के मिडिल स्कूल में पढ़ता था अध्यापक देवीनन्द तिवारी अपने छात्रों को स्वयं देश की स्थिति, अंग्रेजों के अत्याचार, स्वराज्य की आवश्यकता, देश भक्ति के लिये कुर्बानी जैसे विषयों पर विस्तार से चर्चा किया करते थे। अन्य छात्रों पर तो उतना प्रभाव नहीं पड़ा, पर पोहलू राम के हृदय में वह बात गहराई तक जम गई। उसने निश्चय किया कि वह देश की दुर्दशा दूर करने के लिये ही अपना जीवन समर्पित करेगा।

एक बार एक विद्वान साधु उधर आये। उनसे पोहलू राम का वार्तालाप होता रहता। उनने भी कहा—ईश्वर भक्ति भी अच्छी है पर देश भक्ति उससे भी अच्छी है। बालक के विचारों में दृढ़ता आई और परिपक्वता भी। उसने घर वालों से स्पष्ट कह दिया कि वह अपना रास्ता आप बनायेगा। न उसे गृहस्थी बसानी है न कमाई करनी है। वह देश के लिये जियेगा और उसी के लिये मरेगा। घर वालों ने रोका तो वह घर छोड़कर निकल पड़ा। एक कम्बल एक जोड़ी कपड़े एक लोटा कुछ पैसा, इतना ही सामान पास। देश भक्ति के लिए कहां जाया जाय? सूझा दिल्ली राजधानी है देश भक्ति का अवसर भी वहीं मिलेगा। भोला देहाती किशोर उसके व्यावहारिक रूप को जानता न था, पर उसकी उत्कंठा बहुत थी। सो पैदल ही लम्बी यात्रा पूरी करके भूखा प्यासा दिल्ली आ पहुंचा।

यमुना किनारे एक साधु से उसकी भेंट हुई। कुछ खाने को मिला और आश्रय भी। देश भक्ति की लगन तो बहुत थी पर क्या करना चाहिए यह सूझ नहीं पड़ता था। उन्हीं दिनों लार्ड हार्डिंग दिल्ली आये। उनका जुलूस निकला उसमें दर्शक पोहलू राम भी था। क्रान्तिकारियों द्वारा बम फेंका गया। हार्डिंग मरे तो नहीं पर घायल हो गये। पंजाब नेशनल बैंक की छत पर बैठे हुये सभी लोग सन्देह में पकड़े गये उनमें पोहलू राम भी था पुलिस ने जांच पड़ताल के लिए सबको जेल भेज दिया। कई दिन उन्हें वहां रहना पड़ा। इन्हीं साथियों से उसे यह शिक्षा मिल गई कि उसे भविष्य में क्या करना है। इन्हीं साथियों से उसे यह शिक्षा मिल गई कि उसे भविष्य में क्या करना है। उन दिनों क्रान्तिकारी आन्दोलन ही जोरो पर था। कांग्रेस कब थी तो पर उनका कोई आन्दोलनात्मक कार्य नहीं था। पोहलू राम क्रान्तिकारी बन गया और देश की स्वतन्त्रता के लिये क्रान्तिकारी कार्य क्रमों को पूरा करने के लिए पार्टी के आदेशानुसार काम करने में जुट गया।

एक बार संकल्प किया सो जीवन भर निभा। चंचल चित्त मनुष्य हजार ओर मन डुलाते और हजार रास्ते पलटते हैं, पर स्थिर मति दृढ़ निश्चयी होते हैं वे ऊंच नीच समझने के बाद निश्चय करते हैं और करने के बाद उसे निवाहते हैं। पोहलू राम ने निश्चय कर लिया था कि उसका जीवन देश के लिये है, अनेक प्रकार ललचाया पर उसने किसी तरफ आंख उठाकर नहीं देखा वरन् और कठिनाइयों से भरे रास्ते पर वह वीर व्रती की तरह निरन्तर अनवरत रूप से बढ़ता ही चला गया।

पार्टी के निर्देशों के अनुसार उसे अनेक स्थानों की यात्रा करनी पड़ी और अनेक कार्यक्रम अपनाने पड़े। पर लक्ष्य एक रहा अपने नेताओं के मार्ग दर्शन में वह कठपुतली की तरह नाचता रहा जो करने के लिये कहा गया उसे उसने बिना ननुनच किया। यथावत कर दिखाया।

लिलुआ कलकत्ता में गोशाला के कर्मचारी की तरह जापान में पत्र लेखक के रूप में, स्पेनिश कम्पनी में गेट कीपर बन कर न जाने उसे क्या-क्या पापड़ बेलने पड़े और अपना वाह्य रूप ऐसा बनाये रहना पड़ा जिससे पकड़ में न आकर पार्टी का काम ठीक तरह किया जाता रहे। आनन्द पुर में एक जमींदार के यहां और फिर मिलिट्री में सिपाही के यहां उसने नौकरी की। अपने लिये नहीं। पार्टी के निर्देशानुसार। गुजारे के लिए स्वावलम्बी उपार्जन, सरकार की आंखों से बचने के लिए कोई धन्धा और शेष सारा समय क्रान्तिकारी गतिविधियों में। इस एक ही रीति नीति में उनकी सारी जिन्दगी बीत गई। सत्रह वर्ष की आयु से लेकर सतहत्तर वर्ष की उम्र तक पूरे 60 साल यह भारत माता का पुजारी जब तक जिया केवल देश के लिये जिया। उसी के लिये सोचा और जो कुछ सम्भव था सो उसी के लिये किया।

अनेक बार पुलिस की आंखों में धूल झोंक कर वे अपना काम ठीक तरह करते रहे। अनेक बार पकड़े भी गये और बन्दी गृह की यातनाएं सहते रहे। उन्हें नौ बार गिरफ्तार किया गया। कुल मिलाकर तीस वर्ष जेल में रहना पड़ा। पर उनके लिए जेल जीवन और बाहर रहने में कोई अन्तर न था। जेल जीवन में जहां देश के लिये कुछ कर न पाने की व्यथा रहती थी वहां व्यस्तता में कुछ हलका पन भी अनुभव होता था और एक प्रकार की निश्चिन्तता भी रहती थी। इसलिये उन्होंने न कभी जेल जीवन से उदासीनता प्रकट की और न बाहर आने की उत्सुकता। राष्ट्र के लिये समर्पित जीवन उनका अपना न था परिस्थितियां जहां भी ले जायें उसमें रहने में उन्हें कोई आपत्ति न थी।

पचहत्तर वर्ष में उनका शरीर थक गया और स्वतन्त्रता प्राप्ति का लक्ष्य भी पूरा हो गया तो उन्होंने सरकार से प्राप्त एक छोटे से भूमि खण्ड पर अपनी कुटिया बनाई और वहीं अन्न उत्पन्न करके स्वावलम्बी समाज के लिये उपयोगी गतिविधियां अपना जीवन यापन करने लगे। इसी भूमि खण्ड पर 19 फरवरी 62 को उनका स्वर्गवास हो गया।

सार्वजनिक जीवन में व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं की दौड़ धूप वाले पद और यश कामना के लिये पागल लोगों के बीच पोहलू राम अपना एक ज्वलन्त उदाहरण छोड़ गये हैं। दूसरों पर छा जाने को अपनी गरिमा प्रतिष्ठापित करने की घुड़ दौड़ में कलुषित सार्वजनिक जीवन कैसे पवित्र और प्रखर रखा जा सकता है, इसका दर्शन यदि सीखना हो राष्ट्र के लिये समर्पित जीवन का स्वरूप समझना हो तो पोहलूराम के चिन्तन और कर्तृत्व की पृष्ठ भूमि का गम्भीरता पूर्वक अध्ययन करना चाहिये।

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