बुद्धि, कर्म व साहस की धनी प्रतिभायें

सच्चे देश-भक्त—श्री वदरुद्दीन तैयवजी

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सज्जनता, शीतलता, सत्यता एवं कर्त्तव्य-निष्ठा की जीती-जागती मूर्ति श्री वदरुद्दीन तैयव जी का जन्म 8 अक्टूबर सन् 1844 ई. को बम्बई के बहुत सम्पन्न परिवार में हुआ।

श्री तैयवजी उन तीन व्यक्तियों में से एक थे, जिन्होंने भारतीय स्वतन्त्रता की वाहिका ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ की नींव डाली थी।

श्री तैयवजी का परिवार एक साधन सम्पन्न धनी परिवार था और बम्बई में उनके परिवार का बहुत आदर था। किन्तु यह परिवार मुसलमान होते हुए न तो मांस खाता था और न किसी प्रकार की ऐशो-इशरत का पक्षपाती था। पूरे परिवार का और खास तौर से श्री वदरुद्दीन तैयव का जीवन तो बिल्कुल साधु सन्तों जैसा सरल और सादा था। वे सादा जीवन उच्च विचार के सिद्धान्त की जीती-जागती तस्वीर थे।

तैयवजी की इस सन्तोपम सादगी देखकर उनके अनेक धनी मित्र उनसे कहा करते थे। ‘‘भाई तैयवजी आप को तो परमात्मा ने बेकार ही पैसा दिया। न तो आप शान-शौकत से रह सकते हैं और न धनियों जैसा रौव-रोआब ही आप में है। आप सामान्य से सामान्य व्यक्ति से भी उसी तरह बात करते हैं और मिलते-जुलते हैं जिस प्रकार धनी मित्रों से, यह तो अमीरी का अपमान है।’’

श्री तैयवजी उनकी बात सुनते और हंस कर उत्तर देते—‘भाई मैं तो इन्सान पहले हूं और कुछ बाद में। मेरी अमीरी गरीबों के लिये भय का कारण न बने, इसी में मैं इसकी सार्थकता मानता हूं और कोशिश करता हूं कि अपने पैसों का उपयोग अपनी सुख-सुविधा में न करके गरीब और आवश्यकता ग्रस्त अपने देश भाइयों की सहायता में सदुपयोग करूं। मुझे समाज के इस पैसे का उपयोग अपने लिये करने का क्या अधिकार है। फिर जहां मुल्क गुलाम है और देश में इधर से उधर गरीबी फैली हुई है वहां मैं किस प्रकार से ऐशो-इशरत की जिन्दगी बिता सकता हूं। यह स्वार्थ मेरी आत्मा के विरुद्ध तो है ही, साथ ही सभ्यता तथा मानवता के विरुद्ध भी है। मैं ऐसा अपराध कदापि नहीं कर सकता। मुझे अपने देश-भाइयों की तरह ही सामान्य जिन्दगी जीना और उनकी जो भी सेवा हो सके उसे करते रहने में ही संतोष है। धन का अभिमान एक बुरी बात है। धनी को तो समाज में उसी प्रकार विनम्र होकर रहना चाहिये जैसे फलों से लदा वृक्ष नीचा रहता है।’ उनके धनी मित्र उनकी बात सुनते और न केवल प्रभावित ही होते बल्कि प्रकाश भी ग्रहण करते।

श्री वदरुद्दीन तैयव जितने ही धनी उतने ही सीधे-सादे और जितने सीधे-सच्चे व्यक्ति थे उतने ही विद्वान तथा न्याय-निष्ठ भी थे। जिस प्रकार एक दुर्गुण बढ़ कर मनुष्य की बुराइयों की खान बना देता है उसी प्रकार एक सद्गुण पल्लवित होकर मनुष्य को गुणों का निधान ही नहीं उसे देवत्व के स्तर पर पहुंचा देता है।

तैयवजी ने देखा कि बम्बई हाईकोर्ट में अंग्रेज जज तथा अंग्रेज बैरिस्टर वकील आपस में संगठित होकर कानूनों को मनमाने ढंग से मोड़ते और मुकदमों में भारतीयों का न केवल शोषण ही करते बल्कि उनके साथ अन्याय भी करते हैं। यदि कोई भारतीय वकील वहां जाकर वकालत करने का प्रयत्न करता है तो वे उसे टिकने नहीं देते। अंग्रेज बैरिस्टरों तथा जजों के षड्यन्त्र के फलस्वरूप साधारण वकीलों की तो बात ही क्या सर फीरोजशाह मेहता और एच. वाडिया जैसे धुरन्धर बैरिस्टरों तक के पांव न टिक सके और वे बम्बई हाई कोर्ट छोड़-छोड़ कर चले गये। यह भारतीय योग्यता तथा मस्तिष्क के लिये अंग्रेज वकीलों की खुली चुनौती थी। स्वाभिमानी भारतीय श्री तैयव साहब को स्थिति असह्य हो गई और आवश्यकता न होने पर भी उन्होंने इंग्लैंड जाकर बैरिस्टरी पास करने और बम्बई हाई कोर्ट में वकालत करने का निश्चय कर लिया।

अपने निश्चय के अनुसार तैयवजी इंग्लैंड गये और प्रथम श्रेणी में बैरिस्ट्री पास करके आये और बम्बई हाईकोर्ट में वकालत करने लगे। अंग्रेज वकील तथा जजों ने यथा सम्भव उनका असहयोग तथा बहिष्कार करने का प्रयत्न किया किन्तु अपने उद्देश्य के धनी तैयवजी सब कुछ सहन करते हुए डटे रहे और इस योग्यता से वकालत करते रहे कि आखिर अंग्रेजों के हौसले पस्त हो गये। उन्होंने दुष्प्रवृत्ति छोड़ी और भारतीयों के साथ सहयोग करने पर विवश हुए। श्री वदरुद्दीन तैयव ने अपने अध्यवसाय, परिश्रम तथा दृढ़ता के बल पर न केवल अंग्रेज जजों तथा वकीलों का सुधार ही कर दिया, बल्कि भारतीय वकीलों के लिये बम्बई हाई कोर्ट में स्थान बना दिया। एक लगनशील तथा उद्देश्य निष्ठ परिश्रमी पुरुष क्या नहीं कर सकता? उनकी परिश्रमशीलता एक उदाहरण है जो उन्होंने इंगलैंड बैरिस्ट्री पढ़ते समय स्थापित किया बड़ा ही प्रेरक तथा उत्साहवर्धक है।

1860 में जिस समय श्री तैयवजी इंग्लैंड में बैरिस्ट्री पढ़ रहे थे उस समय छात्रों के बीच वहां एक बार लेटिन, फ्रेंच तथा अंग्रेजी भाषा में एक प्रतियोगिता आयोजित की गई जिसकी तैयारी के लिये अठारह माह की अवधि रखी गई यह प्रतियोगिता उन्हीं छात्रों के बीच रखी गई थी जो लेटिन तथा फ्रेंच भाषायें नहीं जानते थे। जिस समय तैयव जी ने अपना नाम प्रतियोगिताओं में दिया उस समय अनेक यूरोपियन छात्रों ने उनकी खिल्ली उड़ाते हुए कहा कि तुम हिन्दुस्तानी हम यूरोपियन्स का क्या मुकाबला करोगे? तैयवजी ने इस कटु बात का हंसते हुए उत्तर दिया—विद्या परमात्मा की देन है इस पर किसी का एकाधिकार नहीं है। जो भी परिश्रमपूर्वक अध्ययन करता है उसको प्राप्त हो जाती है। अपनी भाषाओं पर अन्य लोगों को इतना अभिमानपूर्वक अधिपत्य नहीं दिखाना चाहिए। घमण्ड करने वालों को बहुधा नीचा ही देखना पड़ता है। समय आने दीजिये पता चल जायगा कि मस्तिष्क केवल यूरोप के पास ही नहीं भारत के पास भी है। सारे यूरोपियन्स उनकी इस सभ्यता तथा युक्तिपूर्ण उक्ति को सुनकर अपना सा मुंह लेकर रह गये।

श्री तैयवजी के लिये वह प्रतियोगिता देश की प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गई। उन्होंने सफलता-असफलता का दायित्व परमात्मा पर छोड़ दिया और आप एक तन मन से लेटिन तथा फ्रेंच भाषाओं के अध्ययन में लग गये। अठारह माह के अवाध एवं अभिरुचिपूर्ण अध्ययन के बाद वे प्रतियोगिता में उतरे और सैकड़ों यूरोपियन छात्रों के बीच पक्षपात के शिकार होने पर भी सर्व प्रथम उत्तीर्ण हुए। भारती के लाल ने अपनी लगन तथा अध्यवसाय के बल पर देश की ऐसी लाज रखी कि अभिमानी छात्रों को एक शिक्षा मिल गई और तब से अपने मुकाबले में उन्होंने भारतीयों को हीन बुद्धि मानना छोड़ दिया।

तैयवजी अपनी इन सफलताओं तथा गुणों के कारण इतने लोकप्रिय बन गये कि 1873 में जनता ने उन्हें बम्बई कॉरपोरेशन का पहला अध्यक्ष बनाया और तभी वे उसी मध्य में जनता की सेवा करते हुए 1882 में बम्बई व्यवस्थापिका सभा के सदस्य चुने गये और अनेक वर्षों तक बाम्बे प्रेसीडेण्सी एसोसियेशन के अध्यक्ष रहे। अपनी इस व्यक्तिगत उन्नति में उन्हें सन्तोष न था। वे तो पूरे देश को उन्नत देखना चाहते थे। निदान उन्नति में बाधक दासता से देश का उद्धार करने के लिये उन्होंने उन्हीं दिनों इंडियन नेशनल कांग्रेस की नींव डाली और हिन्दू-मुस्लिम एकता का इतनी गहराई तथा सचाई से प्रचार व समर्थन किया कि सारा देश एक झंडे के नीचे आ गया। कांग्रेस एक शक्तिशाली राजनैतिक संस्था बन गई।

इस हिन्दू-मुस्लिम एकता से भयभीत अंग्रेज सरकार ने लार्ड डफरिन नाम के एक कुटिल राजनीतिज्ञ को उनमें फूट डालने के लिये नियुक्त किया। लार्ड डफरिन ने श्री तैयवजी को बुलाकर कहा कि हिन्दुओं से आप मुसलमानों का क्या सम्बन्ध। आप उनसे अलग एक मुस्लिम संस्था बना लीजिए और उसके नेता बन जाइये। मैं आपकी उस संस्था को भारत की एक मात्र संस्था की मान्यता दे दूंगा। श्री तैयव जी ने उस राजनीतिज्ञ की बात शांतिपूर्वक सुनी और हंसकर उत्तर दिया—‘‘श्रीमान् जी आप हर मुसलमान को मीरजाफर समझने की भूल न करें। अब मुसलमान सजग हो गया है और एकता का महत्व समझने लगा है। साथ ही मैं आपके इस कथन से इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि अब हिन्दुस्तानियों को अंग्रेजों से और भी सावधान हो जाना चाहिए क्योंकि अब वह भाई-भाई को लड़ाकर अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं। साथ ही इसका अर्थ यह भी है कि भारत की इस एकता की शक्ति से सरकार बहुत डर गई है और वह दिन दूर नहीं दिखाई देता जब हमारी राष्ट्रीय एकता अंग्रेजों को भारत से विदा होने के लिये विवश कर देगी।

डफरिन तो उनकी यह बात सुनकर चुप हो गया किन्तु समय ने अपने विशाल पट पर उस महान् देश-भक्त की बात अंकित कर ली जो कि समय आने पर पूर्ण रूप से चरितार्थ हुई। इस प्रकार जीवन भर सत्य, न्याय तथा स्वतन्त्रता के लिये तिल-तिल बलिदान देकर वह भारत का सपूत 19 अगस्त 1906 को इस असार संसार से हंसी-खुशी विदा हो गया।

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