बुद्धि, कर्म व साहस की धनी प्रतिभायें

एक अपराजेय देश-भक्त—खान अब्दुल गफ्फार खां

<<   |   <   | |   >   |   >>


विवेकवान्, वे ही व्यक्ति कहे जाते हैं जो समझ में आ जाने पर ठीक बात को एक बार में ग्रहण कर सदा-सर्वदा के लिए गांठ बांध लेते हैं और गलत बात को सदा-सर्वदा के लिये त्याग देते हैं। सरहदी गांधी खान अब्दुल गफ्फार खां उन्हीं विवेकवान् व्यक्तियों में से हैं।

गरम खून वाली उस पठान जाति में जन्म लेकर भी, जिसके शब्दकोष में अहिंसा का बोधक कोई शब्द कभी नहीं रहा और जो सदा से शक्ति और शस्त्र में ही विश्वास रखने वाली रही है, खान अब्दुल गफ्फार खां ने जिस दिन महात्मा गांधी के सम्पर्क से शांति और अहिंसा की महत्ता समझी उस दिन से सदा-सर्वदा के लिये एक शांत सन्त की तरह अहिंसावादी बन गये और उस व्रत-भंग की हजारों परिस्थितियां आने पर भी अपने सिद्धांत पर अचल और अडिग बने रहे।

खान अब्दुल गफ्फार खां का जनम उत्तर-पश्चिम सीमा प्रान्त के एक सम्पन्न पठान परिवार में जनवरी अठारह सौ नब्बे को हुआ। इनके पिता पेशावर के निकट उत्यानजई गांव के जागीरदार थे और क्षेत्र में उनका बहुत प्रभाव था। सीमा प्रान्त का यह पठान-परिवार प्रारम्भ में साम्राज्यवादियों का अनुयायी था। किन्तु जब देश की स्वाधीनता का आन्दोलन छिड़ा और महात्मा गांधी का नया राजनीतिक दर्शन प्रकाश में आया तो यह परिवार भी सत्य को स्वीकार किये बना न रह सका। पूरे परिवार ने अन्याय प्रिय साम्राज्यवादियों का साथ छोड़ दिया और स्वदेश-स्वाधीनता के झण्डे के नीचे आ गया, और एक बार फिर जीवन भर स्वाधीनता संग्राम के सैनिक बनकर विदेशी ताकतों का उत्पीड़न सहन करते रहे। उन्होंने देश-भक्ति की वेदी पर अपनी जागीर, स्वाधीनता, सुख-सुविधा और सारी सम्पत्ति बलिदान कर दी और फकीरी धारण कर जेल और जुल्म सहने का स्वाद लेते रहे।

इसी परिवार के पुत्र-रत्न खान अब्दुल गफ्फार खां देश के लिये जिस विनम्रता, शांतिप्रियता और अहिंसा का परिचय देते हुए शासकों का अपमान और अवहेलना सहना अपना कर्त्तव्य समझते रहे। वे कितने स्वाभिमानी और असहनशील थे इसका पता इस एक ही बात से चल जाता है।

उत्यानजई से मिडिल की परीक्षा पास करने के बाद खान अब्दुल गफ्फार खां ने मिलिट्री में जाने का निश्चय किया। उन्होंने अपना पूरा परिचय लिखकर प्रार्थना-पत्र भेजा और वे तुरन्त बुला लिये गये। नाप-जोख और तोल में अनफिट होने का प्रश्न ही नहीं था। अन्तिम डाक्टरी जांच में भेज दिये गये। वहां वे अपनी बारी आने की प्रतीक्षा में धैर्यपूर्वक बैठे थे कि तब तक एक अंग्रेज अफसर ने एक हिन्दुस्तानी सिपाही से कुछ अपमान-जनक व्यवहार कर दिया। बस युवक गफ्फार खां का स्वाभिमान जाग उठा और वे उस अफसर से एक हिन्दुस्तानी होने के नाते टूट पड़ने को तैयार हो गये। किन्तु कुछ लोगों ने बीच में पड़कर मामला वहीं रोक दिया। खान अब्दुल गफ्फार खां का मन मिलिटरी की नौकरी से फिर गया और वे घर वापस चले आये। इसी स्वाभिमानी पठान युवक ने जब सत्य, शांति और अहिंसा की महत्ता हृदयंगम कर ली तो उसके निर्वाह में महात्मा गांधी की समकक्षता में जा पहुंचा। संसार में सिद्धान्त-शूर और व्रतवन्त व्यक्ति ऐसे ही धीर पुरुष कहलाते हैं।

मिलिटरी की नौकरी से इनकार कर देने पर इनके पिता ने इंजीनियरिंग पढ़ने के लिये विलायत भेजने का निश्चय किया। इस पर माता ने विरोध करते हुए कहा कि ‘‘मेरा एक बेटा तो विलायत जाकर हाथ से निकल गया, अब मैं इस एक लड़के को उस रास्ते कदापि न जाने दूंगी।’’ निदान इनका इंग्लैंड जाना स्थगित हो गया।

यद्यपि खान अब्दुल गफ्फार खां एक जागीरदार के बेटे थे। घर में किसी बात की कमी न थी। धन-सम्पत्ति, जमीन-जायदाद और मान-सम्मान सब कुछ था। चाहते तो घर बैठे ऐश-आराम की जिन्दगी बिता सकते थे। किन्तु उन्हें घर बैठकर खाना-पीना और मौज उड़ाना पसन्द न आया। वे कुछ ऐसा काम करना चाहते थे जिससे वे व्यस्त भी बने रहें और जनता का कुछ हित भी होता रहे। निदान वे पेशावर के एक मकतब में चले गये और वहां कुरान और हदीस आदि धार्मिक ग्रन्थों का अध्ययन-अध्यापन करने लगे।

कुछ समय तक मकतब की सेवा करने के बाद वे फिर अलीगढ़ आकर उच्च शिक्षा के लिए विश्व-विद्यालय में भरती हो गये। अलीगढ़ विश्व-विद्यालय उन दिनों मुसलमानों में साम्प्रदायिकता भरने का एक बड़ा केन्द्र बना हुआ था। जब विश्व-विद्यालय के कट्टरपन्थी और साम्प्रदायिक विष से विकृत मुसलमान नवयुवकों ने अपने बीच एक सरहदी पठान नौजवान को आया देखा तो बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने सोचा—‘‘इसको साम्प्रदायिक विष से भर कर सरहदी सूबे में साम्प्रदायिकता फैलाने का यन्त्र बनाना चाहिये। अस्तु उन्होंने खान से वैसी बातें करनी और पाकिस्तान का स्वप्न दिखलाना शुरू कर दिया। किन्तु उस सच्चे मनुष्य पर देश-द्रोह का रंग न चढ़ सका। उसकी समझ में बिलकुल न आया कि आखिर यह सब लोग हिन्दू मुसलमानों के बीच दुश्मनी और देश के विभाजन में किस हित का स्वप्न देखते हैं। उसे उनके विचार देश-द्रोह से दूषित लगे और उसने उन सबका साथ छोड़ दिया। तथापि उसके मस्तिष्क में राजनीति के बीच पड़ चुके थे।

खान अब्दुल गफ्फार खां ने अलीगढ़ में रहते हुए मौलाना आजाद का अखबार ‘अलहिलाल’ पढ़ना शुरू किया। उन्हें इस अखबार की विचार-धारा ठीक मालूम दी और वे उन्हीं विचारों में दीक्षित होते चले गये। अध्ययन, अनुभव, मनन और देश की आवश्यकता तथा विदेशियों की नीति देख कर खान अब्दुल गफ्फार खां के हृदय में राष्ट्रीयता की भावना जाग उठी और वे स्वदेश की स्वाधीनता के लिये कुछ करने के लिये उत्सुक होकर वापस चले आये।

राष्ट्रीय प्रकाश लेकर 1911 में घर आने पर उन्होंने राजनीति के नाम पर सोती हुई पठान जाति को जगाना शुरू कर दिया। उन्हें इस बात पर बड़ी लज्जा आई कि साहस तथा वीरता की धनी पठान जाति स्वाधीनता के लिये कुछ न करती हुई मोह निद्रा में सोती हुई अंग्रेजों के जाल में फंसी हुई है।

सरहद्दी पठानों में जाग्रति लाने के लिये उन्होंने जो सबसे पहला काम किया वह था शिक्षा-प्रसार। खान अब्दुल गफ्फार खां ने ने केवल स्थान-स्थान पर स्कूल ही स्थापित कराये बल्कि स्वयं भी पाठशालायें लगाते थे और उनमें अक्षर-ज्ञान देने के साथ-साथ राष्ट्रीय शिक्षा भी देते थे। आठ साल के अविराम परिश्रम के बाद उन्होंने पठानों के बीच जाग्रति पैदा कर दी और उन्हें इस योग्य बना दिया कि वे स्वाधीनता, अपने अधिकार और देश व समाज के प्रति अपना कर्त्तव्य समझ सकें।

1919 में जब गांधी जी का आव्हान गूंजा और देश भर में स्वतन्त्रता का आंदोलन चल पड़ा तब खान अब्दुल गफ्फार खां ने सरहद्दी पठानों को उठाया और लाखों जन-समूह के बीच विदेशी सरकार की कड़ी आलोचना की। उसी सभा में उन्होंने स्वतन्त्रता-संग्राम में पठानों को मर-मिटने का निमन्त्रण दिया। उनका आमन्त्रण पाकर पठान संगठित हो उठे और सरहद पर स्वतन्त्रता का सिंहनाद गूंजने लगा।

अंग्रेजों के लिए यह एक नया अनुभव था। उन्हें स्वप्न में भी विश्वास न था कि उनकी नीति के जादू से बंधे सीमान्त प्रदेश के पठान भी भारतीय स्वतन्त्रता-संग्राम में सम्मिलित हो सकते हैं। उन्होंने सरहद्दी विद्रोह का मुख्य हेतु खान अब्दुल गफ्फार खां को समझा और उन्हें गिरफ्तार करा कर जेल में डलवा दिया। खान अब्दुल गफ्फार खां के व्यक्तित्व से सरकार इतनी डर गई कि उसने इस नरसिंह को बांधने के लिए एक विशेष प्रकार की हथकड़ी-बेड़ियां बनवाई थीं।

खान अब्दुल गफ्फार खां ने जेल जीवन का समय यों ही पड़े-पड़े नहीं खो दिया। उन्होंने इसका पूरा-पूरा लाभ उठाया और उसका उपयोग गीता तथा बाइबिल के गहन अध्ययन में किया। इसके अतिरिक्त महात्मा गांधी की आत्म-कथा और उनके राजनीतिक-दर्शन का भी गूढ़ अध्ययन किया। निष्पक्ष तथा निर्विघ्न अध्ययन से उन्हें इन सद्ग्रन्थों का सार-तत्व हृदयंगम हो गया और वे अब वास्तविक रूप से सत्य, शांति, अहिंसा और प्रेम के अनुयायी बन गये, तो फिर एक बार ग्रहण करने के बाद उसे जीवन भर नहीं छोड़ा।

जेल से छूटने के बाद वे फिर देश और समाज की सेवा में लग गये। ‘चारसद्दा आश्रम’ और ‘खुदाई खिदमतगार’ नाम के दो आश्रम उन्होंने चलाये। यह आश्रम लगभग भारतीय आश्रम जैसे थे। इनमें सूत कातने का कार्य तो नियमित रूप से चलता ही था, साथ ही नित्य ही ईश्वर प्रार्थना और राष्ट्रीय शिक्षा का आयोजन भी था। सत्य, अहिंसा और शांति का नियमित पाठ इस आश्रम में पढ़ाया जाता था। साधारण शिक्षा के अतिरिक्त चारसद्दा आश्रम में ऐसी व्यावहारिक शिक्षा भी दी जाती थी जिसे पाकर शिक्षार्थी जीवन में स्वावलम्बी बनकर, सम्मानपूर्वक अपनी आजीविका कमा सकें। यह आश्रम पठानों का वास्तविक भारतीयकरण करने का एक सार्थक केन्द्र था।

‘खुदाई खिदमतगार’ नाम का संगठन और कुछ नहीं था, देश तथा समाज के सेवकों का एक संगठन था। इसके स्वयंसेवक खान अब्दुल गफ्फार खां के नेतृत्व में देश के अहिंसात्मक आन्दोलनों में तो भाग लेते ही थे, आवश्यकता पड़ने पर पीड़ितों तथा दुःखी लोगों की सहायता भी करते थे।

सरहद की इन दोनों संस्थाओं ने वहां पर विदेशी शासन के विरुद्ध एक प्रचण्ड वातावरण तैयार किया जिससे उस महत्वपूर्ण स्थान से अंग्रेजों के पैर उखड़ने लगे। अस्तु सरकारी कूटनीतिज्ञों ने लोभी नेताओं को खान अब्दुल गफ्फार खां को सच्ची राष्ट्र-भक्ति से विरत करने की प्रेरणा दी। लीग के बड़े-बड़े नेताओं ने उनसे सम्पर्क स्थापित किया। उन्हें पाकिस्तान बनने के फायदे दिखलाये, इस्लाम और मुसलमानियत का वास्ता दिया और यहां तक कहा कि वे हिन्दुओं के संगठन कांग्रेस का साथ छोड़ कर लीग में शामिल होकर पाकिस्तान बनवाने में सहायता करें तो उन्हें पाकिस्तान सरकार का सर्वोच्च पद जीवन भर के लिए उन्हें दे देंगे और यदि चाहेंगे तो उनका राज्य ही स्वतन्त्र रूप से प्रथक् बनवा देंगे। किन्तु सिद्धान्त तथा सत्य के धनी खान अब्दुल  गफ्फार खां उनकी चिकनी-चुपड़ी बातों में नहीं आये और सच्चे मन से भारत माता की सेवा में लगे रहे। इस आराधना के लिए उन्हें काफिर, गैर मुस्लिम और इस्लाम का शत्रु भी कहा गया और तरह-तरह से अपमानित और लांछित किया गया, किन्तु वे अपने व्रत से जरा भी विचलित न हुए। सरकार ने उनकी सारी जमीन, सम्पत्ति तथा जीवन के साधन छीन लिये पर उन्हें न विचलित होना था और न वे विचलित हुए।

1921 के असहयोग आन्दोलन से तो उनका जीवन जेल में ही कटने लगा। जेल में उन्हें तरह-तरह के त्रास और यातनायें दी गईं। उनका स्वास्थ्य खराब हो गया। बहुत बार उन्हें अनशन करना पड़ा किन्तु जिस महान पथ पर वे अपना चरण बढ़ा च    के थे उससे तिल भर पीछे हटना उन्होंने सीखा ही न था। राजनीतिक दुर्भाग्य से पाकिस्तान बन गया और खान अब्दुल गफ्फार खां की कर्म-भूमि सीमान्त प्रदेश पाकिस्तान में चला गया। पाकिस्तान बन जाने पर वहां की सरकार ने पुनः पदों का लालच देकर उन्हें व्रत-च्युत करना चाहता। किन्तु उन्होंने पाकिस्तान को मान्यता प्रदान न की और पख्तूनों की मातृभूमि सीमान्त प्रदेश को पाकिस्तान से स्वतन्त्र कराने के लिये संघर्ष करना शुरू कर दिया जो जब तक चल रहा है और जिसके लिये उन्हें जेल में जीवन बिताना पड़ रहा है। यदि वे चाहते तो सिद्धान्त की कीमत पर पाकिस्तान के साथ होकर वहां की सरकार में मनमाना पद ले सकते थे अथवा भारत में स्थानांतरण कर जेल व जुल्म से तो बच ही सकते थे साथ ही जहां स्वतन्त्रता के बाद अवसरवादियों ने दोनों हाथ लाभ लूटे हैं वे भी उच्च पद पा सकते थे। किन्तु जिसका जीवन ही सत्य के लिये संघर्ष करते रहने के लिये समर्पित हो चुका है जो समाज तथा देश की सेवा के लिये जीवित है वह प्रलोभन को क्या महत्व देगा?

<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118