बुद्धि, कर्म व साहस की धनी प्रतिभायें

सन् 57 की क्रान्ति के सर्वोच्च सेनापति—तात्याटोपे

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गौरवर्ण, छोटी पर मोटी और मजबूत गर्दन के ऊपर गोल-मटोल तेजस्वी मुख, भारी सिर पर अर्ध गोलाकार मखमली रत्नजड़ित लाल टोपी, ओजपूर्ण चमकीली आंखें, मझोले कद के सुडौल और गठे हुए शरीर में चकले जैसी छाती, अंग-अंग में विद्युत सी चपलता और मस्तक पर गहन विचारों की रेखा, यह है हमारे 1857 के प्रथम स्वातन्त्र्य-संग्राम के सर्वोच्च सेनापति महाबली स्वर्गीय तात्याटोपे का चित्र।

तात्याटोपे का जन्म सन् 1814 के लगभग एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पति पेशवा बाजीराव के धर्म गुरु थे। तात्याटोपे का जन्म का नाम रामचन्द्रराव था। इस जन्मजात क्रान्तिकारी रामचन्द्रराव ने पुरोहिताई में याचक वृत्ति का दूषण देखकर उसे अपनाने में अनिच्छा प्रकट की। उन्हें आरम्भ से ही शास्त्रों की अपेक्षा शस्त्रों से विशेष अनुराग था। बालक की रुचि के अनुकूल शस्त्रविद्या सिखाने का कार्य स्वयं बाजीराव पेशवा ने अपने हाथों में लिया। धीरे-धीरे बालक रामचन्द्रराव की शस्त्र चलाने की असाधारण प्रतिभा मुखरित हो उठी। बर्छा, तलवार, बिछवा आदि शस्त्र चलाने में उन्होंने अद्भुत कौशल का परिचय दिया। बाण की प्रत्यंचा को चढ़ाने में तो वह अद्वितीय थे एक बार हाथ से निकला तीर कभी व्यर्थ नहीं जाता था। बालक की इस असाधारण प्रतिभा पर मुग्ध होकर बाजीराव पेशवा ने भरी राजसभा में युवक रामचन्द्रराव को एक रत्न जड़ित लाल मखमली टोपी से विभूषित किया। उस समय इस युवक का मुख बाल रवि की भांति स्वाभिमान से शोभायमान हो रहा था। पेशवा ने इस अवसर पर आशीर्वाद देते हुए कहा था कि बेटा देश की धरती को एक दिन तुम नापाक फिरंगियों से अवश्य मुक्त कराओगे। इस कार्य में भगवान् तुम्हारी सहायता करेंगे। बस, उसी दिन से रामचन्द्रराव तात्याटोपे के नाम से प्रसिद्ध हुए।

सन् 1837 में देश के अनेक भागों में ईस्ट इंडिया कम्पनी का शासन स्थापित हो चुका था। अंग्रेजों की स्वेच्छा-चारिता और निरंकुशता बढ़ती चली जा रही थी। कम्पनी के अंग्रेज शासकों ने बाजीराव पेशवा को पूना से निर्वासित कर दिया था। इन्हीं के साथ तात्या-परिवार भी निर्वासित हुआ। इस प्रकार छोटी आयु से ही अपनी मातृभूमि को छोड़कर तात्याटोपे कानपुर के पास विठूर (ब्रह्मावर्त) चले आये थे। यहीं सर्व प्रथम झांसी की महारानी लक्ष्मीबाई और नाना फडनवीस से उनका साक्षात्कार हुआ था। इस समय तात्या टोपे की अवस्था लगभग 24 वर्ष, नाना फडनवीस की 16 वर्ष और लक्ष्मीबाई की कुल दस वर्ष की थी। तात्याटोपे ने विठूर के दुर्ग में रानी लक्ष्मीबाई और नाना साहब को शस्त्र विद्या की शिक्षा दी। शस्त्र विद्या के साथ-साथ तात्याटोपे ने इन दोनों के अन्दर राजनीति और क्रान्तिकारी भावनाओं का समावेश किया। नकली दुर्ग बनाना, कल्पित सेनाओं पर आक्रमण करना, किलों को तोड़ना, शिकार करना, छापामार युद्ध करना आदि में तात्याटोपे ने इन्हें प्रवीण कर दिया था।

बाजी राव पेशवा ने तात्या टोपे को पहले से ही कांटों का ताज पहना कर आने वाली भीषण क्रांति का कर्णधार निर्धारित कर दिया था। समय गति तेजी से करवट बदल रही थी। अंग्रेजों के अत्याचारों एवं जघन्य कृत्यों के विरुद्ध देश का वातावरण गर्म हो उठा था। देश के सभी छोटे-बड़े राज्यों का अंग्रेज क्रमशः अन्त और विनाश करते जा रहे थे। भारतीय राजा—नवाबों के सभी रीति-रिवाज और प्रथाओं का अन्त कर अंग्रेजी-सभ्यता प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी। मदोन्मत्त फिरंगियों में चारित्रिक हीनता भी बहुत बढ़ गई थी।

अंग्रेजों के खिलाफ तात्याटोपे के सुनिश्चित षड्यन्त्र का श्री गणेश सन् 1851 में हुआ। जबकि पेशवा बाजीराव की मृत्यु के पश्चात् कम्पनी के शासन ने नाना साहब को उनका दत्तक पुत्र मानने से इन्कार कर दिया था पेशवा बाजीराव ने नाना साहब को 1827 में ही दत्तक पुत्र के रूप में गोद ले लिया था। वास्तव में वे ही उनके उत्तराधिकारी थे पर अंग्रेजों ने उनके इस अधिकार की अवहेलना की। इसी समय तात्याटोपे का अन्तर्द्वन्द्व प्रथम बार क्रान्ति का मूर्त रूप लेकर प्रकट हुआ।

पूरे 6 वर्ष तक तात्याटोपे ने इस क्रान्ति आन्दोलन को सक्रिय रूप देने के लिये सारे देश का भ्रमण कर सभी राजाओं एवं गण्यमान्य व्यक्तियों से सम्पर्क स्थापित किया और सावधानी के साथ क्रान्ति की अग्नि को सुलगाया। महीनों के विचार-विमर्श के पश्चात् 31 मई 1857 क्रांति दिवस निश्चित किया गया। किन्तु दुर्भाग्यवश इस क्रान्ति के ज्वालामुखी का लावा 25 दिन पूर्व ही मेरठ में फूट निकला।

इस संग्राम में महावीर तात्या की चमकती हुई तलवार ने काल का रूप धारण कर अनेक देशी-विदेशी शत्रुओं का संहार किया। अपने अन्तिम श्वास तक तात्याटोपे ने कभी अंग्रेजों की आधीनता स्वीकार नहीं की। जिस समय अंग्रेज सभी देशी राज्यों का अन्त कर भारत में एकछत्र राज्य स्थापित करने का स्वप्न देख रहे थे। सेनापति तात्याटोपे भला ऐसे अपवित्र शासन को कैसे सहन कर सकते थे। उन्होंने विठूर के दुर्ग पर खड़े होकर बगावत का झण्डा बुलन्द किया।

मेरठ में विप्लव का विस्फोट होते ही नाना फडनवीस अपने भाई रावसाहब और तात्याटोपे को पेशवा की गद्दी का उत्तराधिकारी बनाकर क्रान्ति का नेतृत्व करने मेरठ की ओर प्रस्थान कर गए। क्रान्ति की अग्नि देश में सर्वत्र धधक रही थी। आवश्यकता थी एक रण बांकुरे सेनापति की जो क्रान्ति का सुचारु रूप से नेतृत्व कर सके। सप्ताहों महारानी लक्ष्मी बाई, नाना फडनवीस और प्रमुख क्रान्तिकारियों ने इस प्रश्न पर गम्भीरता पूर्वक विचार-विनिमय किया और अन्त में 18 जून 1857 को तात्याटोपे को इस महाक्रान्ति का सर्वोच्च सेनापति चुन लिया।

विप्लवी सेनाओं की बागडोर अपने हाथ में लेते हुए देश की जनता के नाम सेनापति तात्याटोपे ने एक संदेश प्रसारित किया। जिसमें कहा गया था कि—‘‘भारत की स्वतन्त्रता को चिरस्थायी और अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए देश के सभी लोग आपसी भेदभाव भुलाकर अंग्रेजों को मार भगाने के लिए संगठित हो जायं। अंग्रेजों ने हमें परतन्त्र करने के लिए देश में जो दमन आरम्भ किया है, हमें उसका खुले रूप में मुकाबला करना है। अंग्रेजों की उद्दण्ड सैनिक शक्ति और नापाक हुकूमत को हिन्दुस्तान से समाप्त करने के लिये विप्लवी सेनाओं का पूरा-पूरा साथ देना आप लोगों का कर्त्तव्य है। ‘‘जय भारत’’ आपका तुच्छ सैनिक तात्याटोपे।

सेनापति तात्याटोपे के इस आह्वान पर भारतीय स्वतन्त्रता की उन्मुक्त सेनायें उनके नेतृत्व में सिंह गर्जना के साथ लोहा लेने को कटिबद्ध हो गई। भारतीय सेनायें अंग्रेजी फौजों का सफाया करती निरन्तर आगे बढ़ रही थी। कितने ही अंग्रेज मारे गये। अनेक जान बचाकर भाग निकले और यत्र-तत्र जा छिपे। इस समय बहुत से देश-द्रोही भी अंग्रेजों का साथ दे रहे थे। ऐसे सभी लोगों को ढूंढ़-ढूंढ़ कर तात्या की विप्लवी सेनाओं ने मौत के घाट उतार दिया और जिन लोगों ने क्षमायाचना कर अधीनता स्वीकार करली, उनको सेनापति ने अभय दान दिया।

तात्याटोपे में विलक्षण दैवी शक्ति थी विकट परिस्थिति में जब कभी मार्ग में घोड़े को छोड़ देना पड़ता था तब सेनापति तात्याटोपे द्रुतगति से क्रांति का संचालन करने के लिये अपने पैरों में एक विशेष प्रकार के बने हुए लंबे बांसों का प्रयोग किया करते थे। जिस समय वे इन बांसों को पैरों में बांधकर वायु वेग से भागते थे, उस समय अंग्रेज शत्रुओं की दक्ष सुसज्जित और साधन सम्पन्न सेनाएं उनके पैरों की उड़ती हुई धूल को भी नहीं देख पाती थीं।

तात्याटोपे के अपूर्व बल और रणचातुर्य पर मुग्ध होकर लन्दन के ‘डेली न्यूज’ और ‘लन्दन टाइम्स’ तक ने उनकी बड़ी प्रशंसा की। ‘टाइम्स’ ने लिखा—‘‘तात्या बड़ा साहसी वीर है। वह धैर्यवान्, विचारक और कुशल योद्धा है।’’ नेलसन नामक एक अंग्रेज लेखक ने अपनी ‘भारत-विद्रोह का इतिहास’ नामक पुस्तक में लिखा है—‘‘निःसंदेह संसार की किसी भी वीर सेना ने इतनी तीव्रगति और साहस के साथ कभी कूच नहीं किया। जितनी तेजी के साथ बहादुर तात्याटोपे की सेना ने किया।

लन्दन के ‘डेली न्यूज’ के सम्वाददाता की रिपोर्ट के अनुसार—‘‘हमारा विचित्र मित्र तात्या इतना चतुर और कठोर है कि मैं उसकी सराहना किये बिना नहीं रह सकता। उसने हमारे बहुत से नगर उजाड़ दिये, खजाने लूट लिये, युद्ध के शस्त्रागार खाली कर दिये। उसने सेनाएं इकट्ठी कीं और कटवा डालीं। हमारी तोपें छीन लीं और हमारा ही सफाया किया। अपनी गति में तो वह बिजली को भी मात कर रहा है। कई-कई सप्ताह चालीस-पचास मील प्रति घण्टे की गति से यात्रा करता रहता है। हमारी सेनाओं के आगे रहता हुआ अचानक पीछे पहुंच जाता है। सर्वोत्तम मशीन भी इतनी तेजी न कर सकेगी जितनी तूफानी तेजी तात्या करता है। पर्वतों की चढ़ाई पर, कन्दराओं में, घाटियों में, पीछे-आगे, ऊपर-नीचे, कहीं भी तात्याटोपे के जाने में कोई बाधा नहीं डाल सकता है। वह चक्करदार मार्गों से तुरन्त ही हमारी सेनाओं और सामान की गाड़ियों पर बाज की तरह आक्रमण करता है किन्तु हमारे हाथ नहीं आता।’’

तात्या टोपे ने दूर-दूर तक अंग्रेजों का सफाया कर दिया था किन्तु कुमक पहुंचने पर अंग्रेजी सेनाएं पुनः आगे बढ़ आती थीं और अपनी भयानक तोपों से नगर के नगर और ग्राम के ग्राम ध्वंस करती थीं।

ग्वालियर के युद्ध में असफल होकर सेनापति तात्या नर्मदा नदी को पार कर महाराष्ट्र पहुंचे और वहां उन्होंने जनता को अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध के लिये संगठित किया। झांसी की रानी के बाद अंग्रेज यदि किसी से घबराते थे तो वह थे तात्याटोपे। इसलिए शत्रु की सेनाएं निरन्तर उनकी खोज में रहती थीं। कहा जाता है कि तात्या वर्षा काल में चम्बल की तूफानी लहरों पर सर्प की भांति तैर जाते थे। सेनाएं और सामग्री की कमी के दिनों में अंग्रेजी सेनाएं उनको पकड़ने के लिये मार्ग रोककर दीवार बनकर खड़ी रहती थीं किन्तु विप्लवी देशभक्त सेनाएं सदैव उनसे डटकर लोहा लेती रहीं और उनकी पंक्तियों को तोड़-फोड़ कर आगे बढ़ती रहीं। उन्होंने अपने अपूर्व युद्ध कौशल से अंग्रेजों को परास्त कर कानपुर पर पेशवाई का झंडा फहरा दिया पर अंग्रेजों ने पुनः कानपुर पर चढ़ाई की और महीनों तक दोनों ओर से सेनाएं जूझती रहीं। घमासान युद्ध चलता रहा। निश्चय ही विजय देशभक्त सेनाओं की होती किन्तु तत्काल ही अंग्रेजों की नई सेना के आ जाने के कारण तात्याटोपे घिर गये और उन्हें युद्ध स्थगित कर मैदान छोड़ देना पड़ा।

फिर भी वे हतोत्साह नहीं हुए। कानपुर पर पुनः अधिकार करने के लिये विद्रोही तात्या की सेनाओं ने परखारी पर अधिकार कर लिया। कानपुर पर धावा बोलने की तैयारी थी कि रानी लक्ष्मीबाई ने दूसरे मोर्चे पर सैनिक सहायता की मांग की। इसलिए वह स्वप्न अधूरा रह गया।

इस क्रान्ति को चलते काफी समय हो गया था। धीरे-धीरे तात्याटोपे के अनेक मित्र और सहयोगी विप्लव की आहुति में प्राणार्पण कर चुके थे। कुछ देश द्रोही बन गये थे, किन्तु तात्याटोपे अन्तिम श्वास तक संघर्ष करते रहे।

एक बार किसी वन में छिपीं तात्या की सेनाएं विश्राम कर रही थीं। अंग्रेजी सेनाओं ने उन्हें चारों ओर से घेर कर आग लगादी। वह सब जंगल जलकर राख हो गया और अंग्रेजी सेनाएं ज्यों की त्यों खड़ी रहीं। अंग्रेज समझे कि वे सब लोग जलकर खाक हो गये किन्तु ज्यों ही उनकी सेनाएं पीछे हटीं त्यों ही महावीर तात्याटोपे की जीवन सेना ने अचानक वेग से अंग्रेजी सेनाओं पर घातक आक्रमण कर दिया, जिसके परिणाम स्वरूप सारे अंग्रेज मारे गये।

तात्याटोपे की मृत्यु के सम्बन्ध में इतिहासकारों के विभिन्न मत पाये जाते हैं। कोई कहता है कि तात्याटोपे को गिरफ्तार  करके उसी समय उनके हाथ-पैर बांधकर मार डाला था। कई लोगों का कहना है कि उनको फांसी दी गई थी किन्तु इतिहास के गहन अध्ययन से पता चलता है कि मानवता, न्याय और नीति की दुहाई देने वाले कई क्रूर अंग्रेजों ने मिलकर उनकी बड़ी बेरहमी से हत्या की। इस पर भी जब उनकी पैशाचिक प्यास नहीं बुझी तब प्रतिशोध लेने के लिए उन्होंने मृत शरीर को 18 अप्रैल 1859 को तोप के मुंह से बांधकर उड़ा दिया।

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