बुद्धि, कर्म व साहस की धनी प्रतिभायें

दो हजार कुश्तियां लड़ने वाला—किंग कांग

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बरासोय (रमानिया) में सन् 1909 में एक बालक का जन्म हुआ। नाम रखा गया एमालय चजाया। आयु के अनुपात में बालक का शारीरिक विकास बहुत कम हो रहा था। वह दुबला पतला और दब्बू प्रकृति का था। अपने साथियों से रोज पिट कर घर आता था। उसे यह पिटना असह्य था पर विवश था क्या करता।

एक दिन इसमें बहुत बुरी तरह मार पड़ी। वह रोता-रोता घर आ रहा था कि उससे एक मोटे ताजे व्यक्ति ने पूछा, ‘‘बच्चे क्यों रोते हो?’’ उसने उत्तर दिया—‘‘मैं दुबला हूं सब लड़के मुझे मारते हैं।’’ उस व्यक्ति ने स्नेह से उसकी पीठ थपथपाई और समझाया कि तुम शरीर और बल का व्यायाम के माध्यम से विकास करो। उसी दिन से बालक ने नियमित व्यायाम आरम्भ किया। वह इस नियमित व्यायाम से विश्व विख्यात पहलवान बना और किंग कांग के नाम से अभूतपूर्व ख्याति अर्जित की।

किंग कांग का शरीर पहलवानों के लिये भी आश्चर्य की वस्तु था। उसकी ऊंचाई छः फुट तीन इंच और वजन 190 किलो ग्राम था। आकार में यह पूरा एक पहाड़ था। अपने जीवन में इसने दो हजार प्रथम श्रेणी की कुश्तियां लड़ी थीं।

किंग कांग को अपने इस शारीरिक विकास के लिए बड़ी साधना करनी पड़ी। साधारण दुबले-पतले सींकिया पहलवान से विकसित होकर इतना विशाल शरीर बनाने के लिये उसने आजीवन अविवाहित रहने के संकल्प को उसने निभाया। इसके निर्वाह के कारण उसे मार भी खानी पड़ी। 1938 में ‘विश्व विजेता’ होकर जब यह जर्मनी गया तो वहां भी एक सुन्दरी ने इसके सामने विवाह का प्रस्ताव रखा जिसे उसने अस्वीकार कर दिया। महिला ने अपने इस निरादर का बदला किंग कांग पर शराब की बोतल फेंक कर लिया। इस चोट का निशान उसे सदा अपने संकल्प का ध्यान दिलाता रहा।

व्यायाम मनुष्य के लिये भोजन की तरह ही अनिवार्य है। किंग कांग की खुराक बहुत थी। इतनी अधिक कि लोग दांतों तले उंगली दबाते थे। इतना भोजन पचाना तभी संभव था कि वह रोज व्यायाम भी करता। भोजन और व्यायाम ये दोनों उसके लिये अनिवार्य थे।

उठती उम्र में एक दिन यह अपने मित्रों के साथ लन्दन में सिनेमा देखने गया। वहां एक दैत्य जिसका नाम किंग कांग था उसे देख कर उसके मन में यह जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि क्या ऐसा शरीर केवल कहानियों की ही सामग्री है अथवा ऐसा बना भी जा सकता है उसी दिन से उसने अपना नाम ऐमायल चजाया से बदल कर किंग-कांग रख दिया कि वह ऐसा बनने का प्रयास करता रहे।

किंगकांग अपने आपको विश्व नागरिक मानता था। एक ही देश का होकर रहना उसे अपनी विशालता के अनुपात में बड़ा छोटा लगता था। अपने इसी दृष्टिकोण के कारण वह ‘विश्व विजेता’ के रूप में विख्यात हो सका था।

उसे हर प्रकार की कुश्ती लड़ने का शौक था। वह हमीदा पहलवान के चेलेंज पर लाहौर आया तथा उससे कुश्ती लड़ा। भारतीय दावों से लड़ने का उसका यह प्रथम अवसर था। दोनों बराबर रहे। दूसरी बार वह गामा के भाई इमाम बख्श से लड़ा जिसमें इमाम बख्श का घुटना टूट गया और सदा के लिये पहलवानी करना छूट गया। दारा सिंह से कई बार वह हारा व कई बार उसने दारा सिंह को हराया।

कुश्ती में खिलाड़ी की भावना से लड़ने वालों में किंग कांग को सदा याद किया जाता रहेगा। विश्व विजेता होते हुए भी उसने भारतीय ढंग से कुश्ती लड़ना अस्वीकार नहीं किया उसे अपनी शारीरिक शक्ति पर गर्व नहीं था न अपने ‘विश्व विजेता’ सम्मान को बनाये रखने की चिंता ही थी।

उसने अपने जीवन में एक लक्ष्य को चुना था और वह था कुश्ती लड़ना। उसकी इच्छा थी कि वह अखाड़े में ही प्राण त्यागे। इस इच्छा के पीछे वह एक ही बात कहता था कि जिस काम को करो उसी में लीन हो जाओ यही सफलता का राज है।

उसकी यह इच्छा पूरी नहीं हो सकी। मलयेशिया की एक कार दुर्घटना में वह बुरी तरह घायल हो गया था। 57 वर्ष की आयु में दो महीने तक अस्पताल में इलाज करवाने के बाद इसका देहान्त हो गया।

किंगकांग ने अपने कार्य कलापों से यह सिद्ध कर दिया था कि मनुष्य चाहे तो अपनी शक्ति का मन चाहा विकास कर सकता है। यह दूसरी बात है कि उसने उपार्जित क्षमता का उपयोग केवल कुश्ती लड़ने में ही किया सभी मनुष्यों को वैसा शौक भी नहीं होता। शरीर को स्वस्थ व सबल बनाने के क्षेत्र में तो उसका लोहा मानना ही पड़ेगा।

कमजोर और पिछड़ा मनुष्य आज जीवन के हर क्षेत्र में दुबले पतले एमायल चजाया की तरह मार खा रहा है। अपनी आन्तरिक शक्तियों को जगाकर उसे किंग कांग बनना है। भावनाशील व्यक्ति पीड़ित और दिग्भ्रमित मनुष्य के लिये करना तो बहुत कुछ चाहते हैं पर उन्हें अपनी क्षमताओं पर विश्वास नहीं आता है। किंग कांग की तरह इन शक्तियों को विकसित किया जाय तो ऐसे ही आश्चर्य जनक परिणाम जन-कल्याण की दिशा में भी प्रस्तुत किये जा सकते हैं।

किंगकांग ने अपनी इस शक्ति का सदुपयोग दुर्बलों को अपनी तरह बलवान बनाने में किया उसने कई व्यायाम शालाएं संचालित कीं। मरने के पूर्व भी वह सिंगापुर की व्यायाम शाला का संचालन कर रहा था।
एक ही उद्देश्य पर अपने समस्त कार्य-कलाप केन्द्रित कर दिये जायं तो उसका परिणाम आश्चर्य जनक होता है। किंग कांग की तरह अपने लक्ष्य पर ही अपना सारा ध्यान केन्द्रित करके पूरी निष्ठा व परिश्रम से जुट जाय तो असम्भव को भी संभव बनाया जा सकता है। किंगकांग को यह उपलब्धि संकल्पवानों को सदा प्रेरणा देती रहेगी और वे उसे पूर्ण करने में सफल होते रहेंगे।
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