बुद्धि, कर्म व साहस की धनी प्रतिभायें

कांग्रेस के जन्मदारा—सर ऐलेन ह्यूम

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आज के युवकों को यदि यह बताया जाय कि वर्तमान सत्तारूढ़ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के जन्मदाता एक अंग्रेज आई.सी.एस. अधिकारी थे, तो वे सहसा इस पर विश्वास नहीं करेंगे। यह बात उनके गले नहीं उतर पाती कि एक अंग्रेज अधिकारी भारत में अंग्रेजी राज्य की समाप्ति की प्रेरणा लोगों को दे सकता है। पर यह सत्य है, उतना ही सत्य है, जितनी कि हमारी आज की स्वतन्त्रता। यह अंग्रेज व्यक्ति ऐलेन आटेवियम ह्यूम थे जो ब्रिटिश सरकार के उच्चाधिकारी रह चुके थे। वे निर्भीक भद्र पुरुष थे और महान् व्यक्तित्व, परम-देशभक्त व समाज-सुधारक जोसेफ ह्यूम के सुपुत्र थे। भारत के साथ सहानुभूति और प्रजातन्त्र में दृढ़ विश्वास उन्हें अपने पिता से विरासत में मिला था।

आज 85 वर्ष पूर्व जब अंग्रेजी शासन हमारे देश में दृढ़तापूर्वक जमा हुआ था, वे कौन-सी परिस्थितियां थीं, जिनसे प्रेरित होकर इस अंग्रेज अधिकारी ने भारतीयों को स्वतन्त्रता के लिये प्रेरित किया, उन्हें उत्साहित किया, तैयार किया, सहयोग दिया और सर्वस्व न्यौछावर किया? सर ह्यूम ने एक नये आन्दोलन का सूत्रपात किया। उन्होंने भारतीय कांग्रेस की स्थापना की और भारत को अंग्रेजों से मुक्ति दिलाने का बीड़ा उठाया। आज देश के उलझे हुये वातावरण और कांग्रेस पार्टी की आन्तरिक फूट को देखते हुये इस बात का खास महत्व है।

ऐलेन ह्यूम का जन्म सन् 1829 में हुआ। ये अपनी युवावस्था में अपने समकालीन अंग्रेज समाज सुधारकों से बहुत प्रभावित हुये थे। इन नेताओं के आन्दोलन का मुख्य ध्येय जनता के लिये आजादी की, रोटी की पुकार, अपने अधिकारों की मांग था। इस आन्दोलन का ह्यूम के युवा-हृदय पर गहरा प्रभाव पड़ा था।

20 वर्ष की अवस्था में उन्होंने भारत में ब्रिटिश सरकार की सेवा में आना पसन्द किया। अपने इस निश्चय में वे अपने पिता से विशेष रूप से प्रभावित हुये थे, जिन्होंने भारत में रहकर ईस्ट इंडिया कम्पनी और भारतीय रियासतों के राजे-महाराजों, नवाबों के बीच अनेक महत्वपूर्ण समझौते कराने में असाधारण योग्यता विवेक और अद्भुत दूरदर्शिता एवं प्रतिभा का परिचय दिया था।

भारत में ह्यूम की प्रथम नियुक्ति सन् 1874 में बंगाल के उच्च अधिकारी के रूप में हुई थी। आरम्भ से ही उन्होंने भारतवासियों की भावनाओं को समझने और उनकी समस्याओं को सुलझाने में गहरी रुचि प्रदर्शित की थी। इसके पश्चात् उत्तर प्रदेश के इटावा जिले में डिप्टी कलेक्टर की नियुक्ति के दौरान भी देश में शिक्षा प्रसार के लिये उन्होंने कई सराहनीय कार्य किये। इन्हीं के प्रयत्नों से जनवरी 1857 तक इटावा जिले में लगभग 181 निःशुल्क प्राथमिक पाठशालाओं की स्थापना हो चुकी थी। इन्हीं के अथक परिश्रम और लगन से इटावा में प्रथम मेडिकल कालेज खोला गया।

सन् 1859 में ह्यूम ने एक भारतीय मित्र के सहयोग से एक समाचार पत्र ‘दि पिपुल्स फ्रेन्ड’ आरम्भ किया, जो बड़ा लोकप्रिय सिद्ध हुआ और देश के कोने-कोने में इसका प्रचार हुआ।

सर ह्यूम एक कुशल प्रशासक थे। अपनी सरकार के प्रति पूरी कर्तव्यनिष्ठा के साथ-साथ भारतीयों के प्रति उनका व्यवहार बड़ा स्नेहपूर्ण और उदारता का रहा। अपने कार्यकाल के दौरान कुछ वर्षों तक कस्टम कमिश्नर भी रहे और सन् 1870 में भारत-सरकार के सचिव के रूप में उनकी नियुक्ति हुई। भारत के ग्रामीण जीवन और कृषि की अवस्था की उन्हें विशेष जानकारी थी। अतः वाइसराय लार्ड मेयो ने भारत के ग्रामीण सुधार का सारा कार्य भार उन्हें सौंपा। ह्यूम इस कार्य में जी-जान से जुटे थे और चाहते थे कि भारत के कृषि-सुधार के कार्य के लिये एक रचनात्मक योजना तैयार की जाय अंग्रेज उच्चाधिकारियों ने एक ऐसा षडयन्त्र इनके विरुद्ध रचा कि इन्हें नौकरी छोड़ने के लिये बाध्य होना पड़ा।

उन्होंने इस घोर अन्याय को चुपचाप सहनकर लिया पर इससे उनके हृदय को बड़ी ठेस लगी। इस विपत्ति में एक प्रकार का आत्म-दर्शन हुआ। उन्हें यह साफ महसूस हुआ कि ब्रिटिश शासन जनता के हित में नहीं। उन्हें यह दृढ़ विश्वास हो चला कि भारत के लोगों की जो निरन्तर दुर्दशा हो रही है, इसकी रोकथाम के लिये कोई ठोस कदम उठाने होंगे।

विदेशी राज्य के उस काल में अंग्रेज शासकों और भारतीय जनता के बीच ऐसी कोई कड़ी नहीं थी और न कोई ऐसे संवैधानिक उपाय थे, जिनके द्वारा भारत की निरीह जनता के दुःखों, कष्टों, भावनाओं आदि का सरकार को पता चल सकता है। ह्यूम इस विचारधारा के थे कि भारत में अंग्रेजी शासन चलाने तथा सरकार द्वारा अपने हितों की रक्षा के लिये भारतीयों का सहयोग अत्यन्त आवश्यक है।

पर कोई काम आरम्भ करने से पूर्व ह्यूम ने उचित समझा कि क्यों न पहले तत्कालीन वाइसराय लार्ड डफरिन से परामर्श कर लिया जाय क्योंकि स्वयं वायसराय भी लोगों की वास्तविक भावनाओं की कठिनाई अनुभव कर रहे थे। वे भी इस मत के थे कि कोई ऐसी जिम्मेदार संस्था भारत में होनी चाहिये जिसके द्वारा ब्रिटिश सरकार को हिन्दुस्तानियों की सही भावनाओं का पता चलता रहे।

उन दिनों कोई भारतीय राजनैतिक संस्था में विद्यमान न हो, ऐसा नहीं था। बंगाल में सन् 1876 में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी इण्डियन एसोसिएशन की स्थापना कर चुके थे, तथा मद्रास में महाजन सभा का भी जन्म हो चुका था। दोनों संस्थाएं देश में राष्ट्रीयता का बीज बोने का सफल कार्य कर रही थीं पर ह्यूम एक ऐसे केन्द्रीय संगठित आंदोलन का सूत्रपात करना चाहते थे, जो राष्ट्रीय इकाइयों को एक सूत्र में पिरो दे।

इस लक्ष्यपूर्ति के लिये वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के कार्य में जुट गये। ह्यूम की इस संकल्पित संस्था का उद्देश्य था—‘‘भारत का एक राष्ट्र के रूप में आध्यात्मिक, चारित्रिक, सामाजिक और राजनैतिक पुनरुत्थान और पुनरुद्धार।’’

इस आंदोलन की प्रतिक्रिया बड़ी सबल हुई। देश भर में इसका स्वागत हुआ। भारत के प्रत्येक भाग से राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत व्यक्ति इस आन्दोलन को सहयोग देने आगे आये। ह्यूम ने इनके सहयोग से प्रथम भारतीय राष्ट्रीय यूनियन की स्थापना की। बाद में यह यूनियन केन्द्रिय आंदोलन की प्रेरणा श्रोत बनी। इसके साथ ही करांची, अहमदाबाद, सूरत, बम्बई, पूना, मद्रास, कलकत्ता, बनारस, इलाहाबाद, लखनऊ, आगरा और लाहौर में स्थापित की गई। इनकी गतिविधियों को केन्द्रित करने के लिये पूना में इस यूनियन की एक परिषद का आयोजन भी किया गया। ये सब कार्य बड़ी तेजी से सम्पन्न हुये।

देश की वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुये यह जानना बड़ा दिलचस्प प्रतीत होता है कि इस यूनियन का सदस्य होने के लिये जो पांच योग्यतायें अनिवार्य रखी गई थीं। वे इस प्रकार हैं—

(1) सार्वजनिक रूप से निष्कलंक चरित्र

(2) भारत के लोगों के आर्थिक, शारीरिक, चारित्रिक, मानसिक तथा राजनीतिक स्तर के उत्थान की प्रबल इच्छा और सच्ची भावना से ओत-प्रोत होना।

(3) बौद्धिक शक्ति और विस्तृत दृष्टिकोण, तर्क वितर्क की जन्मजात प्रतिभा व शिक्षा ग्रहण द्वारा मानसिक सन्तुलन बनाये रखने की क्षमता।

(4) जनता के हित में स्वयं के हित को बलिदान करने को तत्पर होना।

(5) स्वाधीन एवं स्वतन्त्र विचार तथा अपने निर्णय में निष्पक्ष होना।

अपने इस आन्दोलन को सफल बनाने के लिये ह्यूम इंग्लैंड भी गये और वहां वे अनेक प्रमुख नेताओं, समाचार पत्रों के सम्पादकों आदि से मिले और उन्हें अपने मिशन का उद्देश्य समझाया। उन्हें इन सबसे पर्याप्त सहानुभूति मिली इस सफलता से प्रसन्न हो, इंग्लैंड से जब वे लौटे पूना में दिसम्बर 1885 में यूनियन के प्रथम अधिवेशन की तैयारियां हो चुकी थीं। इस बीच यह निर्णय किया गया कि यूनियन को ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ नाम दिया जाय, क्योंकि यह संस्था अब राष्ट्रीय महत्व का रूप धारण कर चुकी है। और देश के कोने-कोने से इसे समर्थन मिलेगा।

पर यूनियन का यह अधिवेशन पूना में न हो सका क्योंकि पूना में उन्हीं दिनों अकस्मात प्लेग की बीमारी फूट पड़ी। इसलिये अधिवेशन का स्थान पूना से बदलकर बम्बई में रखा गया। इस प्रकार 27 दिसम्बर 1885 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का सर्वप्रथम अधिवेशन का श्रेय बम्बई को मिला। कांग्रेस के आरम्भिक दिनों में ब्रिटिश अधिकारी इस संस्था की उपेक्षा करते रहे पर जब यह आंदोलन जोर पकड़ने लगा तो उनके कान खड़े हुये और इसके प्रति उनके व्यवहार में कठोरता आने लगी अनेक अंग्रेज अधिकारियों ने यहां तक राय प्रकट की कि कांग्रेस पर प्रतिबन्ध लगा दिया जाय और ह्यूम को भारत से निर्वासित कर दिया जाय। फलतः उन्हें भारत छोड़ने को विवश होना पड़ा।

भारत में ब्रिटिश सरकार के प्रतिरोध को खत्म करने के लिये ह्यूम ने इंग्लैंड में भारतीयों के अधिकारों के बारे में प्रचार का एक सशक्त कार्य क्रम तैयार किया। 1886 में इंग्लैंड में एक संस्था की स्थापना की गई, जो भारतीयों की भावनाओं को इंग्लैंड के लोगों तक पहुंचा सके। दादाभाई नौरोजी जो उन दिनों इंग्लैंड में थे, ब्रिटिश पार्लामेंट के प्रथम भारतीय प्रतिनिधि नियुक्ति हुये। बाद में सर-विलियम वेडरबर्न और ब्राडला ने भी सहयोग दिया।

ह्यूम 1892 में इंग्लैंड लौटे। वहां वे कुछ वर्ष रहे। वृद्धावस्था और निरन्तर गिरते स्वास्थ्य के बावजूद भारत के हितों के लिये वे अन्त तक ब्रिटिश सरकार से जूझते रहे। अनेक कठिनाइयों का उन्हें सामना करना पड़ा फिर भी वे कांग्रेस को सुदृढ़ बनाने और इस देश में राष्ट्रीयता जगाने के लिये अहिर्निश लगन से काम करते रहे। इंग्लैंड से वे भारत लौटना चाहते थे। पर वे अकस्मात बीमार पड़ गये और 84 वर्ष की आयु में 31 जुलाई 1912 को उनका देहान्त हो गया।

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