आजादी की लड़ाई का बिगुल बजा तो देश प्रेम के मतवाले सिपाही अपना-अपना काम छोड़कर इस युद्ध में आ कूदे। अपनी-अपनी भावना, अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार सबने अपने-अपने मोर्चे सम्हाल लिये। कोई नायक बना, कोई सेनापति बना, कोई सैनिक, तो कोई-रसद जुटाने वाला। जमकर युद्ध हुआ। अंग्रेजों के पांव उखड़ गए। भारत आजाद हो गया।
इस युद्ध के एक नायक ने देखा कि अब तो हवा ही बदल गई है न रहा वह उत्सर्ग, न वे सिद्धान्त रहे न कोई आदर्श रहा। आजाद भारत में उन सब की दुहाई तो दी जा रही है पर वास्तव में सत्ता-लोलुपता स्वार्थपरता अवसरवादिता और सिद्धान्त हीनता का ही सर्वत्र बोलबाला है। उसने इस समूह से अपना नाता तोड़ लिया। यह व्यक्ति थे दादा साहब लाड जो महाराष्ट्र के नाना पाटिल अच्युत पटवर्धन, यशवन्त्रा राव चह्वाण के साथ कन्धे से कन्धा गिलाकर लड़े थे।
इस बन्दर बांट ने दादा साहब को यह सोचने पर विवश कर दिया कि अभी हम पूरी तरह आजाद नहीं हुए हैं। ये देश भक्तों के आराम करने, सुख भोगने के दिन नहीं वरन् उनके ऊपर बहुत बड़ा काम आ पड़ा है। अंग्रेज चले गये पर अंग्रेजियत नहीं गई। जो राज पहले अंग्रेज कर रहे थे वही अब हम कर रहे हैं। इससे अन्तर अवश्य पड़ा है फिर भी समाज तो ज्यों का त्यों पिछड़ा हुआ है, अशिक्षण ज्यों का त्यों मुंह बाये खड़ा है। अब प्रत्येक व्यक्ति को वोट देने का अधिकार है पर वह उसका मूल्य नहीं जानता। सच्चे अर्थों में सुराज्य लाने के लिए उनके कन्धों पर जुआ पड़ा ही है। वे राजनीति से संन्यास लेकर समाज सेवा के क्षेत्र में आ गये।
दादा साहब लाड का नाम नाथा जी लाड था। इनका जन्म 2 जनवरी 1916 के दिन महाराष्ट्र के कुण्डल नामक गांव में हुआ था। पिता की आय साधारण थी, पांचवीं कक्षा तक पढ़ने के बाद इन्हें विवश होकर किर्लोस्कर छापाखाने में नौकरी करनी पड़ी। धीरे-धीरे परिश्रम तथा कर्तव्य निष्ठा के बलबूते पर ये आगे बढ़ते ही गये। अपने इन गुणों के कारण वे विक्रय विभाग के प्रमुख बना दिये गये। इनके हाथ के नीचे कई कर्मचारी काम करते थे। हिसाब रखने तथा व्यवहार के बड़े पाबन्द थे। इनके कारण छापाखाने को बड़ा लाभ हुआ। छापेखाने के मालिक इनसे आयु तथा धन में बड़े होते हुए भी इनका सम्मान करते थे। सच है अपना सम्मान कराना अपने हाथ में ही है।
इन्हीं दिनों स्वतन्त्रता की बलिवेदी पर अपने व्यक्तिगत स्वार्थों को बलिदान करने की—समय की पुकार को सुनकर इन्होंने इस नौकरी से त्याग पत्र दे दिया। पिता जी भोले भाले थे। घर तथा खेती का सारा काम मां देखती थी। इनका सहारा जब मां ने छिनते देखा तो उसने रोकने का प्रयास किया। नाथा जी ने अपनी मां को समझाया व पारिवारिक स्वार्थ की अपेक्षा उन्होंने राष्ट्र के हित को महत्ता दी।
जिस काम को करना है तो उसे पूरे मन से जी-जान से करना है। आधे-अधूरे मन से कोई भी काम करना इन्हें पसन्द नहीं था। खादी पहनना, सूत कातना तथा कुप्रवृत्तियों से दूर रहने वाला जीवन तो उन्होंने नौकरी करते हुए ही अपना लिया था। जब संग्राम में ही कूद पड़े तो फिर पूरे जोश के साथ लड़ना चाहिए। सतारा जिले में इन्होंने 1942 में प्रचण्ड आन्दोलन आरम्भ किया। जन-जन में इन्होंने नई चेतना जाग्रत की।
इनका काम जेल चले जाना नहीं था ये तो विरोध की अग्नि को धधका कर दावानल बना देने के लिये क्षेत्र में ही रहना चाहते थे। संगठन के मामले में पूरे सिद्ध हस्त थे। जनता की मनोभूमि के ज्ञाता थे। अंग्रेज सरकार ने इन्हें पकड़ने वाले के लिये पांच हजार रुपये का पुरस्कार घोषित किया पर कोई इन्हें पकड़वाने को राजी नहीं हुआ।
महाराष्ट्र के कोने-कोने से सतारा के आन्दोलन को सहायता मिली थी। इस धन का पाई पाई का हिसाब दादा ने रखा तथा अपने नेताओं को दिया। इस प्रकार के आन्दोलनों में गुण्डा तत्वों तथा लुटेरों की बन आती है वे इस आड़ में अपना उल्लू सीधा करते हैं। दादा साहब ने अंग्रेजी सरकार से लोहा लेने के साथ-साथ इन तत्वों का भी दमन किया।
अंग्रेजी हुकूमत सिर पटक कर मर गई पर वह दादा साहब की छाया तक न पा सकी। यह उनके अद्भुत व्यक्तित्व व सूझबूझ का परिणाम था कि तीन वर्ष तक वे भूमिगत रह सके। भारतीय क्रान्तिकारी इतिहास में उन गिने चुने व्यक्तियों में ये भी थे जो अंग्रेजों की आंखों में धूल झोंकने में सफल हुए थे।
आजादी के बाद दादा साहब ने निराश होकर नहीं अपना कर्तव्य समझकर समाज सेवा का क्षेत्र चुना। सबसे बड़ी कमी जो उन्हें अनुभव हुई वह थी शिक्षा की। उन्होंने शिक्षा विस्तार का कार्यक्रम अपने हाथ में लिया। सबसे पहले अपने गांव को ही उन्होंने अपनी कार्य भूमि बनाया। सात वर्ष तक उन्होंने वहां रात्रि पाठशाला चलाई। जिससे गांव के अशिक्षित स्त्री, पुरुषों ने लाभ उठाया। लोग जब स्वयं शिक्षित हुए तो उन्होंने शिक्षा की महत्ता को समझा। कुण्डल में वह स्कूल जिसमें बचपन में दादा साहब पढ़े थे अब तक पांचवीं कक्षा तक ही था। उन्होंने नब्बे हजार रुपये का चन्दा एकत्रित करके वहां मिडिल स्कूल की स्थापना की।
अपने गांव के पश्चात् उन्होंने अपना कार्य क्षेत्र विस्तृत किया। बचपन में शहर जाकर आगे पढ़ने की तीव्र लालसा थी पर अर्थाभाव तथा छात्रावास की व्यवस्था नहीं होने के कारण वे आगे पढ़ नहीं पाये थे। उनकी तरह कितने ही होनहार बालक शिक्षा से वंचित रह जाते थे। शिक्षा अब भी पैसे वालों के लिए ही रही थी। कुछ व्यक्ति ही इनके अपवाद थे जो गरीबी में भी अपने परिश्रम तथा लगन के बलबूते पर आगे पढ़ सके थे।
1948 में उन्होंने अपने इस उद्देश्य की पूर्ति का श्री गणेश ‘नाना पाटिल बोर्डिंग’ आरम्भ करके किया। ओंध में इस बोर्डिंग के लिए दो लाख रुपये का ट्रस्ट स्थापित किया। विदेश जाने वाले विद्यार्थियों के लिए 35 हजार रुपये का एक ट्रस्ट और खोला।
दादा साहब के द्वारा स्थापित छात्रावासों तथा स्कूलों की संख्या बहुत बड़ी है। इनके लिए धन जुटाने के लिए उन्होंने एक फकीर की तरह झोली फैलाई है। वे कहते हैं—‘‘ये बोर्डिंग और ये पाठशालाएं ही मेरा संसार है। स्वयं अपने घर में मेरी स्थिति एक अतिथि जैसी है जिसे मेरे परिवार वाले भी जानते हैं।’’ समाज सेवा के लिए ही उन्होंने अपना सारा जीवन समर्पित कर दिया।
एक एक पैसा और मुट्ठी-मुट्ठी अन्न के लिए गांव-गांव दर-दर, भटके क्या झोंपड़ी और क्या महल कोई ऐसा स्थान नहीं बचा जहां इस फकीर के चरण नहीं पड़े—जहां इसकी झोली नहीं फैली। लोक-मंगल के लिए उन्होंने जो झोली फैलाई उससे उनका मान घटा नहीं वरन् उन्होंने लोगों को यह बताया कि आज के समय धर्मशाला, सराय तथा मन्दिर बनाने तथा बाबा, पुजारियों को धन दान देने की अपेक्षा इस प्रकार के समाज हित के कामों में लगाना ही उपयुक्त है। इस प्रकार दिया जाने वाला दान ही पुण्य होता है।
दादा साहब के दाताओं में ऐसे किसान भी हैं जो एक मुट्ठी अन्न ही देते हैं और ऐसे किसान भी हैं जो उनको देने के लिए बोरे के बोरे अनाज अलग से रख देते हैं। ऐसे धन दाता भी हैं जो केवल एक पैसा भर देते हैं और ऐसे दानी हैं जो लाखों के चेक काट कर देते हैं। ये प्रसन्नता पूर्वक सब स्वीकार करते हैं कमी पड़ जाने पर वे अपने घर से पूरा करने में भी नहीं हिचकिचाते हैं।
वे कहा करते हैं—‘‘बच्चे तो ईश्वर की बगिया के फूल हैं। इन्हें पूरा खाद पानी देना हमारा कर्त्तव्य है। इस बगिया के फूलों को विकास की पूरी सुविधा मिले। किसी को अपनी परिस्थितियों से विवश होकर असमय मुर्झाना न पड़े।
इनके द्वारा संचालित इन छात्रावासों में प्रवेश पाने के लिए कोई शर्त नहीं रखी जाती। जिनके घर से जितनी सहायता मिल जाती है उतना ही छात्रावास शुल्क के रूप में दिया जा सकता है। चाहे ये पांच रुपये हों या पांच सौ हों। छात्रावास का वातावरण एक परिवार जैसा-घर जैसा होता है। शिक्षा समाप्त करके निकलने वाले विद्यार्थी जब काम पर लग जाते हैं तो अपने घर वालों की सहायता करने की तरह कुछ न कुछ धन राशि इन छत्रावासों को भेजते रहते हैं।
गरीब छात्रों को कॉलेज की शिक्षा सुलभ कराने के लिये इन्होंने सांगली में जो ‘महाराष्ट्र-वसति-गृह’ स्थापित किया है उसमें अधिकांश हरिजन छात्र हैं।
इतने छात्रावासों का संचालन वे पूरे मनोयोग से करते हैं। उनके खर्च का हिसाब-किताब रखना, उनकी जांच करते रहना, वे बिना प्रमाद किया करते हैं। वे इस बात का ध्यान रखते हैं कि जिस उद्देश्य के लिये उन्होंने दान इकट्ठा किया है उसी में उसका प्रयोग हो। यदि ऐसा नहीं हो सका तो जनता की जो श्रद्धा है वह समाप्त हो जायगी। आज कई व्यक्ति ऐसे भी हैं जो समाज की आड़ में अपना घर भरते हैं। उनकी गणना भी कहीं ऐसे लोगों में न होने लगे इसका उन्होंने पूरा ध्यान रखा।
उनकी सारी साख और व्यक्तित्व का सुपरिणाम है कि महाराष्ट्र वसति-गृह की मुहर से हजारों रुपये का सामान सांगली के किसी भी दुकानदार से लिया जा सकता है। ऐसी प्रतिष्ठा कमाने के लिये दादा साहब को कितनी सावधानी बर्तनी पड़ी है इसे उनके अतिरिक्त कोई नहीं जानता।
इन छात्रावासों में रहने वाले छात्र सादा जीवन उच्च विचार के जीवन दर्शन की महत्ता समझते हैं। अपने सुख के साथ साथ समाज के हितों का भी ध्यान रखने का पाठ वे वहां पढ़कर जाते हैं। अन्य छात्रावासों में जो व्यापारिक दृष्टिकोण दिखाई देता है। हर बात के लिये फीस दो नहीं तो छात्रावास को खाली करो ऐसा यहां नहीं होता यहां एक परिवार की भावना ही प्रमुख होती है। चरित्र निर्माण की ओर पूरा ध्यान दिया जाता है।
दादा साहब ने जिन स्कूलों का निर्माण किया है उनमें शिक्षा के साथ स्वावलम्बन को जोड़कर रखा गया है। शिक्षा समाप्त करके उन्हें नौकरी के लिये दर-दर भटकना नहीं पड़ता। आज ऐसी ही शिक्षा की आवश्यकता है। बढ़ती हुई बेरोजगारी की इस समस्या का हल दादा साहब के इन स्कूलों ने प्रस्तुत किया है।
दादा साहब लाड उन सच्चे हीरों में से एक हैं जिनमें आत्मा का प्रकाश विद्यमान है सेवा, त्याग, अपरिग्रह पर दुःख कातरता और मधुरता की किरणें फूट रही हैं। उनके सशक्त व्यक्तित्व को न पद की चाह है न प्रतिष्ठा की। ऐसे समाज सेवी का चरित्र कितने ही भावनाशील सच्चे मानवों को अपनी लोभ मोह की परिधि त्यागकर कर्मक्षेत्र में उतरने की प्रेरणा देने को पर्याप्त है।