बुद्धि, कर्म व साहस की धनी प्रतिभायें

स्वातन्त्र्य सेनानी—नाना साहब पेशवा

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1829 पेंशन याफ्ता पेशवा बाजी राव ने अपनी वसीयत लिखी। इस वसीयत के अनुसार पेशवा की पेंशन तथा सम्पूर्ण सम्पत्ति का उत्तराधिकार उनके दत्तक पुत्र नाना साहब को मिलने वाला था। उस समय तो अंग्रेज अधिकारियों ने इस वसीयत का विरोध नहीं किया। 1852 में पेशवा की मृत्यु हो गई तब अंग्रेजों ने इस वसीयत को अमान्य ठहराया।

नाना साहब गरीब माता पिता की संतान थे। उन्हें अंग्रेजों की पेंशन का लोभ नहीं था किन्तु अंग्रेजों की यह अनीति उन्हें अच्छी नहीं लगी। स्वार्थ के लिये नहीं अन्याय के प्रतिकार को अनिवार्य समझकर वे अपना यह अधिकार पाने का प्रयास करने लगे। 1817 में लार्ड हेस्टिंग्ज तथा पेशवा बाजी राव की जो संधि हुई थी उसकी शर्त थी कि पेशवा के राज्य का प्रबन्ध अंग्रेज सम्हालेंगे तथा पेशवा तथा उसके उत्तराधिकारी को 8 लाख रुपये पेंशन के रूप में देते रहेंगे। इस शर्त के अनुसार नाना साहब को पेंशन पाने का पूरा अधिकार था।

अंग्रेज पदाधिकारियों से पेशवा नाना साहब ने अपने अधिकारों की मांग की। कम्पनी ने उनकी इस मांग को ठुकरा दिया। अंग्रेजों ने इसी प्रकार अधिकांश भारतीय राजाओं को धोखा देकर उनके पास से राज्याधिकार छीन कर उन्हें पंगु बना दिया था। इस प्रकार के विश्वासघाती को दण्ड देने के लिए नाना साहब कृत संकल्प हो गये। अंग्रेजों के पास हुकूमत थी, बड़ी सेना थी, उनके सहायक भी बहुत थे, उनके सामने नाना साहब की कुछ भी स्थिति नहीं थी। वह कानपुर के पास बिठूर में रहते थे। उनके पास केवल पांच हजार सैनिक थे। इतनी बड़ी ताकत से टकराना अपने विनाश को बुलाना था। नाना साहब को विनाश का भय नहीं था। अन्याय का प्रतिकार मानव मात्र का धर्म होता है। इस धर्म से विमुख होकर जीना क्या जीना है वह तो मृत्यु से भी बदतर जीवन है।

नाना साहब ने अंग्रेजों से लड़ने की ठान ली। उन्हें आशा नहीं थी कि उन्हें बिना लड़े न्याय मिल जायेगा फिर भी वे समझौते का प्रयास करते रहे। अपने प्रतिनिधि अजीमुल्ला को उन्होंने इंग्लैंड भेजा। इंग्लैंड जोकर अजीमुल्ला ने सम्राट की अदालत में कम्पनी के इस अन्याय पूर्ण निर्णय के विरुद्ध अपील की। यह अपील खारिज हो गई तथा कम्पनी के अधिकारियों का निर्णय ही मान्य रहा। नाना साहब ने अंग्रेज पदाधिकारियों से भी व्यक्तिगत प्रयासों के माध्यम से अपना निर्णय बदलवाने का प्रयास किया पर अंग्रेज नहीं माने।

अजीमुल्ला इंग्लैंड से असफल होकर लौटा। नाना साहब ने उससे कहा कि ‘‘मुझे यही आशा थी कि यह अपील मंजूर नहीं होगी।’’ अंग्रेज समझते हैं कि भारतवर्ष के सभी राजा पंगु हो चुके हैं किन्तु अब वे ही देखेंगे कि अभी भी उनमें अन्याय का प्रतिकार करने की क्षमता है।

नाना साहब ने देश व्यापी क्रान्ति की योजना बनाई। अंग्रेजों का नग्न रूप नाना के सामने आया था। उससे भारत के राजा तथा प्रजा दोनों कभी-कभी ग्रसित हो चुके थे। नाना साहब जानते थे कि अब तक कोई व्यक्ति साहस करके आगे नहीं आया था इस कारण वे चुप बैठे हैं पर यदि उन्हें जगाकर एक सूत्र में पिरोया जाय तो वे इस विदेशी शासन को उखाड़ कर फेंक सकने में समर्थ होंगे। आज तक प्रत्येक राजा अपने स्वार्थ के लिए ही लड़ा था। न तो उसमें राष्ट्र के एकत्व की भावना थी न अन्य नरेशों का सहयोग ही मिला था। अंग्रेजों को भी वह अपनी ही तरह एक नरेश भर मानते चले आ रहे थे। नाना अब उनको अंग्रेजों का वास्तविक रूप बताने वाले थे जो महा भयानक था।

न्याय के पक्ष में पड़ने वाले असफलता के भय से अपने निर्णय को स्थगित नहीं करते उनके सामने तो एक ही लक्ष्य होता है अन्याय का प्रतिकार। अन्याय सहना अन्याय करने से कई गुना बड़ा अपराध है। इसका यह अर्थ नहीं कि नाना साहब की योजना सुनियोजित न थी। नाना साहब ने अंग्रेजों के विनाश के लिए सुनियोजित क्रांति का ताना बाना बुना। उन्होंने अंग्रेजों के अत्याचारों तथा घृणित उद्देश्यों को बताते हुए भारतीय नरेशों को उनके विरुद्ध क्रान्ति करने के लिए संगठित होने के लिए आह्वान किया। जनता में प्रचार करने के लिए गुप्त वेशधारी प्रचारक भेजे। भारतीय सैनिकों में देशभक्ति जगाने के लिये संदेश वाहक भेजे।

अन्याय तब तक ही फलता-फूलता है जब तक उसका प्रतिकार करने के लिए कोई संगठन उठ खड़ा नहीं होता। अंग्रेज भारतीयों को मरे हुए समझे बैठे थे। उन्हें क्या पता था कि उन्हें जिस क्रान्ति का पता नहीं है, सुनियोजित ढंग से कोई उसका सूत्र संचालन कर रहा है। देखते ही देखते नाना साहब को पत्रों के उत्तर प्राप्त होने लगे। नाना साहब को अब पता लगा कि व्यक्ति अपने विचारों से ही छोटा और बड़ा होता है। कल तक वे एक पेंशन यापत राजा भर थे पर आज वे भारत के स्वातन्त्र्य संग्राम के दृष्टा हैं कितने ही नरेश उनकी योजना के अनुसार काम करने को तत्पर हो उठे हैं। अंग्रेजों ने यदि उनके पौरुष को चुनौती नहीं दी होती तो आज वे इस प्रकार लोगों की श्रद्धा के पात्र नहीं बन सकते थे।

नाना साहब इस क्रान्ति के सूत्रधार बने। इस काम में अजीमुल्ला खां उनका दाहिना हाथ बना। यह प्रथम प्रयास था जब कि हिन्दू, मुसलमानों ने सम्प्रदाय भेद को मिटाकर भारत वर्ष की मुक्ति के लिए संगठित रूप से प्रयास किया था। अंग्रेज इतिहास कार सर जान के इस कथन से क्रान्ति के लिये किये गये प्रयासों की व्यापकता का दर्शन होता है।’’ महीनों से नहीं वर्षों से अंग्रेजी राज्य के विरुद्ध समस्त देश में क्रान्ति की आग लगायी जा रही थी। नाना साहब के दूत क्रान्ति की आग भड़काने वाले पत्रों को लेकर सारे देश में घूम रहे थे। बड़ी सावधानी तथा दूरदेशी के साथ इन पत्रों में लोगों को समझाने की बातें लिखी होती थीं। देश के भिन्न-भिन्न धर्मावलम्बियों और परस्पर विरोधी नरेशों तथा नवाबों को बड़ी समझदारी के साथ उद्देश्य की पूर्ति के लिए तैयार किया जाता था।

इस क्रान्ति के सूत्र संचालन में नाना साहब ने अथक श्रम किया दिन रात एक कर दिये। एक तरफ क्रान्ति के लिए जनता तथा नरेशों को उकसाया जा रहा था दूसरी तरफ अंग्रेजों के साथ नाना का व्यवहार और भी मैत्रीपूर्ण होता जा रहा था। जब कोई राजा, नवाब इसके लिए सहमत हो गये तब वह अजीमुल्ला के साथ उनसे बात चीत करने के लिए तीर्थ यात्रा के बहाने सारे देश में भ्रमण के लिए निकले। जहां भी ये गये इनका हार्दिक स्वागत हुआ। अंग्रेज पदाधिकारियों से मिलना नाना साहब नहीं भूले। जहां भी जाते वहां इनसे अवश्य मिलते।

इस क्रान्ति के लिए कितना प्रचार किया गया था यह इस बात से ही स्पष्ट हो जाता है कि जनता में अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंकने के लिए इतना जोश उत्पन्न हो चुका था कि यह निश्चित समय के पूर्व ही भड़क उठी। क्रांति की तिथि 31 मई रखी गई थी पर यह 6 मई को ही आरम्भ हो गई थी। यह तिथि मुख्य-मुख्य लोगों को ही बताई गई थी। साधारण जनता को तो प्रतीक्षा करने को ही कहा गया था।

एक साथ एक ही दिन सारे भारत में क्रांति होने वाली थी। इसी तिथि पर यदि यह क्रांति होती तो अंग्रेजों को सम्हलने का मौका नहीं मिलता। बैरकपुर के सैनिकों के विद्रोह ने समय से पूर्व ही इसे आरम्भ कर दिया। दूसरे क्रान्तिकारी भी चुप नहीं रह सके। भिन्न-भिन्न स्थानों पर अलग-अलग तिथियों को क्रान्ति हुई। असमय फूट पड़ने पर भी लोगों ने अंग्रेजों को दिन में तारे दिखा दिये। अंग्रेज परिवारों को बचकर अपने देश भागना कठिन लग रहा था।

कानपुर में क्रान्ति की खबरें आ पहुंची। अंग्रेज लोग भय से पीले पड़ गये उन्होंने इस देश को भी जी भरके लूटा था, अत्याचार किये थे, भारतवासियों को अपमानित किया था। उनके कुकर्म ही आज क्रान्ति बनकर उन्हें डसने आ रहे थे। क्रांति इस ढंग से नियोजित की गई थी कि इसकी सूचना नाना साहब के साथियों को पहले मिल जाती थी उसके दो तीन दिन बाद अंग्रेजों को पता लगता था।

नाना साहब अब 31 मई की प्रतीक्षा नहीं कर सके। उन्होंने कानपुर पर आक्रमण कर दिया। विप्लवी सैनिक टुकड़ियां उनसे आ मिली थीं उन्होंने देखते ही देखते खजाने तथा गोला बारूद पर अधिकार कर लिया। अंग्रेज सेनापति झीलर को भाग कर किले में शरण लेनी पड़ी। कुछ दिनों किले के सहारे रहा पर नाना के आगे वह ठहर न सके उन्हें आत्म समर्पण कर देना पड़ा। कानपुर पूरी तरह नाना के अधिकार में आ गया था। दिल्ली तथा अन्य स्थानों पर पहले ही क्रान्तिकारियों का अधिकार हो चुका था।

नाना साहब के पिता धर्म निष्ठ ब्राह्मण थे। बाल्यकाल से ही उन्होंने हिन्दू धर्म ग्रन्थों का अध्ययन किया था गीता उनका प्रिय धर्म ग्रन्थ था। वीर पूजक नाना के बचपन में ही शिवाजी आदर्श रहे। यह युद्ध उनके दैनिक नित्यकर्म की तरह ही था नाना साहब ने दुःख कष्टों की परवाह नहीं की तथा राष्ट्र में नवीन प्राण फूंके।

20 जून 1857। कानपुर के सत्ती चौरा घाट पर 40 नावें गंगा तट से लगीं। उनमें अंग्रेज परिवारों को बिठाकर इलाहाबाद भेजा जाने वाला था। सेनापति ह्वीलर को नाना ने हाथी पर बैठकर विदा होने का आग्रह किया पर वह राजी न हुआ। नाना साहब ने सच्चे मानव की भूमिका निभाई। शत्रु के साथ भी मानवीय व्यवहार किया। जनरल नील के अत्याचार की खबरें कानपुर तक आ पहुंची थीं। भारतीय, अंग्रेज परिवारों को इस प्रकार सुरक्षित जाते देखकर क्रुद्ध हो उठे। नाना साहब को यह ज्ञात हुआ तो वे तत्काल वहां पहुंचे उन्होंने स्त्रियों व बच्चों की रक्षा की तथा सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया।

नाना साहब ने तीन महीने तक कानपुर को अपने अधिकार में रखा। ये तीन महीने कानपुर की जनता के गौरव का समय था। न्याय तथा सुरक्षा का पूरा प्रबन्ध नाना साहब ने किया।

अंग्रेजों की कूटनीति तथा उत्तम अस्त्र-शस्त्रों से सज्जित सेना ने इस क्रान्ति को सफल नहीं होने दिया। चंद देश-द्रोहियों ने अपने घृणित स्वार्थ के वश होकर अंग्रेजों की सहायता की। समय से पहले क्रान्ति का फूट पड़ना भी एक प्रमुख तथ्य था नहीं तो सफलता मिलने में कोई अंदेशा नहीं था पर इस क्रान्ति के परिणाम दूरगामी हुए। नाना साहब का यह प्रयास अंग्रेजों को भारत से भगाने का शुभारम्भ ही कहा जायगा।

नाना साहब ने देखा कि अब भारत में रहकर क्रांति का संचालन कठिन है। क्रान्तिकारियों के गढ़ एक-एक करके टूटते चले गये तो वे नेपाल की तरफ चले गये। नेपाल नरेश ने इन्हें सहायता देने के बजाय अंग्रेजों को नेपाल प्रवेश की आज्ञा दे दी। साठ हजार स्त्री-पुरुष नाना साहब के साथ नेपाल के भयंकर जंगलों में गये। अंग्रेजी सेना के आक्रमण करने पर उनमें से अधिकांश वापस भारत लौट आये। आजादी के अग्रदूत नाना साहब की छाया भी अंग्रेज न पा सके। पराधीनता की अपेक्षा उन्होंने दुःख कष्ट सहना स्वीकार किया तथा नेपाल के बीहड़ वनों में उन्होंने अपना शेष जीवन बिताया।

अंग्रेजी शासन के अन्धकार से लड़ने के लिये अकेले दीपों को प्राण वत करने का जो साहस तथा श्रम नाना ने किया वह एक जीवित जाग्रत आत्मा का ही काम था। समाज सुधार के क्षेत्र में आज ऐसी ही जाग्रत आत्माओं को उठ खड़े होने की आवश्यकता है।

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