मुगल शासन काल में एक हिन्दू को बादशाह का आदेश मिला—‘‘यदि जीवन चाहते हो तो स्वधर्म त्याग कर मुसलमान धर्म स्वीकार कर लो और हमारी शहजादी से विवाह करके सम्पन्न, सम्मानित जीवन जीओ अन्यथा मृत्यु दण्ड पाने के लिये प्रस्तुत हो जाओ।’’ एक ओर सम्पूर्ण विलासिता का जीवन और दूसरी ओर मृत्यु, अब किसे वरण करे। उस व्यक्ति ने मृत्यु को स्वीकार किया अपने धर्म को नहीं छोड़ा। इस साहसी का नाम था भाई मतिदास।
किसी देश जाति को जीत कर उस पर अधिकार तो किया जा सकता है पर वह स्थायी नहीं रह सकता। जब तक उस देश के नागरिकों की धार्मिक तथा सांस्कृतिक चेतना को नष्ट न कर दिया जाय। भारतवर्ष की समृद्धि कथाएं सुनकर धन की लोभी जातियों ने भारत पर आक्रमण किये तथा चंद देशद्रोहियों के बलबूते पर शासन भी किया पर उनका सदा यही प्रयास रहा कि इनकी धार्मिक चेतना समाप्त कर दी जाय। यही मुगलों ने किया। यही अंग्रेजों ने किया। मुगल बादशाह को भाई मतिदास का व्यक्तित्व ऐसा ही लगा जिसे देखकर उसे भय हुआ कि यह सब हिन्दुओं को जगा देगा तो हमारा शासन खतरे में पड़ जायेगा।
भाई मतिदास स्वाभिमानी तथा दृढ़ चरित्र के व्यक्ति थे। वे भारतीय धर्म व संस्कृति के ज्ञाता तथा उसकी महानता से परिचित थे। वे चाहते थे कि हिन्दुओं को अपना वास्तविक स्वरूप बताकर उन्हें संगठित कर विधर्मी शासन से मुक्त करें। इसकी भनक जब बादशाह के कानों में पड़ी तो उन्हें धर्म-पथ से विचलित करने के लिए यह आदेश प्रसारित किया।
भाई मतिदास भला इस प्रकार के अन्याय के सामने सिर क्यों झुकाते मृत्यु से अज्ञानी ही भय खाता है। जीवन और मृत्यु के सम्बन्ध में जो हमारे धर्म की मान्यताएं हैं यदि उन्हें कोई जीवन में उतार ले तो उसे किसी का भय नहीं रह सकता। वे जानते थे कि अच्छा राजपद और राजा की पुत्री से विवाह करके जो विलासिता पूर्ण जीवन जीएंगे वह तो मृत्यु से भी बढ़कर होगा। इससे धार्मिक चेतना की जो चिंगारी उन्होंने जलाई है वह भी बुझ जायगी पर यदि वे मृत्यु का वरण कर लेंगे तो यही चिंगारी बड़वानल उत्पन्न कर देगी। मुगल शासक भी जान जायेंगे कि मृत्यु भी किसी को धर्म पथ से विचलित नहीं कर सकती।
यह आदेश देने वाला क्रूर मुगल सम्राट औरंगजेब था जिसके हाथ ऐसे अनेकों निरपराध धर्म प्रेमियों के रक्त से सन चुके थे। उसी का परिणाम हुआ कि मुगल शासन का अन्त हुआ।
दिल्ली के चांदनी चौक में आज जहां फव्वारा है ठीक उसी स्थान पर मतिदास को प्राण-दण्ड दिया गया। शरीर पर आरा चल रहा है और वे मुस्करा रहे हैं। मुगेल सेनापति अफजल खां उनका यह साहस व दृढ़ता देखकर चकित हो गया। यह बलिदानी इस शान से मरा कि आज भी भारत वासियों का मस्तक गर्व से ऊपर उठ जाता है। ऐसा ही बलिदान प्रस्तुत करने की ललक स्वयं के हृदय में भी उठती है।
जब भी धार्मिक चेतना जागी है राष्ट्रीय-गौरव के कीर्तिमान स्थापित हुए हैं। विदेशी हमारी इस चेतना को अपनी शिक्षा के मद-विष से इतना मृत-प्राय बना गए हैं कि इसे पुनः जाग्रत करने के लिए कितने ही मतिदासों की बलि हमें देनी है। उनकी तैयारी हमें करनी ही चाहिए।