बुद्धि, कर्म व साहस की धनी प्रतिभायें

जड़ जगत में आदर्शवादिता का खेजी—जानसन

<<   |   <   | |   >   |   >>


पड़ोस के मकान में आग लगी। मुहल्ले वाले भी उसे बुझाने में जुटे। छोटे देहात में आग बुझाने के बड़े साधन न होने से आग पर काबू जल्दी न पाया जा सका। फिर भी प्रयत्न यही रहा कि आग को बुझाने और घर का सामान निकालने के लिये जितना अधिक प्रयत्न सम्भव हो सके किया जाय।

यह सब चलता रहा। सामान भी बहुत कुछ बाहर निकल आया पर एक कोठरी में सोती हुई उस लकड़ी का किसी को ध्यान ही नहीं रहा। जब आग की लपटों में बहुत झुलसी तब वह जगी और चीखी। पर अब चारों ओर से वह कोठरी आग की लपटों से बुरी तरह घिर गई थी। उसमें से निकल सकना न लड़की के लिए सम्भव था और न किसी की यह हिम्मत पड़ती थी कि अपने को जोखिम में डालकर उसे निकाले। सभी विवशता अनुभव कर रहे थे और मुंह नीचे को लटकाये खड़े थे।

थी तो विवशता ही पर एक लड़के के भीतर से असाधारण उभार आया। दूसरों के प्राण बचाने के लिए अपने प्राण जोखिम में डालने का साहस न जाने उसमें कहां से आ गया। लड़के ने एक गीला कम्बल शरीर पर लपेटा, जूते कड़े किये, तीर की तरह आग से घिरी उस कोठरी में घुस गया जिसमें लड़की चीख रही थी। अपनी भुजाओं में उसे लपेटा और दौड़ता हुआ वापिस आ गया।

लड़की झुलसी तो थी पर उतनी नहीं जितना वह किसान युवक। लड़की को साधारण देहाती उपचार करने से ही राहत मिल गई, पर बेतरह जले हुए युवक को बोस्टन (अमेरिका) के अस्पताल में दाखिल किया गया। उसका नाम था—‘जोनसन’।

लड़के की उच्च भावना और साहसिकता की कथा सुनकर अस्पताल के सभी कर्मचारी प्रभावित हुए। वे जो उपचार कर सकते थे, करते ही रहे; पर स्थिति कुछ सुधरने में नहीं आ रही थी। मृत्यु और जीवन का संघर्ष चल रहा था।

प्रकृति के निष्ठुर नियम कहते थे हमें, अपनी धुरी पर घूमना है; भावना और उपयोगिता से हमें कुछ लेना-देना नहीं। जो आग को छुएगा वह जलेगा। घाव जितने गहरे होंगे—शरीर जितना अशक्त होगा, उतना कष्ट सहना होगा। हमारे यहां धर्मात्मा, अधर्मी के बीच कोई भेदभाव नहीं। हमारी अपनी आचार संहिता है और उसी पर चलेंगे। जोनसन धर्मात्मा है इससे हमारे कायदे नहीं बदल सकते।

चेतना के सदय नियम कह रहे थे। हमारा अपना क्षेत्र है मनुष्य का अन्तःकरण। जहां उत्कृष्टता होगी वहां आत्म-बल बढ़ेगा। और उस आत्मबल से प्रकृति के नियमों को बदल सकना अधिक संभव न हो तो भी धैर्य, शांति और हिम्मत के साथ कष्टों को सहने का बल तो मिल ही सकता है।

अस्पताल की रोगशय्या पर लगता था जड़ और चेतना क्रिया प्रक्रिया का संघर्ष आरम्भ हो गया और दोनों ही एक दूसरे को चुनौती देने लगीं।

जख्म इतने अधिक और इतने बड़े थे कि उनमें न रुकने वाले स्राव बहने लगे। दिन रात रक्त मिश्रित पानी रिसता और हर रोज कई-कई चादरें बदलनी पड़तीं। डॉक्टर चिकित्सा में संलग्न तो थे पर उनकी चिकित्सा कुछ अधिक कारगर नहीं हो रही थी। ये इस लड़के की साहसिकता से बहुत प्रभावित थे और उसे बचाने का हर प्रयत्न कर रहे थे पर कुछ रास्ता नहीं निकल रहा था। अपनी असफलता पर उन्हें उदासी ही घेरती चली जा रही थी।

मृत्यु शय्या पर पड़े हुए जोनसन ने वस्तु स्थिति को समझा; पर वह घबराया नहीं। और भी अधिक संतुलित तथा गम्भीर हो गया। उसकी जिजीविषा जाग्रत हुई और निश्चय किया कि वह मरेगा नहीं—अभी जीवित रहेगा। उसने डाक्टरों से कहा—आप उदास न हों। नये साहस से प्रयत्न करें—मेरी जीवनेच्छा अब आपकी नये सिरे से अधिक सहायता करेगी। न केवल दूसरे का प्राण बचाने में वरन् जीवन को मृत्यु के मुख में से निकाल सकने में भी क्या सत्साहस काम कर सकता है? यह जानने के लिये डॉक्टर उत्सुक ही नहीं आतुर भी हो गये। उनने घायल लड़के से कहा—तुम चाहो तो चिकित्सा विधि में अपनी सलाह भी सम्मिलित कर सकते हो। हम लोग यथा संभव अपने उपचार में वैसा ही हेर-फेर करने की सोचेंगे।

अब चिकित्सकों की मंडली में यह मरीज भी शामिल था। अब उससे भी परामर्श लिया जाने लगा।

जॉनसन ने सोचा मानसिक समस्याओं का समाधान यदि अपने भीतर से निकल सकता है तो शारीरिक समस्याओं का समाधान क्यों न होगा। घावों से बहते हुए स्राव के स्वच्छ भाग को यदि पुनः शरीर में प्रवेश कराया जाय तो उससे गलित विकृतियों को हटाया जाना संभव हो सकता है। यह सूझ उसे अध्यात्मवादी सिद्धान्तों के आधार पर सूझी। अपने सद्विचारों और सद्भावों को यदि कुविचारों से अलग छांट लिया जाय और उन्हें अधिक उत्साह के साथ अन्तःकरण में प्रवेश कराया जाय तो दुष्प्रवृत्तियों से—बुरी आदतों से सहज ही छुटकारा पाया जा सकता है। यही तथ्य शरीर पर सफल क्यों न होगा। उसने जितना सोचा उतना ही विचार परिपक्व होता गया।

दूसरे दिन डॉक्टर आये तो उसने एक नया प्रयोग करने के लिए कहा। उसके घावों में से बहते हुए स्राव में से शुद्ध जलांश निकाल कर उसे शरीर में पुनः प्रविष्ट कराया जाय। डॉक्टर पहले तो इस नये प्रयोग के लिए तैयार न हुये पर जब उसने यह लिखित अनुरोध प्रस्तुत किया कि इस नये प्रयोग में उसकी जान भी जाय तो कुछ हर्ज नहीं, क्योंकि शरीर अब ऐसा हो गया है जिसको एक प्रकार से बचने की आशा ही नहीं रह गई है। डाक्टरों ने उसका अनुरोध स्वीकार कर लिया। स्राव को इकट्ठा करके उसका शुद्ध अंश ‘सीरम’ निकाला गया और उसे सुई से उसके शरीर में पुनः प्रविष्ट किया गया। परिणाम बहुत ही उत्साहवर्धक निकला। घावों से बहने वाला स्राव बन्द हो गया। डॉक्टर इस नये प्रयोग की सफलता से आश्चर्य चकित थे।

स्राव तो बन्द हो गया पर घावों के समीपवर्ती भाग इतने विकृत हो गये थे कि उनका भरना, नई चमड़ी उत्पन्न होना असंभव लगता था। जॉनसन ने इस समस्या का हल भी आध्यात्म सिद्धान्त के आधार पर सोचा। अपनी विकृतियों का समाधान अपने ही पास हो सकता है। शुद्ध चमड़ी को अशुद्ध चमड़ी के स्थान पर लगा दिया जाय, तो इससे शुद्ध स्थान की कोई हानि न होगी किन्तु अशुद्ध की अशुद्धि मिट जायगी। यही होता भी है। श्रेष्ठ पुरुष अपने ज्ञान, तप, श्रम आदि का एक बड़ा भाग पतित और पिछड़े हुए लोगों के लिए दे देते हैं। इससे उनकी कुछ हानि नहीं होती। उनका पुण्य परमार्थ खर्च हुए आत्म बल और तप की पूर्ति कर देता है। साथ ही पतितों का उद्धार भी हो जाता है। इसी आधार पर यह शुद्ध स्थान की त्वचा अशुद्ध स्थान पर लगा दी जाय तो उस शुद्ध स्थान पर नई त्वचा आयेगी और साथ ही गलित घावों का भरा जाना भी संभव हो सकेगा। इस तथ्य पर वह विचार करता रहा। जितना सोचा उतना ही यह आधार सही प्रतीत होता गया। चेतन जगत के भावनात्मक सिद्धान्त शरीर पर, भले ही वह जड़ हो लागू क्यों न हो सकेंगे।

दूसरे दिन डाक्टरों से उसने अनुरोध किया उसके शुद्ध स्थान की चमड़ी उखाड़कर गलित घावों में जोड़ दी जाय। डॉक्टर इस नये प्रयोग के लिए भी मुश्किल से ही तैयार हुए पर उन्हें आशा यह जरूर थी कि पिछले प्रयोग की तरह शायद यह नया प्रयोग भी सफल हो जायगा। जब रोगी उस प्रयोग के लिये अपना शरीर स्वयं प्रस्तुत कर रहा है तो उसमें कुछ आपत्ति भी नहीं थी।

यह प्रयोग भी किया गया। शुद्ध स्थान की त्वचा उखाड़कर घावों पर लगाई गई। आश्चर्य इस बार भी हुआ। 80 प्रतिशत घाव पुर गये। साथ ही उखाड़े हुए स्थान की क्षति पूर्ति भी स्वयमेव हो गई। 20 प्रतिशत जो घाव रह गये थे उनका उसी तरह का आपरेशन फिर हुआ और ये रहे-बचे घाव भी भर गये।

तीन वर्ष बाद अस्पताल से छुट्टी मिली। इस बीच इसका ‘सीरम’ का औषधि रूप प्रयोग और त्वचा का स्थानान्तरण वाला प्रयोग होता रहा। डाक्टरों के लिए इसमें दुहरी दिलचस्पी थी। इस परमार्थ परायण युवक की साहसिकता से प्रभावित लोग उसकी जीवन रक्षा करके सामाजिक कृतज्ञता का परिचय देने के लिये उत्साहित थे, दूसरा उसका शरीर चिकित्सा-विज्ञान की भावी संभावनाओं से जन समाज को भारी लाभ देने वाला था। इस दुहरी दिलचस्पी से डाक्टरों ने वह सब साधन जुटाये जो साधारणतया अस्पतालों में उपलब्ध नहीं थे। युवक की साहसिकता और सूझ बूझ की चर्चा जहां भी हुई, वहां प्रभाव उत्पन्न हुआ। लोगों ने जॉनसन की जान बचाने के लिये बहुत कुछ किया। लगभग 11 हजार डालर अस्पताल की सुविधा के अतिरिक्त खर्च आया सो कुछ ही उदार व्यक्तियों ने जिनमें वे डॉक्टर भी शामिल थे, मिल-जुल कर पूर्ति कर दी।

अस्पताल से छुट्टी पाकर जब वह निकला तो दो शिकायतें शेष थीं एक तो पड़े-पड़े उसके सारे जोड़ पकड़ गये थे और मुड़ने में दर्द करते थे। दूसरे चेहरे के घाव भर जाने पर उसकी शक्ल कुरूप हो गई थी। इसके लिए भी उसने आध्यात्मिक सिद्धान्तों का ही प्रयोग किया। सतत संघर्ष से जड़ता का निराकरण चेतना क्षेत्र में तो सफल होता ही रहा है, शरीर पर भी सफल हुआ। उसने मालिश के कई प्रयोग किये, जोड़ों को रगड़ा और वहां उत्तेजना उत्पन्न की। व्यायाम की कई ऐसी विधियां खोज निकालीं जो जकड़े हुए जोड़ों को फिर गतिशील बना सके।

कुरूप अंगों को काट-छांट करके उन्हें सुडौल बनाने की बात भी उसे सूझी। कुरूपता और सौन्दर्य दोनों ही अपने में विद्यमान हैं। हेर-फेर की प्रक्रिया ही साधना, तपस्या कहलाती है। यदि उसका प्रभाव जीवन के अन्धकार को प्रकाश में बदल सकता है तो कुरूपता सौन्दर्य में क्यों नहीं बदल सकती। नाक, जबड़ा, ठोड़ी यह तीन अंग विशेषतया कुरूप हो गये थे। उसने डाक्टरों से अनुरोध करके एक और प्रयोग कराया। किस अंग को किस तरह काट-छांटकर कहां का पैबन्द कहां लगाकर कुरूपता दूर हो सकती है, यह उसने बताया। डाक्टरों ने उसमें थोड़ा सुधार किया और वह प्रयोग भी कर डाला जॉनसन की कल्पना सही निकली इस प्रयोग ने उसकी कुरूपता दूर करदी और वह अस्पताल में भर्ती होने से पूर्व जैसा ही सुडौल सुन्दर लगने लगा।

(1) शरीर से निकलने वाले श्राव का शुद्ध अंश ‘सीरम’—औषधि रूप में प्रयुक्त होना (2) त्वचा का दूसरे स्थान पर प्रत्यारोपण (3) जकड़े जोड़ों में मुलायमी उत्पन्न करने वाली मालिश (4) प्लास्टिक सर्जरी। इन चारों ही आविष्कारों ने जान्सन के शरीर पर प्रयोग होने के बाद दिशा प्राप्त की और उस संदर्भ में काफी आगे चलकर इनकी बड़ी प्रगति संभव हो सकी जिसने असंख्यों को नवजीवन प्रदान किया।

जान्सन का परमार्थ एक लड़की को आग से निकालने की प्रक्रिया के साथ आरम्भ हुआ। उसने चार प्रयोग स्वास्थ्य जगत के लिये प्रस्तुत किए पीछे उसने कृषि और बागवानी क्षेत्र में भी यही किया। पौधों और वृक्षों के जाति-भेद का सम्मिश्रण करके उसमें अधिक समुन्नत किस्म की फसलें उगाईं इस सूझ के बारे में भी वह यही कहता था पारस्परिक-सहयोग और प्रत्यावर्तन मानव समाज के लिए ही हितकर नहीं—पेड़-पौधों के लिये भी वह लाभदायक हैं। इस कृषक युवक की सूझ-बूझ की जब भी सराहना हुई तब उसने यही कहा—मैंने आध्यात्मिक सिद्धांतों को भौतिक जगत में प्रयोग करने की बात भर सोची। दुनिया ने देखा कि यह तथ्य गलत नहीं सही है कि प्रकृति का कण-कण उच्च आदर्शों का ही समर्थन करता है।

<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118