बुद्धि, कर्म व साहस की धनी प्रतिभायें

स्वदेश और समाज के उद्धारकर्ता—डॉ० सनयातसेन

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सन् 1896 के अक्टूबर में लन्दन नगर में यह खबर बड़े जोरों से फैली कि एक शरणागत चीन निवासी का बलपूर्वक अपहरण कर लिया गया है और उसे चीनी—दूतावास में कैद कर रखा है। स्वाधीनता की प्रिय भूमि इंग्लैंड में ऐसी अनहोनी घटना का होना सुनकर सर्वसाधारण में एक विचित्र हलचल पैदा हो गई और दो-तीन दिन तक समाचार पत्रों तथा जनता में उसी की चर्चा सुनाई देती रही। यह देखकर वहां की सरकार का आसन भी डोला और प्रधानमंत्री लार्ड सेलिसबरी ने चीन के राजदूत को सन्देश भेजा कि ‘‘हमारे देश में इस प्रकार का अवैध कृत्य करके आपने बहुत बड़ी गलती की है, अब उस व्यक्ति को तुरन्त मुक्त कर दीजिए।’’ कहना न होगा कि इस आदेश का अविलम्ब पालन किया गया। फिर इंग्लैंड निवासी उस व्यक्ति को बिल्कुल भूल गये।

इस व्यक्ति का नाम सनयातसेन था। यद्यपि वह एक गरीब घर में उत्पन्न हुआ था, पर बड़े होने पर उसने चीन के ‘‘महामहिम सम्राट’’ के विरुद्ध विद्रोह का झण्डा उठाने का साहस किया था। एक गुलामों के भी गुलाम के तुल्य व्यक्ति की ऐसी गुस्ताखी देखकर अपनी पचास करोड़ प्रजा द्वारा ‘‘भगवान’’ माने जाने वाले सम्राट बहुत असन्तुष्ट हुये और उन्होंने आदेश दिया कि ‘‘जो कोई उसे जीवित या मृतक पकड़ कर लायेगा उसे दस हजार (आज-कल के हिसाब से ढाई-तीन लाख) रुपया पुरस्कार दिया जायगा। इस धन के लालच से कितने ही लोग उसके प्राणों के ग्राहक हो रहे थे और उनके भय से वह क्रान्तिकारी युवक भी एक मुल्क से दूसरे मुल्क में छिपकर भ्रमण करता रहता था। जब वह अमरीका से लन्दन के लिए रवाना हुआ तो इसकी सूचना चीनी राजदूत ने तार द्वारा इंग्लैंड स्थिति राजदूत को दे दी। लन्दन पहुंचकर सनयातसेन अपने एक अंग्रेज मित्र के यहां ठहर कर उस नगर में रहने वाले चीनी लोगों में विद्रोह का प्रचार करने लगा। उसे यह मालूम न था कि स्वदेश से दस हजार मील के फासले पर यहां भी ‘‘शत्रु’’ के दूत उसका पीछा कर रहे हैं।

इन दूतों ने भी चीन निवासी ‘‘देश भक्तों का स्वांग बनाया और सनयातसेन को सहायता देने का वायदा करके किसी एकान्त स्थान में ले गये। वहां चीनी राजदूत के गुर्गे पहले से ही छिपे थे और उन्होंने सनयातसेन को बेबस करके चीनी दूतावास में ले जाकर बन्द कर दिया उनकी योजना थी कि कुछ दिन बात मौका लगने पर उसे जहाज द्वारा चीन भेज देंगे। पर भेद खुल गया और षड़यंत्र रचने वालों की मन की मन में रह गई।

सनयातसेन का जन्म चीन के एक छोटे से गांव में सन् 1866 में हुआ था। उस समय गरीबों की तो क्या बात चीन के अमीर लोग भी बहुत कम पढ़ते थे और उनको यह पता न था कि अपने देश के बाहर संसार में अन्य बड़े-बड़े प्रभावशाली और उन्नत देश भी हैं, जहां की जनता अपने आप ही मालिक है। यही कारण था कि चीन के निरंकुश सम्राट अपनी प्रजा को तरह-तरह से गुलाम बनाये हुए थे और वे हर्गिज नहीं चाहते थे कि चीन निवासियों में भूगोल, इतिहास आदि का ज्ञान फैले और वे यह जान सकें कि संसार के अन्य अनेक देशों के निवासी उनकी अपेक्षा कहीं अधिक सुखी और अधिकार सम्पन्न हैं। चीन में रहने वालों को तो केवल एक ही बात सुनाई और सिखाई जाती थी कि सम्राट भगवान का स्वरूप है, वही समस्त प्रजा का पिता है, उसी की सेवा करने से हमारा उद्धार हो सकता है। वह जो कुछ भी न्याय-अन्याय करे वही धर्मानुकूल और मान्य है। उसके विरुद्ध तनिक भी आवाज निकालना घोर पाप है।

पर ऐसे ‘‘दैवी कैदखाने’’ में रहने पर भी किसी प्रकार सनयातसेन को आजादी की हवा लग गई और 13 वर्ष की आयु में ही वे अमरीका द्वारा शासित हवाई टापू में मजदूर के रूप में चले गये। वहां जाकर उनको अनुभव हुआ कि वे एक नई दुनिया में पहुंच गये हैं। पर उसका लाभ तब तक नहीं उठाया जा सकता जब तक वे अंग्रेजी सीखकर अन्य लोगों से बात चीत और विचार विनिमय न कर सकें। इस उद्देश्य से उन्होंने एक ‘‘चर्च-स्कूल’’ में नाम लिखा लिया। इसके बाद तो उनका साहस बढ़ गया और एक स्थान से दूसरे स्थान को जाकर अपनी शिक्षा को पूरी करने का प्रयत्न करने लगे, कुछ ही वर्षों में उन्होंने डाक्टरी की सनद प्राप्त कर ली और वे इस योग्य हो गये कि स्वतन्त्र जीवन व्यतीत करते हुए कहीं भी रह सकें।

शासन की भ्रष्टता और राज कर्मचारियों की घोर स्वार्थपरता को देखकर सनयातसेन के हृदय में विद्रोह का भाव कालेज में पढ़ते हुए ही उत्पन्न हो गया था और अपने कुछ साथियों को लेकर वे राज्य के विरुद्ध षडयन्त्र रचने लगे थे। चीन में रहकर तो यह कार्य कर सकना सम्भव न था, क्यों कि सरकार के जासूस चारों तरफ फैले हुए थे और उनके द्वारा किसी के सम्बन्ध में जरा भी सन्देहजनक खबर मिलने पर उसे बिना विलम्ब किसी जेलखाने की कालकोठरी में बन्द कर दिया जाता और तरह-तरह की यन्त्रणायें देकर उसका प्राणान्त किया जाता था। साथ ही चालाक शासकों ने प्राचीनकाल से ही चीन की जनता के दिल और दिमाग को ऐसे सुदृढ़ बन्धनों में बांधा था कि शासकगण चाहे जैसा अन्याय अत्याचार करें वह चूं नहीं करती थी। उनकी ठीक वही हालत थी ‘‘जैसी हम अपने देश में कुछ ही वर्ष पहले भारतीय रियासतों की प्रजा को देख चुके हैं। इनमें से अधिकांश राजा अयोग्य थे और अपने भोग-विलास के लिये प्रजा का खून चूसने में उनको जरा भी संकोच नहीं होता था। उनके शासन में किसी की भी सम्पत्ति और इज्जत सुरक्षित नहीं थी। चाहे जब किसी की लूट-मार कर सकते थे। फिर भी प्रजा उनको ‘‘सर्वशक्तिमान भगवान’’ का अंश समझ कर पूजती रहती थी।

सनयातसेन ने विदेशों में बसने वाले चीनी लोगों और अपने मित्रों के सहयोग से कई बार चीन में विद्रोह फैलाने की चेष्टा की, पर उसे नाम मात्र की सफलता ही मिल सकी। तब उसने विचार किया कि एक बार संसार के विभिन्न देशों का दौरा करके वहां के शासकों की सहानुभूति प्राप्त की जाये और उन देशों में रहने वाले चीनियों को संगठित भी किया जाय तभी कोई बड़ा काम हो सकेगा। इसी संसार भ्रमण के अवसर पर इंग्लैंड में अपहरण होने की घटना हुई थी जिसका उल्लेख आरम्भ में किया जा चुका है।

सनयातसेन का प्रयत्न कुछ समय बाद किसी हद तक सफल हुआ। चीन में आधुनिकतावादियों के मुकाबले में एक प्रगति विरोधी दल की स्थापना हुई और उसने एक विद्रोह उत्पन्न करके अनेक विदेशी पादरियों तथा राजदूतों को मार दिया। इस पर आठ राष्ट्रों ने सम्मिलित रूप से चीन में अपनी सेनायें भेजी। चीन तो भ्रष्टाचार और अन्ध विश्वास के प्रभाव से खोखला बना था, वह उन्नतिशील पश्चिमी राष्ट्रों का मुकाबला क्या करता? दस बीस दिन में ही विद्रोही जिसका नाम ‘‘बक्सर’’ था कुचल दिये गये और हर्जाने के रूप में चीन के कर्ठ समुद्र तटवर्ती स्थानों पर कब्जा कर लिया गया।

इस अवसर को सनयातसेन ने अपने आन्दोलन और प्रचार कार्य के लिए उपयुक्त समझा यद्यपि वह अब भी खुले तौर पर सरकारी सेना का मुकाबला नहीं कर सकता था, पर अब चीन के शासन की पोल खुल जाने से वहां का प्रबुद्ध वर्ग चैतन्य होने लग गया था और उसी का संगठन करके सनयातसेन समस्त देश में जागृति फैलाने तथा जनता में असन्तोष भड़काने की चेष्टा करने लगे। यद्यपि इस बार उनको पहले से अधिक सफलता मिली, पर चीन की बहुसंख्यक जनता को उठा सकना सहज न था। इसका एक कारण तो, जैसा ऊपर बतलाया गया है, यही था कि शासकों ने प्रगति और जागृति के सब मार्ग बन्द कर रखे थे। और दूसरा कारण यह कहा जा सकता है कि स्वयं चीन की जनता आध्यात्मिकता का सच्चा अर्थ भूलकर स्वयं भी प्रगति विरोधी बन गई थी। इसका वर्णन करते हुए एक स्थान पर कहा गया है—

‘‘बहुत समय से चीन को आध्यात्मिक अहंकार का लकवा मार गया था और उसी अहंकार की बेड़ियां उसे अब तक जकड़े हुई थीं। जिस समय योरोप के लोग निरे जंगली थे उस समय चीन वाले बड़े-बड़े मकान बनाना जानते थे, चाय बोते थे, बारूद बना लेते थे, मिट्टी के बर्तन, सरेस, तांत आदि अनेक पदार्थ बनाना जानते थे। उन्होंने छापने की कला का आविष्कार किया था, 1200 मील लम्बी किले बन्दी की अभेद्य दीवार और 600 मील लम्बी नहर भी बनाई थी।

इसलिये कोई आश्चर्य नहीं कि उन्हें अपनी इस प्रकार की उन्नति पर यह ख्याल पैदा हो गया कि संसार की सारी जातियां जंगली हैं और केवल हमारी जाति ही सभ्य कहलाने योग्य है। यदि यह जाति नष्ट हो जाय तो संसार का समस्त ज्ञान-भण्डार भी लुप्त हो जायगा। इस झूठे अहंकार का स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि चीन दिन पर दिन प्रगति के मैदान में पिछड़ने लगा, योरोपियन जातियां उससे बहुत आगे निकल गईं। पर उसका घमण्ड और श्रेष्ठता का गुमान ज्यों का त्यों बना रहा। ऐसे देश को एक दिन निश्चय ही नीचा देखना पड़ेगा, और हुआ भी ऐसा ही।

क्या इस प्रकार के आध्यात्मिक अहंकार का दोष हम भारतीयों की नसों में भी नहीं घुसा हुआ है? और पिछले हजार बरसों में हमने विदेशियों की जो ठोकरें खाई हैं उसका एक बहुत बड़ा कारण क्या यह गलत ‘‘अध्यात्मवाद’’ ही नहीं है? कोई भी जानकार व्यक्ति इस तथ्य की सचाई से इनकार नहीं कर सकता। निस्सन्देह अध्यात्म मानव-जीवन का सर्वोच्च स्तर है, पर तभी तक जब तक उसे अहंकार और अन्ध-विश्वास से दूर रखा जाय। अध्यात्म कोई गुप्त या काल्पनिक चीज नहीं है, वरन् जीवन को सार्थक बनाने का एक सुनिश्चित और बुद्धिसंगत मार्ग है। किसी समय हमारे पूर्वज सच्चे अध्यात्म को जानते थे और पालन करते थे। तब भारतवर्ष जगद्गुरु की पदवी पर आसीन था। अब भी यदि हम अपनी भूल को सुधार कर सच्चे अध्यात्मवाद का प्रचार करने लग जायें, तो फिर हमारा देश सर्वोच्च शिखर पर पहुंच सकता है।

फिर भी सनयातसे ने अपना प्रयत्न जारी रखा। उनके मार्ग में अनेक बाधायें आती रहीं, पर अन्त में चीन का प्रबुद्ध वर्ग उठ खड़ा हुआ और सन् 1911 के दिसम्बर की 29 तारीख को ब्रिटिश समाचार ऐजंसी ‘‘रायटर के चीन स्थित सम्वाददाता ने समाचार भेजा कि ‘‘वही शरणागत व्यक्ति (सनयातसेन) जो अपने देश से भागकर हमारे यहां पहुंचा था और वहां भी जिसका पीछा दुश्मनों से न छूटा था, आज चीन के प्रजातन्त्र का सर्वप्रथम राष्ट्रपति बनाया गया है और इस समय वही इस देश का कर्ता-धर्ता और सूत्रधार है।’’

पर सनयातसेन ने बीस वर्ष तक जो देश सेवा की थी और जिसके लिए आधे पेट खाकर भी वे संसार के विभिन्न देशों की खाक छानते हुए घूमे थे। जनता द्वारा सर्वसम्मति से राष्ट्रपति चुने जाने पर भी वे इस पद पर अधिक समय तक नहीं रहे। एक वर्ष के भीतर ही जब उन्होंने देखा कि अभी चीन उत्तरी और दक्षिणी दो भागों में बंटा हुआ है, जिसके कारण एक सुदृढ़ राष्ट्र के रूप में उसका निर्माण नहीं हो सकता, तो उन्होंने राष्ट्रपति का पद स्वेच्छापूर्वक उत्तरी चीन के नेता युआन शिकाई को इस शर्त पर दे दिया कि वह पूर्ण रूप से राज्य-पक्ष को त्यागकर प्रजा तन्त्र के लिए कार्य करें इसके पश्चात भी वे चीन की प्रगति के लिए निरन्तर श्रम करते रहे।
सनयातसेन न तो किसी बड़े खानदान के वैभवशाली व्यक्ति थे और न अधिक विद्वान्। पर उन्होंने अपनी निःस्वार्थ सेवा-भावना से चीन जैसे विशाल देश का उद्धार कर दिया। अन्त में जब सफलता मिली तो उन्होंने स्वयं उसका लाभ उठाने के बजाय दूसरे लोगों को ही आगे बढ़ा कर अपना ध्येय केवल राष्ट्र-रक्षा ही रखा। इस दृष्टि से उनकी तुलना महात्मा गांधी से की जा सकती है। हमारे वर्तमान ‘‘नेता’’ नामधारी व्यक्ति, जो जनता तथा राष्ट्र के हित के बजाय सबसे पहले अपनी प्रतिष्ठा तथा प्रधानता के लिये लड़ रहे हैं, वे भी इस महान पुरुष के चरित्र से प्रेरणा लेकर देश के सच्चे सेवक बन सकते हैं।
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