बुद्धि, कर्म व साहस की धनी प्रतिभायें

संग्राम के अमर सैनिक—अहिंसक-फुलेना प्रसाद

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अहिंसक योद्धा ने हिंसा से लड़ने के लिये अपना सीना खोल दिया। लाठियों के प्रहारों ने दोनों हाथ पहले ही तोड़ कर रख दिये थे एक भाला भी लग चुका था। उस वीर को इसकी चिंता नहीं थी सिपाही यदि अंग भंग की चिंता करने लगे तो वह विजय श्री कैसे वरण कर सकता है? गोलियां चलाने वाले भी इस साहसी को देखकर दांतों तले अंगुली दबाने लगे। गोलियां तड़क उठी धांय, धांय.......। एक दो नहीं पूरी आठ गोलियां सीने को बेध चुकी थी पर योद्धा उसी शान से मैदान में डटा था। नवीं गोली ने शरीर के चिथड़े उड़ा दिये। अहिंसा के संग्राम में यह अनुपम उदाहरण प्रस्तुत करने वाले भारतीय सत्याग्रही थे फुलेना प्रसाद।

विश्व के इतिहास में हिंसा और अहिंसा के युद्ध का यह पहला उदाहरण महात्मा गांधी ने प्रस्तुत किया। निहत्थे सत्याग्रहियों पर सशस्त्र पुलिस ने लाठियां बरसाईं, भाले चलाए, बूटों से रोंदा यहां तक कि गोलियां बरसाईं पर आजादी के दीवाने सचाई के सेनानी रुके नहीं थके-नहीं परिणाम यह हुआ कि हिंसा हार गई अहिंसा जीत गई। अहिंसा के योद्धाओं में अमर शहीद फुलेना प्रसाद की गणना श्रेष्ठ सैनिकों में की गई। उनकी मृत्यु ने हजारों को प्रेरणा दी। यह शहादत किसी भी अहिंसक के लिये ईर्ष्या की वस्तु थी इस मृत्यु पर हजार जीवन न्यौछावर किये जा सकते हैं।

महाराज गंज, छपरा (बिहार) ग्राम के निवासी इस बालक को देखकर आनन्दित हो उठते थे। मुस्कराते फूल की तरह हंसता हुआ गोरा-चिट्टा, हृष्ट-पुष्ट बड़ी-बड़ी आंखों वाला यह मनोहर बालक सबके आकर्षण का केन्द्र था। जो भी इसे देखता अपने आप को भूल जाता था। अपने जीवन के कुल तीस वसन्त देखकर यही बालक मातृ भूमि की बलिवेदी पर बलिदान हो गया और गांव वालों के हृदय में आदर्शों के प्रति एक दर्द जगा गया ऐसे पद चिन्ह छोड़ गया जिनका अनुसरण करके कोई भी मनुष्य जन्म की ‘‘सुर दुर्लभता’’ प्रतिपादित कर सकता है।

यों तो पेड़ से गिरते हुए फल को सभी देखते हैं, आकाश में दीखने वाला इन्द्र धनुष सबको मोहित करता है पर उनपर चिंतन मनन करने वाले विरले ही होते हैं जो न्यूटन और सी.वी. रमण—जैसे वैज्ञानिक बन जाते हैं। वैसे यह किसी की बपौती नहीं है पर अधिकांश लोग इस प्रकार के चिंतन मनन की उपेक्षा बर्तते हैं। बालक फुलेना प्रसाद इस प्रकार की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन नहीं देता था। वह प्रत्येक तथ्य पर विचार करता तथा अपना आत्म निरीक्षण करते हुए सद्गुणों की वृद्धि करता तथा दुर्गुणों को छोड़ता जाता।

आमों के पकने की ऋतु आई। पके आमों की गंध से बच्चों के मुंह से लार टपकने लगी। बच्चे ही क्या युवक भी इसमें पीछे न थे। एक आम के नीचे ऐसे कई बच्चे और युवक इकट्ठे होकर आम गिराने के लिये लकड़ियां फेंक रहे थे। एक लकड़ी उछल कर आठ वर्ष के बालक फुलेना प्रसाद के सिर में जोर से लगी और खून बह निकले। जिसने लकड़ी फैंकी थी उसकी तो शामत ही आ गई। फुलेना प्रसाद सबका प्रिय था। घर वालों ने अपराधी के पिता से शिकायत की। उसके पिता उसे मारने लगे। फुलेना प्रसाद ने कहा—‘‘चाचाजी मोहन भैया को मत मारिये। मेरी भी गलती थी जो मैं फेंकी गई लकड़ी की ओर चला गया।’’ इस पर उस अपराधी बालक के पिता ने स्नेह से उसे गोद में उठा लिया और पूछा—‘‘बेटा। तुम्हें यह बात किसने बताई।’’ बालक ने कहा—‘‘मेरे मन ने। आप मोहन भैया को मारते तो हम साथ खेलने में अचकचाते। मेरे तो लगी सो लगी उसे भी मार पड़ती।’’ यह बालक की विचार शक्ति का ही शुभ परिणाम था कि वह सबका प्रिय बन गया।

आज की तरह उन दिनों न तो गली-गली में पाठशालाएं थीं न गांव-गांव में हाई स्कूल थे बालक फुलेना प्रसाद को बस्ता बगल में दबाकर पढ़ने के लिये पैदल छः मील जाना और छः मील आना पड़ता था। यह पूरी तपस्या थी कठोर परिश्रम करने पर जो शिक्षित कहलाने का सौभाग्य पाते हैं उन्हें उसके सदुपयोग की भी चिंता रहती है नौकरी पाने का ही उद्देश्य इसके पीछे नहीं होता। फुलेना प्रसाद ने जिस परिश्रम तथा लगन से शिक्षा पाई उसी का परिणाम था कि वे जीवन में बहुत कुछ कर सके थे समय और श्रम की महत्ता को समझ सके थे।

विद्यालय में कुछ छात्र उद्दण्ड थे। वे कुछ न कुछ शैतानी करते ही रहते थे। उनकी यह मंडली चाहती थी कि फुलेना प्रसाद भी उसमें सम्मिलित हो जाय। वे जानते थे कि इस प्रकार की उद्दण्डता करने का परिणाम शुभ नहीं होता। वे उनसे बोलते नहीं थे। अपने काम से काम रखते। उनके व्यंग्यों की ओर ध्यान नहीं देते थे। इन्हें ‘झेंपू’ कहा जाने लगा। उन्होंने चुप रहकर कुसंगति से अपनी रक्षा करली।

बचपन से ही वे देख रहे थे कि माता-पिता, परिवार के सदस्य तथा गांव वाले उन्हें प्यार करते हैं उनके लिये कष्ट उठाते हैं। माता पिता ने तो बहुत कष्ट उठाया है। वे उस का प्रतिदान करने में नहीं चूकते थे। घर में कोई भी बीमार हो जाता तो वे उसकी सेवा में दिन रात एक कर देते थे। हाई स्कूल की परीक्षा के दिन छोटा भाई बीमार हो गया तो वे सब कुछ भूलकर उसकी सेवा में जुट गए। इस कारण फेल भी हो गए। दुःख तो हुआ पर सेवा का सुख भी कम न था। गांव में किसी अपाहिज को बीमार को देखते तो खाना-पीना छोड़कर उसकी सेवा करते।

पिता जमींदार थे पर छोटी जमींदारी पर सोलह व्यक्तियों का बोझ कम न था। वे उन पर भार बनना नहीं चाहते थे हाई स्कूल परीक्षा पास करके वे पटना चले गये तथा अपनी आजीविका चलाने के साथ साथ वे बंगला गुजराती व संस्कृत का स्वाध्याय करके उनके अच्छे ज्ञाता बन गये। ज्ञानार्जन की भूख ने उनके दृष्टिकोण को विकसित किया। वे अब दक्षिण भारतीय भाषाएं भी सीखना चाहते थे पर उससे भी महत्वपूर्ण काम उनके सामने था। वह काम था देश को राजनैतिक दासता से मुक्त करना तथा भारतीयों की सामाजिक दशा सुधारना। अपने ज्ञान को अपनी क्षमता को केवल अपने लिये प्रयुक्त करना नहीं चाहते थे। ज्यों–ज्यों ज्ञान की वृद्धि होती गई उनकी परमार्थ परायणता बढ़ती गई।

संस्कृत के अध्ययन से उन्होंने भारतीय जीवन दर्शन को समझा। सच्चा ज्ञान पाकर वे मनुष्य जीवन की महानता को समझे और उसे कार्य रूप में परिणित करने को तत्पर हो गये। आत्मा की अमरता तथा ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ को उन्होंने अपने जीवन में उतारने का शुभारम्भ कर दिया। वे उन लोगों में से नहीं थे जो किसी आदर्श की प्रशंसा तो करते हैं पर अपने जीवन में उतारने का साहस नहीं जुटा पाते।

सवेरे चार बजे उठकर व्यायाम करना उनका नियम था। शरीर को स्वस्थ एवं समर्थ बनाने में उन्होंने कोई कसर नहीं रखी। उनका शरीर सौष्ठव देखते ही बनता था वे शरीर को दीन दुर्बलों की रक्षा, रोगियों अपाहिजों की सेवा तथा देश धर्म का हेतु मानते थे। धन रूपी बल की तरह वे शारीरिक तथा मानसिक बल को उससे कम नहीं अधिक ही मानते थे।

स्वस्थ, सुन्दर, सुशिक्षित तथा सज्जन युवक को अपनी लड़की देने के लिये कौन लालायित न होगा? बीस वर्ष की आयु में फुलेना प्रसाद का विवाह होने पर उनकी परमार्थ वृत्ति घटी नहीं। ससुराल वाले धनाढ्य थे। चार पांच जोड़े कोट और सोने की चीजें इन्हें भेंट में मिलीं उसे उन्होंने जरूरत मंदों को दे दिया। अपने लिये तो वे प्रत्येक मौसम में कुर्ता ही उपयुक्त समझते थे। उनके स्वस्थ शरीर पर मौसम का प्रभाव नहीं पड़ता था पिता के घर से मिली वस्तुओं का इस प्रकार बांटना इनकी पत्नी को अच्छा न लगा। उन्होंने प्रतिवाद किया। इस समय तो वे चुप रहे दूसरे दिन अपनी पत्नी को साथ में उन मजदूरों की बस्ती में ले गये। करुणा की मूर्ति श्रीमती तारारानी ने इन गरीबों की दशा देखी और अपने पतिदेव की विशाल हृदयता देखी तो नारी की स्वाभाविक ममता जाग पड़ी उन्होंने पतिदेव का सच्चा परिचय पाकर उनकी चरण रज माथे पर लगाली और सच्चे अर्थों में सहधर्मिणी बन गई। उन्होंने सदा अपने पति के मिशन में सहायता की।

देश वासियों के दर्द से भावनाशील फुलेना प्रसाद का अन्तःकरण रो उठता था। अपने माता पिता की एक मात्र संतान होने से श्रीमती तारा को पर्याप्त धन तथा उपहार मिले थे वे जरूरतमंदों के लिये ही प्रयुक्त होने लगे। अपनी आय का अधिकांश भाग भी फुलेना प्रसाद परमार्थ में लगा देते थे।

ये देश सेवा करना चाहते थे। काम अधिक था समय और साधन कम थे। फुलेना प्रसाद ने विवाह के दो वर्ष के बाद ही संयम अपना लिया वे बच्चे बच्चियों के जंजाल में फंस कर अपने सेवा व्रत से च्युत नहीं होना चाहते थे। इस निश्चय में उनकी पत्नी की भी पूरी सहमति थी। उन्होंने व्यायाम का समय बढ़ा दिया। भोजन में सादा दलिया और दूध लेने लगे। इस सात्विक आहार ने उन्हें संयम पालन में सहायता की। शरीर निरंतर पुष्ट होता गया। इससे उनकी सेवा का क्रम और भी अधिक चलने लगा। वे कहते थे।’’ सन्तान पालन और देश सेवा दोनों एक साथ नहीं हो सकतीं इस समय तो एक ही लक्ष्य है वह है देश सेवा।’’

सर्दी हो या गर्मी चार बजे उठ जाना फिर नित्य कर्म से निवृत्त होकर मालिश करके व्यायाम करना उनका नियम था। उनका शरीर देखकर पेशेवर पहलवान भी ईर्ष्या करते थे। व्यायाम के पश्चात भिगोए चने खाकर दूध पीते और फिर समाज सुधार और देश सेवा के कामों में जुट जाते। इस काम से रात्रि के ग्यारह बजे निवृत्त हो पाते थे। रात्री को जो सुखद गहरी नींद आती थी वह सारी थकान मिटा देती और चार बजे पहले ही वे उठ बैठते।

पराया दुःख देख सकना उनके बस की बात नहीं थी किसी का मुंह लटका देखा कि फौरन पूछते—‘‘क्या हुआ?’’ लोगों को भी दुख दर्द में और कोई सहारा नहीं मिलता था प्यासा जैसे कुंए के पास आता है वैसे ही वे इनके पास भाग कर आते थे। कुंआ जिस तरह अपना पानी अपने लिये नहीं रखता वैसे ही ये अपना तन मन धन दूसरों के दुख दर्द दूर करने में लगा देते थे।

तीस वर्ष की अल्पायु में ही सत्याग्रही में सर्वश्रेष्ठ बलिदानी कहलाने के लिये ही मानो उन्होंने तैयारी कर रखी थी जिसने जन्म लिया है वह मरेगा ही पर ऐसी मृत्यु किसी-किसी को मिलती है।

इनकी पत्नी तारा देवी ने इनकी मृत्यु को स्वीकार नहीं किया। उस पारस के स्पर्श से वे स्वर्ण बन चुकी हैं। आज भी वे अपने पति के मिशन को पूरा कर रही हैं अमर शहीद का यह जीवन पारस पत्थर से कहीं अधिक मूल्यवान है जिनके अंतःकरण छू गया उसके महामानव बनने में संदेह नहीं है।

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