विजय सदा न्याय की हुई है, अन्याय सदा हारता आया है। विश्व का इतिहास उठाकर देखें तो यही स्पष्ट होगा कि अनाचार कितना ही बड़ा हो जब तक उसका प्रतिकार नहीं किया जाता तभी तक वह बढ़ता है किन्तु जब उसका प्रतिकार करने के लिए कोई उठ खड़ा होता है तो उसे हार माननी ही पड़ती है। इस प्रतिकार के लिए कमर कस कर खड़ा होना किसी साहसी का ही काम होता है। ऐसे साहसियों की अमर गाथायें युग-युगों तक गाई जाती हैं।
ऐसा ही एक साहस इन दिनों किया गया। इस साहस का श्रेय बंग बन्धु शेख मुजीबुर्रहमान को दिया जायगा। जिसके फलस्वरूप चौबीस वर्ष बाद बंगला देश को पाकिस्तान के क्रूर शासन से मुक्ति मिली है।
7 दिसम्बर 1970 का दिन न्याय के लिये लड़ने वाले साहसियों के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ने वाला दिन था। पाकिस्तान के अमानुषिक अत्याचारों को सहते-सहते बंगला अधमरा हो गया था। ढाका के रेस कोर्स मैदान में एक विशाल जनसमूह के सम्मुख शेख मुजीबुर्रहमान ने अपने दल को वोट देने की अपील इन शब्दों में की ‘‘यह स्वातंत्र्य संग्राम है, जिसके दौरान हम न सरकार को टैक्स देंगे न उसके फौजियों के साथ सहयोग करेंगे।’’
यह घोषणा करने वाले मुजिबुर्रहमान को वहां की जनता स्नेह से बंग बन्धु के नाम से पुकारती है। इनका जन्म 17 मार्च 1920 में बंगाल के फरीदपुर जिले के टांगी पारा गांव के एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था। ये बी.ए. करने से पूर्व ही स्वाधीनता संग्राम में भाग ले चुके थे।
यह घोषणा करने वाले मुजिबुर्रहमान को वहां की जनता स्नेह से बंग बन्धु के नाम से पुकारती है। इनका जन्म 17 मार्च 1920 में बंगाल के फरीदपुर जिले के टांगी पारा गांव के एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था। ये बी.ए. करने से पूर्व ही स्वाधीनता संग्राम में भाग ले चुके थे। 1941 में उन्होंने नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के साथ काम किया था। कलकत्ता की ‘ब्लेक हाल घटना’ व होलवेल स्मारक हटाने में उन्होंने सहयोग दिया था। वे सुभाष को अपना गुरु मानते हैं।
भारत विभाजन के बाद पाकिस्तान सरकार ने पाकिस्तान की भाषा उर्दू घोषित की। पूर्वी बंगला व बंगालियों के प्रति यह सौतेला व्यवहार था। बंग बन्धु ने इसके विरोध में जनता की आवाज बुलंद की। विरोध करने वाले जेल में ठूंस दिये गये। उसी दिन इनके मन में यह निश्चय हो गया कि यह पाकिस्तान चलने वाला नहीं है। ये पाकिस्तान के विरोधी हो गये। पूर्वी बंगला के नागरिक उर्दू जानते नहीं थे। यह भाषा उन पर बलात् थोपी गई थी। इस विरोधी आंदोलन का नेतृत्व मुजीब ने किया। इन्हें भी बंदी बनाकर 7 दिन तक जेल में रखा गया।
अब ये पूर्वी बंगला की जनता में लोकप्रिय हो चुके थे, इन्हें अवामी लीग का संयुक्त सचिव चुन लिया गया। 1954 में वे प्रान्तीय चुनावों में विधान सभा के लिये चुने गये। एक वर्ष पश्चात् वे केन्द्रीय विधान सभा के लिये चुन लिये गये।
राजनीति शेख मुजिबुर्ररहमान का क्षेत्र था किन्तु वे राजनीति छल-छिद्रों से परे थे। एक सच्चे मानव और सत्य के समर्थक होने के नाते उन्हें 1956 में जो पाकिस्तान का विधान बना, स्वीकार नहीं हुआ। इनके अतिरिक्त अवामी लीग के सभी सदस्यों ने इसे ‘अधूरी स्वायत्ता’ की संज्ञा दी। पूर्वी तथा पश्चिमी पाकिस्तान के साथ जो इस संविधान में भेद-भाव बर्ता गया था उसका कड़ा विरोध किया। 4 अक्टूबर 1956 को उन्हें पाकिस्तान सुरक्षा अध्यादेश के अन्तर्गत बंदी बना लिया तथा बिना न्यायिक जांच के एक वर्ष तक बन्दी बनाकर रखा गया।
बंग बन्धु का पूरा जीवन संघर्षों की एक कहानी है। जनता की आवाज को पाकिस्तानी शासकों के कानों तक पहुंचाते रहने पर भी वह सुन नहीं रहे थे वरन् मुजीब को दबाने का प्रयास करते रहे। यह चाहते तो राजनीति में अच्छा पद पा सकते थे किन्तु इन्होंने जनसाधारण की श्रद्धा को बेचा नहीं। 1956 में जब भारत पाक युद्ध हुआ तब पूर्वी बंगाल के प्रदेश को प0 पाकिस्तान ने बिलकुल उपेक्षित रखा। तब बंग बन्धु ने जनता की भावना को इन शब्दों में व्यक्त किया था—‘‘हमारी सरकार काश्मीर में जनमत कराने के लिए लड़ रही है। सरकार को यहां जनमत संग्रह करना चाहिये तब उसे मालूम होगा कि 95 प्रतिशत जनता मेरे साथ है।’’
बंगाल की जनता की श्रद्धा को मुजीब ने जिस प्रकार अपने हृदय में समेटा है उसका उदाहरण गांधी जी के बाद यह दूसरा है। 1966 में इनकी पार्टी ने पूर्वी बंगला को पूर्ण स्वायत्तता दिलाने का कार्यक्रम प्रस्तुत किया तथा उसके लिये जनमत संग्रह करने में जुट गये। इसका परिणाम पाकिस्तान के प्रथम चुनाव (जिसमें एक व्यक्ति ने एक वोट दिया) में शेक्ष मुजीबुर्रहमान के छः सूत्री कार्यक्रम के आधार पर इनकी पार्टी ने अपूर्व सफलता पाई।
जनमत के द्वारा इस प्रकार शेख साहब का समर्थन करने पर पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल याह्याखां बौखला उठे। इसका कारण यह पाकिस्तान में जनमत के आधार पर कोई सरकार नहीं बनी थी इसी कारण सरकार सेना की कठपुतली मात्र रही थी। प्रत्येक सरकार चन्द महीनों तक ही जीवित रह सकी और कोई स्थानीय शासन न बन सका। सैनिक प्रशासकों को जनमत की इस सरकार से भय होना स्वाभाविक था।
जनरल याह्याखां नहीं चाहते थे कि शासन सूत्र मुजीब के हाथ में चला जाये। इस कारण 3 मार्च को जो राष्ट्रीय एसेम्बली की बैठक होने वाली थी उसे स्थगित कर दिया। राष्ट्रपति के इस निर्णय पर ढाका, चटगांव तथा पूर्वी बंगाल के सभी स्थानों पर जोरदार प्रदर्शन हुए। पाकिस्तान सरकार ने इन प्रदर्शनों का बड़ी क्रूरता से दमन किया। शेख साहब ने याह्या खां के इस कदम को ‘‘काला षडयंत्र बताया।’’ सारे पूर्वी बंगाल में इसका शांतिपूर्ण तरीके से विरोध किया गया।
पाकिस्तानी शासकों ने जनता की इस आवाज को दबाने के लिये एक चाल चली। 10 मार्च को पूर्वी बंगाल में जनरल टिक्का खां को मार्शल ला प्रशासक नियुक्त किया। याह्या खां स्वयं मुजीब से बात करने का ढोंग करके ढाका गये। बात-चीत चलती रही साथ ही साथ सुनियोजित ढंग से सैनिक स्थिति को सुदृढ़ कर लिया। यह स्थिति मजबूत होते ही बात-चीत बन्द कर याह्या खां पाकिस्तान लौट आये। 26 मार्च को जनता के इस सेवक को, जनता की आवाज को, पाकिस्तान के क्रूर शासकों ने बंदी बना लिया और पश्चिमी पाकिस्तान ले आये। उसी रात पाकिस्तान के राष्ट्रपति ने शेख मुजीब को उस राष्ट्र का शत्रु घोषित कर दिया जिसके नागरिकों ने उसे राष्ट्र का शासक नियुक्त किया था। इन्हें पाकिस्तान का शत्रु घोषित किया साथ ही यह भी स्पष्ट कर दिया कि इनको कठोर दण्ड दिया जायगा।
‘‘उनके पास शस्त्र हैं, वे मुझे मार सकते हैं, परंतु उन्हें यह मालूम होना चाहिए कि वे बंगाल की साढ़े सात करोड़ जनता की भावनाओं को नहीं कुचल सकते।’’ पाकिस्तानी शासकों ने मुजीब के शरीर को बंदी बना लिया तो क्या? मुजीब कोई एक शरीर तो था नहीं वह तो समय की आवाज थी। समय की आवाज किसी भी शरीर के माध्यम से गूंज सकती थी। मुजीब और बंगला देश के प्रति किया गया नृशंस व्यवहार रंग लाया। बंगला देश के कोने कोने से मुजीब निकल पड़े। दमन चक्र तेजी से चलने लगा। एक ओर सचाई के शस्त्र लिये साधन विहीन बिना सैनिक शिक्षण पाई जनता की सेना, मुक्ति वाहिनी और दूसरी ओर अमेरिका से खरीदे गये युद्ध सामग्री से लदे-फदे प्रशिक्षित पाकिस्तानी सैनिक युद्ध के मैदान में कूद पड़े।
बड़े-बड़े देश जो शांति का दम भरते थे मौन साधे बैठे रहे। बंगाल की धरती पर पाकिस्तानी सैनिकों ने जो अमानुषिक अत्याचार किये उनका उदाहरण विश्व के इतिहास में नहीं मिलता। हत्या और बलात्कार के कीर्तिमान स्थापित करने में पाकिस्तान की सेना ने कोई कसर नहीं रखी। साढ़े दस महीने तक यह साढ़े सात करोड़ जनता जिन्दगी और मौत के अंधेरे में भटकती रही। इस महाभारत के सूत्रधार थे बंगबन्धु जिनके आह्वान पर नागरिकों ने अपना सब कुछ स्वतन्त्रता के यज्ञ में होम दिया।
यह कम साहस की बात नहीं है। एक तरफ पाकिस्तान की सुसज्जित सेना से निहत्थे नागरिकों को लड़ाने का साहस, न्याय के प्रति अटल निष्ठा। ईश्वर के नियमों पर इतना अटल विश्वास यदि इतना सब नहीं होता तो बंग बन्धु की कभी हिम्मत नहीं पड़ती कि वे इस युद्ध के लिये बिगुल बजा उठते।
शेख मुजीबुर्रहमान पर पाकिस्तान की फौजी अदालत में गुप्त मुकदमा चलाया गया। पाकिस्तान के शासकों का बस चलता तो इन्हें कभी का मरवा दिया होता पर वे जानते थे कि इस आदमी के पीछे सारा बंगला देश है। गिरफ्तारी पर ही इतनी प्रतिक्रिया हो रही है तो मृत्यु पर न जाने क्या होगा।
मुजीब ने जनता से केवल कहा ही नहीं कि स्वतंत्रता के लिये लड़ मरो वरन् इस संग्राम की पूरी तैयारी भी करली थी यदि ऐसा नहीं होता तो मुजीब के बन्दी बनाने के उपरान्त वहां दस महीने तक जनता का मनोबल बना रहना कठिन था।
शेख मुजीब राष्ट्रों की सच्ची मैत्री के समर्थक थे। किसी भी राष्ट्र के द्वारा उठाये गलत कदम का वे प्रतिवाद करने से नहीं चूकते थे। ये जब चुनाव जीते ही थे और पाकिस्तान ने भारत का एक वायुयान जला दिया था तब बंग बन्धु ने पाकिस्तान द्वारा इसकी जांच न कराये जाने पर प्रतिवाद किया था।
नौ महीने नर-संहार के बाद न्याय की विजय हुई। पाकिस्तान ने अचानक जब भारत के हवाई अड्डों पर आक्रमण किया तो भारत के लिये बंगला देश की समस्या अपनी समस्या हो गयी तथा भारत की सहायता से बंगला देश पाकिस्तान की दासता से मुक्त हो गया।
शेख साहब अब बंगला देश के प्रधान मंत्री हैं। एक सच्चे क्रांतिकारी राष्ट्र भक्त के साथ-साथ इनमें मानवीय गुणों का जो समावेश है वह आज के राजनीतिज्ञों के लिये अनुकरणीय है।
आज जिस प्रकार व्यक्ति अपने व्यक्तिवाद में फंसा है समाज की चिंता नहीं करता। उसी प्रकार हर राष्ट्र अपने ही हितों में फंसा हुआ है सत्य, असत्य और नीति-अनीति को नहीं देखता, विश्व का भविष्य नहीं देखता। इसके पीछे उस देश के राजनेताओं की छोटी मनोवृत्ति है। वैसी मनोवृत्ति बंगबन्धु में नहीं हैं। एक व्यक्ति को सच्चाई के लिए आदर्शों के लिए कांटों भरा पथ अपनाना पड़ता है। उसका कर्त्तव्य है कि वह उसे अपनाये, तभी उसके जीवन की सार्थकता है अन्यथा नहीं।
सफलता साहस वालों को मिलती है इसका अनुपम उदाहरण बंग-बंधु है।