‘‘पगड़ी सम्भाल ओ जट्टा, पगड़ी सम्भाल रे।’’ यह गीत बहुत लोगों ने सुना होगा पर उसका इतिहास थोड़े आदमी जानते होंगे। इसे लिखा था बांकेलाल ने और उस पर परवाने की तरह जल मरने वाले थे सरदार अजीतसिंह। महान शहीद सरदार भगतसिंह के चाचा, अजीतसिंह।
तपःपूत शहीद के जीवन-दीपक से एक ही प्रकाश फूटता है—मेरे प्यारे देशवासियों, पगड़ी की रक्षा—देश, धर्म और जातीय गौरव की रक्षा—के लिए तिल-तिल जलना पड़ता है। फफोले पड़े हों तो भी चलना पड़ता है। जीवन की सफलता तो उसे मिलती है जो निष्काम, निःस्वार्थ और यश-कामना से अत्यन्त दूर रहकर केवल ऊंचा लक्ष्य सोचता है और ऊंचे लक्ष्य प्राप्ति के लिए अपना जीवन न्यौछावर कर देता है।
आदर्शों के पुनरुद्धार, पुनरुत्थान के लिए संघर्ष करना ही पड़ता है। तब स्वदेश के सम्मुख स्वाधीनता प्राप्ति का महान लक्ष्य आ खड़ा हुआ था। सरदार अजीतसिंह ऐसे ही संक्रान्ति काल में जालन्धर जिले के खटकड़कलां ग्राम में जन्मे।
जिन दिनों उनकी प्रारम्भिक शिक्षा लाहौर में पूरी हुई उन्होंने कहा—मैं उस महान संस्कृति का अध्ययन करूंगा—जिसका एक अंश लेकर गुरुओं ने पन्थ का सिरजन किया। वे बनारस जाकर संस्कृत की उच्च शिक्षा पाना चाहते थे पर घर वालों की इच्छा के आगे झुककर वे बरेली कानून पढ़ने चले गये। यहीं से उनके हृदय में देश प्रेम की ज्वाला उमड़ी, तीव्र हुई और किसी के रोके न रुकी, जब तक कि वह अपना अभीष्ट नहीं पा गई।
‘‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’’ के आदर्श मानने वाले कर्मयोगी से एक बार एक मित्र ने कहा—‘‘सरदार अंग्रेजी हुकूमत से पेश पाना बड़ा कठिन है। क्यों अपने सुख, चैन और जिन्दगी को दांव में लगाते हो।’’ सरदार ने तुरन्त उत्तर दिया—भाई जी! मर्दाने देश और जाति के उद्धार के लिए मर मिटना जानते हैं। हम देश और जाति के उद्धार के लिए मर मिटना जानते हैं, सफलता मिलेगी या नहीं यह मेरा परमात्मा जाने।
1906 में ब्रिटिश सरकार ने उपनिवेश अधिनियम पारित किया जिसके अनुसार किसानों पर भारी प्रतिबन्ध लगाये गये। बंगाल के विभाजन से वैसे ही देशवासी विक्षुब्ध थे, अब तो लोगों के दिल जलने लगे। यही समय था नवयुवकों की परख का। परिस्थिति आने पर ही तो पौरुष की परीक्षा होती है।
सरदार अजीतसिंह ने ‘‘भारतमाता सोसाइटी’’ की सक्रिय सदस्यता स्वीकार की और स्थान-स्थान पर जोशीले भाषणों से लोगों को विद्रोह के लिए भड़काने लगे। चारों ओर क्रान्ति की आग धधक उठी। लाला लाजपत राय के साथ इन्हें बन्दी बनाकर मांडले की जेल में भेज दिया गया। कुछ महीने बाद उन्हें छोड़ दिया गया पर मुक्त होते ही वह फिर ‘‘भारत-माता सोसाइटी’’ के सक्रिय कार्यक्रमों में भाग लेने लगे। ‘‘दण्ड और दमन से अजीतसिंह घबरा कर शान्त हो जायगा’’ सरकार की यह धारणा निर्मूल सिद्ध हुई। ‘‘पेशवा’’ नामक समाचार-पत्र निकाल कर उन्होंने क्रान्ति की ज्वाला को और भी तीव्र किया। बाद में यह पत्र जब्त कर लिया तो अजीत सिंह अपने दोनों भाइयों और अन्य साथियों के साथ अन्य नामों से अखबार निकालते रहे।
इधर गवर्नमेन्ट उन पर मुकदमा चलाने की योजना बनाने लगी तो अजीतसिंह ने अपने जीवन की लम्बी कीमत अनुभव की। सामन्तशाही के शिकंजे में पड़कर शहीद होने में कोई आपत्ति न थी पर उन्होंने अनुभव किया, केवल जोश से ही काम न चलेगा हमें होश के साथ काम करना पड़ेगा ताकि वर्तमान आन्दोलन अपनी मंजिल की ओर निरन्तर गतिमान रहे। लक्ष्य प्रापित के लिए नियोजित व्यवस्था बनाने का अजीतसिंह का सिद्धान्त प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक समस्या के समाधान के लिए बड़ी शिक्षा है। जो लोग स्थिति का अनुमान लगाकर जवाबी शक्ति लगाते हैं, वे ही जीतते हैं। त्याग और बलिदान को व्यर्थ न जाने देना वस्तुतः बड़ी समझदारी की बात है अजीतसिंह ने वही किया। इससे पूर्व कि वे पकड़े जायें अपने दो साथियों के साथ वे ईरान चले गये।
उस समय ईरान भी अंग्रेजी शासन काल में था। यहां के शिराज नगर से अजीतसिंह ने फारसी में अखबार निकाला। उद्देश्य एक ही था—अंग्रेजी उपनिवेशवाद पर चोट करना और भारत के समर्थन में पक्ष मजबूत करना। सरकार बेखबर न रही। गिरफ्तारी का वारन्ट निकाल दिया गया जिसमें इनके साथी अम्बाप्रसाद तो गिरफ्तार हो गये और फांसी के तख्ते पर चढ़कर शहीद हो गये, पर अजीतसिंह एक व्यापारी की कृपा से तुर्की चले गये। तुर्की में वहां के शासक मुस्तफा कमालपाशा से मिले और भारतीय स्वाधीनता के लिये चर्चा की, फिर वहां से आस्ट्रिया, आस्ट्रिया से जर्मनी चले गये। जहां भी गये उनका एक ही उद्देश्य रहा—शक्ति संगठन या विदेशी समर्थन लेकर अंग्रेजों को भारत की हुकूमत से हटने के लिए मजबूर करना।
‘‘जिन खोजा तिन पाइयां’’ वाली कहावत प्रसिद्ध है। ठाली हाथ बैठने से तो कुछ भी नहीं मिलता, पर यदि अभीष्ट की दिशा में प्रतिदिन एक पग भी बढ़ा जाता है तो वर्ष में 365 कदम मंजिल कम हो जाती है। सरदार अजीतसिंह यही लगन लिये हुए निरन्तर प्रयत्नशील रहे। जर्मनी में भारतीय युद्ध बन्दियों को भग्न इमारत के पत्थरों की तरह संगठित किया और उनको लेकर ‘‘भारतीय मुक्ति सेना’’ संगठित की। इस कार्य से उनकी संगठन शक्ति व अथक परिश्रम दृष्टिगोचर होता है। किसी कार्य के लिए सामान्य बुद्धि, व्यक्तित्व और योग्यता वाले बहुत आदमी एकत्रित हो जाते हैं तो वही एक बड़ी शक्ति बन जाते हैं। यह बात दूसरी थी कि जर्मनी परास्त हुआ और उन्हें ब्राजील भाग जाना पड़ा। ब्राजील से सरदार अजीतसिंह अमेरिका गये जहां वह सूती कारखाने में मैनेजर, पत्रकार और प्रोफेसर होकर तीन दिशाओं से सत्ता-संघर्ष की तैयारी करने लगे। एक का उद्देश्य धन अर्जित करना था दूसरे का भारतीय स्वातन्त्र्य की विचार धारा फैलाना और तीसरे का उद्देश्य नियोजित समर्थन पाना।
इस बीच जालन्धर में उनके घर वालों को उनका पता चल गया। उनको बुलाने के लिए घर से कई पत्र भेजे गये पर सरदार आखिर आत्म निष्ठा के धनी थे उन्होंने यही निश्चय किया कि मातृभूमि पर तभी पैर रखूंगा जब वह अंग्रेजी परतन्त्रता से पूर्ण विमुक्त होगी। यह सरदार की ज्वलन्त निष्ठा ही थी कि सरदार भगतसिंह को फांसी हुई, उनकी पत्नी, बच्चे अपने पति और पिता को देखने के लिए तड़पते रहे पर उसने हर बार यही कहा—‘‘बड़े वरदान बड़ी तपस्या से मिलते हैं। त्याग और बलिदान देते हुए जिनके चेहरों पर शिकन नहीं आती वे एक दिन जरूर सफलता के द्वार तक पहुंचते हैं। यदि मेरा यह विश्वास सच है तो उसी दिन अपनी धरती पर पैर रखूंगा जब वह विदेशी शासन से स्वतन्त्र हो जायगी।’’
अमेरिका में कुछ काम बनता न दिखाई दिया तो अजीतसिंह बंधकर बैठने वाले न थे वे ब्राजील के रास्ते फ्रांस और फिर वहां से इटली पहुंचकर मुसोलिनी से मिले। वहां इन्होंने ‘‘भारतीय स्वतन्त्रता समिति’’ बनाई और उसे ‘‘आजाद हिन्दुस्तान सेना’’ का कार्य सौंपा, बाद में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस से मिलने पर उसे आजाद हिन्द फौज में विजय कर दिया।
रोम रेडियो से उन्होंने ‘‘आजाद हिन्द रेडियो’’ के नाम से वक्तव्य समाचार प्रसारित कर भारतीय जनता में स्वतन्त्रता के लिए क्रान्ति फैलाने और विश्व जनमत को भारतवासियों के पक्ष में लाने का जोरदार प्रचार किया। इस कार्य की प्रशंसा स्वयं गांधीजी ने भी की थी। परन्तु दुर्भाग्य पीछा छोड़ने वाला न था। इटली परास्त हुआ और उन्हें उत्तरी इटली भागने के लिए विवश होना पड़ा। 2 मई 1945 को वे उत्तरी इटली में मित्र राष्ट्र की सेनाओं द्वारा बन्दी बना लिये गये और उन्हें मर्मान्तक पीड़ायें दी गईं।
इधर भारत में अन्तरिम सरकार की स्थापना हुई तो नेहरू जी के प्रयत्नों से उन्हें मुक्त कर दिया गया। 40 वर्ष तक विदेशों में भारतीय स्वतन्त्रता की अलख जगाने वाला योगी पुनः मातृभूमि के दर्शन कर सका। पर जब वह यहां आये तो उनकी सारी शक्तियां समाप्त हो चुकी थीं। शरीर भी सेवा के योग्य न रहा था।
15 अगस्त के दिन जब स्वतन्त्रता का सूर्य उदय हो रहा था तो देश-प्रेम के परवाने अजीतसिंह ने अपनी इहलीला समाप्त की। वह जिस उद्देश्य के लिए आये थे वह पूरा हो गया। दोनों हाथ जोड़े और कहा—‘‘ऐ रब तैनूं लाख-लाख धन्यवादां कि तैने साड़ी साधना नूं सिद्धि दे दी’’ हे परमात्मा तुझे लाख-लाख धन्यवाद कि तूने मेरी साधना को सिद्धि दे दी’’ यह कहकर उन्होंने अपनी आंख मूंद ली। सरदार अजीतसिंह चले गए पर उनकी निष्ठा आज भी जीवित है और अनुप्रेरणा प्रदान करती है। महान् उद्देश्यों की पूर्ति मेरे देशवासियों! ऐसी ही लगन, तत्परता त्याग और निष्ठा से होती है।