चारुमती ने यौवन की देहलीज पर पांव रखा ही था, बचपना अभी छूटा न था। रूपनगर की यह राजकुमारी एक ऐसा ही बचपना कर बैठी। दिल्ली से एक चित्र बेचने वाली स्त्री आई थी। राजकुमारी ने उससे वीर हिन्दू राजाओं के चित्रों के साथ औरंगजेब का चित्र भी खरीदा और उसी के सामने फाड़कर फेंक दिया। उसकी सहेलियों ने उसे पांवों तले रोंदा।
चित्र बेचने वाली ने वे टुकड़े लेजाकर औरंगजेब को दिखाए साथ ही चारुमती के रूप का वर्णन कर दिया। उस रूपरस-लब्ध-भ्रमर के मुंह में पानी भर आया। उसे क्या पता था कि इसी चारुमती के आगे उसकी शाहजादी और बेगम को बंदी बनकर जाना पड़ेगा। उसने रूप नगर के राजा को इस आशय का संदेश भेज दिया कि राजकुमारी चारुमती का विवाह सम्राट के साथ कर दें अन्यथा रूपनगर की ईंट से ईंट बजाकर रख दी जायगी।
चारुमती ने जब उसका यह संदेश सुना तो बड़ी चिंतित हुई। यह चिंता अधिक समय उसे घुलाती न रह सकी उसने अपना निर्णय कर लिया कि राजपूत राजाओं में यदि कोई उसकी रक्षा करने में समर्थ हो तो वह उसे पति रूप में वरण कर लेगी अन्यथा विषपान करके प्राण त्याग देगी किन्तु अन्याय के सामने सिर नहीं झुकाएगी। सच है जिसे मृत्यु से भय नहीं उसे अन्यायी झुका नहीं सकता चाहे वह कितना ही सामर्थ्यवान क्यों न हो।
राजा लोग सभी अपने क्षुद्र स्वार्थों के वशीभूत होकर अपने आपको सामर्थ्यहीन, हीनवीर्य बना चुके थे। औरंगजेब से शत्रुता लेने का उनमें साहस नहीं था। वे इस विषय में अपनी अस्वीकृति देते गये। विक्रम सिंह ने अपनी रक्षार्थ बेटी का बलिदान स्वीकार कर लिया उसने औरंगजेब का आदेश स्वीकार कर लिया।
चारुमती ने फिर भी साहस नहीं छोड़ा। उसने विचार किया तो उसे एक राह सूझ गई। तत्कालीन हिन्दू राजाओं में एक राजा उसे ऐसा दिखाई दिया जो उसकी रक्षा करके धर्म और स्त्री-गौरव की रक्षा कर सकते थे। वह थे मेवाड़ के राणा राजसिंह। उसने उन्हें एक पत्र लिखा जिसमें अपने ऊपर आने वाले संकट का वर्णन था और उनसे अपने उद्धार करने की प्रार्थना की गई थी। उसने अपने पिता की तरह संकीर्ण बुद्धि नहीं रखी। पत्र अपने विश्वस्त राज पुरोहित के हाथ उदयपुर भिजवा दिया।
राजा राजसिंह ने जब पत्र पढ़ा तो वे चारुमती को उस नर-पशु की वासना का शिकार होने से बचाने के लिये सहमत हो गये।
उन्होंने अपने सरदारों को बुलाया। उनसे मंत्रणा की। सभी सरदार सहमत थे कि राजकुमारी की रक्षा करना हमारा धर्म है। मेवाड़ भी यदि मर्यादा की रक्षा नहीं करेगा तो और कौन करेगा। महाराणा अपने इन सरदारों पर बड़े प्रसन्न हुए उनका मस्तक गर्व से ऊंचा उठ गया, साहस द्विगुणित हो गया। न सही मेरे पास विशाल सेना, न सही मेरे पास गोला बारूद, न सही मेरे पास तोपें और बंदूकें। मेरे सरदार जो मेवाड़ की आन व निर्बलों की रक्षा के लिए प्राण हथेली पर लेकर जूझते हैं ये इन जड़ वस्तुओं से कम नहीं हैं। सत्य का सहारा क्या मेरे लिए कम है। जब तक जी सकते हैं शान से जीयें मनुष्य की गौरव गरिमा से जिये, अन्याय से संघर्ष करके जीयें और संघर्ष करते हुए वीर की मृत्यु मरें। अन्यायी कितना ही बड़ा और शक्तिवान क्यों न हो ईश्वर उसके साथ नहीं होता। अतः उसे हारना ही पड़ता है।
अपनी सैन्य शक्ति तथा सम्पदा का औरंगजेब को गर्व था इसके बल पर उसने कई राजाओं से अपनी गलत इच्छायें भी पूरी करा ली थीं। वह समझता था कि सौ गांवों का एक छोटा-सा रूपनगर राज्य भला उसकी विशाल वाहिनी के आगे क्या टिकेगा। विक्रम सिंह ने जब अपनी बेटी उसे ब्याहना स्वीकार कर लिया तो वह फूला न समाया। उसे क्या पता था कि अन्याय तभी तक फूलता फलता है जब तक उससे संघर्ष, विरोध करने कोई खड़ा नहीं होता? पर जब छोटा सा संगठन भी सम्पूर्ण मनोयोग व तन, मन, धन से इसके विरोध में खड़ा हो जाता है तो अन्याय चल नहीं सकता।
उसने अपनी विशाल सेना मुबारक वेग के सेनापतित्व में रूप नगर भेज दी। राणा राजसिंह भी सतर्क थे। उन्होंने ऐसी योजना बनाई की सांप भी मर जाय और लाठी भी न टूटे। मेवाड़ को धन जन की हानि भी न हो और राज कुमारी की रक्षा भी हो जाय। वे राजस्थान के चप्पे-चप्पे से परिचित थे। दिल्ली से रूपनगर आने का एक ही मार्ग था। उस मार्ग पर एक संकरे स्थान पर अपनी सेना की एक छोटी सी टुकड़ी चुन्डावत सरदार की कमान में वहां औरंगजेब की सेना को रोकने के लिए भेज दी। स्वयं 50 सैनिक साथ ले वेश बदलकर रूपनगर जा पहुंचे तथा युक्ति से चारुमती की डोली उदयपुर लेकर चले आये।
उदयपुर आकर राजसिंह ने चारुमती से कहा ‘‘आप जो चाहे जब तक हमारे संरक्षण में रहें, हमारे जीवित रहते औरंगजेब आपकी ओर आंख उठा कर भी नहीं देख सकता। चारुमती मन में उन्हें अपना पति स्वीकार कर चुकी थी उसने उन्हें अपना मन्तव्य बता दिया। इस पर राणा ने कहा ‘‘हमारे विवाह का आदर्श काम तृप्ति नहीं है। आप स्वेच्छा से मेवाड़ की महारानी बनना चाहती हैं तो आपका स्वागत है। आप पर हमने किसी प्रकार का अहसान नहीं किया, यह तो हमारा धर्म था।’’
राजकुमारी चारुमती के मन मंदिर में राजसिंह की मूर्ति देवता की भांति स्थापित हो चुकी थी। ऐसे नर केसरी सा पति उसे अन्यत्र कहां मिल सकता था उसने मेवाड़ की महारानी बनना स्वीकार कर लिया।
औरंगजेब को जब अपनी सेना की असफलता का समाचार मिला तो वह आपे से बाहर हो गया। उसने मेवाड़ को समूल नष्ट कर देने की ठान ली। अपनी सेना के चार भाग करके मेवाड़ को चारों ओर से घेरने के लिए वह स्वयं दिल्ली से चल पड़ा।
राजसिंह को इसकी आशंका पहले से ही थी। उसके स्वागत की तैयारी वे पहले से किये बैठे थे। प्रकृति ने उन्हें पहले ही वरदान दे रखा था। मेवाड़ राज्य के चारों ओर पर्वत श्रेणियों का परकोटा खिंचा था जिसमें आगे केवल चार मार्ग थे। ये चारों संकरे दर्रे थे। उन पर रण-बांकुरे जवानों और मातृभूमि के लिये प्राण न्यौछावर करने वाले तीर कमान धारी आदिवासी भीलों के द्वारा मोर्चे बंदी कर ली गई।
मुगल सेना को दर्रे में प्रवेश करने देकर दोनों तरफ से दर्रे के मुंह बड़े-बड़े पत्थरों से बन्द कर दिये और ऊपर से पत्थरों की वर्षा की गई सो आधी सेना तो खत्म हो गई शेष में से बहुत सारे भीलों के तीर व राजपूतों की तलवार से परमधाम सिधार गए। इस युद्ध में औरंगजेब भी बुरी तरह घायल हुआ। सारी मुगल सेना तीतर-बीतर होकर भाग खड़ी हुई।
किसी प्रकार गिरते पड़ते औरंगजेब अपनी सीमा में आ सका। इतनी बुरी हार की कल्पना भी उसने नहीं की थी।
राजसिंह जानते थे कि औरंगजेब फिर आक्रमण करेगा। इसकी तैयारी उन्होंने पहले ही करली थी। उन्होंने अब की बार पहले वाली युद्ध नीति नहीं अपनाई। इससे औरंगजेब परिचित हो चुका था।
दिल्ली जाकर औरंगजेब ने फिर सेना का संगठन किया और स्वयं अपने परिवार सहित और खजाने सहित उसके साथ चल पड़ा। विलासी और असंयमी पुरुष चाहे कितनी ही सम्पदा और शक्ति का धनी हो पर संयम का बल उसके पास नहीं होता। जो व्यक्ति अपनी बेगम से कुछ महीने भी दूर न रह सके, युद्ध क्षेत्र में भी जिसे विलास की तलब लगी रहे भला वह राजसिंह जैसे संयमी व चरित्रवान पुरुष से क्या जीत सकता था।
ज्येां ही देवारी की संकरी राह से वह विशाल वाहिनी गुजरी किसी ने प्रतिरोध नहीं किया। औरंगजेब हैरान हो गया। मेवाड़ सारा वीरान पड़ा था न किसी खेत में फसल न गांव में मनुष्य। उदयपुर सूना पड़ा था। महल भी सूने पड़े थे। क्या हुआ? सब कहां गये? किससे लड़े। इसका क्रोध निर्जीव मन्दिरों व मूर्तियों पर उतरा।
वह वापस लौट पड़ा देबारी की संकरी राह से सारी सेना बाहर निकल गई पीछे रह गई रसद और बेगमों की पालकियां। वहीं छिपे हुये महाराणा की सेना ने उन पर अधिकार कर लिया और उदयपुर लेकर चले गये। औरंगजेब चूहे की चूहेदानी में फंस चुका था। न खाने को रसद और न पीने को पानी ही उजाड़ वन में था शेष सेना बाहर निकल चुकी थी और उसे घाटी में फंसाकर दोनों तरफ से बन्द कर दिया गया था।
सैनिक भूखों मरने लगे। पर्वत पर भील तीर कमान लिये खड़े थे मेवाड़ के द्वार पर रण बांकुरे राजपूत दीवार बन कर अड़े थे। औरंगजेब इतना निराश हो गया कि वह अपमानजनक संधि करने पर विवश हो गया उसने कभी मेवाड़ पर आक्रमण न करने का वचन दिया।
उदयपुरी बेगम व जेबुन्निसा शाहजादी को उदयपुर में बन्दिनी के रूप में कई दिनों तक रहना पड़ा। संधि की यह भी शर्त थी कि औरंगजेब के दिल्ली पहुंचने पर ही उन्हें भेजा जाएगा। इनके साथ किसी प्रकार का दुर्व्यवहार नहीं किया गया—सम्मान सहित रखा गया।
औरंगजेब ने तीसरी बार भी मेवाड़ पर आक्रमण किया पर इस बार भी उसे असफल होना पड़ा। वह शिवाजी व राजसिंह से इतना परेशान हो चुका था कि उसका जीना कठिन हो गया था। उसकी सारी जिन्दगी इसी में बीत गई। सत्य है जो व्यक्ति दूसरों को दुख देना ही चाहता हो वह स्वयं सुखी कैसे हो सकता है?
महाराणा राजसिंह सदा-सर्वदा सत्य पथ के पथिकों को, अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करने वालों को प्रेरणा, प्रकाश देते रहेंगे। अन्याय का प्रतिकार करने के लिये थोड़े ही सही संघ बद्ध रूप से प्रतिकार होते रहेंगे तथा धर्म की पुनर्स्थापना ऐसे ही साहसी योद्धा अपने बुद्धि-बल से करते रहेंगे।