अपनी आन्तरिक स्थिति के अनुकूल पंचमुखी गायत्री की पाँच साधनाओं में से एक उपयुक्त साधना चुन लेनी चाहिए। जो विद्यार्थी जिस कक्षा का होता है, उसे उसी कक्षा की पुस्तकें पढ़ने को दी जाती हैं। बी. ए. के विद्यार्थी को छठवें दर्जे की पुस्तकें पढ़ाई जाएँ तो इससे उनकी उन्नति में कोई सहायता न मिलेगी। इस प्रकार पाँचवें दर्जे वाले को बारहवें दर्जे का पाठ्यक्रम पढ़ाया जाए, तो घोर परिश्रम करने पर भी उसमें सफलता न मिलेगी। साधना के सम्बन्ध में भी यह बात लागू होती है। जो साधक अपनी मनोभूमि के अनुरूप साधना चुन लेते हैं, वे प्राय: असफल नहीं होते।
गायत्री-साधना का प्रभाव तत्काल होता है। उसका परिणाम देखने के लिए देर तक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। साधना आरम्भ करते ही चित्त में सात्त्विकता, शान्ति, प्रफुल्लता, उत्साह एवं आशा का जागरण होता है। कोई व्यक्ति कितनी ही कठिनाई, परेशानी, असुविधा एवं संकट में पड़ा हुआ क्यों न हो, उसकी मानसिक चिन्ता, बेचैनी, घबराहट में तत्काल कमी होती है।
जैसे दर्द करते हुए घाव के ऊपर शीतल मरहम लगा देने से तत्काल चैन पड़ जाता है, और दर्द बन्द हो जाता है, वैसे ही अनेक कठिनाइयों की पीड़ा के कारण दुखी हृदय पर गायत्री-साधना की मरहम ऐसी शीतल एवं शांतिदायक प्रतीत होती है कि बहुत से मानसिक बोझ तो तत्काल हलके हो जाते हैं।
साधक को ऐसा लगता है कि वह चिरकाल से बिछुड़ा हुआ फिरते रहने के बाद अपनी सगी माता से मिला हो। माता से बिछुड़ा हुआ बालक बहुत समय इधर-उधर भटकने के बाद जब माता को ढूँढ़ पाता है, तो उसकी छाती भर जाती है और माता से लिपटकर उसकी गोदी में चढ़कर ऐसा अनुभव करता है मानो उसकी जन्म-जन्मान्तरों की विपत्ति टल गई हो। हिरन का बच्चा अपनी माता के साथ घने वनों में हिंसक जानवरों के बीच फिरते हुए भी निर्भय रहता है। वह निश्चिन्त हो जाता है कि जब माता मेरे साथ है तो मुझे क्या फिक्र है? हिरनी भी अपने शिशुशावक की सुरक्षा के लिए कोई बात उठा नहीं रखती। वह उसे अपने प्राणों के समान प्यार करती है, माता का प्यार उससे कदापि कम नहीं होता।
भली और बुरी परिस्थितियाँ तो प्रत्येक मनुष्य के सामने आती ही रहती हैं। सुख-दु:ख का चक्र संसार का साधारण नियम है। सामान्य श्रेणी का मनुष्य इससे निरन्तर प्रभावित होता रहता है। वह कभी तो अपने को सौभाग्य के सरोवर में तैरता अनुभव करता है और कभी आपत्तियों के दलदल में फँसा हुआ। पर जिस व्यक्ति ने गायत्री उपासना करके मन को संयत रखना सीख लिया है और यह विश्वास दृढ़ कर लिया है कि सन्मार्ग पर चलने वालों की वह महाशक्ति अवश्य सहायता और रक्षा करती है, वह कभी विपरीत परिस्थितियों में व्याकुल नहीं हो सकता। वह प्रत्येक दशा में शान्तचित्त रहता हुआ गायत्री माता की अनुकम्पा पर भरोसा रखकर प्रयत्नशील रहता है और शीघ्र ही विपत्तियों से छुटकारा पा जाता है।
विपत्तियाँ स्वयं इतना कष्ट नहीं पहुँचातीं जितना कि उसकी आशंका, कल्पना, भावना दु:ख देती है। किसी का व्यापार बिगड़ जाए, घाटा आ जाए तो उस घाटे के कारण शरीर यात्रा में कोई प्रत्यक्ष बाधा नहीं पड़ती। रोटी, कपड़ा, मकान आदि को वह घाटा नहीं छीन लेता और न घाटे के कारण शरीर में दर्द, ज्वर आदि होता है, फिर भी लोग मानसिक कारणों से बेतरह दु:खी रहते हैं। इस मानसिक कष्ट में गायत्री-साधना से तत्काल शान्ति मिलती है। उसे एक ऐसा आत्मबल मिलता है, ऐसी आन्तरिक दृढ़ता एवं आत्मनिर्भरता प्राप्त होती है, जिसके कारण अपनी कठिनाई उसे तुच्छ दिखाई पड़ने लगती है और विश्वास हो जाता है कि वर्तमान का जो बुरे से बुरा परिणाम हो सकता है, उसके कारण भी मेरा कुछ नहीं बिगड़ सकता। असंख्य मनुष्यों की अपेक्षा फिर भी मेरी स्थिति अच्छी रहेगी।
गायत्री साधना की यही विशेषता है कि उससे तत्काल आत्मबल प्राप्त होता है, जिसके कारण मानसिक पीड़ाओं में तत्क्षण कमी होती है। हमें ऐसे अनेक अवसर याद हैं, जब दु:खों के कारण आत्महत्या करने के लिए तत्पर होने वाले मनुष्यों के आँसू रुके हैं और उनने सन्तोष की साँस छोड़ते हुए आशा भरे नेत्रों को चमकाया है। घाटा, बीमारी, मुकदमा, विरोध, गृह-क्लेश, शत्रुता आदि के कारण उत्पन्न होने वाले परिणामों की कल्पना से जिनके होठ सूखे रहते थे, चेहरा विषादग्रस्त रहता था, उन्होंने माता की कृपा पाकर हँसना सीखा और मुस्कराहट की रेखा उनके कपोलों पर दौड़ने लगी।
‘जो होना है होकर रहेगा। प्रारब्ध भोग हमें स्वयं भोगने पड़ेंगे। जो टल नहीं सकता उसके लिए दुखी होना व्यर्थ है। अपने कर्मों का परिणाम भोगने के लिए वीरोचित बहादुरी को अपनाया जाए’, इन भावनाओं के साथ वह अपनी उन कठिनाइयों को तृणवत् तुच्छ समझने लगता है, जिन्हें कल तक पर्वत के समान भयंकर और दुस्तर समझता था।
जिन लोगों को यह भय था कि उन्हें सताया जाएगा, दु:ख दिया जाएगा, न जाने क्या-क्या आपत्तियाँ उठानी पड़ेगी, भविष्य घोर अन्धकार में रहेगा, उनके मन में साहस का उदय होते ही यह विश्वास जम गया कि मुझ अविनाशी आत्मा का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। दिन के बाद रात और रात के बाद दिन आना निश्चित है, इसी प्रकार सुख के बाद दु:ख और दु:ख के बाद सुख आना भी निश्चित है। यह हो नहीं सकता कि आज की कठिनाई सदा बनी रहे और उससे छुटकारा पाने का कोई उपाय न निकले। यदि सम्भावित कठिनाई आई भी, तो यह निश्चित है कि उसकी भयंकरता कम करने के लिए कोई न कोई नया उपाय भी भगवान् अवश्य सुझावेगा।
इस प्रकार ऐसे अनेक साहसपूर्ण विचार मन में उठना आरम्भ हो जाते हैं और उस आत्मबल के कारण साधक की आधी कठिनाई तो तत्क्षण दूर हो जाती है, उसका सोता हुआ मानस अपने विषाद से छुटकारा पा जाता है, आशा और उत्साह की किरणें उसे अपने चारों ओर फैली हुई दीखती हैं।
‘जो प्रभु राई को पर्वत कर सकता है और पर्वत को राई बना सकता है, वह हमारे भाग्याकाश का अन्धकार मिटाकर प्रकाश भी चमका सकता है’ इस विश्वास के साथ गायत्री साधक में आशा एवं उत्साह की तरंगे हिलोरें लेने लगती हैं।
अनेक बार तो गायत्री के उपासक की कठिनाइयाँ ऐसे अचरज भरे ढंग से हल होती हैं कि उसे दैवी चमत्कार ही कहना पड़ता है। ऐसी घटनाएँ हमने स्वयं अपनी आँखों से देखी हैं कि ‘‘जहाँ सब लोग पूर्ण निराश हो चुके थे, कार्य सिद्ध होना असम्भव मालूम होता था, भय एवं आशंका की घड़ी बिलकुल नजदीक आ गई थी और मालूम पड़ता था कि विपत्ति का पर्वत अब टूटना ही चाहता है; लोगों के कलेजे धक्-धक् कर रहे थे कि अब विपत्ति निश्चित है, रक्षा का कोई उपाय कारगर नहीं हो सकता’’, ऐसी विपन्न परिस्थितियों में एकाएक जादू की तरह परिवर्तन हुआ है, परिस्थितियों ने ऐसा पलटा खाया कि कुछ से कुछ हो गया। अन्धकार की काली घटाएँ उड़ गईं और प्रकाश का सुनहरा सूरज चमकने लगा। ऐसी घटनाओं को देखकर सहसा यह शब्द मुँह से निकले कि ‘‘प्रभु की कृपा से कुछ भी असम्भव नहीं है।’’ तुलसीदास जी की ‘‘मूक होहिं वाचाल पंगु चढ़हिं गिरवर गहन’’ वाली मान्यता अनेक बार चरितार्थ होती देखी गई है।
कई बार अत्यन्त प्रबल प्रारब्ध इतना अटल होता है कि वह टल नहीं पाता। हरिश्चन्द्र, प्रह्लाद, पाण्डव, राजा नल, दशरथ सरीखे महापुरुषों को प्रारब्ध के कुचक्र की यातनाएँ सहनी पड़ीं, यद्यपि उनके सहायक, सम्बन्धी और गुरुजन अत्यन्त उच्चकोटि के आत्मशक्ति सम्पन्न थे, फिर भी दुर्भाग्य टल न सके। जहाँ ऐसे अनिवार्य अवसर होते हैं, वहाँ भी गायत्री महाशक्ति के कारण प्राप्त हुए आत्मबल के कारण मानसिक त्रास तत्क्षण कम हो जाता है और साधक विषाद, दीनता, कायरता, बेचैनी, घबराहट, निराशा, व्याकुलता का परित्याग करके साहस और धैर्यपूर्वक परिस्थितियों का मुकाबला करता है और हँस-खेलकर सन्तोष और शान्ति के साथ बुरी घड़ियों को गुजार लेता है।
वेदमाता की आराधना एक प्रकार का आध्यात्मिक कायाकल्प करना है। जिन्हें कायाकल्प की विद्या मालूम है, वे जानते हैं कि इस महाअभियान को करते समय कितने धैर्य और संयम का पालन करना होता है, तब कहीं शरीर की जीर्णता दूर होकर नवीनता प्राप्त होती है। गायत्री-आराधना का आध्यात्मिक कायाकल्प और भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। उसके लाभ केवल शरीर तक ही सीमित नहीं, वरन् शरीर, मस्तिष्क, चित्त, स्वभाव, दृष्टिकोण सभी का नवनिर्माण होता है और स्वास्थ्य, मनोबल एवं सांसारिक सुख-सौभाग्यों की वृद्धि होती है।
ऐसे असाधारण महत्त्व के अभियान में समुचित श्रद्धा, सावधानी, रुचि एवं तत्परता रखनी पड़े, तो इसे कोई बड़ी बात न समझना चाहिए। केवल शरीर को पहलवानी के योग्य बनाने में काफी समय तक धैर्यपूर्वक व्यायाम करते रहना पड़ता है। दण्ड बैठक, कुश्ती आदि के कष्टसाध्य कर्मकाण्ड होते हैं। दूध, घी, मेवा, बादाम आदि में काफी खर्च होता रहता है, तब कहीं जाकर पहलवान बना जा सकता है। क्या आध्यात्मिक कायाकल्प करना पहलवान बनने से भी कम महत्त्व का है? बी. ए. की उपाधि लेने वाले जानते हैं कि उनने कितना धन, समय, श्रम और अध्यवसाय लगाकर उस उपाधि पत्र को प्राप्त कर पाया है। गायत्री की सिद्धि प्राप्त करने में यदि पहलवान या ग्रेजुएट के समान प्रयत्न करना पड़ा, तो कोई घाटे की बात नहीं है। प्राचीनकाल में हमारे पूर्वजों ने जो आश्चर्यजनक सिद्धियाँ प्राप्त की थीं, उनका उन्होंने समुचित मूल्य चुकाया था। हर एक लाभ की उचित कीमत देनी होती है। गायत्री साधना का आध्यात्मिक कायाकल्प यदि अपना मूल्य चाहता है, तो उसे देने में किसी भी ईमानदार साधक को आनाकानी नहीं करनी चाहिए।
यह सत्य है कि कई बार जादू की तरह गायत्री उपासना का लाभ होता है। आई हुई विपत्ति अति शीघ्र दूर होती है और अभीष्ट मनोरथ आश्चर्यजनक रीति से पूरे हो जाते हैं; पर कई बार ऐसा भी होता है कि अकाट्य प्रारब्ध भोग न टल सके और अभीष्ट मनोरथ पूरा न हो। राजा हरिश्चन्द्र, नल, पाण्डव, राम, मोरध्वज जैसे महापुरुषों को होनहार भवितव्यता का शिकार होना पड़ा था। इसलिए सकाम उपासना की अपेक्षा निष्काम उपासना ही श्रेष्ठ है। गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने निष्काम कर्मयोग का ही उपदेश दिया है। यह साधना कभी निष्फल नहीं जाती। उसका तो परिणाम मिलेगा ही, पर हम अल्पज्ञ होने के कारण अपना प्रारब्ध और वास्तविक हित नहीं समझते। माता सर्वज्ञ होने से सब समझती है और वह वही फल देती है, जिनमें हमारा वास्तविक लाभ होता है। साधन काल में एक ही कार्य हो सकता है, या तो मन भक्ति में तन्मय रहे या कामनाओं के मनमोदक खाता रहे। मनमोदकों में उलझे रहने से भक्ति नहीं रह पाती, फलस्वरूप अभीष्ट लाभ नहीं हो पाता। यदि कामनाओं को हटा दिया जाए, तो उससे निश्चिन्त होकर समय और मन भक्तिपूर्वक साधना में लग जाता है; तदनुसार सफलता का मार्ग प्रशस्त हो जाता है।
कोई युवक किसी दूसरे युवक को कुश्ती में पछाड़ने के लिए व्यायाम और पौष्टिक भोजन द्वारा शरीर को सुदृढ़ बनाने की उत्साहपूर्वक तैयारी करता है। पूरी तैयारी के बाद भी वह कदाचित् कुश्ती पछाड़ने में असफल रहता है, तो ऐसा नहीं समझना चाहिए कि उसकी तैयारी निरर्थक चली गई। वह तो अपना लाभ दिखाएगी ही। शरीर की सुदृढ़ता, चेहरे की कान्ति, अंगों की सुडौलता, फेफड़ों की मजबूती, बलवीर्य की अधिकता, नीरोगता, दीर्घजीवन, कार्यक्षमता, बलवान सन्तान आदि अनेक लाभ उस बढ़ी हुई तन्दुरुस्ती से होकर रहेंगे। कुश्ती की सफलता से वंचित रहना पड़ा यह ठीक है, पर शरीर को बल-वृद्धि द्वारा प्राप्त होने वाले अन्य लाभों से उसे कोई वञ्चित नहीं कर सकता। गायत्री साधक अपने काम्य प्रयोजन में सफल नहीं हो सके, तो भी उसे अन्य अनेक मार्गों से ऐसे लाभ मिलेंगे, जिनकी आशा बिना साधना किए नहीं की जा सकती।
बालक चीजें माँगता है, पर माता उसे वह चीजें नहीं देती। रोगी की सब माँगे बुद्धिमान वैद्य या परिचर्या करने वाले पूरी नहीं करते। ईश्वर की सर्वज्ञता की तुलना में मनुष्य बालक या रोगी के समान ही है। जिन अनेकों कामनाओं को हम नित्य करते हैं, उनमें से कौन हमारे लिए वास्तविक लाभ और कौन हानि करने वाली है, इसे सर्वज्ञ माता ही अच्छी तरह समझती है। जिसे उसकी भक्तवत्सलता पर सच्चा विश्वात है, उसे कामनाओं को पूरा करने की बात उसी पर छोड़ देनी चाहिए और अपना सारा मनोयोग साधना पर लगा देना चाहिए। ऐसा करने से हम घाटे में नहीं रहेंगे, वरन् सकाम साधना की अपेक्षा अधिक लाभ में ही रहेंगे।
जयपुर के महाराज रामसिंह एक बार शिकार खेलते हुए रास्ता भूलकर एक निर्जन वन में भटक गए थे। वहाँ एक अपरिचित वनवासी ने उनका उदार आतिथ्य किया। उसकी रूखी-सूखी रोटी का महाराज ने कुछ दिन बाद विपुल धनराशि के रूप में बदला दिया। यदि उस वनवासी ने अपनी रोटी की कीमत उसी वक्त माँग ली होती, तो वह राजा का प्रीति-भाजन नहीं बन सकता था। सकाम साधना करने वाले मतलबी भक्तों की अपेक्षा माता को निष्काम भक्तों की श्रद्धा अधिक प्रिय लगती है। वह उसका प्रतिफल देने में अधिक उदारता दिखाती है।
हमारा दीर्घकालीन अनुभव है कि कभी किसी की गायत्री साधना निष्फल नहीं जाती, न उलटा परिणाम ही होता है। आवश्यकता केवल इस बात की है कि हम धैर्य, स्थिरता, विवेक और मनोयोगपूर्वक कदम बढ़ाएँ। उस मार्ग में छछोरपन से नहीं, सुदृढ़ आयोजन से ही लाभ होता है। इस दिशा में किया हुआ सच्चा पुरुषार्थ अन्य किसी भी पुरुषार्थ से अधिक लाभदायक सिद्ध होता है। गायत्री साधना में जितना समय, श्रम, धन और मनोयोग लगता है, सांसारिक दृष्टि से उस सबका जो मूल्य है, वह कई गुना होकर साधक के पास निश्चित रूप से लौट आता है।