गायत्री महाविज्ञान

पंचकोशी साधना का ज्ञातव्य

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पिछले पृष्ठों पर पञ्चकोशी साधना के अन्तर्गत योगविद्या की वे साधनाएँ बताई गई हैं जो सर्वसाधारण के लिए सरल एवं उपयोगी हैं। यह प्रकट है कि आध्यात्मिक महातत्त्व गायत्री ही है। जितना भी ज्ञान, विज्ञान और योग है, वह सब गायत्री से आविर्भूत होता है, इसलिए ऐसी कोई साधना हो नहीं सकती जो गायत्री की महापरिधि से बाहर हो। सम्पूर्ण योगशास्त्र निश्चित रूप से गायत्री के अन्तर्गत है। योग साधनाएँ अनेक हैं। वे सब एक ही महातत्त्व की प्राप्ति के लिए हैं। गायत्री का नाम ही ‘मुक्ति’ है और उसी को सिद्धि कहते हैं। जैसे किसी नगर मे पहुँचने के लिए अनेक दिशाओं के अनेक रास्ते होते हैं,

 उसी प्रकार प्रभु प्राप्ति के लिए अनेक योग हैं। प्रत्येक मार्ग में अलग-अलग प्रकार के दृश्य, पदार्थ और मनुष्य मिलते हैं। इनको ध्यान में रखते हुए लोग निर्दिष्ट स्थान पर पहुँचने का मार्ग निर्धारित करते हैं। इसी प्रकार प्रत्येक योग साधना की यह विशेषता है कि उसके मार्ग में अपने-अपने ढंग के अनोखे-अनोखे अनुभव होते हैं, भिन्न-भिन्न सिद्धियाँ एवं अनुभूतियाँ प्राप्त होती हैं। अन्त में पहुँचते सब एक ही स्थान पर हैं। योग साधनाएँ अनेक प्रकार की इसलिए हैं कि मनोभूमि, स्थिति, शक्ति, सुविधा, रुचि, देश, काल, पात्र के भेद से भिन्न-भिन्न परिस्थिति के लोग उन्हें अपना सकें। युग परिवर्तन के अनुसार तत्त्वों की स्थिति में अन्तर आता रहता है। पूर्वकाल में जलवायु में जो गुण था, वह अब नहीं है; जो अब है, वह आगे न रहेगा। सृष्टि धीरे-धीरे बूढ़ी होती जाती है। बालक में जितनी स्फूर्ति, कोमलता, चञ्चलता, उमंग और सुन्दरता होती है, वह बूढ़े में नहीं रहती। जवान आदमी जितना बोझ उठा सकता है, उतना वृद्ध पुरुष के लिए सम्भव नहीं।

सतयुग सृष्टि का बालकपन है, त्रेता जवानी, द्वापर अधेड़ावस्था है तो कलियुग बुढ़ापा। पञ्चतत्त्वों की यही स्थिति होती है। जब बुढ़ापा अधिक आ जाता है तो सृष्टि मर जाती है, प्रलय हो जाती है। फिर उसका नया जन्म होता है। सतयुग के बालक-पञ्चतत्त्वों में प्राणियों के शरीर भी वैसे ही थे। खाद्य पदार्थ तथा जलवायु में भी वैसी ही विशेषता थी। मानसिक चेतना, इन्द्रिय लालसा, आहार-विहार, आयु एवं शरीर के ढाँचा का, गर्मी तथा वायु के भी युग-प्रभाव से बहुत कुछ सम्बन्ध रहता है। भूगर्भ विज्ञान के अन्वेषकों ने कुछ हजार वर्ष पुराने ऐसे जीव-जन्तुओं के प्रमाण पाए हैं, जो वर्तमान जीवों की अपेक्षा कहीं भिन्न आकृति के और कहीं अधिक बड़े थे। ऐसे मनुष्यों के अस्थि-पञ्जर मिले हैं जो दस फीट लम्बे थे। महागज, महामकर और महाशूकर अपने वर्तमान वंशजों की अपेक्षा पाँच गुने से लेकर सैंतीस गुने तक बड़े थे, ऐसे प्रमाण मिल चुके हैं। जिस प्रकार सूर्यकाल में अग्नि तत्त्व प्रधान शरीर वाले प्राणी रहते हैं,

 उसी प्रकार सतयुग में आकाश तत्त्व की प्रधानता इस पृथ्वी पर होने से उस समय उसी तत्त्व की प्रधानता वाले प्राणी इस पृथ्वी पर थे। उनके लिए आकाश में बिना पंखों के भी उड़ना सरल था। हनुमान ने बिना पंखों के छलाँग मारकर समुद्र को पार किया था। त्रेता में ऐसा करना कुछ लोगों के लिए सम्भव रह गया था, इसलिए हनुमान जी को विशेष महत्त्व मिला। सतयुग में यह बिलकुल साधारण बात थी। पूर्व युगों की स्थिति का कुछ परिचय यहाँ हमें इसलिए देना पड़ा है कि पाठक यह जान जाएँ कि जो योग साधनाएँ सतयुग के मनुष्यों के लिए अत्यन्त सरल और स्वाभाविक थीं, वे अब नहीं हो सकतीं। जो सिद्धियाँ पूर्वकाल में थोड़ी सी साधना से मिल जाती थीं, वे अब असम्भव हैं। पार्वती ने शिव को प्राप्त करने के लिए कितने लम्बे समय तक कितना कष्टसाध्य तप किया था, वैसा आज की स्थिति में किसी के लिए सम्भव नहीं है।

सम्भव इसलिए नहीं है कि मनुष्य की आयु सौ वर्ष रह गई है और पृथ्वी तत्त्व प्रधान हो जाने से शरीर में जड़ता का अंश अधिक आ गया है। किसी समय में शरीर में पाप के होने न होने की परीक्षा अग्नि में तपाकर वैसे ही कर ली जाती थी जैसे कि आजकल सोने को तपाकर कर ली जाती है। सीताजी ने हँसते-हँसते उस प्रकार की अग्निपरीक्षा दी थी और उनके शरीर को जरा भी कष्ट न हुआ था; पर आज तो परम साध्वी का शरीर भी अग्नि से जले बिना नहीं रह सकता। कलियुग में सती प्रथा का इसलिए निषेध है कि पति की चिता पर जलने से आज कोई स्त्री कष्टपीड़ित हुए बिना नहीं रह सकती। इसलिए पूर्वकाल की सतियों की भाँति वह पति को शान्ति देना तो दूर, उलटे अपने आर्तनाद से पति की आत्मा को अत्यन्त दु:ख और नारकीय व्यथा में डुबो देती है। कहने का तात्पर्य केवल इतना ही है कि युग की स्थिति के अनुसार योग साधना का मार्ग और परिणाम बदल जाता है, इसलिए साधनाक्रमों की व्यवस्था और विधि-विधान में अन्तर पड़ता जाता है। इस युग के तत्त्ववेत्ता अपनी सूक्ष्म दृष्टि से अन्वेषण करके यह निश्चय करते हैं कि आज की स्थिति में कौन-सा साधन आवश्यक है और किस प्रकृति का, किस मनोभूमि का साधक किस साधना को ठीक प्रकार कर सकेगा? यह निर्णय ठीक न हो, तो योग साधना से कई बार लाभ के बदले उलटी हानि होती देखी जाती है। ऐसी अनेक दुर्घटनाएँ हमने अपनी आँखों से देखी हैं।

प्राण को ब्रह्माण्ड में चढ़ाकर वापस लौटाने की क्रिया से अपरिचित होने के कारण एक साधक की आधे घण्टे में मृत्यु हो गई थी। एक सज्जन कुण्डलिनी जागरण के सिलसिले में पक्षपात के चंगुल में फँस गए। कुण्डलिनी का कूर्म मेरु जरा-सा विचलित हुआ था कि वे ‘पिंगला’ में ‘कृकल’ प्राण को प्रवेश कराने लगे, फलस्वरूप वायु कुपित हो गई और लकवा से उनके हाथ-पाँव जकड़ गए। गायत्री मन्त्र की साधना करते हुए प्राणकोश की ‘हिंस्रा’ को एक सज्जन जगा रहे थे। किसी दूसरे पर घात चलाने का उनका इरादा था, पर ‘हिंस्रा’ जाग्रत् न हो सकी और भूल से उनके वाम पार्श्व में रहने वाला तिर्यक् अणु फट गया, वे मुँह और नाक से खून डालने लगे। तीन सेर (कि.ग्रा.) खून निकल जाने से उनकी मृत्यु ४० मिनट के भीतर हो गई। हठयोग की हम अधिक चर्चा सुनते हैं, क्योंकि वह निकट भूत में कलियुग के प्रारम्भ में काफी क्रियाशील था। नागार्जुन हठयोग को पूर्ण सिद्ध कर चुके थे।

नाथ सम्प्रदाय के आचार्य गोरखनाथ और मत्स्येन्द्रनाथ पूर्ण हठयोगी थे। बौद्धकाल में महायान, वज्रयान आदि का प्रचलन था, पर अब हठयोग का समय भी बीत चुका है। स्वस्थ हठयोगी जहाँ-तहाँ ही एकाध दीख पड़ता है। षट्कर्म, नेति, धोति, वस्ति, न्योलि, बज्रोली, कपालभाति करते हुए कितने ही साधक हमने उदर रोगों से ग्रस्त देखे हैं। नासिका से होकर सूत की डोरी चढ़ाते हुए एक सज्जन अपने नेत्र खो बैठे। मुँह से कपड़े की पट्टी पेट में पहुँचाने की क्रिया आरम्भ करते हुए एक सज्जन संग्रहणी में ग्रस्त हुए तो फिर उस रोग से उन्हें छुटकारा ही न मिला। बज्रोली क्रिया करने वाले अकसर बहुमूत्र और गुर्दे की सूजन से ग्रसित हो जाते हैं। कारण यह है कि साधक की स्थिति का भली प्रकार निरीक्षण किए बिना यदि उसकी प्रकृति से विपरीत साधन बता दिया जाए, तो इससे उसका अहित ही हो सकता है। कई साधक ऐसे दुस्साहसी, अहंकारी और जल्दबाज होते हैं कि बिना उपयुक्त पथ-प्रदर्शक की सलाह लिए अपनी मर्जी से, कहीं पढ़-सुनकर मनमानी साधना करने लगते हैं, मनमाने लाभों की कल्पना कर लेते हैं, मनमानी विधि-व्यवस्था रख लेते हैं। इससे उन्हें लाभ के स्थान पर हानि ही अधिक होती है। इन्हीं कारणों से योग मार्ग में गुरु का होना आवश्यक माना गया। इस पुस्तक में पञ्चकोशों की साधना की चर्चा करते हुए गायत्री योग का उल्लेख किया है। उनमें किन्हीं योग क्रियाओं की बिलकुल चर्चा नहीं की गई है यद्यपि वे भी इन्हीं पाँचों के अन्तर्गत हैं। कारण यह है कि जो साधनाएँ द्वापर, त्रेता, सतयुग आदि पूर्व युगों के उपयुक्त थीं, जिन्हें आकाश, अग्नि, वायु एवं जल प्रधान शरीरों वाले साधक ही आसानी से कर सकते थे,

उनकी चर्चा इस सर्वसाधारण के लिए लिखी गई पुस्तक में अनावश्यक ही नहीं, अनुचित भी होती; क्योंकि सम्भव है कोई व्यक्ति उस आधार पर साधना करने लगते तो उससे उन्हें लाभ तो कुछ नहीं होता, उलटे समय का अपव्यय, निराशा, अश्रद्धा, अरुचि एवं कोई हानि हो जाने का भय और बना रहता। इसलिए उन्हीं साधनाओं की चर्चा की गई है, जो आज की स्थिति में उपयुक्त हो सकती हैं। जिन साधनाओं का वर्णन किया गया है, उनके सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि ये संक्षिप्त रूप से लिखी गई हैं; उनका पूरा विधि-विधान, समस्त नियमोपनियम नहीं बताए गए हैं। इसका कारण यह है कि एक प्रकार के योग की ही सबके लिए एक विधि-व्यवस्था नहीं हो सकती। नादयोग को सब लोग एक विधि से नहीं साध सकते। उष्ण प्रकृति वालों को अस्थिर, चञ्चल अनेक ध्वनियों का मिला हुआ नाद सुनाई देता है, ऐसे साधक को वे उपाय बताए जाते हैं जिससे उनकी उष्णता शान्त हो और दिव्य ध्वनियाँ ठीक सुनाई देने लगें। इसके विपरीत जिनकी प्रकृति शीत प्रधान है, उनको अनाहत नाद बहुत मन्द, रुक-रुककर, देर में सुनाई पड़ते हैं।

उनकी दिव्य कर्णेन्द्रियों को उष्णता प्रधान साधनों से उत्तेजित करके इस योग्य बनाना पड़ता है जिससे नाद भली प्रकार खुल जाए। जैसे शीत और उष्ण प्रकृति के दो भेद ऊपर बताए हैं, वैसे और भी अनेक भेद-उपभेद हैं, जिनके कारण एक ही साधना के लिए अनेक प्रकार के नियम-उपनियम बनाने पड़ते हैं। ऐसी दशा में यह सम्भव नहीं कि समस्त प्रकार की प्रकृति वाले मनुष्यों की परिस्थिति भेद के कारण किए जाने वाले समस्त विधानों का एक पुस्तक में उल्लेख हो सके। चिकित्सा शास्त्र में निदान, निघण्टु तथा औषधि निर्माण का विस्तृत उल्लेख मिलता है। परन्तु ऐसा कोई ग्रन्थ अब तक नहीं छपा, जिसमें समस्त रोगों के रोगियों का समस्त परिस्थितियों के अनुसार समस्त चिकित्सा विधियों का वर्णन मिलता हो। यही बात योग साधना के सम्बन्ध में भी लागू होती है। यदि किसी एक छोटी साधना के सम्बन्ध में भी साधक भेद से उसके अन्तरों को लिखा जाए, तो एक भारी ग्रन्थ बन सकता है, फिर भी वह ग्रन्थ अपूर्ण रहेगा। ऐसी स्थिति में गायत्री की पञ्चमुखी साधना के अन्तर्गत जो साधनाएँ इस पुस्तक में लिखी गई हैं, वे मोटे तौर पर भली प्रकार समझाकर ही लिखी गई हैं, फिर भी उनमें अपूर्णता का दोष तो रहेगा ही। यह आवश्यक नहीं कि पञ्चकोशों के अन्तर्गत आने वाली सभी साधनाएँ करने पर जीवनोद्देश्य प्राप्त हो। जिस साधक की जिस कोश में वर्तमान स्थिति है, वह उसी कोश की सीमा में बताई गई साधना करके अपने बन्धन खोल सकता है। इस पुस्तक में चौबीस से अधिक साधनाएँ बताई गई हैं। इसके अतिरिक्त अनेक और साधनाएँ हैं।

छोटे से जीवन में उन सबका साधन मनुष्य नहीं कर सकता, करना आवश्यक भी नहीं है। आयुर्वेद में हजारों औषधियों का वर्णन है। वे सभी रोगों को दूर करके स्वस्थ होने के एक ही उद्देश्य के लिए बताई गई हैं, फिर भी कोई ऐसा नहीं करता कि जितनी भी औषधियों का वर्णन है, उन सबका सेवन करे। बुद्धिमान् लोग देखते हैं कि रोगी को क्या बीमारी है, उसकी आयु, स्थिति एवं प्रकृति क्या है? तब यह निर्णय किया जाता है कि कौन औषधि किस अनुपान में दी जाए? कई बार थोड़ी-थोड़ी करके कई औषधियों का मिश्रण करके देना होता है। साधना के सम्बन्ध में भी यही बात है। अपनी मनोभूमि के अनुसार साधना का चुनाव आवश्यक है। जो लोग सबको एक ही लकड़ी से हाँकते हैं, सब धान बाईस पसेरी तोलते हैं, वे भारी भूल करते हैं। रोगी अपने आप अपने लिए औषधि का निर्णय नहीं कर सकता। कोई वैद्य या डॉक्टर बीमार पड़ता है, तो वह भी किसी कुशल चिकित्सक से ही अपना इलाज कराता है। कारण यह है कि अपने आप को समझना सबके लिए बड़ा कठिन है। अक्सर लोग दूसरों की बुराई किया करते हैं, पर अपनी गलतियाँ उनको नहीं सूझतीं। दूसरों की आँख हमें दिखाई पड़ती है, पर अपनी आँख को आप नहीं देख सकते। अपनी आँख की बात जाननी हो, तो किसी दूसरे से पूछना पड़ेगा या दर्पण की मदद लेनी पड़ेगी। यही बात अपनी मनोभूमि को परखने और उसके उपयुक्त उपचार ढूँढ़ने के बारे में है। इसमें किसी दूसरे अनुभवी मनुष्य की सहायता आवश्यक है। इस आवश्यक सहायता का सुव्यवस्था का नाम ‘गुरु का वरण’ है।

अच्छा पथ-प्रदर्शक मिल जाना आधी सफलता मिल जाने के बराबर है। इन साधनाओं का अधिकार प्रत्येक व्यक्ति को है। स्त्री-पुरुष, बाल-वृद्ध की स्थिति भेद से साधना विधियों में अन्तर होता है, परन्तु ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं है कि गायत्री साधना से अमुक वर्ग को वञ्चित रखा जाए। माता के सभी पुत्र हैं। उसे अपने सभी बालकों पर समान ममता है, सभी को वह भरपूर दुलार करती है और सभी को अपना पय-पान कराना चाहती है। कोई माता ऐसा नहीं करती कि अपने पुत्र को तो पय-पान कराए और कन्या जन्मे तो उसे दुत्कार दे। ऐसा दुर्व्यवहार न मनुष्यों में होता है और न पक्षियों में, फिर परम दिव्य सत्ता ऐसा पक्षपात, भेदभाव करेगी, इसकी कल्पना भी नहीं की जानी चाहिए। पूर्वकाल में अनेक ब्रह्मवादिनी, परम योगिनी महिलाएँ हुई हैं। वेदान्त कार्य में सदैव पुरुषों की वामांग बनकर समान रूप से भाग लेती रही हैं। माता के सभी पुत्र बिना किसी भेदभाव के उसकी उपासना कर सकते हैं और प्रसन्नतापूर्वक उसका स्नेह एवं आशीर्वाद प्राप्त कर सकते हैं। आधुनिक परिस्थितियों में जो साधनाएँ सध सकें, उन्हें ही अपनाना उचित है। अब पूर्वकाल के सतयुग आदि युगों की सी स्थिति नहीं है, इसलिए वैसे योग साधन भी नहीं हो सकते और उन साधनाओं के फलस्वरूप वैसी सिद्धियाँ भी नहीं मिल सकतीं जैसी कि उन युगों में प्राप्त होती थीं। अणिमा, लघिमा, महिमा आदि जिन सिद्धियों का योग ग्रन्थों में वर्णन है, वे पूर्व युगों की ही हैं।

शरीरों को अत्यन्त छोटा कर लेना, अत्यन्त बड़ा बना लेना, अदृश्य हो जाना, शरीर बदल लेना, आकाश में उड़ना, पानी पर चलना जैसी शरीर सम्बन्धी सिद्धियाँ आकाश तत्त्व प्रधान शरीर और युग अर्थात् दूसरे युगों में ही होती थीं। त्रेता में बिना यन्त्रों के आत्मिक शक्ति से वे सब काम होते थे जो आज वैज्ञानिक यन्त्रों द्वारा होते हैं। विमान, रेडियो, विद्युत्, दूरदर्शन, दूर श्रवण, अत्यन्त भारी चीजों का उठाना जैसे कामों के लिए आज तो वैज्ञानिक यन्त्रों की आवश्यकता होती है, पर त्रेता में यह सब कार्य मन्त्रबल से, प्राणशक्ति से हो जाते थे। रावण, कुम्भकरण, मेघनाद, हनुमान, नल, नील आदि के चरित्र पढ़ने से पता चलता है कि वे प्रकृति की उन विज्ञानभूत सूक्ष्म शक्तियों से मनमाना काम लेते थे, जितना आज बहुमूल्य यन्त्रों द्वारा बहुत थोड़ा उपयोग सम्भव हो सकता है। महाभारत में दिव्य अस्त्र-शस्त्रों का वर्णन मिलता है। शब्दभेदी बाण, अग्नि अस्त्र, वरुण अस्त्र, वायु अस्त्र, सम्मोहन अस्त्र, चक्र सुदर्शन आदि का प्रयोग उस युद्ध में हुआ था। उस काल में मनुष्यों और पशु-पक्षियों में विचारों का आदान-प्रदान सम्भव रहा।

पशु-पक्षी और मनुष्यों की वाणी में उच्चारण का अन्तर था, पर दोनों के शरीर में अग्नितत्त्व तथा जलतत्त्व की सूक्ष्मता पर्याप्त मात्रा में रहने से एक-दूसरे से अपने विचारों का भलीभाँति आदान-प्रदान कर लेते थे। त्रेता तथा द्वापर की ऐसी अनेक कथाएँ उपलब्ध हैं, जिनमें मनुष्यों तथा पशु-पक्षियों के सम्भाषण के विस्तृत उल्लेख हैं। इस युग में प्रकृति का अन्तराल पहले की भाँति सूक्ष्म नहीं रहा है, सृष्टि का बालकपन समाप्त हो गया और वृद्धावस्था आ रही है। इन दिनों जलतत्त्व और पृथ्वीतत्त्व की मिश्रित सन्धि चल रही है। जलतत्त्व घटता जा रहा है और पृथ्वीतत्त्व बढ़ता जा रहा है। जलतत्त्व का गुण मन है। ऊँचे उठे हुए आध्यात्मिक महापुरुषों में आज मनोबल विकसित पाया जाता है। उनमें विचारशक्ति, इच्छाशक्ति और प्रेरणाशक्ति अब भी पर्याप्त है। इस मनोबल द्वारा वे अपना तथा दूसरों का बहुत कुछ हित साधन कर सकते हैं। इस युग में बुद्ध, ईसा, मुहम्मद, गाँधी, कार्लमार्क्स आदि महापुरुषों ने अपनी प्रचण्ड प्ररेणाशक्ति से संसार को बहुत हद तक प्रभावित किया है। मेस्मेरिज्म मनोबल का ही एक खेल है। दूसरों को अपने विचार देना, उनके विचार जानना या किसी के विचार-परिवर्तन करना, यह मनोबल की सिद्धियाँ हैं। और भी कितनी ही छोटी-मोटी सिद्धियाँ इन दिनों हो सकती हैं, जिनका इस पुस्तक में यत्र-तत्र वर्णन किया गया है। कई सिद्धपुरुष कभी-कभी ऐसे भी मिल जाते हैं, जिन्हें पूर्व युगों की भाँति सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, पर अब उनकी संख्या नहीं के बराबर है। जलतत्त्व घट रहा है, इसलिए आध्यात्मिक पुरुष प्रयत्न करके मनोबल ही सम्पादित कर पाते हैं।

धीरे-धीरे यह भी कम होता जाएगा और जब पृथ्वीतत्त्व की जड़ता व्यापक हो जाएगी, तो केवल शरीरबल ही लोगों की विशेषता रह जाएगी। आगे चलकर जो शारीरिक दृष्टि से शक्तिशाली होगा उसे ही तत्कालीन सिद्धपुरुष माना जाएगा। कई व्यक्ति योग साधना द्वारा ऐसे चमत्कार प्राप्त करने की फिराक में रहते हैं कि लोगों को आश्चर्य में डालकर उन पर अपनी महत्ता की छाप जमा सकें। इसी उधेड़-बुन में वे इधर-उधर फिरते हैं और धूर्तों के चुंगल में पड़कर अपना बहुत-सा समय और धन बर्बाद करते हैं। हमने स्वयं चमत्कारी सिद्धि की खोज में अपने जीवन का बहुत बड़ा भाग लगाया है। एक-दो अज्ञात रहने वाले महापुरुषों के अतिरिक्त हमें सभी चमत्कारी लोगों में धूर्तता ही मिली। अपने पाठकों को हमारी सलाह है कि वे चमत्कारी बनने की बालक्रीड़ा में न उलझें, क्योंकि पहले तो वर्तमान युग ही ऐसी सिद्धियों के अनुकूल नहीं है, फिर कदाचित् बहुत परिश्रम से कुछ मिले भी, तो बहुमूल्य परिश्रम की तुलना में वह अत्यन्त तुच्छ होगा। बाजीगर कैसे-कैसे खेल दिखाते हैं, सरकस वाले लोगों को हैरत में डाल देते हैं, पर इससे वे क्षणिक कौतूहल और मनोरंजन के अतिरिक्त कुछ नहीं कर पाते हैं। यह सब बच्चों की सी बातें हैं। इस ओर किसी बुद्धिमान् की प्रवृत्ति नहीं हो सकती। गायत्री की पञ्चमुखी योग साधना का वर्णन इस पुस्तक में किया गया है। इन साधनाओं से साधक की अन्त:चेतनाओं का आविष्कार होता है।

 मन और शरीर के विकार दूर होते हैं। इच्छा, रुचि, भावना, आकांक्षा, बुद्धि, विवेक, गुण, स्वभाव, विचारधारा, कार्य-प्रणाली आदि में ऐसा अद्भुत सतोगुणी परिवर्तन होता है, जिसके कारण जीवन की सभी दिशाएँ आनन्द से परिपूर्ण हो जाती हैं। उसे स्वास्थ्य, धन, विद्या, चतुराई एवं सहयोग की कमी नहीं रहती। इन वस्तुओं को पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध करके वे सम्मान, कीर्ति, प्रेम एवं शान्ति के साथ जीवनयापन करते हैं। इसके अतिरिक्त आन्तरिक जीवन की, आत्मकल्याण की अमूल्य सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। इनकी तुलना में सारे चमत्कार, कुतूहल, आश्चर्यजनक कृत्य मिलकर तराजू के पासंग के बराबर भी महत्ता नहीं रखते। गायत्री के उपासक पञ्चमुखी माँ की उपासना श्रद्धापूर्वक करें, तो उन्हें आशाजनक लाभ होते हैं। चमत्कारी बाबा वे भले ही न कहलायें, पर गृहस्थ रहकर भी वे अपने आप में ऐसा परिवर्तन पा सकते हैं, जो अनेक चमत्कारों की तुलना में उनके लिए अधिक मंगलमय होगा। ‘सद्बुद्धि’ मानव जीवन की सबसे बड़ी सम्पदा है। जिसके पास यह सम्पदा होगी, उसे कभी किसी वस्तु की कमी न रहेगी। वस्तुओं का अभाव और परिस्थितियों की कठिनाई उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकेगी जिसके पास सद्बुद्धि है। गायत्री सद्बुद्धि का महामन्त्र है। इस मन्त्र द्वारा साधक को उस दिव्य शक्ति की प्राप्ति होती है, जो संसार के समस्त सौभाग्यों की जननी है।
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