गायत्री महाविज्ञान

बिन्दु साधना - आनन्दमय कोश की साधना

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बिन्दु साधना का एक अर्थ ब्रह्मचर्य भी है। इस बिन्दु का अर्थ ‘वीर्य’ अन्नमय कोश के प्रकरण में किया गया है। आनन्दमय कोश की साधना में बिन्दु का अर्थ होगा-परमाणु। सूक्ष्म से सूक्ष्म जो अणु है, वहाँ तक अपनी गति हो जाने पर भी ब्रह्म की समीपता तक पहुँचा जा सकता है और सामीप्य सुख का अनुभव किया जा सकता है।

किसी वस्तु को कूटकर यदि चूर्ण बना लें और चूर्ण को खुर्दबीन से देखें तो छोटे-छोटे टुकड़ों का एक ढेर दिखाई पड़ेगा। यह टुकड़े कई और टुकड़ों से मिलकर बने होते हैं। इन्हें भी वैज्ञानिक यन्त्रों की सहायता से कूटा जाए तो अन्त में जो न टूटने वाले, न कुटने वाले टुकड़े रह जायेंगे, उन्हें परमाणु कहेगे। इन परमाणुओं की लगभग १०० जातियाँ अब तक पहचानी जा चुकी हैं, जिन्हें अणुतत्त्व कहा जाता है।

अणुओं के दो भाग हैं- एक सजीव, दूसरे निर्जीव। दोनों ही एक पिण्ड या ग्रह के रूप में मालूम पड़ते हैं, पर वस्तुत: उनके भीतर भी और टुकड़े हैं। प्रत्येक अणु अपनी धुरी पर बड़े वेग से परिभ्रमण करता है। पृथ्वी भी सूर्य की परिक्रमा के लिए प्रति सेकेण्ड १८॥ मील की चाल से चलती है, पर इन १०० परमाणुओं की गति चार हजार मील प्रति सेकेण्ड मानी जाती है।

यह परमाणु भी अनेक विद्युत् कणों से मिलकर बने हैं, जिनकी दो जातियाँ हैं—(१) ऋण कण, (२) धन कण। धन कणों के चारों ओर ऋण कण प्रति सेकेण्ड एक लाख अस्सी हजार मील की गति से परिभ्रमण करते हैं। उधर धन कण, ऋण कण की परिक्रमा के केन्द्र होते हुए भी शान्त नहीं बैठते। जैसे पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा लगाती है और सूर्य अपने सौरमण्डल को लेकर ‘कृतिका’ नक्षत्र की परिक्रमा करता है, वैसे ही धन कण भी परमाणु की अन्तरगति का कारण होते हैं। ऋण कण जो कि द्रु्रतगति से निरन्तर परिक्रमा में संलग्न हैं, अपनी शक्ति सूर्य से अथवा विश्वव्यापी अग्नि-तत्त्व से प्राप्त करते हैं।

वैज्ञानिकों का कथन है कि यदि एक परमाणु के अन्दर का शक्तिपुञ्ज फूट पड़े, तो क्षण भर में लन्दन जैसे तीन नगरों को भस्म कर सकता है। इस परमाणु के विस्फोट की विधि मालूम करके ही ‘एटमबम’ का आविष्कार हुआ है। एक परमाणु के फोड़ देने से जो भयंकर विस्फोट होता है, उसका परिचय गत महायुद्ध से मिल चुका है। इसकी और भी भयंकरता का पूर्ण प्रकाश होना अभी बाकी है, जिसके लिए वैज्ञानिक लगे हुए हैं।

यह तो परमाणु की शक्ति की बात रही, अभी उनके अंग ऋण कण और धन- कणों के सूक्ष्म भागों का भी पता चला है। वे भी अपने से अनेक गुने सूक्ष्म परमाणुओं से बने हुए हैं, जो ऋण कणों के भीतर एक लाख छियासी हजार, तीन सौ तीस मील प्रति सेकण्ड की गति से परिभ्रमण करते हैं। अभी उनके भी अन्तर्गत कर्षाणुओं की खोज हो रही है और विश्वास किया जाता है कि उन कर्षाणुओं के भीतर भी सर्गाणु हैं। परमाणुओं की अपेक्षा ऋण कण तथा धन कणों की गति तथा शक्ति अनेकों गुनी है। उसी अनुपात से इन सूक्ष्म, सूक्ष्मान्तर और सूक्ष्मतम अणुओं की गति तथा शक्ति होगी। जब परमाणुओं के विस्फोट की शक्ति लन्दन जैसे तीन शहरों को जला देने की है, तो सर्गाणु की शक्ति एवं गति की कल्पना करना भी हमारे लिए कठिन होगा। उसके अन्तिम सूक्ष्म केन्द्र को अप्रतिम, अप्रमेय और अचिन्त्य ही कह सकते हैं।

देखने में पृथ्वी चपटी मालूम पड़ती है, पर वस्तुत: वह लट््टू की तरह अपनी धुरी पर घूमती रहती है। चौबीस घण्टे में उसका एक चक्कर पूरा हो जाता है। पृथ्वी की दूसरी चाल भी है, वह सूर्य की परिक्रमा करती है। इस चक्कर में उसे एक वर्ष लग जाता है। तीसरी चाल पृथ्वी की यह है कि सूर्य अपने ग्रह-उपग्रहों को साथ लेकर बड़े वेग से अभिजित नक्षत्र की ओर जा रहा है। अनुमान है कि वह कृतिका नक्षत्र की परिक्रमा करता है। इसमें पृथ्वी  भी साथ है। लट्टू जब अपनी कीली पर घूमता है, तो वह इधर-उधर उठता भी रहता है। इसे मँडराने की चाल कहते हैं जिसका एक चक्कर करीब २६ हजार वर्ष में पूरा होता है। कृतिका नक्षत्र भी सौरमण्डल आदि अपने उपग्रहों को लेकर धु्रव की परिक्रमा करता है, उस दशा में पृथ्वी की गति पाँचवीं हो जाती है।

सूक्ष्म परमाणु के सूक्ष्मतम भाग सर्गाणु तक भी मानव बुद्धि पहुँच गई है और बड़े से बड़े महा अणुओं के रूप में पाँच गति तो पृथ्वी की विदित हुईं। आकाश के असंख्य ग्रह-नक्षत्रों का पारस्परिक सम्बन्ध न जाने कितने बड़े महाअणु के रूप में पूरा होता होगा! उस महानता की कल्पना भी बुद्धि को थका देती है। उसे भी अप्रतिम, अप्रमेय और अचिन्त्य ही कहा जाएगा।

सूक्ष्म से सूक्ष्म और महत् से महत् केन्द्रों पर जाकर बुद्धि थक जाती है और उससे छोटे या बड़े की कल्पना नहीं हो सकती, उस केन्द्र को ‘बिन्दु’ कहते हैं।

अणु को योग की भाषा में अण्ड भी कहते हैं। वीर्य का एक कण ‘अण्ड’ है। वह इतना छोटा होता है कि बारीक खुर्दबीन से भी मुश्किल से ही दिखाई देता है; पर जब वह विकसित होकर स्थूल रूप में आता है तो वही बड़ा अण्डा हो जाता है। उस अण्डेे के भीतर जो पक्षी रहता है, उसके अनेक अंग-प्रत्यंग विभाग होते हैं। उन विभागों में असंख्य सूक्ष्म विभाग और उनमें भी अगणित कोषाण्ड रहते हैं। इस प्रकार शरीर भी एक अणु है, इसी को अण्ड या पिण्ड कहते हैं। अखिल विश्व-ब्रह्माण्ड में अगणित सौरमण्डल, आकाश गंगा और ध्रुव चक्र हैं।

इन ग्रहों की दूरी और विस्तार का कुछ ठिकाना नहीं। पृथ्वी बहुत बड़ा पिण्ड है, पर सूर्य तो पृथ्वी से भी तेरह लाख गुना बड़ा है। सूर्य से भी करोड़ों गुने ग्रह आकाश में मौजूद हैं। इनकी दूरी का अनुमान इससे लगाया जाता है कि प्रकाश की गति प्रति सेकेण्ड पौने दो लाख मील है और उन ग्रहों का प्रकाश पृथ्वी तक आने में ३० लाख वर्ष लगते हैं। यदि कोई ग्रह आज नष्ट हो जाए, तो उसका अस्तित्व न रहने पर भी उसकी प्रकाश किरणें आगामी तीस लाख वर्ष तक यहाँ आती रहेंगी। जिस नक्षत्र का प्रकाश पृथ्वी पर आता है, उनके अतिरिक्त ऐसे ग्रह बहुत अधिक हैं जो अत्यधिक दूरी के कारण पृथ्वी पर दुरबीनों से भी दिखाई नहीं देते। इतने बड़े और दूरस्थ ग्रह जब अपनी परिक्रमा करते होंगे, अपने ग्रहमण्डल को साथ लेकर परिभ्रमण को निकलते होंगे, उस शुन्य के विस्तार की कल्पना कर लेना मानव मस्तिष्क के लिए बहुत ही कठिन है।

इतना बड़ा ब्रह्माण्ड भी एक अणु या अण्ड है। इसलिए उसे ब्रह्म+अण्ड=ब्रह्माण्ड कहते हैं। पुराणों में वर्णन है कि जो ब्रह्माण्ड हमारी जानकारी में है, उसके अतिरिक्त भी ऐसे ही और अगणित ब्रह्माण्ड हैं और उन सबका समूह एक महाअण्ड है। उस महाअण्ड की तुलना में पृथ्वी उतनी ही छोटी बैठती है, जितना कि परमाणु की तुलना में सर्गाणु छोटा होता है।

इस लघु से लघु और महान् से महान् अण्ड में जो शक्ति व्यापक है, जो इन सबको गतिशील, विकसित, परिवर्तित एवं चैतन्य रखती है, उस सत्ता को ‘बिन्दु’ कहा गया है। यह बिन्दु ही परमात्मा है। उसी को छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा कहा जाता है। ‘अणोरणीयान् महतो महीयान्’ कहकर उपनिषदों ने उसी परब्रह्म का परिचय दिया है।

इस बिन्दु का चिन्तन करने से आनन्दमय कोश स्थित जीव को उस परब्रह्म के रूप की कुछ झाँकी होती है और उसे प्रतीत होता है कि परब्रह्म की, महा-अण्ड की तुलना में मेरा अस्तित्व, मेरा पिण्ड कितना तुच्छ है। इस तुच्छता का भान होने से अहंकार और गर्व विगलित हो जाते हैं। दूसरी ओर जब सर्गाणु से अपने पिण्ड की, शरीर की तुलना करते हैं तो प्रतीत होता है कि अटूट शक्ति के अक्षय भण्डार सर्गाणु की इतनी अटूट संख्या और शक्ति जब हमारे भीतर है, तो हमें अपने को अशक्त समझने का कोई कारण नहीं है। उस शक्ति का उपयोग जान लिया जाए तो संसार में होने वाली कोई भी बात हमारे लिए असम्भव नहीं हो सकती।

जैसे महाअण्ड की तुलना में हमारा शरीर अत्यन्त क्षुद्र है और हमारी तुलना में उसका विस्तार अनुपमेय है, इसी प्रकार सर्गाणुओं की दृष्टि में हमारा पिण्ड (शरीर) एक महाब्रह्माण्ड जैसा विशाल होगा। इसमें जो स्थिति समझ में आती है, वह प्रकृति के अण्ड से भिन्न एक दिव्य शक्ति के रूप में विदित होती है। लगता है कि मैं मध्य बिन्दु हूँ, केन्द्र हूँ, सूक्ष्म से सूक्ष्म में और स्थूल से स्थूल में मेरी व्यापकता है।

लघुता-महत्ता का एकान्त चिन्तन ही बिन्दु साधना कहलाता है। इस साधना के साधक को सांसारिक जीवन की अवास्तविकता और तुच्छता का भली प्रकार बोध हो जाता है और साथ ही यह भी प्रतीत हो जाता है कि मैं अनन्त शक्ति का उद्गम होने के कारण इस सृष्टि का महत्त्वपूर्ण केन्द्र हूँ। जैसे जापान पर फटा हुआ परमाणु ऐतिहासिक ‘एटम बम’ के रूप में चिरस्मरणीय रहेगा, वैसे ही जब अपने शक्तिपुञ्ज का सदुपयोग किया जाता है, तो उसके द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से संसार का भारी परिवर्तन करना सम्भव हो जाता है।

विश्वामित्र ने राजा हरिश्चन्द्र के पिण्ड को एटम बम बनाकर असत्य के साम्राज्य पर इस प्रकार विस्फोट किया था कि लाखों वर्ष बीत जाने पर भी उसकी ऐक्टिव किरणें अभी समाप्त नहीं हुई हैं और अपने प्रभाव से असंख्यों को बराबर प्रभावित करती चली आ रही हैं। महात्मा गाँधी ने बचपन में राजा हरिश्चन्द्र का लेख पढ़ा था। उसने अपने आत्म-चरित्र में लिखा है कि मैं उसे पढ़कर इतना प्रभावित हुआ कि स्वयं भी हरिश्चन्द्र बनने की ठान ली। अपने संकल्प के द्वारा वे सचमुच हरिश्चन्द्र बन भी गए। राजा हरिश्चन्द्र आज नहीं हैं, पर उनकी आत्मा अब भी उसी प्रकार अपना महान कार्य कर रही है। न जाने कितने अप्रकट गाँधी उसके द्वारा निर्मित होते रहते होंगे। गीताकार आज नहीं हैं, पर आज उनकी गीता कितनों को अमृत पिला रही है? यह पिण्ड का सूक्ष्म प्रभाव ही है, जो प्रकट या अप्रकट रूप से स्व पर कल्याण का महान् आयोजन प्रस्तुत करता है।

कार्लमार्क्स के सूक्ष्म शक्तिकेन्द्र से प्रस्फुटित हुई चेतना आज आधी दुनिया को कम्युनिस्ट बना चुकी है। पूर्वकाल में महात्मा ईसा, मुहम्मद, बुद्ध, कृष्ण आदि अनेक महापुरुष ऐसे हुए हैं, जिन्होंने संसार पर बड़े महत्त्वपूर्ण प्रभाव डाले हैं। इन प्रकट महापुरुषों के अतिरिक्त ऐसी अनेक अप्रकट आत्माएँ भी हैं जिन्होंने संसार की सेवा में, जीवों के कल्याण में गुप्त रूप से बड़ा भारी काम किया है। हमारे देश में योगी अरविन्द, महर्षि रमण, रामकृष्ण परमहंस, समर्थ गुरु रामदास आदि द्वारा जो कार्य हुआ तथा आज भी अनेक महापुरुष जो कार्य कर रहे हैं, उसको स्थूल दृष्टि से नहीं समझा जा सकता है। युग परिवर्तन निकट है, उसके लिए रचनात्मक और ध्वंसात्मक प्रवृत्तियों का सूक्ष्म जगत् में जो महान् आयोजन हो रहा है, उस महाकार्य को हमारे चर्म-चक्षु देख पायें तो जानें कि कैसा अनुपम एवं अभूतपूर्व परिवर्तन चक्र प्रस्तुत हो रहा है और वह चक्र निकट भविष्य में कैसे-कैसे विलक्षण परिवर्तन करके मानव जाति को एक नये प्रकाश की ओर ले जा रहा है।

विषयान्तर चर्चा करना हमारा प्रयोजन नहीं है। यहाँ तो हमें यह बताना है कि लघुता और महत्ता के चिन्तन की बिन्दु साधना से आत्मा का भौतिक अभिमान और लोभ विगलित होता है, साथ ही उस आन्तरिक शक्ति का विकास होता है जो ‘स्व’ पर कल्याण के लिए अत्यन्त ही आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण है।

बिन्दुसाधक की आत्मस्थिति उज्ज्वल होती जाती है, उसके विकार मिट जाते हैं। फलस्वरूप उसे उस अनिर्वचनीय आनन्द की प्राप्ति होती है जिसे प्राप्त करना जीवन धारण का प्रधान उद्देश्य है।


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