गायत्री महाविज्ञान

साधना- एकाग्रता और स्थिर चित्त से होनी चाहिए

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>
साधना के लिए स्वस्थ और शान्त चित्त की आवश्यकता है। चित्त को एकाग्र करके, मन को सब ओर से हटाकर तन्मयता, श्रद्धा और भक्ति- भावना से की गई साधना सफल होती है। यदि यह सब बातें साधक के पास न हों, तो उसका प्रयत्न फलदायक नहीं होता। उद्विग्र, अशान्त, चिन्तित, उत्तेजित, भय एवं आशंका से ग्रस्त मन एक जगह नहीं ठहरता। वह क्षण- क्षण में इधर- उधर भागता है। कभी भय के चित्र सामने आते हैं, कभी दुर्दशा को पार करने के उपाय सोचने में मस्तिष्क दौड़ता है। ऐसी स्थिति में साधना कैसे हो सकती है? एकाग्रता न होने से न गायत्री के जप में मन लगता है, न ध्यान में। हाथ माला को फेरते हैं, मुख मन्त्रोच्चार करता है, चित्त कहीं का कहीं भागता फिरता है। यह स्थिति साधना के लिए उपयुक्त नहीं। जब तक मन सब ओर से हटकर, सब बातें भुलाकर एकाग्रता और तन्मयता के साथ भक्ति- भावना पूर्वक माता के चरणों में नहीं लग जाता, तब तक अपने में वह चुम्बक कैसे पैदा होगा जो गायत्री को अपनी ओर आकर्षित करे और अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति में उसकी सहायता प्राप्त कर सके? दूसरी कठिनाई है- श्रद्धा की कमी। कितने ही मनुष्यों की मनोभूमि बड़ी शुष्क एवं अश्रद्धालु होती है। उन्हें आध्यात्मिक साधनों पर सच्चे मन से विश्वास नहीं होता। किसी से बहुत प्रशंसा सुनी, तो परीक्षा करने का कौतूहल मन में उठता है कि देखें, यह बात कहाँ तक सच है?

इस सच्चाई को जानने के लिये किसी कष्टसाध्य कार्य की पूर्ति को कसौटी बनाते हैं और उस कार्य की तुलना में वैसा परिश्रम नहीं करना चाहते। वे चाहते हैं कि १०- २० माला मन्त्र जपते ही उनका कष्टसाध्य मनोरथ आनन- फानन में पूरा हो जाए। कोई- कोई सज्जन तो ऐसी मनौती मानते देखे गये हैं कि हमारा अमुक कार्य पहले पूरा हो जाए तो अमुक साधना इतनी मात्रा में पीछे करेंगे। उनका प्रयास ऐसा ही है जैसे कोई कहे कि पहले जमीन से निकलकर पानी हमारे खेत को सींच दे, तब हम जल देवता को प्रसन्न करने के लिये कुआँ खोदवा देंगे। वे सोचते हैं कि शायद अदृश्य शक्तियाँ हमारी उपासना के बिना भूखी बैठी होंगी, हमारे बिना सारा काम रुका पड़ा रहेगा, इसलिए उनसे वायदा कर दिया जाए कि पहले अमुक मजदूरी कर दो, तब तुम्हें खाना खिला देंगे या तुम्हारे रुके हुए काम पूरा करने में सहायता देंगे। यह वृत्ति उपहासास्पद है, उनके अविश्वास तथा ओछेपन को प्रकट करती है। अविश्वासी, अश्रद्धालु, अस्थिर चित्त के मनुष्य भी यदि गायत्री साधना को नियमपूर्वक करते चलें, तो कुछ समय में उनके यह तीनों दोष दूर हो जाते हैं और श्रद्धा, विश्वास एवं एकाग्रता उत्पन्न होने से सफलता की ओर तेजी से कदम बढऩे लगते हैं। इसलिए चाहे किसी की मनोभूमि असंयमी तथा अस्थिर ही क्यों न हो, पर साधना में लग ही जाना चाहिए। एक न एक दिन त्रुटियाँ दूर हो जायेंगी और माता की कृपा प्राप्त होकर ही रहेगी। श्रद्धा और विश्वास की शक्ति बड़ी प्रबल है। इनके द्वारा मनुष्य असम्भव कार्य को भी सम्भव कर डालता है।

भगीरथ ने श्रद्धा के बल से ही हिमालय पर्वत में मार्ग बनाकर गंगा का पृथ्वी पर अवतरण कराया। श्रद्धा और विश्वास के प्रभाव से ही ध्रुव और नामदेव जैसे छोटे बालकों ने भगवान् का साक्षात्कार कर लिया। इसी आधार पर तुलसीदास और सूरदास जैसे वासनाग्रस्त व्यक्ति सन्त शिरोमणि बन गये। इसलिए यदि हम इस महान् शक्ति का आश्रय लें, तो हमारे चित्त की चञ्चलता और अस्थिरता कमश: स्वयमेव दूर हो जायेगी। आवश्यकता इतनी ही है कि हम नियम पालन का ध्यान रखें और जो संकल्प किया है, उस पर दृढ़ बने रहें। इसके फल से हमारी मानसिक दुर्बलता अथवा शारीरिक अशक्ति का निराकरण स्वयं होता जायेगा और हमारी साधना अन्त में अवश्य सफल होगी। शास्त्र कथन है- ‘सन्दिग्धो हि हतो मन्त्री व्यग्रचित्तो हतो जप:’ सन्देह करने से मन्त्र हत हो जाता है और व्यग्रचित्त से किया हुआ जप निष्फल रहता है।

सन्दिग्ध, व्यग्र, अश्रद्धालु और अस्थिर होने पर कोई विशेष प्रयोजन सफल नहीं हो सकता। इस कठिनाई को ध्यान में रखते हुए अध्यात्म विद्या के आचार्यों ने एक उपाय दूसरों द्वारा साधना कराना बताया है। किसी अधिकारी व्यक्ति को साधना कार्य में लगा देना और उसकी स्थान पूर्ति स्वयं कर देना एक सीधा- सादा निर्दाष परिवर्तन है। किसान अन्न तैयार करता है और जुलाहा कपड़ा। आवश्यकता होने पर अन्न और कपड़े की अदल- बदल हो जाती है। जिस प्रकार वकील, डॉक्टर, अध्यापक, क्लर्क आदि का समय, मूल्य देकर खरीदा जा सकता है और उस खरीदे हुए समय का मनचाहा उपयोग अपने प्रयोजन के लिए किया जा सकता है, उसी प्रकार किसी ब्रह् परायण सत्पुरुष को गायत्री- उपासना के लिए नियुक्त किया जा सकता है। इसमें सन्देह और अस्थिर चित्त होने के कारण जो कठिनाइयाँ मार्ग में आती हैं, उनका हल आसानी से हो जाता है। कार्यव्यस्त और श्रीसम्पन्न धार्मिक मनोवृत्ति के लोग बहुधा अपनी शान्ति, सुरक्षा और उन्नति के लिए गोपाल सहस्रनाम, विष्णु सहस्रनाम, महामृत्युञ्जय, दुर्गासप्तशती, शिव महिमा, गंगा लहरी आदि का पाठ नियमित रूप से कराते हैं। वे किसी ब्राह्मण से मासिक दक्षिणा पर नियत समय के लिये अनुबन्ध कर लेते हैं, जितने समय वह पाठ कर लेता है, उसका परिवर्तित मूल्य उसे दक्षिणा के रूप में दिया जाता है। इस प्रकार वर्षों यह क्रम नियमित चलता रहता है। किसी विशेष अवसर पर विशेष रूप से विशेष प्रयोजन के लिए विशेष अनुष्ठानों के आयोजन भी होते हैं। नवदुर्गाओं के अवसर पर बहुधा लोग दुर्गा पाठ कराते हैं।

शिवरात्रि को शिव महिमा, गंगा दशहरा को गंगा लहरी, दीवाली को श्रीसूक्त का पाठ अनेकों पण्डितों को बैठाकर अपनी सामर्थ्यानुसार लोग अधिकाधिक कराते हैं। मन्दिर में भगवान् की पूजा के लिये पुजारी नियुक्त कर दिये जाते हैं। मन्दिरों के संचालकों की ओर से वे पूजा करते हैं और संचालक उनके परिश्रम का मूल्य चुका देते हैं। इस प्रकार का परिवर्तन गायत्री साधना में भी हो सकता है। अपने शरीर, मन, परिवार और व्यवसाय की सुरक्षा तथा उन्नति के लिए गायत्री का जप एक- दो हजार की संख्या में नित्य ही कराने की व्यवस्था श्रीसम्पन्न लोग आसानी से कर सकते हैं। इस प्रकार कोई लाभ होने पर उसकी प्रसन्नता, शुभ आशा के लिए अथवा विपत्ति निवारणार्थ सवा लक्ष जप का गायत्री अनुष्ठान किसी सत्पात्र ब्राह्मण द्वारा कराया जा सकता है। ऐसे अवसरों पर साधना करने वाले ब्राह्मण को अन्न, वस्त्र, बर्तन तथा दक्षिणा रूप में उचित पारिश्रमिक उदारतापूर्वक देना चाहिए। सन्तुष्ट साधक का सच्चा आशीर्वाद उस प्रयोजन के फल को और भी बढ़ा देता है। ऐसी साधना करने वालों को भी ऐसा सन्तोषी होना चाहिए कि अति न्यून मिलने पर भी सन्तुष्ट रहें और आशीर्वादात्मक भावनाएँ मन में रखें। असन्तुष्ट होकर दुर्भावनाएँ प्रेरित करने पर तो दोनों का ही समय तथा श्रम निष्फल होता है। अच्छा तो यह है कि हर साधक अपनी साधना स्वयं करे। कहावत है- ‘आप काज सो महाकाज।’

परन्तु यदि मजबूरी के कारण वैसा न हो सके, कार्यव्यस्तता, अस्वस्थता, अस्थिर चित्त, चिन्ताजनक स्थिति आदि के कारण यदि अपने से साधन न बन पड़े, तो आदान- प्रदान के निर्दोष एवं सीधे- सादे नियम के आधार पर अन्य अधिकारी पात्रों से वह कार्य कराया जा सकता है। यह तरीका भी काफी प्रभावपूर्ण और लाभदायक सिद्ध होता है। ऐसे सत्पात्र एवं अधिकारी अनुष्ठानकर्ता तलाश करने में शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार संस्थान से सहायता ली जा सकती है। गायत्री द्वारा सन्ध्यावन्दन कुछ कार्य ऐसे होते हैं जिनका नित्य करना मनुष्य का अनिवार्य कर्त्तव्य है, ऐसे कर्मों को नित्यकर्म कहते हैं। नित्यकर्मों के उद्देश्य हैं- १. आवश्यक तत्त्वों का सञ्चय, २. अनावश्यक तत्त्वों का त्याग। शरीर को प्राय: नित्य ही कुछ न कुछ नई आवश्यकता होती है। प्रत्येक गतिशील वस्तु अपनी गति को स्थिर रखने के लिए कहीं न कहीं से नई शक्ति प्राप्त करती है, यदि वह न मिले तो उसका अन्त हो जाता है। रेल के लिए कोयला- पानी, मोटर के लिए पेट्रोल, तार के लिए बैटरी, इंजन के लिए तेल, सिनेमा के लिए बिजली की आवश्यकता होती है। पौधों का जीवन खाद- पानी पर निर्भर रहता है। पशु- पक्षी, कीट- पतग प्रकृति के अनुसार अन्न, जल, वायु लेकर जीवन धारण करते हैं। यदि आहार न मिले तो शरीर- यात्रा असम्भव है। कोई भी गतिशील वस्तु चाहे वह सजीव हो या निर्जीव, अपनी गतिशीलता को स्थिर रखने के लिए आहार अवश्य चाहेगी।

इसी प्रकार प्रत्येक गतिशील पदार्थ में प्रतिक्षण कुछ न कुछ मल बनता रहता है, जिसे जल्दी साफ करने की आवश्यकता पड़ती है। रेल में कोयले की राख, मशीनों में तेल का कीचड़ जमता है। शरीर में प्रतिक्षण मल बनता है और वह गुदा, शिश्र, नाक, मुख, कान, आँख, त्वचा आदि के छिद्रों द्वारा निकलता रहता है। यदि मल की सफाई न हो, तो देह में इतना विष एकत्रित हो जाएगा कि दो- चार दिन में ही जीवन संकट उपस्थित हुए बिना न रहेगा। मकान में बुहारी न लगायी जाए, कपड़ों को न धोया जाए, बर्तन को न मला जाए, शरीर को स्नान न कराया जाय, तो एक- दो दिन में ही मैल चढ़ जाएगा और गन्दगी, कुरूपता, बदबू, मलिनता तथा विकृति उत्पन्न हो जाएगी। आत्मा सबसे अधिक गतिशील और चैतन्य है, उसे भी आहार की और मल- विसर्जन की आवश्यकता पड़ती है। स्वाध्याय, सत्संग, आत्मचिन्तन, उपासना, साधना आदि साधनों द्वारा आत्मा को आहार प्राप्त होता है और वह बलवान्, चैतन्य तथा क्रियाशील रहती है। जो लोग इन आहारों से अपने अन्त:करण को वञ्चित रखते हैं और सांसारिक झंझटों में ही हर घड़ी लगे रहते हैं, उनका शरीर चाहे कितना ही मोटा हो, धन- दौलत कितना ही जमा क्यों न हो जाए, पर आत्मा भूखी ही रहती है।

 इस भूख के कारण वह निस्तेज, निर्बल, निष्क्रिय और अर्धमूर्छित अवस्था में पड़ी रहती है। इसलिए शास्त्रकारों ने आत्मसाधना को नित्यकर्म में शामिल करके मनुष्य के लिए उसे एक आवश्यक कर्त्तव्य बना दिया है। आत्मिक साधना में आहार- प्राप्ति और मल- विसर्जन दोनों महत्त्वपूर्ण कार्य समान रूप से होते हैं। आत्मिक भावना, विचारधारा और अवस्थिति को बलवान्, चैतन्य एवं क्रियाशील बनाने वाली पद्धति को साधना कहते हैं। यह साधना उन विकारों, मलों एवं विषों की भी सफाई करती है, जो सांसारिक विषयों और उलझनों के कारण चित्त पर बुरे रूप से सदा ही जमते रहते हैं। शरीर को दो बार स्नान कराना, दो बार शौच जाना आवश्यक समझा जाता है। आत्मा के लिए भी यह क्रियाएँ होनी आवश्यक हैं। इसी को सन्ध्या कहते हैं। शरीर से आत्मा का महत्त्व अधिक होने के कारण त्रिकाल सन्ध्या की साधना का शास्त्रों में वर्णन है। तीन बार न बन पड़े, तो प्रात:- सायं दो बार से काम चलाया जा सकता है। जिसकी रुचि इधर बहुत ही कम है, वे एक बार तो कम से कम यह समझ कर करें कि सन्ध्या हमारा आवश्यक नित्यकर्म है, धार्मिक कर्त्तव्य है। उसे न करने से पाप विकारों का जमाव होता रहता है, भूखी आत्मा निर्बल होती रहती है; यह दोनों ही बातें पाप कर्मों में शुमार हैं।

अतएव पातक भार से बचने के लिए भी सन्ध्या को हमारे आवश्यक नित्यकर्मों में स्थान मिलना उचित है। सन्ध्यावन्दन की अनेक विधियाँ हिन्दूधर्म में प्रचलित हैं। उनमें सबसे सरल, सुगम सीधी एवं अत्यधिक प्रभावशाली उपासना गायत्री मन्त्र द्वारा होने वाली ‘ब्रह्मसन्ध्या’ है। इसमें केवल एक ही गायत्री मन्त्र याद करना होता है। अन्य सन्ध्या विधियों की भाँति अनेक मन्त्र याद करने और अनेक प्रकार के विधि- विधान याद रखने की आवश्यकता नहीं पड़ती। सूर्योदय या सूर्यास्त समय को सन्ध्याकाल कहते हैं। यही समय सन्ध्यावन्दन का है। सुविधानुसार इसमें थोड़ा आगे- पीछे भी कर सकते हैं। त्रिकाल सन्ध्या करने वालों के लिए तीसरा समय मध्याह्नकाल का है। नित्यकर्म से निवृत्त होकर शरीर को स्वच्छ करके सन्ध्या के लिए बैठना चाहिए, उस समय देह पर कम से कम वस्त्र होने चाहिए। खुली हवा का एकान्त स्थान मिल सके तो सबसे अच्छा, अन्यथा घर का ऐसा भाग तो चुनना चाहिए, जहाँ कम खटपट और शुद्धता रहती हो। कुश का आसन, चटाई, टाट या चौकी बिछाकर, पालथी मारकर मेरुदण्ड सीधा रखते हुए सन्ध्या के लिए बैठना चाहिए। प्रात:काल पूर्व की ओर, सायंकाल पश्चिम की ओर मुँह करके बैठना चाहिए।

पास में जल से भरा पात्र रख लेना चाहिए। सन्ध्या के छ: कर्म हैं, उनका वर्णन नीचे लिखा जाता है। १. पवित्रीकरण बाएँ हाथ में जल लेकर उसे दाहिने हाथ से ढक लिया जाए। इसके बाद गायत्री मन्त्र बोलकर उस जल को शिर तथा शरीर पर छिड़क लें। भावना करें कि हम पवित्र हो रहे हैं। पवित्रीकरण का उद्देश्य शरीर और मन, आचरण और व्यवहार को शुद्ध रखना है। देव उद्देश्य की पूर्ति कि लिए मनुष्य को स्वयं भी देवत्व धारण करना होता है। २. आचमन जल से भरे हुए पात्र में से दाहिने हाथ की हथेली पर जल लेकर उसका तीन बार आचमन करना चाहिए। बाएँ हाथ से पात्र को उठाकर दाहिने हाथ की हथेली में थोड़ा- सा गड्ढा करके उसमें जल भरें और गायत्री मन्त्र पढ़ें, मन्त्र पूरा होने पर उस जल को पी लें। तीन बार इसी प्रकार करें। तीन बार आचमन करने के उपरान्त दाहिने हाथ को पानी से धो डालें एवं कन्धे पर रखे हुए अँगोछे से हाथ- मुँह पोंछ लें जिससे हथेली, ओंठ और मुँह आदि पर आचमन किये जाने का अंश लगा न रह जाए।

आचमन त्रिगुणमयी माता की विविध शक्तियों को अपने में धारण करने लिए है। प्रथम आचमन के साथ सतोगुणी विश्वव्यापी सूक्ष्म शक्ति ‘ह्रीं’ का ध्यान करते हैं और भावना करते हैं कि विद्युत सरीखी सूक्ष्म नील किरणें मेरे मन्त्रोच्चारण के साथ- साथ सब ओर से इस जल में प्रवेश कर रही हैं और यह उस शक्ति से ओत- प्रोत हो रहा है। आचमन करने के साथ में सम्मिलित सब शक्तियाँ अपने अन्दर प्रवेश करने की भावना करनी चाहिए कि मेरे अन्दर सद्गुणों का पर्याप्त मात्रा में प्रवेश हुआ है। इसी प्रकार दूसरे आचमन के साथ रजोगुणी ‘श्रीं’ शक्ति की पीतवर्ण किरणों को जल में आकर्षित होने और तीसरे आचमन में तमोगुणी ‘क्लीं’ भावना की रक्त वर्ण शक्तियों को अपने में धारण होने का भाव जाग्रत् होना चाहिए। जैसे बालक माता का दूध पीकर उसके गुणों और शक्तियों को अपने में धारण करता है और परिपुष्ट होता है, उसी प्रकार साधक मन्त्र बल से आचमन के जल को गायत्री माता के दूध के समान बना लेता है और उसका पान करके अपने आत्मबल को बढ़ाता है। इस आचमन से उसे त्रिविध ह्रीं, श्रीं, क्लीं की शक्ति से युक्त आत्मबल मिलता है, तदनुसार उसको आत्मिक पवित्रता एवं सांसारिक समृद्धि को सुदृढ़ बनाने वाली शक्ति प्राप्त होती है।

३. शिखा- बन्धन (वन्दन) आचमन के पश्चात् शिखा को जल से गीला करके उसमें ऐसी गाँठ लगानी चाहिए जिससे कि सिरा नीचे से खुल जाए। इसे आधी गाँठ कहते हैं। गाँठ लगाते समय गायत्री मन्त्र का उच्चारण करते जाना चाहिए। शिखा मस्तिष्क के केन्द्र बिन्दु पर स्थापित है। जैसे रेडियो के ध्वनि विस्तारक केन्द्रों में ऊँचे खम्भे लगे होते हैं और वहाँ से ब्राडक्रास्ट की तरंगें चारों ओर फेंकी जाती हैं, उसी प्रकार हमारे मस्तिष्क का विद्युत् भण्डार शिखा स्थान पर है। उस केन्द्र में से हमारे विचार, सङ्कल्प और शक्ति परमाणु हर घड़ी बाहर निकल- निकलकर आकाश में दौड़ते रहते हैं। इस प्रवाह से शक्ति अनावश्यक व्यय होती है और अपना कोष घटता है। इसका प्रतिरोध करने के लिए शिखा में गाँठ लगा देते हैं। सदा गाँठ लगाये रहने से अपनी मानसिक शक्तियों का बहुत- सा अपव्यय बच जाता है। सन्ध्या करते समय विशेष रूप से गाँठ लगाने का प्रयोजन यह है कि रात्रि को सोते समय यह गाँठ प्राय: शिथिल हो जाती है या खुल जाती है। फिर स्नान करते समय केश- शुद्धि के लिए शिखा को खोलना पड़ता है। सन्ध्या करते समय अनेक सूक्ष्म तत्त्व आकर्षित होकर अपने अन्दर स्थिर होते हैं। वे सब मस्तिष्क केन्द्र से निकलकर बाहर न उड़ जाएँ और कहीं अपने को साधना के लाभ से वञ्चित न रहना पड़े, इसलिए शिखा में गाँठ लगा दी जाती है। फुटबाल के भीतर की रबड़ में हवा भरने की एक नली होती है। इसमें गाँठ लगा देने से भीतर भरी हुई वायु बाहर नहीं निकल पाती। साइकिल के पहियों में भरी हुई हवा को रोकने के लिए भी एक छोटी- सी बालट्यूब नामक रबड़ की नली लगी होती है, जिसमें होकर हवा भीतर तो जा सकती है, बाहर नहीं आ सकती। गाँठ लगी हुई शिखा से भी यही प्रयोजन पूरा होता है।

वह बाहर के विचार और शक्ति समूह को ग्रहण करती है। भीतर के तत्त्वों का अनावश्यक व्यय नहीं होने देती। आचमन से पूर्व शिखा बन्धन इसलिए नहीं होता, क्योंकि उस समय त्रिविध शक्ति का आकर्षण जहाँ जल द्वारा होता है, वह मस्तिष्क के मध्य केन्द्र द्वारा भी होता है। इस प्रकार शिखा खुली रहने से दुहरा लाभ होता है। तत्पश्चात् उसे बाँध दिया जाता है। ४. प्राणायाम सन्ध्या का चौथा कोष है प्राणायाम अथवा प्राणाकर्षण। गायत्री की उत्पत्ति का वर्णन करते हुए पूर्व पृष्ठों में यह बताया जा चुका है कि सृष्टि दो प्रकार की है- १. जड़ अर्थात् परमाणुमयी, २. चैतन्य अर्थात् प्राणमयी। निखिल विश्व में जिस प्रकार परमाणुओं के संयोग- वियोग से विविध प्रकार के दृश्य उपस्थित होते रहते हैं, उसी प्रकार चैतन्य प्राण- सत्ता की हलचलों से चैतन्य जगत् की विविध घटनाएँ घटित होती हैं। जैसे वायु अपने क्षेत्र में सर्वत्र भरी हुई है, उसी प्रकार वायु से भी असंख्य गुना सूक्ष्म चैतन्य प्राण तत्त्व सर्वत्र व्याप्त है। इस तत्त्व की न्यूनाधिकता से हमारा मानस क्षेत्र निर्बल तथा बलवान् होता है। इस प्राण तत्त्व को जो जितनी मात्रा में आकर्षित कर लेता है, धारण कर लेता है, उसकी आन्तरिक स्थिति उतनी ही बलवान् हो जाती है। आत्मतेज, शूरता, दृढ़ता, पुरुषार्थ, विशालता, महानता, सहनशीलता, धैर्य, स्थिरता सरीखे गुण प्राणशक्ति के परिचायक हैं। जिनमें प्राण कम होता है, वे शरीर से स्थूल भले ही हों, पर डरपोक, दब्बू, झेंपने वाले, कायर, अस्थिरमति, संकीर्ण, अनुदार, स्वार्थी, अपराधी मनोवृत्ति के, घबराने वाले, अधीर, तुच्छ, नीच विचारों में ग्रस्त एवं चंचल मनोवृत्ति के होते हैं। इन दुर्गुणों के होते हुए कोई व्यक्ति महान् नहीं बन सकता, इसलिए साधक को प्राणशक्ति अधिक मात्रा में अपने अन्दर धारण करने की आवश्यकता होती है।

जिस प्रक्रिया द्वारा विश्वमयी प्राणतत्त्व में से खींचकर अधिक मात्रा में प्राणशक्ति को हम अपने अन्दर धारण करते हैं, उसे प्राणायाम कहा जाता है। प्राणायाम के समय मेरुदण्ड को विशेष रूप से सावधान होकर सीधा कर लीजिए, क्योंकि मेरुदण्ड में स्थित इड़ा, पिङ्गला और सुषुम्ना नाडिय़ों द्वारा प्राणशक्ति का आवागमन होता है। यदि रीड़ टेढ़ी झुकी रहे, तो मूलाधार में स्थित कुण्डलिनी तक प्राण की धारा निर्बाध गति से न पहुँच सकेगी, अत: प्राणायाम का वास्तविक लाभ न मिल सकेगा। प्राणायाम के चार भाग हैं- १. पूरक, २. अन्त:कम्भक, ३. रेचक, ४. बाह्य कुम्भक। वायु को भीतर खींचने का नाम पूरक, वायु को भीतर ही रोके रहने के नाम को अन्त:कुम्भक, वायु को बाहर निकालने का नाम रेचक और बिना श्वास के रहने को बाह्य कुम्भक कहते हैं। इन चारों के लिए गायत्री मन्त्र के चार भागों की नियुक्ति की गयी है। पूरक के साथ ऊँ भूर्भुव: स्व:, अन्त: कुम्भक के साथ ‘तत्सवितुर्वरेण्यं’, रेचक के साथ ‘भर्गोदेवस्य धीमहि’, बाह्य कुम्भक के साथ ‘धियो यो न: प्रचोदयात् मन्त्र का जप होना चाहिए। (अ) स्वस्थ चित्त से बैठिये, मुख को बन्द कर लीजिए। नेत्रों को बन्द या अधखुले रखिये।

अब श्वास को धीरे- धीरे नासिका द्वारा भीतर खींचना आरम्भ कीजिए और ‘ ऊँ भूर्भुव: स्व:’ इस मन्त्र भाग का मन ही मन उच्चारण करते चलिए और भावना कीजिए कि ‘विश्वव्यापी दु:खनाशक, सुख स्वरूप ब्रह्म की चैतन्य प्राणशक्ति को मैं नासिका द्वारा आकर्षित कर रहा हूँ।’ इस भावना और इस मन्त्र के साथ धीरे- धीरे श्वास खींचिए और जितनी अधिक वायु भीतर भर सकें, भर लीजिए। (ब) अब वायु को भीतर रोकिए और ‘तत्सवितुर्वरेण्यं’ इस भाग का जप कीजिए; साथ ही भावना कीजिए कि ‘नासिका द्वारा खींचा हुआ वह प्राण श्रेष्ठ है, सूर्य के समान तेजस्वी है। उसका तेज मेरे अंग- प्रत्यंग में, रोम- रोम में भरा जा रहा है।’ इस भावना के साथ पूरक की अपेक्षा आधे समय तक वायु को भीतर रोके रखें। (स) अब नासिका द्वारा वायु धीरे- धीरे बाहर निकालना आरम्भ कीजिए और ‘भर्गो देवस्य धीमहि’ इस मन्त्र भाग को जपिये तथा भावना कीजिए कि ‘यह दिव्य प्राण मेरे पापों का नाश करता हुआ विदा हो रहा है।’ वायु को निकालने में प्राय: उतना ही समय लगाना चाहिए जितना कि वायु खींचने में लगाया था। (द) जब भीतर की सब वायु बाहर निकल जाए, तो जितनी देर वायु को भीतर रोके रखा था, उतनी ही देर बाहर रोके रखें, अर्थात् बिना श्वास लिये रहें और ‘धियो यो न: प्रचोदयात् इस मन्त्र भाग को जपते रहें, साथ ही भावना करें कि ‘भगवती वेदमाता आद्यशक्ति गायत्री सद्बुद्धि को जाग्रत् कर रही हैं।’ यह एक प्राणायाम हुआ। अब इसी प्रकार पुन: इन क्रियाओं की पुनरुक्ति करते हुए दूसरा प्राणायाम करें।

सन्ध्या में यह पाँच प्राणायाम करने चाहिए। इससे शरीर में स्थित प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान नामक पाँचों प्राणों का व्यायाम, स्फुरण और परिमार्जन हो जाता है। (५) न्यास न्यास कहते हैं धारण करने को। अंग- प्रत्यंगों से गायत्री की सतोगुणी शक्ति को धारण करने, स्थापित करने, भरने, ओत- प्रोत करने के लिए न्यास किया जाता है। गायत्री के प्रत्येक शब्द का, महत्त्वपूर्ण मर्मस्थलों से घनिष्ठ सम्बन्ध है। जैसे सितार के अमुक भाग में, अमुक आघात के साथ उँगली का आघात लगने से अमुक ध्वनि के स्वर निकलते हैं, उसी प्रकार शरीर- वीणा को सन्ध्या से अंगुलियों के सहारे दिव्य भाव से झंकृत किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि स्वभावत: अपवित्र रहने वाले शरीर से दैवी सान्निध्य ठीक प्रकार से नहीं हो सकता, इसलिये उसके प्रमुख स्थानों में दैवी पवित्रता स्थापित करके उसमें इतनी मात्रा दैवी तत्त्वों को स्थापित कर ली जाती है कि वह दैवी साधना का अधिकारी बन जाए। न्यास के लिये भिन्न- भिन्न उपासना विधियों में अलग- अलग विधान हैं कि किन उँगलियों को काम में लाया जाए। गायत्री की ब्रह्मसन्ध्या में अँगूठा और अनामिका उँगली का प्रयोग प्रयोजनीय ठहराया गया है। अँगूठा और अनामिका उँगली को मिलाकर विभिन्न अंगों का स्पर्श इस भावना से करना चाहिये कि मेरे ये अंग गायत्री शक्ति से पवित्र तथा बलवान् हो रहे हैं। अंग स्पर्श के समय निम्न प्रकार मंत्रोच्चार करना चाहिए।

ऊँ भूर्भुव: स्व: मूर्धायै तत्सवितु: नेत्राभ्याम् वरेण्यं कर्णाभ्याम् भर्गो मुखाय देवस्य कण्ठाय धीमहि हृदयाय धियो यो न: नाभ्यै प्रचोदयात् हस्तपादाभ्याम् यह सात अंग शरीर ब्रह्माण्ड के सात लोक हैं अथवा यों कहिये कि आत्मा रूपी सविता के सात वाहन अश्व हैं; शरीर सप्ताह के सात दिन हैं। यों साधारणत: दस इन्द्रियाँ मानी जाती हैं, पर गायत्री योग के अन्तर्गत सात इन्द्रियाँ मानी गयी हैं—१. मूर्धा, (मस्तिष्क, मन) २. नेत्र, ३. कर्ण, ४. वाणी और रसना, ५. हृदय, अन्त:करण, ६. नाभि, जननेन्द्रिय, ७. कर्मेन्द्रिय (हाथ- पैर), इन सातों में अपवित्रता न रहे, इनके द्वारा कुमार्ग को न अपनाया जाए, अविवेकपूर्ण आचरण न हो, इस प्रतिरोध के लिए न्यास किया जाता है। इन सात अंगों में भगवती की सात शक्तियाँ निवास करती हैं। उन्हें उपर्युक्त न्यास द्वारा जाग्रत् किया जाता है। जाग्रत् हुई मातृकायें अपने- अपने स्थान की रक्षा करती हैं, अवाञ्छनीय तत्त्वों का संहार करती हैं। इस प्रकार साधक का अन्त:प्रदेश ब्राह्मणी शक्ति का सुदृढ़ दुर्ग बन जाता है। (६) पृथ्वी पूजन दाहिने हाथ में अक्षत, पुष्प, जल लें, बायाँ हाथ नीचे लगाएँ, मन्त्र बोलें और पूजा की वस्तुओं को माँ धरती को समर्पित करें। हम जहाँ से अन्न, जल, वस्त्र, ज्ञान तथा अनेक सुविधा साधन प्राप्त करते हैं, वह मातृभूमि हमारी सबसे बड़ी आराध्या है। हमारे मन में माता के प्रति जैसे अगाध श्रद्धा होती है, वैसे ही मातृभूमि के प्रति भी रहनी चाहिए।

मातृऋण से उऋण होने के लिए अवसर ढूँढ़ते रहना चाहिए। भावना करें कि धरती माता के पूजन के साथ उसके पुत्र होने के नाते माँ के दिव्य संस्कार हमें प्राप्त हो रहे हैं। माँ की विशालता अपने अन्दर धारण कर रहे हैं। इन कोषों का विनियोग करने के पश्चात्, पवित्रीकरण, आचमन, शिखा बन्धन, प्राणायाम, न्यास आदि से निवृत्त होने के पश्चात् गायत्री का जप ध्यान करना चाहिये। सन्ध्या तथा जप में मन्त्रोच्चार इस प्रकार करना चाहिये कि होंठ हिलते रहें, शब्दोच्चारण होता रहे, पर निकट बैठा हुआ व्यक्ति उसे सुन न सके। जप करते हुए वेदमाता गायत्री का इस प्रकार ध्यान करना चाहिये कि मानो वह हमारे हृदय सिंहासन पर बैठी अपनी शक्तिपूर्ण किरणों को चारों ओर बिखेर रही हैं और उससे हमारा अन्त:प्रदेश आलोकित हो रहा है। उस समय नेत्र अर्धोन्मीलित या बन्द रहें। अपने हृदयाकाश में ब्राह्म आकाश के समान ही एक विस्तृत शून्य लोक की भावना करके उसमें सूर्य के समान ज्ञान की तेजस्वी ज्योति की कल्पना भी करते रहना चाहिये। यह ज्योति और प्रकाश गायत्री माता की ज्ञानशक्ति का ही होता है, जिसका अनुभव साधक को कुछ समय की साधना के पश्चात् स्पष्ट रीति से होने लगता है।

इस प्रकार की साधना के फलस्वरूप श्वेत रंग की ज्योति में विभिन्न रगों के दर्शन होते हैं। इस प्रकार धीरे- धीरे वह आत्मोन्नति करता हुआ निश्चित रूप से अध्यात्म के उच्च सोपान पर पहुँच जाता है। गायत्री का सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वसुलभ ध्यान मानव- मस्तिष्क बड़ा ही आश्चर्यजनक, शक्तिशाली एवं चुम्बक गुण वाला यन्त्र है। उसका एक- एक परमाणु इतना विलक्षण है कि उसकी गतिविधि, सामर्थ्य और क्रियाशीलता को देखकर बड़े- बड़े वैज्ञानिक हैरत में रह जाते हैं। इन अणुओं को जब किसी विशेष दिशा में नियोजित कर दिया जाता है, तो उसी दिशा में एक लपलपाती हुई अग्रिजिह्व अग्रगामी होती है। जिस दिशा से मनुष्य इच्छा, आकांक्षा और लालसा करता है, उसी दिशा में, उसी रंग में, उसी लालसा में शरीर की शक्तियाँ नियोजित हो जाती हैं। पहले भावनाएँ मन में आती हैं। फिर जब उन भावनाओं पर चित्त एकाग्र होता है, तब यह एकाग्रता एक चुम्बक शक्ति, आकर्षण तत्त्व के रूप में प्रकट होती है और अपने अभीष्ट तत्त्वों को अखिल आकाश में से खींच लाती है। ध्यान का यही विज्ञान है।

इस विज्ञान के आधार पर, प्रकृति के अन्तराल में निवास करने वाली सूक्ष्म आद्यशक्ति ब्रह्मस्फुरणा गायत्री को अपनी ओर आकर्षित किया जा सकता है; उसके शक्ति भण्डार को प्रचुर मात्रा में अपने अन्दर धारण किया जा सकता है। जप के समय अथवा किसी अन्य सुविधा के समय में नित्य गायत्री का ध्यान किया जाना चाहिये। एकान्त, कोलाहल रहित, शान्त वातावरण के स्थान में स्थिर चित्त होकर ध्यान के लिये बैठना चाहिये। शरीर शिथिल रहे। यदि जप काल में ध्यान किया जा रहा है, तब तो पालथी मारकर, मेरुदण्ड सीधा रखकर ध्यान करना उचित है। यदि अलग समय में करना हो, तो आरामकुर्सी पर लेटकर या मसनद, दीवार, वृक्ष आदि का सहारा लेकर साधना करनी चाहिये। शरीर बिलकुल शिथिल कर दिया जाय, इतना शिथिल मानो देह निर्जीव हो गयी। इस स्थिति में नेत्र बन्द करके दोनों हाथों को गोदी में रखकर ऐसा ध्यान करना चाहिये कि ‘‘इस संसार में सर्वत्र केवल नीला आकाश है, उसमें कहीं कोई वस्तु नहीं है।’’ प्रलयकाल में जैसी स्थिति होती है,

आकाश के अतिरिक्त और कुछ नहीं रह जाता, वैसी स्थिति का कल्पना चित्र मन में भली भाँति अंकित करना चाहिए। जब यह कल्पना चित्र भावना- लोक में भली- भाँति अंकित हो जाए, तो सुदूर आकाश में एक छोटे ज्योति- पिण्ड को सूक्ष्म नेत्रों से देखना चाहिए। सूर्य के समान प्रकाशवान् एक छोटे नक्षत्र के रूप में गायत्री का ध्यान करना चाहिये। यह ज्योति- पिण्ड अधिक समय तक ध्यान रखने पर समीप आता है, बड़ा होता जाता है और तेज अधिक प्रखर हो जाता है। चन्द्रमा या सूर्य के मध्य भाग में ध्यानपूर्वक देखा जाए, तो उसमें काले- काले धब्बे दिखाई पड़ते हैं, इसी प्रकार उस गायत्री तेज- पिण्ड में ध्यानपूर्वक देखने से आरम्भ में भगवती गायत्री की धुँधली- सी प्रतिमा दृष्टिगोचर होती है। धीरे- धीरे ध्यान करने वाले को यह मूर्ति अधिक स्पष्ट, अधिक स्वच्छ, अधिक चैतन्य, हँसती, बोलती, चेष्टा करती, संकेत करती तथा भाव प्रकट करती हुई दिखाई पड़ती है। हमारी इस गायत्री महाविज्ञान पुस्तक में भगवती गायत्री का चित्र दिया हुआ है।

ध्यान आरम्भ करने से पूर्व उस चित्र का कई बार बड़े प्रेम से, गौर से भली- भाँति अंग- प्रत्यंगों का निरीक्षण करके उस मूर्ति को मन:क्षेत्र में इसी प्रकार बिठाना चाहिये कि ज्योति- पिण्ड में ठीक वैसी ही प्रतिमा की झाँकी होने लगे। थोड़े दिनों में यह तेजोमण्डल से आवेष्टित भगवती गायत्री की छवि अत्यन्त सुन्दर, अत्यन्त हृदयग्राही रूप में ध्यानावस्था में दृष्टिगोचर होने लगती है। जैसे सूर्य की किरणें धूप में बैठे हुए मनुष्य के ऊपर पड़ती हैं और वह किरणों की उष्णता को प्रत्यक्ष अनुभव करता है, वैसे ही यह ज्योति पिण्ड जब समीप आने लगता है, तो ऐसा अनुभव होता है मानो कोई दिव्य प्रकाश अपने मस्तिष्क में, अन्त:करण और शरीर के रोम- रोम में प्रवेश करके अपना अधिकार जमा रहा है। जैसे अग्रि में पडऩे से लोहा भी धीरे- धीरे गरम और लाल रंग का अग्रिवर्ण हो जाता है, वैसे ही जब गायत्री माता के तेज को ध्यानावस्था में साधक अपने अन्दर धारण करता है, तो वही सच्चिदानन्द स्वरूप, ऋषिकल्प होकर ब्रह्मतेज से झिलमिलाने लगता है। उसे अपना सम्पूर्ण शरीर तप्त स्वर्ण की भाँति रक्तवर्ण अनुभव होता है और अन्त:करण में एक अलौकिक दिव्य रूप का प्रकाश सूर्य के समान प्रकाशित हुआ दिखता है।

इस तेज संस्थान में आत्मा के ऊपर चढ़े हुए अपने कलुष- कषाय जल- जल कर भस्म हो जाते हैं और साधक अपने को ब्रह्मस्वरूप, निर्मल, निर्भय, निष्पाप, निरासक्त अनुभव करता है। इस ‘तेज धारण’ ध्यान में कई बार रंग- बिरंगे प्रकाश दिखाई पड़ते हैं, कई बार प्रकाश में छोटे- मोटे रंग- बिरंगे तारे प्रकट होते, जगमगाते और छिपते दिखाई पड़ते हैं। ये एक दिशा से दूसरी दिशा की ओर चलते हैं तथा उलटे वापस लौट पड़ते हैं। कई बार चक्राकार एवं बाण की तरह तेजी से इस दिशा में चलते हुए छोटे- मोटे प्रकाश खण्ड दिखाई पड़ते हैं। यह सब प्रसन्नता देने वाले चिह्न हैं। अन्तरात्मा में गायत्री शक्ति की वृद्धि होने से छोटी- छोटी अनेकों शक्तियाँ एवं गुणावलियाँ विकसित होती हैं, वे ही ऐसे छोटे- छोटेरंग- बिरंगे प्रकाश पिण्डों के रूप में परिलक्षित होती हैं। जब साधना अधिक प्रगाढ़, पुष्ट और परिपक्व हो जाती है, तो मस्तिष्क के मध्य भाग या हृदय स्थान पर वही गायत्री तेज स्थिर हो जाता है। यही सिद्धावस्था है। जब वह तेज बाह्य आकाश से खिंचकर अपने अन्दर स्थिर हो जाता है, तो ऐसी स्थिति हो जाती है, जैसे अपना शरीर और गायत्री का प्राण एक ही स्थान पर सम्मिलित हो गये हों। भूत- प्रेत का आवेश शरीर में बढ़ जाने पर मनुष्य उस प्रेतात्मा की इच्छानुसार काम करता है, वैसे ही गायत्री शक्ति का आधान अपने अन्दर हो जाने से साधक विचार, कार्य, आचरण, मनोभाव, रुचि, इच्छा आकांक्षा एवं ध्येय में परमार्थ प्रधान रहता है। इससे मनुष्यत्व में से पशुता घटती जाती है और देवत्व की मात्रा बढ़ती जाती है।

उपर्युक्त ध्यान गायत्री का सर्वोत्तम ध्यान है। जब गायत्री तेज- पिण्ड की किरणें अपने ऊपर पडऩे की ध्यान- भावना की जा रही हो, तब यह भी अनुभव करना चाहिये कि ये किरणें सद्बुद्धि, सात्त्विकता एवं सशक्तता को उसी प्रकार हमारे ऊपर डाल रही हैं, जिस प्रकार कि सूर्य की किरणें गर्मी तथा गतिशीलता प्रदान करती हैं। इस ध्यान से उठते ही साधक अनुभव करता है कि उसके मस्तिष्क में सद्बुद्धि, अन्त:करण में सात्त्विकता तथा शरीर में सक्रियता की मात्रा बढ़ गयी है। यह वृद्धि यदि थोड़ी- थोड़ी करके भी नित्य होती रहे, तो धीरे- धीरे कुछ ही समय में वह बड़ी मात्रा में एकत्रित हो जाती है, जिससे साधक ब्रह्मतेज का एक बड़ा भण्डार बन जाता है। ब्रह्मतेज तो दर्शनी हुण्डी है, जिसे श्रेय व प्रेय दोनों में से किसी भी बैंक में भुनाया जा सकता है और उसके बदले में दैवी या सांसारिक सुख कोई भी वस्तु प्राप्त की जा सकती है।
<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118