गायत्री महाविज्ञान

निष्काम साधना का तत्त्व ज्ञान

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गायत्री की साधना चाहे निष्काम भाव से की जाए, चाहे सकाम भाव से, पर उसका फल अवश्य मिलता है। भोजन चाहे सकाम भाव से किया जाए, चाहे निष्काम भाव से, उससे भूख शान्त होने और रक्त बनने का परिणाम अवश्य होगा। गीता आदि सतशास्त्रों में निष्काम कर्म करने पर इसलिये जोर दिया गया है कि उचित रीति से सत्कर्म करने पर भी यह निश्चित नहीं कि हम जो फल चाहते हैं, वह निश्चित रूप से मिल ही जायेगा। कई बार ऐसा देखा गया है कि पूरी सावधानी और तत्परता से करने पर भी वह काम पूरा नहीं होता, जिसकी इच्छा से यह सब किया गया था। ऐसी असफलता के अवसर पर साधक खिन्न, निराश, अश्रद्धालु न हो जाए और श्रेष्ठ साधना मार्ग से उदासीन न हो जाए, इसलिये शास्त्रकारों ने निष्काम कर्म को, निष्काम साधना को अधिक श्रेष्ठ माना है और इसी पर अधिक जोर दिया है।

इसका अर्थ यह नहीं है कि साधना का श्रम निरर्थक चला जाता है या साधना प्रणाली ही सन्दिग्ध है। उसकी प्रामाणिकता और विश्वसनीयता में सन्देह करने की तनिक भी गुंजायश नहीं है। इस दिशा में किये गये प्रयत्न का एक क्षण भी निरर्थक नहीं जाता। आज तक जिनने भी इस दिशा में कदम बढ़ाये हैं, उन्हें अपने श्रम का भरपूर प्रतिफल अवश्य मिला है। केवल एक अड़चन है कि सदा अभीष्ट- मनोवाञ्छा पूर्ण हो जाए, यह सुनिश्चित नहीं है। कारण यह है कि प्रारब्ध कर्मों का परिपाक होकर जो प्रारब्ध बन चुकी है, उन कर्म- रेखाओं का मिटना कठिन होता है। यह रेखाएँ कई बार तो साधारण होती हैं और प्रयत्न करने से उनमें हेर- फेर हो जाता है, पर कई बार वे भोग इतने प्रबल और सुनिश्चित होते हैं कि उनका टालना संभव नहीं होता। ऐसे कठिन प्रारब्धों के बन्धन में बड़े- बड़ों को बँधना और उनकी यातनाओं को भुगतना पड़ा है।

राम का वन गमन, सीता का परित्याग, कृष्ण का व्याध के बाण से आहत होकर स्वर्ग सिधारना, हरिश्चन्द्र का स्त्री- पुत्रों तक को बेचना, नल द्वारा दमयन्ती का परित्याग, पाण्डवों का हिमालय में गलना, शब्दवेधी पृथ्वीराज का म्लेच्छों द्वारा बन्दी होकर मरना जैसी असंख्य घटनाएँ इतिहास में ऐसी आती हैं, जिनसे आश्चर्य होता है कि ऐसे लोगों पर ऐसी आपत्तियाँ किस कारण आ गयीं? इसके विपरीत ऐसी घटनायें हैं कि तुच्छ, साधनहीन और विपन्न परिस्थितियों के लोगों ने बड़े- बड़े पद पर ऐश्वर्य पाये, जिन्हें देखकर आश्चर्य होता है कि दैवी सहायता से वह तुच्छ मनुष्य इतना उत्कर्ष प्राप्त करके बिना श्रम के समर्थ हो गये। ऐसी घटनाओं का समाधान प्रारब्ध के भले- बुरे भोगों की अमिटता के आधार पर ही होता है। जो होनहार है सो होकर रहता है, प्रयत्न करने पर भी उसका टालना सम्भव नहीं होता।

यहाँ यह सन्देह उत्पन्न हो सकता है कि प्रारब्ध ही प्रबल है, तो प्रयत्न करने से क्या लाभ? ऐसा सन्देह करने वाले को समझना चाहिए कि जीवन के सभी कार्य प्रारब्ध पर निर्भर नहीं होते। कुछ विशेष भवितव्यताएँ ही ऐसी होती हैं जो टल न सकें। जीवन का अधिकांश भाग ऐसा होता है जिसमें तात्कालिक कर्मों का फल प्राप्त होता रहता है, क्रिया का परिणाम अधिकतर हाथों- हाथ मिल जाता है। पर कभी- कभी उनमें ऐसे अपवाद आते रहते हैं कि भला करते बुरा होता है और बुरा करते भलाई हो जाती है; कठोर परिश्रमी और चतुर व्यक्ति घाटे में रहते हैं और मूर्ख तथा आलसी अनायास लाभ से लाभान्वित हो जाते हैं। ऐसे अपवाद सदा नहीं होते, कभी- कभी ही देखे जाते हैं। यदि ऐसी औंधी- सीधी घटनायें रोज घटित हों, तब तो संसार की सारी व्यवस्था ही बिगड़ जाए, कर्त्तव्य मार्ग ही नष्ट हो जाए। कर्म और फल का बन्धन यदि न दीख पड़ेगा, तो लोग कर्त्तव्य के कष्टसाध्य मार्ग को छोडक़र जब जैसे भी बन पड़े, वैसे प्रयोजन सिद्ध करने या भाग्य के भरोसे बैठे रहने की नीति अपना लेंगे और संसार में घोर अव्यवस्था फैल जाएगी। ऐसी उलटबाँसी सदा ही नहीं हो सकती, केवल कभी- कभी ही ऐसे अपवाद देखने में आते हैं। गायत्री की सकाम साधना जहाँ अधिकतर अभीष्ट प्रयोजन में सफलता प्रदान करती है, वहाँ कभी- कभी ऐसा भी होता है कि वैसा न हो, प्रयत्न निष्फल दीख पड़े या विपरीत परिणाम हों। ऐसे अवसरों पर अकाट्य प्रारब्ध की प्रबलता ही समझनी चाहिये।

अभीष्ट फल न भी मिले, तो भी गायत्री साधना का श्रम खाली नहीं जाता। उससे दूसरे प्रकार के लाभ तो अवश्य प्राप्त हो जाते हैं। जैसे कोई नवयुवक किसी नवयुवक को कुश्ती में पछाडऩे के लिये व्यायाम और पौष्टिक भोजन द्वारा अपने शरीर को सुदृढ़ बनाने की उत्साहपूर्वक तैयारी करता है। पूरी तैयारी के बाद भी कदाचित् वह कुश्ती पछाडऩे में असफल रहता है, तो ऐसा नहीं समझना चाहिए कि उसकी तैयारी निरर्थक चली गयी। वह तो अपना लाभ दिखायेगा ही। शरीर की सुदृढ़ता, चेहरे की कान्ति, अंगों की सुडौलता, फेफड़ों की मजबूती, बल- वीर्य की अधिकता, निरोगिता, दीर्घ जीवन, कार्यक्षमता, बलवान् सन्तान आदि अनेकों लाभ उस बढ़ी हुई तन्दुरुस्ती से प्राप्त होकर रहेंगे।

कुश्ती की सफलता से वञ्चित रहना पड़ा ठीक है, पर शरीर की बल वृद्धि द्वारा प्राप्त होने वाले अन्य लाभों से उसे कोई वञ्चित नहीं कर सकता। गायत्री साधक अपने काम्य प्रयोजन में सफल न हो सके, तो भी उसे अन्य अनेकों मार्गों से ऐसे लाभ मिलेंगे, जिनकी आशा बिना साधना के नहीं की जा सकती थी।

मनुष्य ऐसी कामना भी करता है, जो उसे अपने लिये लाभान्वित एवं आवश्यक प्रतीत होती है, पर ईश्वरीय दृष्टि में वह कामना उसके लिये अनावश्यक एवं हानिकारक होती है। ऐसी कामनाओं को प्रभु पूरा नहीं करते। बालक अनेकों चीजें माँगता रहता है, पर माता जानती है कि उसे क्या दिया जाना चाहिये, क्या नहीं? बालक के रोने- चिल्लाने पर भी माता ध्यान नहीं देती और उस वस्तु से उसे वंचित ही रखती है जो उसके लिये उपयोगी नहीं। रोगियों के आग्रह भी ऐसे ही होते हैं। कुपथ्य करने के लिए अक्सर माँग किया करते हैं, पर चतुर परिचारक उसकी माँग को पूरा नहीं करते, क्योंकि वे देखते हैं कि इसमें रोगी के प्राणों को खतरा है। बालक या रोगी अपनी माँग के उचित होने में कोई सन्देह नहीं करते। वे समझते हैं कि उनकी माँग उचित, आवश्यक एवं निर्दोष है। इतना होने पर भी वस्तुत: उनका दृष्टिकोण गलत होता है। गायत्री साधकों में बहुत से लोग बालक और रोगी बुद्धि के हो सकते हैं।

अपनी दृष्टि से उनकी कामना उचित है, पर ईश्वर ही जानता है कि किस प्राणी के लिये क्या वस्तु उपयोगी है? वह अपने पुत्रों को उनकी योग्यता, स्थिति, आवश्यकता के अनुकूल ही देता है। असफल गायत्री साधकों में से सम्भव है कि किन्हीं को बाल- बुद्धि की याचना के कारण ही असफल होना पड़ा हो।
माता अपने बच्चे को मिठाई और खिलौने देकर दुलार करती है और किसी को अस्पताल में ऑपरेशन की कठोर पीड़ा दिलाने ले जाती एवं कड़वी दवा पिलाती है। बालक इस व्यवहार को माता का पक्षपात, अन्याय, निर्दयता या जो चाहे कह सकता है, पर माता का हृदय को खोलकर देखा जाए, तो उसके अंत:करण में दोनों बालकों के लिए समान प्यार होता है। बालक जिस कार्य को अपने साथ अन्याय या शत्रुता समझता है, माता की दृष्टि में दुलार का वही सर्वश्रेष्ठ प्रमाण है। हमारी असफलतायें, हानियाँ तथा यातनायें भी कई बार हमारे लाभ के लिए होती हैं। माता हमारी भारी आपत्तियों को उस छोटे कष्ट द्वारा निकाल देना चाहती है। उसकी दृष्टि विशाल है, उसका हृदय बुद्धिमत्तापूर्ण है, क्योंकि उसी में हमारा हित समाया हुआ होता है। दु:ख, दारिद्र्य, रोग, हानि, क्लेश, अपमान, शोक, वियोग आदि देकर भी वह हमारे ऊपर अपनी महती कृपा का प्रदर्शन करती है। इन कड़वी दवाओं को पिलाकर वह हमारे अन्दर छिपी हुई भयंकर व्याधियों का शमन करके भविष्य के लिये पूर्ण नीरोग बनाने में लगी रहती है। यदि ऐसा अवसर आये, तो गायत्री साधकों को अपना धैर्य न छोडऩा चाहिये और न निराश होना चाहिये, क्योंकि जो माता की गोद में अपने को डालकर निश्चिन्त हो चुका है, वह घाटे में नहीं रहता। निष्काम भावना से साधना करने वाला भी सकाम साधना करने वालों से कम लाभ में नहीं रहता। माता से यह छिपा नहीं है कि उसके पुत्र को वस्तुत: किस वस्तु की आवश्यकता है। जो आवश्यकता उसकी दृष्टि में उचित है, उससे वह अपने किसी बालक को वञ्चित नहीं रहने देती।

अच्छा हो हम निष्काम साधना करें और चुपचाप देखते रहें कि हमारे जीवन के प्रत्येक क्षण में वह आद्यशक्ति किस प्रकार सहायता कर रही है। श्रद्धा और विश्वास के साथ जिसने माता का आश्रय लिया है, वह अपने सिर पर एक दैवी छत्रछाया का अस्तित्व प्रतिक्षण अनुभव करेगा और अपनी उचित आवश्यकताओं से कभी वञ्चित नहीं रहेगा। यह मान्य तथ्य है कि कभी किसी की गायत्री साधना निष्फल नहीं जाती।
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